वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 145
From जैनकोष
जो संवरेण जुत्तो अप्पट्ठपसाधगो हि अप्पाणं ।
मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं ।।145।।
कर्मसंधुनन―जो पुरुष सम्वर भाव से सहित होकर आत्मार्थ का साधक होता है, आत्मा का प्रयोजन है स्वभावविकास, उसका जो साधन हारा होता है वह पुरुष निश्चय से शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्मा को जानकर सदा इस ही ज्ञायकस्वरूप का ही ध्याता रहता है । ऐसा ही पुरुष कर्मरूप धूल को उड़ा देता है । संवर नाम है शुभ और अशुभ परिणामों का पूर्णतया निरोध होना । शुभ ओर अशुभ परिणाम दोनों ही आस्रव के कारण हैं, आस्रव के अत्यंत निरोध होने का नाम संवर है, अत: ऐसा परिणाम होना जो केवल शुद्ध ज्ञायकस्वरूप ही रहा करे, रंग और तरंग जहाँ उत्पन्न न हों, कषाय और योग जहाँ उद्दंड न हों, ऐसे उस धीर परिणाम का नाम है संवर । उस संवरभाव को करके जिसने वस्तु के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान कर लिया है ऐसा ज्ञानी पुरुष जब परपदार्थ विषयक, प्रयोजन से अथवा अन्य प्रयोजनों से अपनी बुद्धि को हटा लेता है और इस प्रकार आत्मा के प्रयोजन की साधना में ही जिसका मन उद्यमी रहता है वह पुरुष आत्मा को आत्मा के ही द्वारा प्राप्त करके इस ही आत्मा को अभेदरूप से चैतन्यस्वरूपमात्र ध्यान करता है, एक अविचलित मन होकर अपनी ही इस विशुद्ध परिणति का स्वभावमात्र अनुभव करता है उस समय यह जीव स्नेह से अत्यंत रहित हो जाता है, और वह कर्मरज को उड़ा देता है ।
क्लेश का कारण―जीवों को क्लेश का कारण स्नेहभाव है । किसी भी विषय का स्नेह हो, वे सारे स्नेह दो भागों में विभक्त हैं । एक तो विषयसाधना का स्नेह और एक लोक में अपने नाम का स्नेह, यश का स्नेह । अर्थात् इंद्रिय विषयों का स्नेह और मनोविषय का स्नेह । यों ये स्नेह ही इस जीव को क्लेश के कारण हैं । जब कभी कोई उपद्रव की घटना होती है उस काल में जो घबड़ाहट है वह घबड़ाहट किस बात की है? स्नेह के विषयभूत विषय अथवा लोकयश इन दोनों का विघटन देखकर या विघटन की संभावना निरखकर इसे क्लेश उत्पन्न होता है । हे आत्मन् ! अनादिकाल से इस जगत् में भ्रमण करते हुए कितने ही तो विषयों के साधन बनाये होंगे और कितनी ही मन की बहुत दौड़ मचाई होगी, जब वे भी नहीं रहे । बड़े-बड़े वैभव राजपाट और बड़े देवेंद्र आदिक के पद वे भी जब नहीं रहे तो आज का यह तुच्छ वैभव, छोटासा क्षेत्र और यह छोटासा समय, इसमें क्या अपना उपयोग फंसाये हो? इतनासा ही उपयोग का फँसाव मिटा दो और सबसे न्यारे अपने आपमें अपने आपको निरखकर केवल अपने आपका ही आपा बन जाओ तो अनंत काल के लिए संकट समाप्त हो जाने का उपाय पा लोगे ।
