वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 82
From जैनकोष
उवभोज्जमिंदियेहिं य इंदियकाया मणो य कम्माणि ।
जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्बं पुग्गलं जाणे ।।82।।
उपभोग्य व अनुपभोग्य पुद्गलों में पुद्गलत्व―सब प्रकार के उपभोग्य पुद्गलों के विकल्पों का उपसंहार इस गाथा में किया है । जो कुछ इंद्रिय के द्वारा भोगने में आ रहा है ये स्पर्श, रूप, रस, गंध, वर्ण सभी पुद्गल हैं । भोगने में तो अन्य कुछ आते नहीं, अपनी इंद्रियों द्वारा जो ज्ञान होता है, रागभावसहित जो जीव की वृत्ति होती है उसमें विषयभूत ये पुद्गल होते हैं और इस कारण से इन्हें इंद्रिय द्वारा उपभोग्य कहा गया है । वस्तुत: प्रत्येक पदार्थ अपने आपको अपने आप भोगता रहता है । अचेतन पदार्थ भोगते नहीं हैं, क्योंकि उनके सुध नहीं है । वहाँ भोगना केवल परिणमन मात्र को कहा गया है और जो पदार्थ भोगता है सो यद्यपि वहाँ भी भोगने का अर्थ परिणमन है, लेकिन चैतन्यभाव होने से इसका परिणमन कुछ चेतना को गर्भित करता हुआ कहा जाता है । प्रत्येक पदार्थ अपने ही परिणमन का अनुभव किया करता है । यह जीव भी किसी दूसरे पदार्थ को भोग नहीं सकता है । उपयोग में परपदार्थ भोगे जा रहे हैं―यह बात समाये तो उसे पर का भोगना कहा करते हैं । जो कुछ इन इंद्रियों द्वारा भोगा जाता है वह सब पुद्गल है ।
कुबुद्धिप्रसार का परिणाम―भैया! जब इस संसारी जीव पर कुमति छा जाती है तो इसको इस जड़ पुद्गल में विशेष ममता उत्पन्न हो जाती है । उस ममता के कारण इस जीव का भला नहीं, किंतु बुरा ही होता है । इतना विकट कर्मों का बंधन हो जाता है जिस कर्मबंधन की प्रेरणा से यह जीव भव-भव में जन्ममरण के दुःख पाता है । सबसे बड़ा काम है मोह का विनाश कर लेना । जिसके मोह का विनाश है वह अन्याय नहीं कर पाता, यह उसकी पहिचान है । मोह में सिवाय आकुलता के और कुछ भोगने को मिलता हो तो बतावो । खूब मोह किया,सबको अपने-अपने मोह की खबर है । मोह के फल में कुछ लाभ की बात मिल सकी हो तो बतावो । शरीर भी वही न्यारा का न्यारा और इसमें अधिष्ठित जीव सबसे न्यारा, इस जीव की भरपूरता तो ज्ञान और आनंद के विकास में है । जहाँ ज्ञान का विकास भी कुछ न हो और शुद्ध आनंद का भी विलास न हो वहाँ तो वह जीव रीता ही है, पाया कुछ नहीं, खोया ही है ।
अतींद्रिय आनंद के परिचय बिना पर का व्यामोह―भैया ! जब परव्यामोह नहीं रहता है तब यह दृष्टि बनती है कि मैं किसी भी पदार्थ का भोक्ता नहीं हूँ, केवल एक अपनी कल्पना बना लेता हूँ । जो कुछ इंद्रियों के द्वारा भोगने में आता है वे सब पुद्गल पदार्थ हैं, सो इंद्रियाँ जो इस शरीर से लगी हैं, स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र―ये आत्मा के स्वभाव नहीं हैं । आत्मा तो अतींद्रिय परमात्मस्वरूप है । उससे उल्टी हैं ये इंद्रियाँ । ये इंद्रियां भी पुद्गल पदार्थ हैं इन इंद्रियों के द्वारा यह जीव तभी भोगने का यत्न करता है जब इसे अपने वीतराग अतींद्रिय सुख का परिचय नहीं होता है, मैं तो सुख स्वभावी हूँ इसकी सुध बिना यह जीव इन इंद्रियों से सुख भोगने का प्रयत्न करता है ।
