वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 81
From जैनकोष
एयरसवण्णगंधं दो फासं सद्दकारणमसद्दं ।
खंधंतरिदं दव्वं परमाणुं तं वियाणेहि ।।81।।
शुद्ध परमाणु का महत्त्व―द्रव्य के नाते से जो एक शुद्ध सिद्ध भगवान का महत्त्व है वही परमाणु का महत्त्व है । हम आप जीव हैं, सिद्ध भगवान की जाति के हैं, वर्तमान में दुख में पड़े हुए हैं । दुःख से निवृत्त होना है इस प्रयोजन से इस निज के स्वार्थ की सिद्धि के लिए भगवान की महिमा गाया करते हैं । ठीक हम अपनी दृष्टि से सोचते हैं और यहाँ तक भी सोच सकना उचित है कि मान लो इस दुनिया में समस्त द्रव्य होते, केवल एक जीवद्रव्य ही न होता तो क्या व्यवस्था थी? कौन जानने वाला था, किसको जाना जाता? कुछ भी वहाँ व्यवस्था न होती । इससे यह बात ठीक है, फिर भी परमाणु की यह शुद्धता जानने में भी दो बातें गर्भित हैं―एक तो यह कि जैसे सभी द्रव्यों की शुद्धता हम जाने तो पुद्गल की भी शुद्धता जानने में आना चाहिए । दूसरी बात यह है कि हमारा जितना जो कुछ लगाव है, जो कुछ भ्रमण का कारण है, क्लेश का कारण है, उनका आश्रय, उनका निमित्त ये पुद्गल स्कंध हैं, तो इनसे हमारा वास्ता पड़ा करता है और वह अहितरूप में । तो इस अहितकारी आश्रयभूत, निमित्तभूत स्कंधों की असलियत जानने में आ जाये तो फिर ये राग मोह नहीं ठहर पाते हैं । तो अपने पवित्र स्वार्थ के लिए भी पुद्गल की शुद्धता जानना आवश्यक हुई ।
शुद्धद्रव्यदृष्टि का प्रभाव―शुद्ध द्रव्य के देखने में प्रथम तो यह बात है कि किसी भी द्रव्य को देखें तो उपयोग की पद्धति ही विलक्षण हो जाती है । धर्मद्रव्य की शुद्धता में उपयोग जाये तो क्या वहाँ लाभ नहीं मिलता? मिलता है । अशुद्ध को यही सर्वस्व है, इस प्रकार जानने में हानि ही हानि उठानी पड़ती है और किसी भी शुद्ध द्रव्य के ज्ञातृत्व में हित की भी सिद्धि हो सकती है । उस प्रकार से जानने में इसे लाभ होता है । इस गाथा में परमाणु द्रव्य के गुण और पर्याय किस प्रकार रहा करते हैं, इसका वर्णन है । परमाणु शब्द के सुनते बोलते ही हमारी दृष्टि अविभागी पुद्गल पर जानी चाहिए जो स्कंधों से, इन दिखने वाली चीजों से बिछुड़कर अंत में कोई विभाग रहित द्रव्य रह जाये ।
परमाणु के मुख्य गुण और परिणमन―परमाणु के 4 गुण हैं―रूप, वर्ण, गंध, स्पर्श ।और इन चारों गुणों के 5 परिणमन हैं । प्रत्येक परमाणु में एक साथ 5 परिणमन होते हैं ।रस 5 तरह के हैं-खट्टा, मीठा, कडुवा, तीखा और कषैला । इन 5 प्रकार के रसपरिणमनों में कोई प्रकार का रस एक होता है । वर्ण 5 प्रकार के हैं―काला, पीला, नीला, लाल, सफेद ।