वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 147
From जैनकोष
जं सुहमसुहमुदिण्णं भावं रत्तो करेदि जदि अप्पा ।
सो तेण हवदि बंधो पोग्गलकम्मेण विविहेण ।।147।।
यह रागी आत्मा शुभ अशुभ भावों को जो कि प्रकट होते हैं कर्म प्रवृत्ति का निमित्त पाकर उन शुभ अशुभ भावों के होने पर यह जीव उस-उस प्रकार से नाना पुद्गल कर्मों से बँध जाता है । इस गाथा में बंध के स्वरूप का आख्यान किया है ।
अशुद्धता का कारण―यह जीव अनादिकाल से रागी चला आया है । इस राग का कारण है किसी दूसरी उपाधि का संबंध । किसी भी पदार्थ में उस पदार्थ के स्वभाव के विरुद्ध कोई काम होगा तो वहाँ नियम से किसी परउपाधि का निमित्त होगा । किसी परउपाधि के संबंध बिना विपरीत कार्य नहीं होता । जीव का स्वभाव शुद्ध ज्ञातादृष्टा रहने का है । ऐसी शुद्धवृत्ति को छोड़कर रंग तरंगरूप जो अशुद्ध वृत्तियां होती हैं उनका कारण कोई न कोई परउपाधि का संबंध है । वह परउपाधि है कर्म । कर्मउपाधि के आश्रय से अनादिकाल से रागी हुआ यह आत्मा कर्मों के उदय के निमित्त से जो-जो भाव उदीर्ण हुए हैं, प्रकट हुए हैं शुभ अथवा अशुभ, उन शुभ अशुभ भावों का निमित्त पाकर यह जीव पुद्गल कर्मों से बँध जाता है ।
त्रिविध बंधन―इस कथन में 3 बातों पर दृष्टि डाली गई है । जो मोह रागद्वेष से स्निग्ध हुआ जो शुभ अशुभ परिणाम है वह तो है जीव का भावबंधन और उस भावबंधन का निमित्त पाकर जो शुभ अशुभ कर्मरूप परिणत होते हैं पुद्गल स्कंध वे हैं द्रव्यबंध । ओर उन पुद्गल कर्मों का जीवप्रदेश के साथ एक क्षेत्रावगाह बंधन हो जाता है उसका नाम है उभय बंध । बंध में इन तीन दृष्टियों को देखिये―अब यहाँ एक और मर्म की बात अन्वेषण करें कि जीव में भाव बंध हुआ । बंधन दो का ख्याल रखकर हुआ करता है । एक में बंध क्या? कोई पदार्थ एक है, अद्वैत है उसका बंधन क्या? बंधन शब्द का अर्थ ही यह है कि दो का विशिष्ट संयोग होना सो बंधन है । एक वस्तु का क्या बंधन है? तब जीव में भाव बंध हम किस प्रकार निरखें? उभय बंध तो सुगम विदित है, यहाँ जीवद्रव्य हैं, यहाँ पुद्गल द्रव्य है, इन दोनों का परस्पर में बंधन हो गया, पर भाव बंध क्या, और द्रव्यबंध क्या? इसके समाधान में प्रथम तो यह निर्णय करें कि केवल एक भाव द्रव्य बंधन ही स्वयं हो ऐसा नहीं है ।
तीनों बंधनों का योग―बंध में तीनों बंध होते हैं―भावबंध भी है, द्रव्यबंध भी है उभयबंध भी है । इनमें से किसी एक को न मानें तो तीनों भी बंधन नहीं बँधते, पर ऐसा होते हुए भी दृष्टि की कला से 3 बातें विज्ञात होती हैं । अब दूसरी बातें भी देखिए―जीव का स्वभाव है शुद्ध चैतन्य । जीव का प्राण है ज्ञान और दर्शन । किसी भी प्रकार हुआ हो, अन्य उपाधि का निमित्त पाकर हुआ है, लेकिन क्या ऐसा देखा नहीं जा सकता कि हम कुछ उपाधि पर दृष्टि न दे और जो उपादान बिगड़ गया है मात्र उसको ही निरखकर निर्णय करें ऐसा किया जा सकता है ना? किया जा सकता है ।
दृष्टांतपूर्वक भावबंधन का प्रदर्शन―जैसे दर्पण―उसके पीछे रहने वाले जो पदार्थ हैं उन सबका प्रतिबिंब आ जाता है । यद्यपि दर्पण में वह प्रतिबिंब परउपाधि का निमित्त पाये बिना आया नहीं है, लेकिन हम पीठ पीछे की उन उपाधियों को ख्याल में न रखकर केवल दर्पण और दर्पण में बीत रही हुई बातों को ही ध्यान में रखकर कुछ निर्णय करें तो क्या कर नहीं सकते? वहाँ यह निर्णय हो रहा है कि दर्पण का स्वभाव तो अतीव स्वच्छता है । अब देखो यहाँ इस दर्पण में उस स्वच्छता का विघात करते हुए दर्पण के ही प्रदेशों में दर्पण के प्रतिबिंबरूप परिणमन होता है और इस समय परिणमन और स्वच्छता―इन दोनों का ऐसा प्रवेश है कि इस प्रतिबिंब के कारण स्वच्छता का विघात है और देखो इस स्थिति में स्वभाव के साथ यह प्रतिबिंब ऐसा बँध गया है कि प्रतिबिंब का तो आविर्भाव है और स्वच्छता का तिरोभाव है । कितना विकट बंधन है कि दोषों का तो प्रसार है और गुणों का तिरोभाव है । ऐसे ही कर्मोदय का निमित्त पाकर जीव में रागद्वेष मोह भाव हुआ है, ठीक है, किंतु दृष्टि की कला यहाँ जब हम एक निश्चय पद्धति से लगाते हैं, हम केवल वर्तमान परिणम रहे इस जीव को निरख रहे हें ।
