वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 77
From जैनकोष
सव्वेसिं खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू ।
सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभवो ।।77।।
परमाणु का स्वरूप―इस गाथा में परमाणु की परिभाषा बतायी गयी है । समस्त स्कंधों का जो अंतिम भेद है, अंतिम विभाग है उसको परमाणु कहते हैं । वह परमाणु अविनाशी है और शब्दरहित है । जैसे कर्मस्कंधो का जहाँ विनाश है उसे शुद्ध आत्मा कहते हैं, ऐसे ही 6 प्रकार के स्कंधों का जहाँ अंत है ऐसा जो भेद है उसे परमाणु कहते हैं ।
परमाणु की शुद्धता―भैया! शुद्धता की दृष्टि से जैसे सिद्ध भगवंत हैं ऐसे ही परमाणु शुद्ध है, किंतु हम सब कर्मों के प्रेरे आकुलता से भरे जन्म मरण की पद्धति में लगे दुःखी जीव हैं, उस दुःख को मिटाना है तो जो दुःखरहित शुद्ध स्थिति है वह सिद्ध भगवान में है, इसलिए हम आपके लिए सिद्ध भगवान की महत्ता है, पूज्यता है, किंतु वस्तुस्वरूप की दृष्टि में कोई ऐसा है नहीं अंतर, जिससे यह विदित हो कि सिद्ध श्रेष्ठ हैं व अणु निकृष्ट है । कदाचित् हम सब जीवों से अलग कोई निर्णेता होता तो वह यह बताता कि जैसे परमाणु शुद्ध है तैसे ही शुद्ध सिद्ध हैं । जैसी सिद्ध की महत्ता है तैसी महत्ता परमाणु की है । सिद्ध भगवान में सिद्ध जैसा प्रताप है, तो परमाणु में परमाणु जैसा प्रताप है ।एक समय में 14 राजू गमन हो जाना यह और किसके संभव है? स्कंधों में नहीं होता । 14 राजू कितना बड़ा क्षेत्र है और वे सारे प्रदेश भी क्रम से ही तो छुवे गए होंगे । परमाणु नीचे से ऊपर तक 14 राजू पहुंचते हैं । लेकिन वे इतनी शीघ्रता से छुवे हुए होंगे कि एक ही समय में 14 राजू गमन हो गया ।
परमाणु की सामयिक गति पर प्रकाश―परमाणु की सामयिक गति के संबंध में मोटी बात तो कुछ समझ में यह आ जायेगी कि जैसे कोई एक पुरुष 6 घंटे में 6 मील चलता है तो क्या कोई पुरुष 6 मील एक घंटा में चलने वाला नहीं मिल सकता? रास्ता उतना ही है, वह 6 घंटे में चला, यह एक घंटे में चला और 6 मील का रास्ता कोई पुरुष दौड़कर जाये तो संभव है कि 15 मिनट में भी 6 मील रास्ता जा सकता है और कोई यंत्र तो एक मिनट में भी 6 मील जा सकता है, ऐसे ही कोई स्कंध घंटे में 14 राजू पहुंचे, ये परमाणु एक समय में 14 राजू पहुंच जाते हैं । ऐसा यह शुद्ध परमाणु का प्रताप है ।
परमाणु की शाश्वतता―यह परमाणु शाश्वत है । जैसे कि परमात्मा टंकोत्कीर्णवत् निश्चल एक ज्ञायकस्वभाव से एक द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से अविनाशी है इस ही प्रकार यह परमाणु भी पुद्गलपने से अविनाशी है । स्कंधों का बिखरना हो जाता है । उनका विनाश समझ में आता है, पर स्कंधों की स्थिति हो तो, स्कंधों से विलग हो गया हो तो, परमाणु की शाश्वतता सदैव रहती है । यह परमाणु नित्य है ।
