वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 152
From जैनकोष
दंसणणाणसमग्गं झाणं णो अण्णदव्वसंजुत्तं ।
जायदि णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साधुस्स ।।152।।
निर्जरा का हेतु―द्रव्यकर्मों से इस जीव को जिस उपाय से मुक्ति मिलती है वह उपाय अभी निकट पूर्व में परम निर्जरा तत्त्व बताया है । उस विशुद्ध निर्जरा का कारण क्या है, उसका आख्यान इस गाथा में किया गया है । द्रव्यकर्म से मुक्ति मिले, इसके उपाय में होने वाली निर्जरा का कारण ध्यान है, जिसमें दर्शन और ज्ञान की समग्रता है, जहाँ परद्रव्यों की चिंता का निरोध है ऐसा यह ध्यान निर्जरा का कारण होता है । यह ध्यान किसके होता है? आत्मस्वभाव के उपयोग में रत रहने वाले साधु पुरुष के यह ध्यान होता है । इस ध्यान में परद्रव्यों का संबंध नहीं है । जब यह भव युक्त भगवान केवली अवस्था को प्राप्त होते हैं तब निजस्वरूप में अपने आपके सहज विश्राम के कारण अद्भुत आनंद जगत। है । उस आनंद के प्रताप से कर्मकलंकों का संधुनन हो जाता है।
आनंद का धाम―इस लोक में अन्यत्र आनंद का नाम भी नहीं है । मोह के वश होकर यह जीव बाह्यपदार्थों के संपर्क में आनंद की कल्पनाएँ करता है । आत्मस्वभाव का स्पर्श हुए बिना जीव को निरंतर क्षोभ ही क्षोभ रहा करता है । कोई क्षोभ हर्ष रूप में प्रकट होता है, कोई क्षोभ विषादरूप में प्रकट होता है । स्वरूप दृष्टि में ही वास्तविक आनंद है । जहाँ पर सुख और दुःख कर्म विधान से होने वाले नाना विभावों का अभाव हो गया है, ऐसी उत्कृष्ट स्थिति में वह परम आनंद प्रकट होता है, जिस आनंद के बल से समस्त आवरणों को प्रक्षीण कर दिया जाता है । तब यह भगवान केवली अनंतज्ञान, अनंतदर्शन अर्थात् संपूर्ण शुद्धज्ञान चेतनास्वरूप हो जाते हैं । अतींद्रिय होने के कारण अन्य द्रव्य के संयोग से रहित उनका केवल स्वरूप विश्रामरूप परिणमन रहता है।
उत्तरोत्तर विकास―सम्यक्त्व उत्पन्न होने से पहिले और होने के बाद से 14वें गुणस्थान पर्यंत ज्ञानी जीवों में अपने-अपने पद में अपने-अपने योग्य ध्यान से परिणमते रहते हैं । प्रथम तो सम्यक्त्व जगने के निकट काल में ऐसा विशुद्ध ध्यान होता है जिससे कर्मों का बोझ इतना दूर हो जाता है कि पहिले के मुकाबले में अब एक दो प्रतिशत भी कर्मभार नही रहता है । अनंत, संसार जहाँ कट जाता है, ऐसे सम्यक्त्व परिणाम में बहुत निर्जरा चलती है । उसके पश्चात् जैसे-जैसे ज्ञानी जीव की अंत: स्थिति उच्च होती जाती है इसके ध्यान का बल और बढ़ता जाता है । 1॰वें गुणस्थान के अंत तक समस्त मोहनीय कर्मों का क्षय हो जाता है । अब क्षीण मोह होकर यह एकत्वविर्तकशुक्लध्यान के बल से ज्ञानावरणादिक शेष तीन घातिया कर्मों का भी क्षय कर देता है । अब शुद्धस्वरूप में अविचलित चैतन्य वृत्ति बन गई है । ज्ञप्तिपरिवर्तन का काम अब नहीं रहा । द्वितीय शुक्लध्यान में जिस पदार्थ को जान रहे थे उस ही पदार्थ को निरंतर जान रहे हैं और उस ही स्थिति में सर्वज्ञता प्रकट हो जाती है तो सर्वज्ञता प्रकट होने से कहीं पहिले का ज्ञान नष्ट नहीं हो गया । वह अब प्रत्यक्षरूप से ज्ञात है और शेष सभी पदार्थ प्रत्यक्ष ज्ञात हो जाते हैं । 13वें गुणस्थान में स्वरूप से चूंकि वे चलित नहीं हो रहे, अतएव उनको ध्यान उपचार से कहते हैं । वस्तुत: वे ध्यान को फल पा चुके हैं, उनके भी पूर्व बँधे हुए कर्मों का अनुभाग खंडित देखा जाता है, इस कारण उस ध्यान को भी निर्जरा का कारण कहा गया है।
