वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 153
From जैनकोष
जो संवरेण जुत्तो णिज्जरमाणोध सव्वकम्माणि ।
ववगदवेदाउस्सो मुयदि भवं तेण सो मोक्खो ।।153।।
अधातिया कर्मों के अभाव की पद्धति―जो सम्वर भाव से सहित होता हुआ, सर्वकर्मों की निर्जरा करता हुआ वेदनीय आयु नामकर्म से रहित होकर नाम और गोत्र नामक भव को त्याग देता है उसका उस कारण से मोक्ष होता है । जब चार घातिया, कर्मों का भी विनाश हो जाता है तो इसकी संपूर्णतया कर्मों से मुक्ति हो जाती है, सिद्ध अवस्था प्रकट हो जाती है ।केवली भगवान के प्राय: उस समय कर्मों की ऐसों स्थिति रहती है कि आयुकर्म तो रहता है अल्प और वेदनीय नाम गोत्र इन तीन कर्मों की स्थिति रहती है अधिक । जब मोक्ष होगा तो चार घातिया कर्मों का एक साथ एक ही समय में क्षय होगा तब मोक्ष होगा । तो यह बात कैसे बने? यह बात समुद्घात से बनती है ।
केवलिसमुद्धात में निर्जरण की विशेषता―भगवान सयोगकेवली के अंतिम-अंतिम अंतर्मुहूर्त में जिसमें अनेक अंतर्मुहूर्त पड़े हुए हैं उनमें पहिले के अंतर्मुहूर्त में इसका समुद्घात प्रकट होता है । पहिले दंडाकार प्रदेश बनता है, फिर कपाटाकार फैलता है, फिर प्रतर बन जाता है और फिर लोकभर में प्रत्येक प्रदेश पर उसमें से एक-एक प्रदेश ठहर जाता है, फिर प्रतर कपाट दंड होकर शरीर में प्रवेश होता है । ऐसे फैलाव मैं कर्मों का फैलाव हो जाता है और वह फैलकर निर्जीर्ण हो जाता है । थोड़ा बहुत अंतर रहता है वह समुद्घात के बाद समाप्त हो जाता । यों भगवान जब समुद्घात कर चुकते है उसके बाद सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती शुक्लध्यान प्रकट होता है । सूक्ष्म काय योग के विनाश करने के लिए यह ज्ञान हुआ, परम यथाख्यात चारित्र हुआ, उसके बल से इसका योग नष्ट हो जाता है ।
अयोगकेवली गुणस्थान के अंत में सर्वकर्मविप्रमोक्ष―अयोगी गुणस्थान में उपांत्य समय में 72 प्रकृतियों का और अंतिम समय में 13 प्रकृतियों का विनाश होता है । अयोगकेवली अवस्था में समुच्छिन्नक्रिय नाम का ध्यान रहता है―जिसका दूसरा नाम व्युपरतक्रियानिवृत्ति है, उसका अंतर्मुहूर्त ही ठहराव रहता है । इसके बाद शरीर से भी विमुक्त हो जाता है, कर्मों से विमुक्त हो जाता है । आत्मा की जो एक शुद्ध केवल अवस्था है, केवल स्वरूप है वह ही कहाँ रह जाता है । यों यह भगवान शरीर से, कर्मों से रहित होते हीं ऊर्द्धगमन स्वभाव के कारण लोक के शिखर पर जाकर विराजमान हो जाते हैं ।
सिद्ध भगवंत का धाम―लोग प्रभु का स्मरण करते समय सिर उठाकर स्मरण किया करते हैं । प्रभु से कुछ बोलते समय ऊपर सिर करके बोला करते हैं । यह लोगों की आदत भी इस बात को सिद्ध करती है कि भगवान का वास लोक के शिखर पर है । कोई पुरुष भगवान की याद जमीन में नीचे निगाह गड़ाकर नहीं किया करता । प्रभु सिद्ध भगवंत लोक के शिखर पर विराजमान हैं, इस कारण लोगों की प्रकृति सिर उठाकर ऊपर करके स्मरण करने की होती है । तो ऐसा बार-बार सिद्ध लोक का स्मरण किया, इस संस्कार के कारण समझ लीजिए कि सिद्ध होने पर ऊपर ही वे जाते हैं अथवा संसार अवस्था में संग बंधन परिग्रह के कारण सर्व लेपों के कारण यह संसार में रुलता रहा है । अब संग हट गया तो संग रहित तूमी की तरह जैसे कि तूमी मिट्टी आदिक परसंगों के लेप से? रहित होने पर पानी में ऊपर उतरा जाती है, ऐसे ही यह भगवान एकदम लोक के शिखर पर पहुंच जाते हैं । बंधन का छेद होने से जैसे एरंड का बीज ऊपर, हीं जाता है यों ही कर्मबंध का छेद होने से यह जीव लोक शिखर पर ही पहुंच जाता है अथवा जीव का स्वभाव ही यह है । वह अकेला शुद्ध निर्लेप रहे तो वह अकेला का ही अकेला आ जाया करता है । यों प्रभु सब कर्मबंधनों से मुक्त होकर लोक के शिखर पर विराजमान होते हैं ।
आत्मनिर्देशन―जैसा प्रभु का स्वरूप है ऐसा ही स्वरूप हम आप सबका है, इस और हम आप साहस करे तो हम आपकी भी स्थिति ऐसी ही विशुद्ध बन सकती है । करना तो यही चाहिए । ध्यान इस ओर ही रहना चाहिए । हम इन बाह्य प्रपंचों में मोह ममता न करें, इनकी अटक अंतर में न मानें । यह मैं, तो सबसे निराला शुद्ध ज्ञानप्रकाश मात्र हूँ, ऐसा अनुभव का बल बढ़ाये, जिसके प्रसाद से संसार के संकट सदा के लिए समाप्त हो जायें।
।। इति पंचास्तिकाय प्रवचन पंचम भाग समाप्त ।।