परमाणु की मूर्तिमयता व अशब्दता―यह परमाणु अशब्द है । यद्यपि परमाणु में रूप भी नजर नहीं आता पर परमाणु रूप सहित है । यदि रूप सहित न होता तो स्कंध की स्थिति में भी इसमें रूप व्यक्त न होता । परमाणु में रस, गंध, स्पर्श आदि हैं, पर शब्द परमाणु में नहीं हैं । शब्द एक परिणति है, पर्याय है और वे भाषावर्गणा के स्कंधों की परिणति है । जैसे शुद्ध जीव पदार्थ निश्चय से स्वसम्वेदन ज्ञान का विषय होने पर भी शब्दरूप नहीं होता, शब्दविषयक नहीं होता, वह जीवद्रव्य अशब्द है, इसी प्रकार परमाणु भी स्कंधरूप परिणति का कारणभूत है । स्कंधों से ही तो शब्द की उत्पत्ति हुई है और स्कंधों के मूल परमाणु ही तो हैं । फिर भी शब्द पर्यायरूप परिणमन परमाणु का नहीं होता । परमाणु में शब्दपरिणति प्रकट नहीं होती, इस कारण से परमाणु शब्दरहित है ।
परमाणु की अद्वैतता―यह परमाणु एक है, केवल है, असहाय है, स्वयं है, परिपूर्ण है । जैसे कि शुद्ध आत्मद्रव्य समस्त परपदार्थों के लेप से रहित केवल चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्व पर की उपाधि से रहित होने से एक है, असहाय है, एक ही स्वरूप है, परिपूर्ण है । इस ही प्रकार यह परमाणु भी अन्य परमाणु की उपाधि न रहने से अपने ही सत्त्व के कारण अपने ही स्वरूप में परिपूर्ण एकप्रदेशी एक अणुमात्र रहने के कारण केवल है, असहाय है, एक है । परमाणु अचेतन है, इस कारण उसकी पूजा हम लोगों के चित्त में नहीं समाती, लेकिन द्रव्य के नाते तो जैसी शुद्धता सिद्ध भगवान में है वैसी ही शुद्धता परमाणु में है । पर हमारा प्रयोजन सिद्ध भगवंत के ध्यान से निकलता है । हाँ परमाणु के ध्यान से भी ध्यान की शुक्लता आती है,किंतु पूर्व समय में तो हमें सिद्ध भगवान का ध्यान ही सहाय है । श्रेणी में पहुंचे हुए मुनिजन चाहे सिद्ध भगवान का ध्यान करें, चाहे परमाणु का ध्यान करें, उनका ध्यान वीतराग है, निर्दोष है, वे कुछ भी विचार करते हों निरीह बनकर शुक्लध्यान उल्पन्न कर लेते हैं ।
परमाणु के अवगम का उपकार―परमाणु निज स्वरूप मात्र है, अत्यंत सूक्ष्म है, अविभागी है, ऐसे परमाणु के स्वरूप की समझ भी इंद्रियों के विषयों को प्रोत्साहन नहीं देती । जैसे स्कंधों का विचार करके रस की उत्सुकता, स्पर्श की उत्सुकता, देखने की उत्सुकता, ऐसे इंद्रियविषयों की उत्सुकता बनती है क्या परमाणु का ध्यान करके परमाणु की चर्चा में परमाणु के मनन में किसी इंद्रियविषय को भी प्रोत्साहन मिला है, यह परमाणु अविभागी है । जैसे परमात्मद्रव्य निश्चय से लोकप्रमाण असंख्यातप्रदेशी होने पर भी अखंड द्रव्य की दृष्टि से उनमें क्या विभाग होगा, सभी आत्मावों में वे केवल-केवल सभी परमात्मद्रव्य अविभागी हैं, उनका विभाग नहीं होता, टुकड़ा नहीं होता, आधा आत्मा कहीं हो, आधा कहीं हो, ऐसा टुकड़ा नहीं बनता । तो जैसे परमात्मद्रव्य अविभागी है, ऐसे ही परमाणु द्रव्य भी निरंश होने से अविभागी है ।
