वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 137
From जैनकोष
तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दट्ठूण जो दु दुहिदमणो ।
पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा ।।137।।
अनुकंपा का स्वरूप―प्यासे, भूखे दु:खी प्राणी को देखकर स्वयं दुःखित मन होता हुआ जो कृपा से उनका दुःख दूर करने की क्रिया को करता है उस पुरुष के यह अनुकंपा कहलाती है । किसी जीव को निरखा कि यह तीव्र तृषा से व्याकुल हैं अथवा तीव्र रोग से पीड़ित है उसको देखकर अज्ञानी जीव तो किसी भी उपाय से उसकी इस वर्तमान पीड़ा को दूर करने का प्रतिकार करते हैं और यह अज्ञानी जीव स्वयं व्याकुल होकर अनुकंपा किया करता है । यह तो अज्ञानी जीवों की दया करने की पद्धति है । किंतु ज्ञानी जीव जब निज तत्व की भावना में नहीं बैठे हुए हैं उस समय दूसरे जीवों को देखकर दया तो करते हैं, पर उस दया की पद्धति में एक विशेषता है । स्वयं दुःखी होकर दया नहीं करते, संक्लेश करके दया नहीं करते, किंतु संक्लेश का परित्याग करते हुए यथासंभव प्रतिकार करते हैं और उस प्रतिकार में मूल में यह भावना रहती है कि यह जीव क्षुधा, तृषा, रोग आदि दोषों से रहित अमूर्त ज्ञानानंदमात्र निजस्वरूप तक दृष्टि पहुंचा ले तो इस औषधि के प्रताप से इसके ये सारे संकट सदा के लिए समाप्त हो जायें । इस प्रकार ज्ञानी जीव मूल से दया करता है ।
ज्ञानी जीव के अनुकंपापरिणाम―ज्ञानी जीव उन दुःखी जीवों को देखकर विशेषरूप से सम्वेग और वैराग्य की भावना को करता है । देखिये जिसके पास परिग्रह है, घर द्वार है, ऐसा ज्ञानी जीव भी मूल में उस प्रकार की भावना करता है और उसकी वर्तमान वेदना मिटाने के लिए जलपान कराना भोजन वस्त्र आदिक देना इन उपायों को भी करता है और जिसके परिग्रह नहीं है, गात्र मात्र ही जिसका परिग्रह रह गया है, ऐसा साधु क्या रोटी बनाकर उसे खिलाने लगेगा? किस प्रकार से उसका दुःख मेटेगा? शारीरिक सेवा कुछ कर सकता है । ज्ञानी संत पुरुषों की दया में मोक्षमार्ग की भावना की प्रधानता रहा करती है और वे ज्ञान औषधि से दूसरों के दुःख को दूर करने का यत्न करते हैं ।
वेदना और चिकित्सा―इस जीव में वेदना दो पद्धतियों से आया करती है । एक तो शारीरिक वेदना की पद्धति से और एक मानसिक चिंता की पद्धति से । जब शारीरिक रोग की पद्धति से भी इस जीव के वेदना आती है तो उसमें भी मानसिक चिंता की वृत्ति बनी रहा करती है । केवल शरीर की ही वेदना हो, मन का उसमें कुछ सहयोग न हो, ऐसा हम आप संज्ञी जीवों के नहीं होता, असंज्ञी जीवों के संज्ञा के कारण होता है तो वे उपदेश के पात्र भी नहीं हैं ।