पदार्थ की पूर्णस्वभावता―प्रत्येक पदार्थ पूरा हुआ करता है । अधूरा का क्या अर्थ है? कोई सत् अधूरा भी होता है क्या? जो भी सत् है वह पूरा है, जैसा तैसा है । यह आत्मा पूरा है, यह दुःखी भी हुआ तो भी एक दुःख की पूर्ण पर्याय को लेकर दुःखी हुआ । और सुखी हुआ तो सुख की पूर्ण पर्याय को लेकर सुखी हुआ । जब इसमें ज्ञानप्रकाश हुआ तो पूर्ण ज्ञानप्रकाश पर्याय को लेकर हुआ, पर आत्मा परिणमता है तो पूरा का पूरा परिणमता है और वह परिणमन उस काल में पूरा है । दृष्टि लगावो प्रभु की ओर । यह प्रभु वीतराग सर्वज्ञ पूर्ण हैं । अधूरा है क्या? नहीं । यह पूर्ण है प्रभु, ज्ञानस्वभाव से परिपूर्ण है और इसमें निकलता क्या रहता है? केवलज्ञान । वह केवलज्ञान भी पूर्ण है कि नहीं? पूर्ण है । तो पूर्ण में से पूर्ण निकल गया । पूर्ण है ज्ञानस्वभाव । उसमें से पूर्ण ज्ञान केवल निकल आया, पूर्ण निकल आने पर भी वह ज्ञानस्वभाव पूर्ण ही रहा तथा वह निकला पूर्ण, पूर्ण में विलीन हो जाता, नवीन पूर्ण का अभ्युदय होता । ऐसे ही हमारा जो भी सत्त्व है, जो भी हम सत् हैं वह परिपूर्ण है । इस परिपूर्ण आत्मसत् से जो भी जब भी निकलता है वह परिपूर्ण निकलता है । जो पर्याय जिस काल में निकलती है वह पर्याय उस काल में पूर्ण निकलती है । तो यहाँ भी इस पूर्ण से पूर्ण निकलता है और पूर्ण निकलने के बाद भी यह मैं पूरा का ही पूरा बना हुआ हूँ । यह निकलता हुआ पूरापन इसी पूर्ण में विलीन हो जाता है और नया पूर्ण उत्पन्न हो जाता है, और इन दोनों का स्रोतभूत यह मैं पूर्ण का पूर्ण रहा करता हूँ ।
पूर्ण में क्षोभ के अनवसर की यथार्थता―इस पूर्ण में कोई अधूरापन नहीं है, कोई कमी नहीं है, कुछ नहीं अटकी किसी भी बात से । व्यर्थ लोग सोच-सोचकर दुःखी होते रहते हैं, पर परमाणु मात्र से भी इस आत्मा की अटक नहीं है । यह आत्मा अपने प्रदेशों में परिपूर्ण है, लेकिन एक अनादि वासना है, निमित्तनैमित्तिक संबंध है, अपनी भूल है । यह जीव इंद्रियों के द्वारा इन स्पर्श आदिक विषयों को भोगता है तो जो भोगा जाता है वह भी पुद्गल है और जिन इंद्रियों के द्वारा भोगा जाता है वे इंद्रियां भी पुद्गल हैं । ये सब काय कहलाते हैं । जीव के योग द्वारा संचित परमाणुवों के ढेर को काय कहते हैं । पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय अथवा औदारिककाय, वैक्रियककाय आदि ये समस्त काय पुद्गल हैं । आत्मा का स्वरूप तो कायरहित है, अशरीरी है । अशरीर परमात्मदेव की परंपरा से प्रतिपादित ये समस्त काय पुद्गल हैं ।
मन की पौद्गलिकता―यह मन जिसका दूसरा नाम है अंतःकरण, वह भी पुद्गल है । ये 5 इंद्रियां बाह्यकरण कहलाती हैं, ये बाहर दिखती हैं, ये बाह्यज्ञान के साधन हैं और अंतरंग में जो द्रव्यमन की रचना है वह अंतःकरण है । अंतःकरण की रचना यह भी पौद्गलिक है । आत्मा तो इस मन से रहित है, मन से उत्पन्न हुए विकल्पजाल से भी रहित है, ऐसे इस शुद्ध जीवास्तिकाय से विपरीत जो एक मन की रचना है, यह रचना भी पौद्गलिक है । ये 8प्रकार के कर्म―ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय