वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 161
From जैनकोष
णिच्चयणयेण भणिदो तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा ।
ण कुणदि किंचिवि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गो ।।161।।
निश्चय मोक्षमार्ग―निश्चयनय से निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयचारित्र से युक्त आत्मा जिस स्वरूप को कहा गया है वह आत्मा अन्य परद्रव्यों को कुछ भी नहीं करता, कुछ भी नहीं छोड़ता, वह तो साक्षात् मोक्षमार्गरूप ही है । करना और छोड़ना―ये दो विकल्प ये दो वृत्तियां भेदभाव में होती हैं । इस ज्ञानमार्ग में बढ़ने पर जीव पर क्या बीतती है वह सब अपने अनुभव से भी आप अंदाज कर सकते हैं । जब हम निश्चयदृष्टि से आत्मा के स्वरूप को सम्हालते हैं तो उस सम्हाल में यही नजर आता है कि यह तो जो है सो है, न कुछ दूर करना है और न कुछ किसी को छोड़ना है । किसी पदार्थ में किसी पदार्थ के स्वरूप का प्रवेश ही नहीं है । प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूपमात्र है । यह आत्मा भी अपने ही शुद्ध चैतन्यस्वरूपमात्र है ।
शुद्ध एकत्व का श्रद्धान―निश्चयदृष्टि से यह तका गया है कि निश्चल निजस्वरूपमात्र आत्मा में किसका तो ग्रहण है और किसका त्याग है? श्रद्धान में यह बात पूरी उनके भी रहा करती है जो व्यवहार मोक्षमार्ग में चल रहे हैं, ग्रहण करना और त्यागना ये सब चल रहे हैं । मन, वचन, काय की प्रवृत्ति करना और मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों में न जाने देना । इस प्रकार का जिनके यत्न है उनका भी श्रद्धान यही है, पर कोई स्थान ऐसे हैं, कर्मविपाक ऐसे हैं कि जानते हुए भी, श्रद्धान करते हुए भी उस ही रूप रहने का काम नहीं बन रहा है और ऐसी स्थिति में प्रवृत्ति और निवृत्ति चलती है । इतने पर भी श्रद्धान में अंतर नहीं आता और प्रकटरूप में उपदेश भी ऐसा किया हे कि भाई जो शक्ति है, जो योग्यता है उसे न छुपाकर आचरण में लगो । पर इतना आचरण करते न भी बने तो श्रद्धान से मत डिगो ।
श्रद्धान से विचलित न होने का अनुरोध―जो जीव श्रद्धान से भ्रष्ट हो जाता है उसे भ्रष्ट माना गया है और जो आचरण से भ्रष्ट है वह यद्यपि आचरण से भ्रष्ट है, पर सम्यक्त्व यथार्थ रहने पर उसे भ्रष्ट नहीं कहा गया है, वह पुन: लग सकता है । जैसे लोक में किसी बड़े की आन बनी रहे तो वह उद्दंड नहीं कहा जाता है, पर जब आन ही टूट जाय तो उसे उद्दंड कहा जाता है । एक ऐसा ही कथानक कहा जाता है कि एक पुरुष ने सेठ से शिकायत की कि तुम्हारा लड़का तो पतित हो गया है, वेश्या के यहाँ जाया करता है । सेठ बोला कि हमारा लड़का अभी पतित नहीं हुआ है । वह पुरुष बोला चलो तुम्हें दिखायें । ले गया वेश्या के घर के पास तो उस सेठ ने उस वेश्या के घर बैठा हुआ उस लड़के को देख लिया । लड़के ने भी सेठ को देख लिया तो झट उस लड़के ने अपनी अंगुलियों से अपनी आँखों को बंद कर लिया । सेठ इस दृश्य को देखकर उस पुरुष से कहता है कि देखो मेरा लड़का अभी भ्रष्ट नहीं हुआ है । अभी तक हमारे बच्चे में हमारे प्रति आन है, आदर है । जब वह बालक घर आया तो सेठ ने उससे कुछ कहा तो झट वह उस सेठ के चरणों में गिर गया और बोला कि मैंने बड़ी चूक की, अब मैं ऐसा न करूँगा । आन, प्रतीति, आंतरिक नम्रता हो तो सुधार की असुगमता नहीं है । इसलिए श्रद्धान से कभी डिगना न चाहिए । समंतभद्रस्वामी को परिस्थितिवश आचार्य ने साधुपद छुड़ाकर किसी भी भेष में रहकर भस्मव्याधि मिटाने का हुक्म दिया था । और किया भी था, परंतु उनका श्रद्धान ज्यों का त्यों था, कुछ भी अंतर न था । उनका श्रद्धान दृढ़ रहा । और उस सम्यक्त्व के प्रताप से जो चमत्कार हुआ वह साधु होने के बाद सबको विदित है । तो कुछ करते बन रहा तब, नहीं करते बन रहा तब, सम्यक्त्व श्रद्धान यथार्थ बनाये रहें और अपनी शक्ति' न छिपाकर उसके अनुरूप आचरण करने में प्रयत्नशील रहे, यही एक करने का काम है ।
निश्चयमोक्षमार्ग का उद्भव―सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से युक्त आत्मा ही निश्चय से मोक्ष का मार्ग है, क्योंकि वहाँ रत्नत्रय की स्थिति में जीव के स्वभाव में नियत होने रूप चारित्र पाया जाता है । यह जीव किसी भी प्रकार अनादिकालीन अविद्या का विनाश होने से व्यवहारमोक्षमार्ग को प्राप्त होता है । धर्मादिक तत्त्वार्थों के श्रद्धान और अंग पूर्वों के ज्ञान तथा तपस्यावों में प्रवृत्ति के होने रूप चारित्र का तो ग्रहण हुआ, ग्रहण के लिए व्यापार हुआ और धर्मादिक तत्त्वों के श्रद्धान न होने आदिरूप जो मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र है उसके त्याग के लिए व्यापार हुआ और अब उस ही उपादेयभूत पदार्थ के ग्रहण में और त्याज्य पदार्थ के परिहार में बार-बार चलने का अभिप्राय चला । सो जितने काल में यह जीव उस ही आत्मस्वभाव की भावना के प्रताप से जब स्वभावभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के साथ अंगअंगीरूप परिणमन करके और फिर अभेदरूप परिणमन करके उस रत्नत्रय से युक्त होता है उस ही काल में यह जीव निश्चय से मोक्षमार्गी कहा जाता है ।
अद्वैतरूपता―छूटना है जीवको, और छूटने का जो उद्यम है वह भी होता है जीव में। तो जीव ही स्वयं मोक्षस्वरूप है और जीव ही मोक्ष का मार्ग है । जब यह जीव रत्नत्रय से युक्त होता है तो मोक्षमार्गी है और जब समस्त दोषों से छूट जाता है तब वही मोक्षस्वरूप है । निश्चयमोक्षमार्ग में और व्यवहारमोक्षमार्ग में परस्पर साध्यसाधन भाव हे । निश्चयमोक्षमार्ग का लक्षण है निश्चय शुद्ध आत्मतत्त्व की रुचि होना और उस ही सहज शुद्ध अंतस्तत्त्व का परिज्ञान होना और उस ही निश्चलरूप से अनुभव होना उसका साधन है व्यवहारमोक्षमार्ग । उस व्यवहारमोक्षमार्ग में गुणस्थान के क्रम से विशुद्ध परिणाम होता हुआ यह जीव जब कहीं आगे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र में अभेदरूप परिणत होता है तब वह आत्मा ही निश्चयमोक्षमार्ग कहलाने लगता है ।