वीतरागमूर्ति―भावमुक्तकेवली जीवन्मुक्तकेवली भगवान अरहंत देव के निर्विकार परम आनंदरूप आत्मा की उपलब्धि से जो आनंद हुआ है उसमें ही ये तृप्त रहते हैं । हर्ष-विषाद आदिक सांसारिक विक्रियाएँ अब अरहंत प्रभु के नहीं हैं । यहाँ हम आप किसी पुरुष का कितना स्वागत कर सकते हैं, किसी पुरुष का हम कितना समारोह मना सकते हैं, जितना भी अधिक से अधिक स्वागत समारोह किया जा सकता हो उससे कई गुणा स्वागत समारोह अरहंत भगवान का यहाँ किया जाता है । समवशरण जैसी अनुपम रचना, देवेंद्र देवादिक के द्वारा सारा प्रबंध होना, इतने बड़े समारोह के बीच रहने वाले अरहंत प्रभु वैभव से कितने पृथक् हैं, और तो बात क्या, उनके बैठने के लिए स्वर्ण कमल के ऊपर जो एक अनुपम कांतिमान सिंहासन रखा जाता है उससे भी 4 अंगुल ऊँचे अरहंत भगवान विराजे रहते हैं, और यह इंद्र कुबेर भक्तिवश होकर भगवान के सिर के ऊपर छत्र लगाते हैं अथवा यों कहो यह लक्ष्मी प्रभु की सेवा करने के लिए जब यह नीचे से असफल हो गयी अर्थात् सिंहासन से भी चार अंगुल ऊँचे भगवान चले गए तो यह भगवान के ऊपर से गिरती हैं छत्र के रूप में कि अब हम भगवान को छू लें, लेकिन वह छत्र भी उनसे अधर ही रहा करता है । कितनी वहाँ शोभा की जाती है ।
पुष्पवृष्टि और चमर का संदेश―समवशरण में प्रभु अरहंत देव के निकट ऊपर से देवतागण फूलों की वर्षा करते हैं । वह पुष्प वर्षा भी एक अद्भुत सामा बाँध देती है । उनके गिराये हुए फूल भी दुनिया को उपदेश दिया करते हैं अपनी मुद्रा द्वारा । देखो जब फूल ऊपर से छोड़ा जाता है तो फूल का कोमल हिस्सा पंखुड़ियाँ, विकसित स्थान नीचे रहता है और ऊपर डंठल रहती है । डंठल का नाम बंधन है । ऊपर बंधन रहता है नीचे विकसित भाग रहता है । प्रभु के चरणों के निकट पहुंचकर फूल किस तरह गिरते हैं कि नीचे तो बंधन हो जाता है, क्योंकि बहुत ऊपर से फूल छोड़ने पर वजनदार हिस्सा नीचे को हो जायगा, नीचे बंधन आ जाता है, ऊपर विकसित भाग रह जाता है । यह फूल दुनिया को यह उपदेश करता है कि जो भगवान के चरणों में आयगा, उसका बंधन तो नीचे हो जायगा और उसका विकास ऊपर हो जायगा । 64 यज्ञ चमर ढोलते हैं । ये भक्ति से ढोरे हुए चमर भी दुनिया को उपदेश दे रहे हैं कि जो भगवान के चरणों में नम्रीभूत होगा वह नियम से ऊपर उठ जायगा । चमर भी नीचे से ऊपर उठा करता है, जहाँ का अणु-अणु वातावरण भव्य जीवों को शिवपथ गमन के लिए प्रेरित करता है । ऐसी अद्भुत विभूति भी अरहंत भगवान के उपयोग को रंच भी व्यग्र नहीं कर सकती । ऐसी अविचलित चित्तवृत्ति अरहंत प्रभु के हुई है ।