आत्मपदार्थ से प्रतिकूल हैं । यह आत्मा तो चेतन है, जिसके स्वरूप में कर्मों का प्रवेश नहीं है, ऐसे इस चिद्ब्रह्म से विपरीत प्रतिपक्ष ये ज्ञानावरण आदिक 8 प्रकार के कर्म हैं, ये कर्म भी पौद्गलिक हैं । यह सब जीव संबंधित बातों को बताया गया है । इसके अतिरिक्त जो अन्य पदार्थ पड़े हुए हैं मूर्त पदार्थ वे सबके सब पौद्गलिक हैं । यह आत्मा अमूर्त स्वभाव वाला है । उससे विपरीत जो कुछ भी ये सब मूर्त पाये जाते हैं वे सब पौद्गलिक हैं । यह सब इसलिए बताया जा रहा है कि यह श्रद्धा बनी रहे कि यह मैं नहीं हूँ, ये पौद्गलिक ठाठ हैं, कोई स्कंध संख्यात परमाणुवों का पिंड है, कोई असंख्यात परमाणुवों का पिंड है, कोई अनंत परमाणुवों का पिंड है । अनंत परमाणुओं का संचयरूप जो हम आप सब देखते हैं इन्हें तो पौद्गलिक जानें ही, और भी संख्याताणु तक स्कंध हैं ।
कर्म की पौद्गलिकता व बंधनविधि―सूक्ष्म स्कंध कार्माणवर्गणायें हैं जिनके कर्मत्व परिणमन कर्म बनते हैं । साधारण तौर से यह प्रसिद्ध है कि जीव के रागद्वेष भावों का निमित्त पाकर नवीन द्रव्यकर्म बनते हैं और द्रव्यकर्मों के उदय का निमित्त पाकर जीव में रागद्वेष होते हैं । ये बातें बहुत-बहुत ग्रंथों में कही गई हैं और यथार्थ भी हैं, किंतु इनमें एक मर्म जरूर हुआ है । यह तो स्पष्ट है कि द्रव्यकर्मों के उदय का निमित्त पाकर जीव में रागद्वेष भाव उत्पन्न होते हैं । अब जो कर्मबंधन है उस कर्मबंधन का निमित्त क्या है? कहा यह गया कि जो नवीन कर्म बँधेंगे उनमें निमित्त हैं रागद्वेष मोहभाव । इसका विश्लेषण किया जाये तो बात वहाँ यह है कि नवीन कर्मों के निमित्त उदय में आये हुए द्रव्यकर्म हैं अर्थात् उदय में आये हुए द्रव्य कर्मों का निमित्त पाकर नवीन कर्म बँध जाते हैं । नवीन कर्मों के बंधन का निमित्त है उदयागत द्रव्यकर्म, न कि रागद्वेष मोहभाव । फिर इन रागद्वेष मोहभावों को नवीन कर्मों के बंधन का निमित्त क्यों कहा गया है? अनेक ग्रंथों में यों कहा गया है कि नवीन कर्म बँधते तो हैं उदयागत द्रव्यकर्म का निमित्त पाकर, पर उदयगत द्रव्यकर्म में नवीन कर्मबंधन का निमित्तपना कैसे आया । यह निमित्तपना आता है रागद्वेष मोह भावों का निमित्त पाकर अर्थात् कर्मों के बंधन का निमित्त है उदय में आये हुए द्रव्यकर्म । और उदय में आये हुए कर्मों में बंधन का निमित्तपना आ जाये इस कार्य का निमित्त है रागद्वेष मोहभाव ।
कर्मबंधनविधि पर एक लोकदृष्टांत―जैसे एक मोटा दृष्टांत लो । कोई आदमी अपने घर के कुत्ते के साथ घूम रहा है । रास्ते में सामने से कोई इसका अनिष्ट पुरुष मिला तो उस मालिक ने उस कुत्ते को सैन दी छू-छू । कुत्ते ने उस पुरुष पर आक्रमण किया तो आप यह बतलावो कि उस पुरुष पर आक्रमण किसने किया? यों भी तो आप सीधा कह सकते कि इस पुरुष ने आक्रमण किया । कुछ गलत बात है क्या? लेकिन इसका विश्लेषण करें तो बात यह हुई कि आक्रमण तो किया कुत्ते ने, और आक्रमण करने का जो साहस आया उसका निमित्त हुआ मालिक । ऐसे ही नवीन कर्मबंधन का कारण तो हुए उदय में आये हुए द्रव्यकर्म, और उदय में आये हुए द्रव्यकर्मों में नवीन कर्म बंधन का निमित्तत्त्व आ जाये उसका निमित्त है रागद्वेष मोह । तभी तो कभी ऐसी प्रसिद्धि आयी है कि उदयागत द्रव्यकर्म तो बँध गए, किंतु उपयोग किसी शुद्धद्रव्य की ओर लगा है, शुद्ध आत्मतत्त्व की ओर लगा है तो बहुत कुछ अंशों में चूंकि उसमें निमित्तपने का निमित्त नहीं मिला, सो नवीन कर्मबंधन में शिथिलता आ जाती है । ये कार्माणवर्गणायें पौद्गलिक हैं ।