क्लेशकर्मसंधुनन का प्रयोग―यह आत्मा स्वयं-स्वयं की ओर झुके, स्वयं का यथार्थ-स्वरूप जाने, स्वयं में मग्न हो तो समस्त संकट इसके समाप्त हो जाते हैं । और उस समय उत्पन्न होने वाला जो अद्भुत आनंद है उसमें यह सामर्थ्य प्रकट होती है कि बड़े से बड़े तीव्र कर्मईंधन को भी यह चैतन्यप्रतपन जला देता, नष्ट कर देता । कर्मनिर्जरा कैसे होती है उसके उपाय में यह कहा जा रहा है कि रागद्वेष परिणामों का निरोध करके केवल ज्ञायकस्वरूप निजआत्मतत्त्व को निरख । इस निर्जरा तत्त्व के प्रकरण में कर्मनिर्जरा का हेतुभूत जो यह विशुद्ध ध्यान है उस ध्यान की मुख्यता से दृष्टि दिलाई गयी है ।
अज्ञानकृत बिगाड़―भैया ! शुभ अशुभ रागादिक ही तो हैं आस्रव । इस जीव को क्लेश के कारण तो शुभराग अथवा अशुभ राग हैं । होता क्या है? यह आत्मा जहाँ है, जिस प्रदेश में है वह वहाँ है । अब वहाँ से यह उपयोग द्वारा हट करके बाहर भगना चाहता है । जहाँ इसकी ऐसी बहिर्मुखी वृत्ति होती है वहाँ ही इस जीव पर संकट आ जाता है । यह अपने इस दृढ स्वरूपदुर्ग में रहे तो इसे कोई तकलीफ नहीं है, पर अपने स्वरूप से हटकर ज्यों ही यह बाहर की ओर दौड़ता है इस पर सारे संकट छा जाते हैं । क्या अटकी थी इस जीव की जो अपने स्वरूप से च्युत होकर किन्हीं । परजीवों को, पर चीजों को यह अपना मानता है । किसी परजीव को अपना मानने से कोई इसमें सुधार होता है, शांति होती हैं, संतोष होता है क्या? प्रत्युत असंतोष अशांति और बिगाड़ होता है । लेकिन कषाय विष्ट प्राणी अपनी बिगाड़ को भी नहीं देखते । जैसे क्रोधी पुरुष अपने आपकी बिगाड़ को भी नहीं निरखता किंतु क्रोध में जो चित्तवृत्ति बन जाती है उसके माफिक अपनी प्रवृत्ति करता है, ऐसे ही संसार के सभी प्राणी जिन प्रवृत्तियों से इसकी बरबादी हो रही है उन्हीं प्रवृत्तियों को यह अपनाता जा रहा है ।
हेय उपादेय के निर्णय का परिणाम―जब शुभ अशुभ भाव का निरोध हो तब इस जीव को कल्याणमार्ग मिलता है । ज्ञानी पुरुष हेय और उपादेय तत्त्व का भली प्रकार निर्णय रखता है । चाहे किसी परिस्थिति में हेय तत्त्व में भी लिपटे हो फिर भी यह हेय ही है, ऐसी दृढ़ श्रद्धा रहा करती है । आत्मा का जो हित है वह उपादेय है और परवस्तुविषयक प्रयोजन है अथवा पर प्रयोजन है वह सब हेय है । यह ज्ञानी पुरुष पर प्रयोजन से दूर हटकर शुद्ध आत्मा का अनुभवरूप केवल निज कर्म का साधने वाला होता है । सर्व पुरुषार्थ करके एक अपने आपको ऐसे अनुभव में लगा दो कि यह मैं आत्मा अमूर्त केवल ज्ञानानंदप्रकाश मात्र हूँ, केवलज्ञानस्वरूप हूँ―इस अनुभव से ऐसा बल प्रकट होगा कि बड़े से बड़े सांसारिक बिगाड़ों में भी यह आकुलित न होगा । जैसे किसी दूसरे देश का बिगाड़ होने पर इस देश वाले प्राय: विह्वल तो नहीं होते, जैसे अन्य नगर, अन्य पुरुष का, अन्य पड़ोसी का कुछ बिगाड़ होने पर यह अंतर में विह्वल तो नहीं होता । ऐसे ही समझ लीजिये कि जिसके श्रद्धा में यह है कि ये तो दूसरों की चीजें हैं, जिस ज्ञानी के यह देह भी दूसरे की चीज है, अन्य चीज है ऐसा स्पष्ट निर्णय है उस ज्ञानी का, इस देह के वियोग के समय, मरण के समय भी विह्वलता नहीं हो सकती है । विह्वलता तब है जब परपदार्थों में स्नेह लगा हुआ हो।