परमाणु का मौलिक रूप―यह परमाणु मूर्तिमान है । यह आत्मद्रव्य मूर्तिमय नहीं है । अमूर्त परमात्मद्रव्य से विलक्षण स्पर्श, रस, गंध, वर्ण वाली जो मूर्ति है, उस मूर्ति के द्वारा यह परमाणु निष्पन्न है, यह मूर्तरूप है, इस कारण यह परमाणु मूर्तिमय है । यह सारा लोक, ये सारे दृश्यमान स्कंध जिस मूलतत्त्व से बने हैं उस पर दृष्टि दो तो यह स्कंधमयता सब इस दृष्टि से विघट जाती है । इतनी बड़ी यह भींत खड़ी है । इस भींत का निर्माण किस मूल से हुआ है? वह परमाणु । तो इन स्कंधों में जो परमाणु हैं, एक-एक हैं, ऐसे परमाणुवों पर दृष्टि डालो तो ये सब दृष्टि में बिखर जायेंगे और सारहीन से प्रतीत होंगे । हम कुछ भी जाने, उसके मूल तत्त्व पर दृष्टि बनायें तो ये रागद्वेष टिक नहीं सकते । घर के परिजन जो भ्रम के कारण सब कुछ बन बैठे हैं, जिनके पीछे अपना सर्वस्व न्यौछावर किया जा रहा है ।
माया के अंत: परमार्थ का दर्शन―भैया ! ये सब दृश्यमान क्या हैं? उनका मूलतत्त्व निरखिये । वे हैं तीन के पिंड । ज्ञानादिक गुणों के पिंड और कार्माणवर्गणा के पिंड और औदारिक वर्गणा के पिंड―इन तीनों का पिंडोला संसारी है, ये दोनों तो पौद्गलिक हैं कार्माण और औदारिक वर्गणा । एक जीव चेतन है । चेतन में मूल तो है चैतन्यस्वभाव, किंतु जो इसमें रागद्वेष विषयकषायों का विस्तार बना है यह मायारूप है । पुद्गलस्कंधों की तरह सा मिला-जुला यह ऐसा रूप है । इसमें मूल तो एक चैतन्य स्वभाव है जिसका फिर यह इतना विकार और विस्तार बना है । ऐसे ही इन वर्गणावों में मूलभूत परमाणु है जिसका संचय होकर इतना विस्तार और विकार बन गया है । तो जो अंत: है, कारणभूत है । उस पर दृष्टि जाने पर रागद्वेष की वृद्धि नहीं होती । यों निरखने पर निर्णय हो जायेगा कि अब उस कुटुंब में क्या मिल गया? इस ज्ञाता की निधि में क्या आ रहा? सब माया है, सब बिखर गया । केवल एक चैतन्य और परमाणु―ये दो तत्त्व ही नजर आने लगे । इतना लंबा चौड़ा यह दो डेढ़ मन के वजन का यह सब कुछ ओझल हो गया, बिखर गया । अब इस ज्ञानी की दृष्टि में केवल चैतन्य और परमाणु ही रह गया ।
ज्ञान की ज्ञानक्रियाशीलता―यह ज्ञान जाने बिना तो रहता नहीं, इसे कहाँ रख दोगे, कहां ले जावोगे, कहाँ फेंकोगे, कहाँ छिपावोगे? जैसे उज्ज्वल रत्न की आभा कहां छिपेगी, वह अंदर चमकती ही रहेगी, कितने ही कपड़ों का आवरण उस पर डाल दो, ऐसे ही यह ज्ञान कहाँ छुपेगा? यह अंत: जानन बना ही रहेगा । तो यह ज्ञान जाने बिना रह नहीं सकता, जानने में तो सब आता ही है । हाँ कभी एक आत्मध्यान का पुरुषार्थ करें तो बाह्यतत्त्वों का विकल्प न रहकर वहाँ केवल निजस्वरूप रहता