पुद्गलविस्तार―जो पदार्थ दृष्टिगत होते, नहीं दृष्टिगत होते, वे सभी अपनी नवीनपर्यायों की उत्पत्ति के कारणभूत हैं, ऐसी अनंतानंत अणु वर्गणायें, अनंत अणु वर्गणायें, असंख्यात अणु वर्गणायें, संख्यात अणु वर्गणायें और भी उनके विभाग करते जायें तो सब 23प्रकार की वर्गणायें कही हैं । उनमें से जीव के ग्राह्य 5 प्रकार की वर्गणायें हैं―आहारवर्गणा, भाषावर्गणा, तैजसवर्गणा, मनोवर्गणा और कार्माणवर्गणा। अब यह निरख लीजिए कि यह मोही जीव पुद्गल-पुद्गल में ही रमण करता हुआ, भोगता हुआ चला आ रहा है । इन पौद्गलिक पदार्थों में ही यह जीव निरंतर विकल्प बनाया करता है । इसने सब पौद्गलिक ठाठों को ही सर्वस्व मान लिया है । रहना यहाँ कुछ भी नहीं है, सब कुछ छूटना ही है, पर उनका विकल्प नहीं छोड़ा जा पाता । उनको ही लोगों ने अपना सर्वस्व मान डाला है । ऐसी बेढंगी रफ्तार से ही चलते रहे तो उसका परिणाम क्या होगा, इस पर कुछ दृष्टि नहीं करते । मिलेगा क्या?
व्यर्थ का राग―एक का भाई गुजर गया, बी. ए. पास था । सर्विस खूब की थी और अंत में बड़ी उम्र पाकर गुजर गया । किसी ने उस मरने वाले के भाई से पूछा―कहो तुम्हारे भाई क्या कर गए? पूछते हैं ना लोग मरते समय कि क्या त्याग किया क्या दान दिया, क्या कर गये? यों ही किसी ने उस मरने वाले के भाई से भी पूछा कि तुम्हारा भाई क्या कर गया? तो वह कहता है―‘‘क्या बतायें यार क्या कारोनुमाया कर गए । बी. ए. किया, नौकर हुए, पेन्शन मिली और मर गये ।।’’ यही हाल सबका है । व्यापारियों ने व्यापार किया, धन कमाया, भोगा और अंत में गुजर गये । क्या रहा हाथ? अरे हाथ तो वह रहेगा जितनी ज्ञानसाधना कर लो, रत्नत्रय की सिद्धि कर लो, अपने आपमें अपने आपको सम्हाल लो, अपनी उपासना बना लो तो कुछ हाथ भी रहेगा, इन बाह्यपदार्थों में यहाँ कुछ भी हाथ न रहेगा, इनके कारण दुर्गति और सहनी पड़ेगी ।
पुद्गल के विषय में मोही का प्रवर्तन―यहाँ पुद्गलद्रव्यास्तिकाय यह वर्णन चल रहा था । इस गाथा में पुद्गलद्रव्य का व्याख्यान समाप्त हो रहा है । इस वर्णन से हमें शिक्षा यह लेनी है कि हमने इन पुद्गलों में ही उपयोग लगा-लगाकर अपने आपको बरबाद किया है, हमने अपना उपयोग अपने ज्ञानस्वरूप में नहीं टिकाया, अंत:प्रकाश का उपयोग करने का आनंद तो ना लुटा तो यह बाहरी कल्पित व्यर्थ का मौज ही लेने का यत्न किया और इसी कारण अबतक इस जगत में परेशान रहे, शरीर उत्पन्न हुआ तो माना कि मैं उत्पन्न हुआ हूँ । शरीर नष्ट हुआ, शरीर का वियोग हुआ तो माना कि अब मैं नष्ट हो रहा हूँ, शरीर को पुष्ट देखा तो अपने को पुष्ट माना, शरीर को कमजोर देखा तो अपने को कमजोर माना,धन वैभव जुड़ गया तो अपने को सुखी माना, धन वैभव न रहा तो अपने को रंक माना । कुछ यश,चला,प्रतिष्ठा बन गई तो उससे समझ लिया कि मेरा बड़ा प्रभाव है, यों नाना कल्पनाएँ इस जीव ने बनायी, क्योंकि जब स्वयं का आनंद न मिला और आनंद के लिए ललचाता रहा, तो फिर यह उनमें रम जाया करता है ।