अर्हद्ध्यान―अर्हद्भक्ति की बात इसलिए विशेषतया कही जा रही है कि सिद्ध भगवान के लिए राग का अवसर क्या? वे तो एकदम अलग पहुंच गए हैं, और ये अरहंत प्रभु हमआप सरीखे हाथ-पैर वाले हैं और हम आप लोगो के बीच में विराजमान रहते हें, विहार करते हैं । इतने निकट हैं वे तिस पर भी अत्यंत वीतराग हैं । प्रभु का स्वरूप पूर्ण वीतरागता है । जो बातचीत करे किसी से, किसी को सुखी दुःखी करे, किसी की सम्मति में गोष्ठी में आया करे वह कैसे भगवान है? भगवान तो उत्कृष्ट वीतराग हुआ करते हैं । उनका चैतन्य प्रवर्तन उत्कृष्टज्ञान और दर्शन से युक्त है, सहज शुद्ध चैतन्य में परिणत है, इंद्रियव्यापार आदिक बहिर्द्रव्यों के आलंबन से रहित है । स्वरूप निश्चल होने से उनकी वे क्रियाएँ अब भी चल रही हैं जो पहिले उत्कृष्ट ध्यान के बल से चला करती थीं । भावमन न होकर भी सयोगकेवली भगवान के पूर्वबद्ध कर्मों का अनुभागखंडन स्थितिखंडन वे सब बराबर चल रहे हैं, अतएव उनका ध्यान उपचार से कहा गया है । यह ध्यान परद्रव्यों के आलंबन से रहित है ।
विराग विज्ञान―यहाँ एक आशंका की गयी है कि छद्मस्थ, तपस्वीजन अथवा श्रेणी में रहने वाले साधु जन वे आत्मा-आत्मा का ही ध्यान नहीं किया करते हैं, उनके ज्ञान में कुछ भी आये उस ही के ध्यान से कर्मों का विनाश होता है । परद्रव्यों का ख्याल मत करें, केवल आत्मा का ही ध्यान करें ऐसी पद्धति उसके लिए है जिसमें ऐसी प्रकृति पड़ी है कि वह राग-वश होकर परद्रव्यों का ख्याल किया करे । जिन योगी पुरुषों के यह प्रमत्त भाव नहीं रहा उनके लिए तो यह उपदेश नहीं है कि उनका भी विचार करें । रागरहित वृत्ति होने के कारण उनके तो ध्यान बराबर बना रहता है और कर्मनिर्जरा का कारण होता है । जैसे लोक में नई बहू पर ही तो प्रतिबंध रहता है कि तुम दूसरे के घर न जाया करो, न बैठा करो, पर बुढ़ियों के लिए तो कोई प्रतिबंध नहीं लगाता । ऐसे ही समझो कि जब तक राग विकार प्रमाद की योग्यता हे तब ही तक तो यह प्रतिबंध है कि तुम अन्य पदार्थो का ध्यान मत करो । एक आत्मस्वरूप का ध्यान करो, किंतु जिसकी चैतन्य वृत्ति इतनी उज्ज्वल है कि वह रागवश न रहे उनके लिए कुछ भी ध्यान में आये, परमाणु का, आत्मा का किसी का भी ध्यान करते हुए वीतराग स्वभाव के कारण कर्मनिर्जरा कर रहे हैं । वे परद्रव्यों का ध्यान करते हुए कैसी निर्जरा कर डालते हें, ऐसी यहाँ एक आशंका की गई है, इसका समाधान सीधा तो यह स्पष्ट है कि उनमें रागद्वेष परिणति का अनुभव नहीं रहा, रागद्वेष परिणति नहीं रही तब कुछ भी ज्ञान में आये वह ज्ञान एक विशुद्ध ज्ञान है, और रागद्वेष रहित विशुद्ध ज्ञान में यह सामर्थ्य है कि वहाँ कर्म ठहर नहीं सकते ।
परमाणु के ध्यान का भाव―दूसरी बात यों सोचिये कि जहाँ यह कहा गया है कि वह परमाणु का भी ध्यान करे तो भी निर्जरा करता है । तो परमाणु का अर्थ है परम अणु, अत्यंत सूक्ष्म चीज । वह अत्यंत सूक्ष्म वस्तु क्या है? शुद्ध आत्मा का तत्त्व । यह ज्ञानी पुरुष पर अणु का भी विकल्प ध्यान हो रहा हो उसे भी इस विधि से जानता है कि इस परम आत्मअणु का स्पर्श नहीं छूटता । वहाँ भी यह पुरुष आत्मस्पर्श में रहा करता है । ऐसे इस वीतराग निर्विकल्प समाधि के ध्यान के प्रताप से कर्मनिर्जरा होती हे और उस निर्जरा के फल में मोक्ष प्राप्त होता है । यह आत्मा-आत्मा को आत्मा में आत्मा के द्वारा क्षणमात्र भी धारण करता हुआ यह स्वयंभू हो जाता है, सर्वज्ञ हो जाता है । यह द्रव्यकर्म से मुक्ति पाने के कारणभूत निर्जरा के कारण का वर्णन किया है । अब इस अंतिम गाथा में द्रव्यमोक्ष का स्वरूप बतला रहे हैं ।