मोक्षपथ का विकास―गुणस्थान सब मोक्षमार्ग हैं चतुर्थ से लेकर ऊपर तक के । 14वें गुणस्थान भी मोक्षमार्ग है । मोक्ष तो गुणस्थान से अतीत है । अब समझ लीजिए कि मोक्षमार्ग की कितनी स्थितियाँ हो जाती हैं, डिग्रियाँ हो जाती हैं और चतुर्थ गुणस्थान संबंधी मोक्षमार्ग प्रकट हो उससे पहिले जो विचार चलता है, ज्ञान चलता है, यद्यपि सम्यक्त्व का वहाँ अभाव है, फिर भी वह ज्ञान यथार्थ है, जैसे कि वह सम्यक्त्व के होने पर जानेगा वैसे ही सम्यक्त्व से पहिले भी यह सम्यक्त्व का उन्मुख जीव जानता है । बस अंतर इतना रहता है कि सम्यक्त्व के अभाव में वह ज्ञान सम्यक्त्व के सद्भाव में होने वाले ज्ञान जैसा खुद में विशद नहीं है, इस कारण पूर्व ज्ञान को सम्यग्ज्ञान नहीं कहा ।
विकास से पूर्वस्थिति की विशेषता का उदाहरण―जैसे कोई वर्णन नक्शे द्वारा पैमाइश द्वारा जाना जाय, जैसे किसी देश का वर्णन, नदी का वर्णन, महल का वर्णन कुछ नक्शों से जाना, उसकी लंबाई, चौड़ाई विस्तार भी नक्शे से जाना अथवा किसी ने बताया एक तो वह ज्ञान और एक उसी मौके पर जाकर उस सबको देखे एक वह ज्ञान । यद्यपि मौके से पहिले वाला ज्ञान वही वैसा ही था जैसा कि मौके पर जाकर देखा, लेकिन मौके पर जाकर देखने से होने वाले विशद ज्ञान की तरह यह पहिले वाला ज्ञान विशद नहीं है । तब न सही विशद, पर ज्ञान तो वहाँ ही हुआ ना, और उस ही ज्ञान के सहारे से बढ़कर इसे सानुभव ज्ञान बना, यों बिना निश्चय सम्यक्त्व के भी इसे व्यवहारमोक्षमार्ग कहा गया है । स्वरूपदृष्टि से देखो तो सम्यक्त्व जगे बिना मोक्षमार्ग नहीं कहलायेगा, पर साधन तो वह भी है । वह भी व्यवहारमोक्षमार्ग है । तो यों यह व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग का साधन बनता है ।
व्यवहारमोक्षमार्ग का उपकार―यहाँ व्यवहारमोक्षमार्ग के साधन द्वारा निश्चय मोक्षमार्ग का वर्णन करते हुए यह बात बतायी गई है कि उन रत्नत्रयों से युक्त अथवा निश्चय से न तो किसी अन्य को ग्रहण करता है और न किसी अन्य को छोड़ता है । ऐसी स्थिति जब उपयोगरूप से भी हो जाती है तब वह निश्चयमोक्षमार्ग कहलाता है और श्रद्धा में तो यह स्थिति बनी है पर को न करने, पर को न छोड़ने के स्वभाव वाले निज चैतन्यस्वभाव की श्रद्धा बनी है, पर उपयोग इस तरह परिणत नहीं हो पा रहा था, अतएव तत्त्वार्थ श्रद्धान पदार्थ का विविध ज्ञान और व्रत आदिक रूप प्रवृत्ति हुई थी वह है व्यवहारमोक्षमार्ग । इस प्रकरण से हम आपको इस कर्तव्य की शिक्षा मिलती है कि हम मूल में ऐसा, हीं ज्ञान बनायें कि यह मैं आत्मा मैं ही हूँ, न यह पर का करने वाला है और न पर का त्यागने वाला है । यह है अपने स्वरूप और अपने स्वरूप परिणमता रहता है । इस प्रकार केवल एक निज स्वरूप को देखने का काम ही वास्तविक पुरुषार्थ है और इस ही पुरुषार्थ से उद्धार है, दुर्लभ नरजीवन की सफलता है।