है जानन में, पर चलो निज ही सही, जानन में तो कुछ रहा । जानन में कुछ नहीं रहे, ऐसी स्थिति ज्ञान की कभी नहीं हो सकती, और फिर यह आत्मस्वरूप का जानन सदा नहीं रहता और सदा रहता है तो इसके साथ-साथ अन्य पदार्थों का भी जानन रहता है, और वह वीतराग स्थिति में । हम आपके कभी-कभी आत्मज्ञान भी होता है, और अब तो प्राय: परपदार्थों का ज्ञान करते रहते हैं । यह ज्ञान जानन बिना रह नहीं सकता तब इस ज्ञान का मुंह बंद क्यों करते, इसका श्वास रोकते, क्यों इसका गला घोटते? जानने दो इस ज्ञान को, जो कुछ जानता है, जानने दो, फैलने दो, तुम तो एक परिस्थिति बदल दो । जिसको भी यह ज्ञान जानता है उसके मूल स्वरूप को जानने लगो । इसमें जो मूल है, सहज तत्त्व है उसको जानने में लग जायें तो उस ज्ञान से हमें अनर्थ न मिलेगा, कुछ अर्थ ही होगा ।
पुद्गल के भेदविज्ञान का इंद्रियोपभोग्य से विरक्ति कराने का प्रयोजन―ये लौकिक जन स्कंधों में इतने आसक्त हो रहे हैं कि सदा अपने स्वार्थसाधना की बात सोचा करते हैं । ऐसे लौकिक जन इस मिथ्या रोग का, मोह रोग का निवारण कैसे कर सकेंगे? उन्हें जिससे विरक्त करना है उसका सही स्वरूप बताना आवश्यक है । केवल जीव-जीव की चर्चा से ही ग्रंथ भरे हुए हों, अजीवतत्त्व की बात उनमें नहीं आ पायी हो तो उसमें कर्तव्य की निश्चयता परिपूर्णरूप में नहीं आ पाती । और फिर उन अचेतन तत्त्वों की भी जो उनका शुद्ध विकास है उस शुद्धविकास की चर्चा होती है तो उसमें रागद्वेष क्या? अभी किसी स्कंध की चर्चा की जाने लगे, सिनेमा, होटल, वाहन, देश-विदेश आदि की चर्चा चलने लगे तो प्रकृत्या वहाँ रागद्वेष चलने लगेंगे । उनमें यह छंटनी होने लगेगी कि यह इष्ट है, यह अनिष्ट है, पर जहाँ एक इस शुद्ध परमाणु की चर्चा चल रही है उसमें कहीं रागद्वेष उत्पन्न होते रहते हैं क्या? कौनसा परमाणु आपको रुच रहा और कौनसा परमाणु आपको रुच रहा और कौनसा परमाणु आपको बुरा लग रहा? अरे रुचने और न रुचने का व्यवहार इन परमाणुवों में नहीं चल रहा है । वह तो ज्ञान का विषयभूत है । तो उस शुद्ध परमाणु की चर्चा में भी राग विरोध का अवसर नहीं होता । उस ही परमाणु की बात इस गाथा में कही जा रही है ।
परमाणु की अविभागिता―समस्त उक्त स्कंधपर्यायों के भेद-भेद से जो अंत में उत्पन्न होने वाला भाव है वह परमाणु है । जैसे कि इस मनुष्यपर्याय में भेद कर-करके कि यह शरीर मैं नहीं हूँ, कर्म मैं नहीं हूँ, रागादिक मैं नहीं हूँ, विकल्प तरंग मैं नहीं हूँ, ज्ञान द्वारा भेदकर-करके और इस ज्ञान भेदभावना के बल से इसको प्रकट भी भेद हो जाये, जुदा हो जाये तो ऐसे भेद के फल में जो अंतिम विभाग होगा वह शुद्ध परमात्मद्रव्य है । वह अंतिम विभाग क्या? केवल जैसा यह ज्ञानादिक गुणों का पुंज केवल निज रूप है वही मात्र रह जाये, ऐसे ही इन स्कंधों में अंतिम विभाग परमाणु कहलाता है, इसका फिर और विभाग नहीं होता । यह अविभागी है और विभाग रहित एकप्रदेशी होने से यह एक कहलाता है ।