ज्ञानी की निरख―यह ज्ञानी पुरुष आत्मस्वरूप के अतिरिक्त अन्य पदार्थों से उपयोग हटाकर केवल एक अपने आपके स्वरूप में उपयोग को जोड़ता है । यह समस्त आत्मप्रदेशों में निर्विकार नित्यानंदरूप अपने आत्मा को मानता है, रागरहित इस शुद्ध ज्ञानप्रकाश का अनुभव करता है । यह मैं आत्मा केवल प्रतिभासमात्र हूँ । इस मुझ आत्मा का अन्य कुछ नहीं है । यह जीव प्रकट निराला है । इसका सत्त्व, इसके बँधे हुए कर्म, इसके परिणमन मुझ से प्रकट निराले हैं । मैं इस रूप नहीं हूँ, परद्रव्यों से हटकर निर्विकल्प ध्यान के द्वारा यह ज्ञानी पुरुष निश्चल चित्त होकर इस आत्मा को एक अभेद ज्ञानस्वरूप निरखता है और यह इस ज्ञानस्वरूप को निरखने में इतना दृढ़ है कि घोर उपसर्ग भी आ जायें, तो भी उनसे विचलित नहीं होता । कुछ-कुछ तो यहां के लोग भी निरखे जाते हैं कि अमुक से अमुक पुरुष अधिक अविचल चित्त है ।
दृढ़ संकल्प में साहस―कोई उद्देश्य ही ऐसा दृढ़ बनाया है ज्ञानी जीव ने जिसके कारण इसका चित्त अविचल रहता है । कुछ तो निकट काल की ही घटनायें भी सुनने में आई हैं कि आजादी की भावना रखने वाले कुछ क्रांतिकारी लोगों को कैद करके उनकी अंगुलियाँ भी जलाई गयीं कि तुम अपने ग्रुप का भंडाफोर करो, अमुक बात बतावो, लेकिन अंगुली जला लेना उनके लिए कष्टकारक नहीं हुआ एक अपने उद्देश्य को पूर्ति के लिए । फिर भला बतलावो जिन ज्ञानी पुरुषों ने अपना एक यही उद्देश्य बनाया है कि मैं सत्य आनंद प्राप्त करूँ, और वह सत्य शांति मेरे स्वरूप में स्वभाव में है, उस ही स्वभाव को मैं निरखूँ, एक ही मेरा काम है कि अपने आपको केवल ज्ञानस्वरूप निहारता रहूँ । मैं ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा केवल ज्ञानमात्र निहारता रहूँ यही मेरा एक काम है ।
स्वरूपसंवेदन का प्रभाव―स्वरूपस्थता के काम में जो दृढ़ता से लग गए, सुकुमाल, सुकौशल, गजकुमार अनेक महापुरुष वे सभी कैसे अविचल चित्त थे? कैसे कठिन उपसर्ग आये, फिर भी वे स्वरूप रुचि से चलित नहीं हुए । तो कोई बलिष्ट बात तो उनके अंदर थी ही । गजकुमार के सिर पर मिट्टी की बाड़ लगाकर तेज आग लगा दी गई, सिर जलने लगा, मांस नीचे टपकने लगा, इतने पर भी वे गजकुमार जरा भी विचलित नहीं हुए । तब समझ लीजिए कितना बड़ा सारभूत काम उनको करने को पड़ा हुआ था जिसमें इतनी लीनता थी? इतना बड़ा उपसर्ग भी उनके लिए न कुछ हो गया । तो यों ज्ञानी पुरुष जब अविचल चित्त होकर स्नेहरहित होकर शुद्ध स्फटिक स्तंभ के समान अंतर बाह्य निर्मल रहते हैं वे ज्ञानी पुरुष कर्मधूल को उड़ा देते हैं । निर्जरा पदार्थ के व्याख्यान में निर्जरा का मुख्य कारण शुद्ध आत्मा है उसका इस गाथा में वर्णन किया है ।