इन 5 वर्ण परिणमनों में से कोई एक परिणमन होता है, काला हो या अन्य प्रकार हो । दो गंध परिणमन हैं―सुगंध और दुर्गंध । इनमें से एक परिणमन परमाणु में है और स्पर्श चूँकि स्पर्शनइंद्रिय से यह परिणमन जाना जाता है, अत: एक स्पर्श गुण कहा है । वहाँ तो जैसे चैतन्य एक कहकर चैतन्य के दो भेद हैं―ज्ञान और दर्शन, और ये दोनों गुण पृथक् हैं, इसी प्रकार स्पर्श कहने पर भी इस स्पर्श के दो भेद हैं जिनका नाम हमें नहीं मालूम, पर एक भेद में से तो शीत और उष्ण―इन दो प्रकारों में से कोई परिणमन होगा और एक भेद में से स्निग्ध और रूक्ष―इन दो में से कोई परिणमन होगा । इस प्रकार स्पर्श गुण के ये दो परिणमन होते हैं । यों एक परमाणु में 5 परिणतियां होती हैं, इस दृष्टि से देखो तो परमाणु कितनी तरह के सब ज्ञात होंगे । 5 रसों में से एक, तो 5 संख्या रख लो, 5 वर्ण में से 5 संख्या रख लो, 2 गंध में से दो गंध रख लो और चार स्पर्श में दो और दो गुणित रख लीजिए । अब इनका गुणा कर दीजिए तो (5х5х2х2х2=200) परमाणु 200 प्रकार के होंगे । सभी परमाणुवों में रस, वर्ण, गंध और स्पर्श ये 4 गुण हैं ।
गुण का स्वरूप―गुण उसे कहते हैं जो सहज हो, ध्रुव हो, एक साथ सदा रहने वाला हो । जैसे आम अभी हरा है, कुछ समय बाद पीला बन गया तो हरा तो नष्ट हो गया, पीला बन गया, पर हम आप से पूछें कि पीला बन कौन गया? रंग बन गया पीला ।तो जो भी बन गया पीला वह तो ध्रुव कहलायेगा ना? रंग बन गया पीला, जो पहिले कैसा था? हरा था । तो रंग सामान्य जिसे रूप शक्ति कहेंगे वह रूपशक्ति पहिले भी है, अब भी है, सदाकाल रहेगी । उस रूपशक्ति के परिणमन हो रहे हैं, तो जो शक्तिरूप में हैं वे ये 4 गुण हैं, और वे ही व्यक्तरूप से जिन-जिन पर्यायों में परिणत हुए हैं, वे पर्यायें हैं ।
परमाणु की शब्दरहितता―ये परमाणु शब्द के कारणभूत तो हैं, पर स्वयं शब्दरहित हैं । ये स्कंध शब्द के व्यक्तरूप कारण होते हैं और यों समझिये कि दो प्रकार के स्कंध हैं―महास्कंध और भाषावर्गणा के स्कंध । जब हम जीभ की ठोकर लगाते हैं या कंठ पर कुछ वज़न डालते हैं तब शब्द निकलते हैं तो जीभ का दांत में लगना, तालू में लगना, मूर्द्धा में लगना आदि यह तो है महास्कंध की भिड़ंत, और इस महास्कंध के संघटन का निमित्त पाकर जो भाषावर्गणा के शब्द भरे पड़े हुए हैं वे शब्दरूप परिणम जाते हैं और इस प्रकार शब्दों की तरंगें उठती हैं । तो इन दोनों प्रकार के स्कंधों से आश्रयभूतपने की दृष्टि और उपादान की दृष्टि से परमाणु कारण तो हो गया, पर स्वयं शब्दरूप नहीं हुआ । एक परमाणु में शब्द की उत्पत्ति नहीं होती ।यह परमाणु अशब्द है ।
आत्मदृष्टांतपूर्वक परमाणु के अशब्दत्व की सिद्धि―जैसे यह आत्मा भी शब्द का कारणभूत है, न हो आत्मा तो ये वचन कैसे निकलें? यह भाषा, ये उपदेश कहाँ से प्रकट होते? तो यह आत्मा इसी प्रकार शब्दों का कारणभूत है । तालू ओंठ जीभ इनका व्यापार मुर्द में तो नहीं होता । तो इसी प्रकार शब्द का कारणभूत है परंपरया आत्मा, फिर भी निश्चय से यह आत्मा शब्द ज्ञान का विषयभूत तक भी नहीं है, यह तो अतींद्रिय ज्ञान का विषय है । और शब्दादिक पुद्गल पर्यायरूप भी नहीं होते, इस कारण यह आत्मा शब्दरहित है । इस ही प्रकार यह परमाणु शब्द का कारणभूत है । महास्कंध में रहने वाला परमाणु भी परंपरया या निमित्तरूप से शब्द का कारणभूत है और भाषावर्गणा को परमाणु भी कारणभूत है, लेकिन परमाणु स्वयं शब्दरहित है ।