मन ही नहीं है तो उन्हें कौन उपदेश देने लगेगा? क्या किसी को यों देखा कि भाई इस सभा में थोड़े आदमी आते हैं इनको क्या उपदेश दें? जहाँ बहुत से जीव हों वहाँ चलें तो जंगल में किसी जगह लाखों और करोड़ों चींटी फैल रही हों एक जगह, वहाँ बैठ जाय और उन्हें उपदेश देने लगे, सभा में तो 100-50 ही आदमी आते हैं, यहाँ लाखों जीव हैं, इन्हें उपदेश दे, ऐसा तो कोई नहीं करता । तो ये संज्ञी जीव जो शारीरिक वेदना से त्रस्त हैं उनके भी मानसिक चिंता का सहयोग है, और उससे वह वेदना कई गुनी हो गई है उस समय दोनों प्रकार की औषधियों की जरूरत है । शारीरिक रोग को मिटाने की आयुर्वेदिक औषधि और सम्वेग वैराग्य ज्ञानप्रकाश जैसे जगे उस प्रकार से वचन कहने की भी जरूरत है । तो साधु जन उस औषधि को किया करते हैं जो औषधि गृहस्थों के वश की नहीं है, ऐसी औषधि से दुःखी जीवों का दुख दूर करते हैं । भूख, प्यास, रोग की वेदना को थोड़ी देर को कोई आयुर्वेदिक उपचार से शमन कर ले तो वह कुछ देर बाद फिर वेदना खड़ी हो जाती है, किंतु यह अध्यात्म चिकित्सा एक ऐसी मौलिक चिकित्सा है कि जिसके प्रसाद से अनंतकाल के लिए भी कभी यह रोग आ ही नहीं सकता, क्योंकि उस चिकित्सा से रोग का आधार उपाधि का संग ही नहीं रहा, ऐसी परिस्थिति हो जाती है ।
अनुकंपा के उद्भव में स्थिति―भैया ! दया का भाव जब भी किसी के प्रकट होता है तो उसमें कुछ खेद आये बिना होता ही नहीं । अज्ञानी जीव अति व्याकुल होकर, खेदखिन्न होकर दया का परिणाम करते हैं तो ज्ञानी जीव के कभी कुछ थोड़ा खेद होता है और वह भी एक अध्यात्मपद्धति के अवरोध के चिंतन पूर्वक होता है, पर दया खेद बिना नहीं हुआ करती । जब तक दया करने वाले के चित्त में स्वयं दूसरे दुःखी के दुःख के अनुरूप किसी अंश में दुःख न जगे तब तक यह कैसे प्रतिकार करेगा? ठंड के दिनों में भिखारी लोग रात्रि के 4-5 बजे जब विकट तेज ठंड होती है तब बिना कपड़ों के खुले तन से बड़े कार्त स्वर से चिल्लाकर धनिकों से प्रार्थना करते हैं और उस समय ठंड से घबराये हुए रजाई के बीच पड़े हुए इस गृहस्थ को उनके दुःख का जब स्मरण होता है तो चित्त व्यग्र हो जाता है । हाय ! ऐसी ठंड में ये इस तरह से दुःखी होकर चिल्ला रहे हैं । जब इसके चित्त में वेदना जगी तब रजाई आदिक देकर उनका दुःख दूर करने का यत्न करते हैं ।
साधु जनों का अनुकंपापरिणाम―संसारी जीवों के इन रोगादिक की वेदनावों में उनकी व्यग्रता निरखकर साधु जनों के चित्त में यह बात समा जाती है कि अहो ! देखो तो कैसा तो इनका सहज ज्ञानानंदस्वरूप है और उस स्वरूप का उपयोग न कर के एक बाह्य उपयोग बनाकर कितने तीव्र व्यग्र हो रहे हैं ये प्राणी । इस तरह निहारकर चूंकि ये साधु भी उस समय अपने स्वरूप में मग्न नहीं हैं तो अपने स्वरूप की अमग्नता के कारण और उसके स्वरूप की बेहोशी का ध्यान करने के कारण थोड़ा इन साधुवों के चित्त में भी खेद उत्पन्न होता है, जिस खेद से पीड़ित होकर दुःखी जीवों को सम्वेग और वैराग्य ज्ञानप्रकाश जैसे उत्पन्न हो उस प्रकार उपदेश देने का यत्न करते हैं । इस प्रकार होती है ज्ञानियों के द्वारा की हुई अनुकंपा । यह सब अनुकंपा का भाव पुण्यकर्म के आस्रव का कारण है । इस प्रकार पुण्यास्रव के प्रकरण में अनुकंपा भाव का स्वरूप कहा गया है ।