निज की रम्यता के बोध बिना पररमण के भाव का क्लेश―किसी बच्चे के साथ में खेलते हुए दूसरे बच्चे के हाथ में खिलौना हो और माँ की गोद में चढ़ा हुआ बच्चा उस खिलौने को देखकर रोने लगे तो माँ उसे पीटती है, पर बच्चे का रोना बंद नहीं होता । उसका रोना तब बंद होगा जब उसे उसका खिलौना मिल जाये । तब माँ क्या यत्न करती है कि कोई खिलौना किसी से लाकर अथवा मोल लेकर उसका खिलौना बनाकर उसे दे देती है तो उस बच्चे का रोना बंद हो जाता है । ऐसे ही ये संसारी प्राणी इन परवस्तुवों के खिलौनों को निरख-निरखकर रोते हैं, दुःखी होते हैं, मलिन हृदय बनाते हैं । इनका यह रोना कब मिटेगा? जब इनको अपना खिलौना मिले । अपना खिलौना है अपने स्वरूप का दर्शन । निजस्वरूप का दर्शन मिले तो इसकी ये सब बाधायें दूर होंगी । यत्न करो इस ही का कि जो मेरा स्वरूप है, मेरा ही खिलौना है, सदा रहने वाला है, मुझ से अभिन्न है । केवल भावस्वरूप है, जिसमें पराधीनता नहीं है, स्वयं होने के कारण सुगम है, ऐसे स्वाधीन निज स्वरूपरूप खिलौने में अपने उपयोग को रमायें ।
मन को शुभकार्य में प्रवर्ताने का अनुरोध―यह मन बड़ा चंचल है । इसे शुभ कामों में लगायें तो यह ठीक रहेगा और शुभ काम इसे न मिलेंगे तो यह बिगड़ जायेगा । एक राजा ने देवता सिद्ध किया तो देवता आया, बोला―राजन्! हम तुम्हें सिद्ध हो गए हैं, तुम्हें जो कुछ काम करवाना हो सो बतावो । हम उस काम को पूरा करेंगे और अगर काम न बतावोगे तो हम तुम्हें खा लेंगे । राजा ने कहा अच्छा सड़क बना दो, सड़क बना दिया । राजन् काम बतावो । तालाब बना दो । बना दिया तालाब । राजन् काम बतावो महल बना दो । बना दिया महल । राजन् काम बतावो । यों राजा परेशान हो गया । सोचा कि मैं इसे क्या सोच-सोचकर बताता रहूंगा और यदि न बताते रहे काम तो यह मुझे खा डालेगा । सो राजा को एक उपाय सूझा । कहा अच्छा तुम एक 50हाथ का लोहे का डंडा गाड़ दो । गाड़ दिया ।राजन् काम बतावो । अच्छा इसके एक छोर में एक लोहे की बड़ी जंजीर बाँध दो । बाँध दिया । राजन् काम बतावो । अच्छा जंजीर का एक छोर अपने गले में फांस लो । फाँस लिया । राजन् का बतावो । अच्छा जब तक हम मना न करें तब तक तुम इसमें बंदर की तरह चढ़ो, उतरो । अब भला बतलावो इस काम का कोई अंत भी आयेगा क्या? अंत में वह देव परेशान होकर राजा से क्षमा मांगने लगा । राजन् क्षमा करो, अब हमें काम न चाहिए । अब तुम भी समय हमारा स्मरण कर लेना, हम फौरन आकर तुम्हारा काम कर जायेंगे । तो ऐसे ही यह मन चंचल है, इसे शुभ काम न मिलेंगे तो अशुभ विकल्प, गंदे विचार, कुबुद्धि उत्पन्न होती रहेगी । तो हम आप सबका कर्तव्य यह है कि अशुभ कामों की प्रवृत्ति से दूर हों ।यदि ढंग से बात समझ ले तो हमारा हित होगा और मन की स्वच्छंदता और कुटेव से इन पुद्गलो की प्रतीति बनाये रहेंगे तो हमारा अहित ही होगा ।