शुद्ध ज्ञान में सहज आनंद का चमत्कार―भैया! हम सबको जानना चाहते हैं, जानने का यत्न है हम जीव को भी जानते हैं, अजीव को भी जानते हैं, पर जीव को जानें तो जीव के शाश्वत स्वभावरूप चैतन्यशक्तिरूप से जानें । इस शुद्ध जानन से एक बहुत बड़ा चमत्कार आत्मा में होगा । अनाकुलता पैदा हो, सहज आनंद जगे, इससे भी बढ़कर कोई चमत्कार है क्या दुनिया में? उन जीवों को देखो तो उनमें उनको चैतन्यस्वभावरूप में देखो और पुद्गल को देखो तो इन स्कंधों में इन स्कंधों के कारणभूत अविभागी परमाणु को निरखो । ज्ञान तो होना ही चाहिए । अज्ञान अंधेरे से बढ़कर कुछ पाप नहीं है । सबसे बड़ा पाप अज्ञान अंधकार है ।अज्ञान अंधकार नाम मिथ्यात्व का है । आत्मा के स्वरूप का दर्शन न होना, इस आत्मा को सहजरूप से न परखा जाये वह अज्ञान अंधकार है । किंतु इस अज्ञान अंधकार को मिटाने के लिए जो ज्ञान करना होता है और जिसकी विशेषता से यह अज्ञान अंधकार मूलत: नष्ट होता है तो वह श्रुत शब्द भी ज्ञातव्य है ।
द्रव्य के स्वरूप का त्रिकाल अपरित्याग―यहाँ परमाणु की चर्चा है, परमाणु अविभागी है और 5 पर्यायों वाला है, शब्दरहित है । शब्दरूप परिणम करने का स्वभाव तो इसमें है, स्कंध है, लेकिन एकप्रदेशी होने के कारण इसमें शब्द पर्याय की परिणति नहीं जा सकती, इस कारण यह शब्दरहित है, यह स्कंध में रहता हुआ भी स्कंध से अपना भिन्न स्वरूप रख रहा है ।जो कुछ यहाँ दिखता है, यह ठंडा है, यह गर्म है, इसमें एक परमाणु कहाँ दिखा? अनंतपरमाणुवों का एकत्व परिणमन हो गया है, ऐसी यह स्कंध की दशा है । तो बंध के प्रति ऐसा एकत्व परिणमन होकर भी प्रत्येक परमाणु अपना-अपना सत्त्व रख रहा है । वे सब यों ही एक नहीं हो गए, फिर वे बिखरे तो अटपट ढंग से बिखरना किसी का कुछ बन जाये, वह परमाणु स्कंध से भी सब अपना-अपना सत्त्व अपने आप में रक्खे हुए है । स्कंधों में छुपकर भी, आंतरिक होकर भी, गर्भित होकर भी परमाणु अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता, इसलिए वह परमाणु प्रत्येक एक-एक द्रव्य है । जैसे कि कर्म स्कंध के पिंड से यह आत्मा आवृत्त है तिस पर भी यह आत्मा अपने स्वरूप का परित्याग नहीं करता । यह अपने स्वरूप से वह आत्मा ही आत्मा है ऐसे ही इन स्कंधों से भी इस परमाणु का सत्त्व अपने-अपने में पड़ा हुआ है ।