परमाणु की अविनाशिता―जैसे चेतन चेतनरूप से कभी नष्ट होगा क्या? नहीं । यह चेतन निगोद जैसी निकृष्ट दशा में भी रह आया, पर इसकी चेतनता कभी नष्ट नहीं हुई । ऐसे ही यह पुद्गल परमाणु अमूर्त तत्त्व है और व्यक्त मूर्तिता को भी प्राप्त हो गया, स्कंधों के रूप में आ गया, फिर भी क्या पदार्थत्व के रूप से इसका क्या विनाश हुआ है? जो स्वरूप है, जो ढंग पद्धति है वह वही ही रही, उसका विनाश नहीं हुआ, अतएव वह नित्य है । मूर्ति नाम कहलाता है रूप, रस, गंध, स्पर्शवान होने का । यह परमाणु यद्यपि प्रकट रूप में न किसी रूपरूप है, न किसी रसरूप है, न गंधरूप है, न स्पर्शरूप है तब भी इसकी शक्ति है और इसकी पर्याय भी कोई न कोई अंत: अव्यक्त व्यक्त रहती ही है, ऐसी मूर्तिता को यह परमाणु कभी नही छोड़ता, अकेला रह गया, कार्यपरमाणु बन गया, फिर भी मूर्तिता कहीं नहीं जाती ।
परमाणु की अशब्दता―शब्द परमाणु का गुण नहीं है, रूप आदि तो गुण हैं । गुण उसे कहते हैं कि जो शाश्वत रहे और जिसका कोई न कोई परिणमन प्रतिसमय रहा करे । शब्द में यह बात नहीं है । परमाणु में शब्द शाश्वत रहे और फिर उस शब्द की कोई न कोई पर्याय सदैव व्यक्त रहे, ये दोनों ही बातें नहीं हैं । न तो शब्द शाश्वत रहते हैं, जब व्यक्त हो तब हो और शब्द गुण माना जाये तो उस शब्द गुण की परिणति भी सदैव नहीं रह सकती । शब्द गुण ही नहीं है । परमाणु में शब्द गुण का अभाव होने से शब्दरूप गुणपरिणमन भी परमाणु में असंभव है । शब्द तो स्कंधरूप द्रव्यपर्याय है । परमाणु शब्दरहित है । स्कंधों के संयोग और वियोग का निमित्त पाकर भाषावर्गणा जाति के जो पुद्गल स्कंध हैं वे शब्दरूप परिणम जाते हैं । उनका यह शब्दरूप परिणमन प्रदेशपरिणमन है, गुणपरिणमन नहीं है । भाषावर्गणा का भी कोई अणु एक अणु के रूप में रह जाये तो भी वह शब्दरूप नहीं परिणम सकता । प्रत्येक परमाणु शब्दरहित है ।
परमाणु में शब्दकारणता का भी अभाव―शब्दरहितपने का निषेध इस गाथा में इसलिए किया गया कि स्थूलरूप से कुछ लोग इन शब्दों के बारे में सोच सकते हैं कि ये दिखते तो हैं नहीं, कोई पिंडरूप तो हैं नहीं, तो शायद ये शब्द ही परमाणु के रूप होंगे, उनकी सूक्ष्मता के कारण और अदृश्यता के कारण ऐसी दृष्टि किसी स्थूल बुद्धि में हो सकती है । अत: प्रथम ही निषेध किया गया है कि परमाणु शब्दरहित है, और शब्दरहित क्या, शब्द का कारण भी नहीं है । परमाणु से शब्द की उत्पत्ति नहीं होती । इस प्रकार इन स्कंधों में जो शुद्ध मूल तत्त्व है वहमूलतत्त्व ऐसा निर्दोष है यही है वास्तविक पुद्गल द्रव्य परमाणु । अब इस ही परमाणु के संबंध में आगे और विशेष वर्णन होगा ।