विभाव का आवरण―हम अपने उपयोग में इस समय परउपाधि को नहीं निरखते हैं और केवल वर्तमान परिणत जीव को ही निहारें तो वहाँ हम को क्या-क्या दिखेगा? यह जीव स्वभावत: चैतन्यस्वरूपमात्र है, किंतु वर्तमान में इस जीव के प्रदेशों में रागादिक भावों का ऐसा प्रसार है जिस प्रसार के कारण रागादिक भावों का तो आविर्भाव है और चैतन्यस्वभाव का शुद्धभाव का स्वभाव. विकास का तिरोभाव हो गया है । यह स्वभाव में विभाव का ऐसा प्रवेश है विलक्षण जो स्वभावरूप न हो विभाव, फिर भी विभाव वहाँ हावी है । एक प्रसार फैला हुआ है । वहाँ स्वभाव में गुणों का ऐसा बंधन बन गया है, यहॉ एक ही पदार्थ में बंधन है ।वस्तुत: किसी भी पदार्थ का विकल्प उस ही पदार्थ की बंध पद्धति से होता है, उसमें निमित्त परउपाधि हुआ करती है । किंतु वह उपाधि अलग खड़ी-खड़ी हँसा करती है । उस उपाधि का उपादान में न गुणरूप से, न पर्यायरूप से प्रवेश है । यों जीव का यह भावबंध है । जीव का यह भावबंध निश्चयदृष्टि से जीव के परिणमन से हुआ है, जीव से हुआ है, जीव के लिए हुआ है और उस बंधनरूप परिणमन में वह जीव स्वतंत्र कर्ता हे ।
द्रव्यबंध―अब यहां द्रव्यबंध की बात देखिये । जो कार्माणवर्गणायें कर्मरूप न थीं उनमें कर्मत्वपरिणमन आया, यही द्रव्यबंध है । यह द्रव्यबंध यद्यपि जीव के रागादिक विभावों का निमित्त पाकर होता है तिस पर भी हम अपनी दृष्टि से, निश्चय कला की पद्धति से प्रयुक्त करें तो हम उपाधिभूत परद्रव्य को न निरखें और यहाँ जो गुजर रहा है उस पर दृष्टि करें । ये कार्माणवर्गणायें ऐसी योग्यता के कारण कार्माण नाम व्यपदेश को प्राप्त होती हैं । कर्मरूप नहीं हैं । कर्मरूप होने से पहिले जैसे अन्य वर्गणायें विशुद्ध हैं ऐसे ही ये कार्माणवर्गणायें विशुद्ध थीं । अब क्या गुजर गया इन वर्गणावों में? एक विलक्षण कर्मत्वपरिणति आ गयी, ज्ञानावरणादिक परिणति पड़ गई, उनके ठहरने की स्थिति बँध गई, अनुभाग आ गया । यह सब इन कर्मों में जो परिणमन होता है इस परिणमनरूप उस द्रव्य में बंध हो गया । यही हुआ द्रव्यबंध ।
कर्मबंधन―अब कुछ इससे आगे और चले तो इस जीव में जो ज्ञानावरणादिक कर्म पहिले से ठहरे हुए हैं उन ज्ञानावरणादिक कर्मों के साथ नवीन कर्मरूप परिणमे हुए द्रव्य का बंधन हो गया है, वह मिल गया है । शरीर 5 माने गए हैं - औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण । कार्माण शरीर और है क्या? कार्माणशरीर के लक्षण में कहीं यह भी बताया है कि कर्मो का जो समूह है उसका नाम कार्माणशरीर है । तब कार्माण शरीर नामकर्म के उदय से हुआ क्या? कर्म तो बंध गये रागद्वेष मोह के कारण और वे इकट्ठे आ गए । अब कार्माणशरीर इससे अलग क्या? तो यों समझियेगा जैसे हम कहें ईंट और भींत । भींत नाम और किस बात का है? जो ईंटों का समूह है उस ही का नाम भींत है । तो यहाँ बिखरी पड़ी हुई ईंटों में और भींत में कुछ अंतर है क्या? उन ईंटों का जम करके एक बोडी बन जाना उसका नाम भीत है । कर्म आते हैं और आने के ही साथ कार्माणशरीर की बोडी में एक रस होकर शरीररूप हो जाया करते हैं । यों पहिले बँधे हुए द्रव्यकर्म के साथ नवीन बंधन वाले द्रव्यकर्म का बंधन हीना यह भी द्रव्यबंध है और उभयबंध तो स्पष्ट है । जीव के प्रदेशों के साथ पुद्गलकर्म का बंधन होना एक क्षेत्रावगाह निमित्तनैमित्तिक रूप बंधन होने का नाम है उभयबंध । इस प्रकार बंध के स्वरूप का वर्णन करते हुए इस गाथा में मुख्य बात यह बतायी है कि आत्मा के शुद्धपरिणमन से विपरीत शुभ अशुभ परिणाम होना भावबंध है । और उन कर्मों का कर्मत्वरूप परिणमन होना द्रव्यबंध है और जीव के प्रदेशों के साथ कार्माणवर्गणाओं का एकमेक अन्योन्यावगाह प्रवेश और निमित्तनैमित्तिक निर्णयरूप बंधन होना, सो उभयबंध है।