अज्ञानविलय की प्रेरणा―भैया! अज्ञान अंधकार मिटाने और इसकी धुन बनावो कि यह जगत असार है, इसमें जो समागम मिले हैं वे मूढ़ बनाने के लिए तो मिले हैं, पर कल्याण के लिए नहीं । जो भी परिग्रह हैं चेतन अचेतन सभी परिग्रह इतने क्या, इससे करोड़गुना परिग्रह अनेक भवों में पाया, लेकिन सब छोड़कर फिर अकेला का अकेला रीता यहाँ आना पड़ा । यहाँ भी जो कुछ मिला है इसमें से रंचमात्र भी साथ न जायेगा । बस उसकी वजह से जो विचार गड़बड़ बनाया और पापपरिणाम बनाया उनका मात्र फल भोगना होगा । यहाँ के ये प्राप्त हुए परिग्रह कुछ भी मदद न देंगे । अत: इतना साहस बनायें कि परवस्तुवों से मेरा कुछ भी प्रयोजन नहीं है । परिग्रहों की कमी में तो काम निकल जायेगा, पर परिणामों के मलिन करने से जो आंतरिक बाधा होती है उससे तो काम नहीं निकल सकता है । तो बाहर में जो कुछ होता है होने दो, अपने आप में मलिनता का परिणाम न जगना चाहिये ।
प्रभु की आज्ञा―हम प्रभु की भक्ति तो करें और उनका कहना एक भी न माने तो फिर प्रभु की भक्ति कहाँ रही? मोहवश अपनी जिद्द पर ही अड़े रहें और प्रभु वचन न मानें तो क्या उसे प्रभुभक्ति कहेंगे? भगवान का आदेश है कि हे भव्य जीवो! तुम्हारा स्वरूप वैसा ही है जैसा कि मैं हूँ । तुम्हारा कर्तव्य तो निराकुल रहने का होना चाहिए । शांति चाहते हो तो जिस मार्ग पर चलकर हमने कृतकृत्यता पायी है उसी मार्ग पर तुम चलो । भगवान इन शब्दों में नहीं कहते हैं पर भगवान की ओर से इन शब्दों को कहकर भगवान के आदर्श का लाभ उठा लीजिए।
आज्ञा का अधिकारी―जैसे कोई नदी में से चलकर किनारे लग गया हो तो उस किनारे पहुंचने के बाद में उस पुरुष को यह अधिकार है कि दूसरों को भी उसी मार्ग से आने के लिए कहे । देखो इस ही जगह से आना, उस जगह न चले जाना । हाँ चले आवो । तुम ठीक आ रहे हो, देखो अब इस तरह आवो । उसे अधिकार है सब कुछ कहने का, क्योंकि वह नदी को पार करके किनारे लगा है । जिसने नदी की न गहराई जानी, न गैल जानी, न खुद तैरकर के किनारे गया और वह जिस चाहे से कहता फिरे कि चले जावो, पार हो जावोगे तो उसे ऐसा कहने का अधिकार नहीं है । ऐसे ही जो आत्मा स्वयं रत्नत्रय के मार्ग से चलकर इस संसार समुद्र को, नदी को पार कर के किनारे पहुंचे हैं उन्हें ही अधिकार है उपदेश देने का कि इस मार्ग से आइए । तो प्रभु के स्वरूप को निरखकर हमें यह सब अपने अंतरंग में आवाज उठानी चाहिए कि हे नाथ! मुझे तो आप अपने निकट ही बुलायें।
संसार में रम्य स्थान व पदार्थ का अभाव―संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं है जो रमने के योग्य हो । कहाँ रमा जाये? ये जड़ वैभव स्वयं अचेतन हैं, मायारूप हैं, इनमें रमना तो अत्यंत मूढ़ता है । यह जीव जिस शरीर में रमता है यह शरीर औदारिक है, हाड़, मांस, मज्जा, खून इत्यादि सारी की सारी अपवित्र वस्तुयें इसमें भरी हुई हैं । यह शरीर क्या रमन के योग्य है? इनमें मेरा यश हो, कीर्ति हो, नाम हो इत्यादि जो मानसिक कल्पनाएँ होती हैं ये सब व्यर्थ की हैं । हे नाथ ! यहाँ रमने योग्य कुछ भी नहीं है । बल्कि इस विशुद्ध निरपराध ज्ञान में ये परपदार्थ आते हैं तो इस निरपराध ज्ञान को ये दूषित कर डालते हैं । मेरे तो निरंतर अविकारता रहे, विकार मेरे में रंच भी उत्पन्न न हो सकें, ऐसी सामर्थ्य सुबुद्धि हे नाथ ! मुझमें प्रकट हो तो इस अनंतकाल में भ्रमते-भ्रमते आज जो मनुष्यभव पाया है तो समझो कि सार्थक हो गया अन्यथा तो यों अनेक शरीर धारण किये और मरकर फिर वैसे ही शरीर धारण कर जाते हैं ।
सब को प्रसन्न करने के आशय की असफलता―एक सेठजी थे । उनके थे 4 लड़के ।5 लाख का धन था । 1-1 लाख सबको ठीक-ठीक हिसाब से बाँट दिया । बाद में सेठ ने अपने सभी बेटों से कहा―देखो बेटा! सब लोग बड़ी शांति से न्यारे हो गए, अब उसकी खुशी में सभी लोग अपने बिरादरी के लोगों को जीवनवार करा दो । तो सबसे पहिले छोटे लड़के ने बिरादरी के लोगों को जीवनवार कराया । उसने 10-12 मिठाइयाँ बनवायीं, सो बिरादरी के लोग जीमते जायें और कहते जायें कि मालूम होता है कि सेठ ने इसे सबसे अधिक धन दे दिया है । यह सबसे छोटा था । छोटा बच्चा सबसे प्यारा होता है । उसके बाद उससे बड़े ने जीवनवार कराया तो उसने केवल 5 मिठाइयाँ बनवायीं । बिरादरी के लोग खाते जायें और कहते जायें कि यह तो बड़ा ही चालाक निकला । इसने तो 5 ही मिठाइयों में सबको टरका दिया । कुछ दिन बाद तीसरे लड़के ने जीवनवार किया तो उसने सीधा पूड़ी और साग ही बनवाया । बिरादरी के लोग खाते जायें और कहते जायें कि यह तो बड़ा ही चालाक निकला,चाहे रख लिया हो धन कितना ही, केवल पूड़ी और साग खिला दिया । जब सबसे बड़े लड़के ने जीवनवार कराया तो उसने पकवान का नाम भी न लिया, सीधे चने की दाल, रोटी बनवाया । बिरादरी के लोग जीमते जायें और कहते जायें कि यह तो सबसे अधिक चालाक निकला, पकवान का नाम भी नहीं लिया, यह तो सबसे बड़ा था, इसने चाहे सब कुछ धन रख लिया हो । तो भाई तुम किन में अपनी प्रशंसा चाहते हो? यहाँ कौनसी ऐसी दुनिया है जो सबकी सब मिलकर आपका यश गा सके? और किसी ने यश गा भी दिया तो मरना तो पड़ेगा ही । मरने पर तो फिर उसके लिये यहाँ का सब कुछ बेकार हो जायेगा ।
एकत्वदृष्टि की अभ्यर्थना―हे नाथ! इन विकल्पों का त्यागकर मेरे में ऐसी सद्बुद्धि जगे कि मेरे में परमाणुमात्र भी अलाबला कोई तरंग न रहे । मैं केवल एक इस निज चैतन्यस्वरूप की उपासना करता रहूं । यह प्रार्थना करने के लिए प्रभुमूर्ति के सामने आया करते हैं ।ऐसी स्थिति मिले बिना हम आपका कभी उद्धार नहीं हो सकता । तो इस पिंड में रहते हुए इस पिंड से न्यारे अपने चैतन्यस्वरूप को निरखने का हम यत्न करें और इन स्कंधों में रहते हुए भी स्कंधों के स्वरूप से, लक्षण से पृथक् अपना लक्षण रखने वाले परमाणु पर दृष्टि दें तो ये सारे मायाजाल झड़ जायेंगे और परमार्थ चैतन्यस्वरूप हमारी निगाह में रहेगा । ऐसी शुद्धस्थिति में ही हमारे कल्याण का मार्ग है ।