वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 83
From जैनकोष
धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असद्दमप्फासं ।
लोगागाढंपुट्ठं पिहुलमसंखादियपदेसं ।।83।।
धर्मद्रव्य की उदासीन कारणता―मुझ जीवद्रव्य के सिवाय जितने भी अन्य पदार्थ हैं वे सब अजीव कहलाते हैं । उन अजीवों में से पुद्गलद्रव्य का वर्णन तो किया जा चुका है । इसके बाद धर्मद्रव्यास्तिकाय का व्याख्यान कर रहे है । धर्मद्रव्य उसे कहते हैं जो चलते हुए जीवपुद्गल को चलाने में सहायक बने । जैसे चलती हुई मछली को चलाने में जल सहायक होता है ।जल कहीं जबरदस्ती मछली को नहीं चलाता है, किंतु मछली चलना चाहे, वह अपना उद्यम करे तो देख लो जल सहायक है या नहीं । जल के सिवाय अन्य जगह स्थानपर तो मछली चल नहीं सकती । ऐसे ही इस लोकाकाश में धर्मद्रव्य है । वह अति सूक्ष्म है वह हम लोगों के चलने में एक साधारण आश्रय है, निमित्त कारण है, उस धर्मद्रव्य का यहाँ वर्णन किया जा रहा है ।
सूक्ष्म पदार्थ की मार्गणा―धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य तथा कालद्रव्य―इन तीन के संबंध में किसी भी दर्शन में प्रकाश नहीं मिला । आकाश सब मानते हैं उस पुद्गल को भी मैटर के रूप में भौतिक रूप में माना ही है, जीव को भी स्वीकार करते हैं, कालद्रव्य को भी नहीं मानते, किंतु काल की बात को तो मानते हैं, समय, घड़ी, घंटा वगैरा । मूर्त अमूर्त समस्त द्रव्यों का प्रकाश जैनदर्शन में किया गया है । यह धर्मास्तिकाय रूप, रस, गंध, स्पर्श, वर्ण रहित है और इस लोक में अवगाढ़ रूप से भरा हुआ है, असंख्यातप्रदेशी है । धर्मद्रव्य अमूर्तिक है, जिनमें रूप, रस, गंध, स्पर्श इत्यादि गुण न पाये जायें वे सब अमूर्त हैं । इस आकाश में आकाश की ही तरह अमूर्त एक ऐसा विलक्षण द्रव्य पड़ा हुआ है कि जिसके रहने से हम आप चलना चाहें तो चल सकते हैं ।
विभिन्न कार्य में परनिमित्त का सन्निधान―जितने भी विभिन्न कार्य होते हैं उन विभिन्न कार्यों का कारण विभिन्न होता है । जीव और पुद्गल गमन किया करते हैं । यह गमनरूप क्रिया विभिन्न है तो इसका भी कोई शरण है । इसके संबंध में कुछ वैज्ञानिक लोग भी ऐसा अंदाज करते हैं कि आकाश में कोई ईथर है इस तरह का सूक्ष्म जिसका आधार पाकर चीजें चलती हैं । अनुमान करते हैं, किंतु उनके अनुमान में जो कुछ तत्त्व आता है उससे भी अतिसूक्ष्म धर्मास्तिकाय नामक पदार्थ है और वह रूप, रस, गंध, स्पर्श इत्यादि से रहित है, इसी कारण शब्दरहित भी है, सारे लोक में वह व्यापकर रहता है, लोक में अवगाढ़ है और उसके प्रदेश पृथक् सिद्ध नहीं हैं । जैसे कि मटके में चने भरे हों तो वे पृथक्-पृथक् हैं, इस तरह धर्मद्रव्य में प्रदेश पृथक् नहीं है । एक धर्मद्रव्य है, स्वभाव से ही महान है,अमिट है, प्रथुल है ।
धर्मद्रव्य की अखंड एकरूपता―यद्यपि वह अखंड है, निश्चय से एकप्रदेशी है अर्थात् अखंड है तो भी व्यवहारनय से उसमें असंख्य प्रदेश हैं । जैसे घड़े में पानी भरा रहता है वह अंतररहित है, तिल में तेल भरा रहता है वह अंतररहित है अथवा सिद्धलोक में सिद्धप्रभु विराजे रहते हैं वे अंतररहित हैं । वे सिद्धप्रभु निर्विकार स्वसम्वेदन ज्ञान में परिणम रहे हैं । उन जीवप्रदेश में उनके परम आनंद सुधा रस का स्वाद रहता है अथवा सिद्धक्षेत्र में जैसा शुद्ध सघन विराज रहे हैं, अमूर्त हैं इसी तरह इस लोकाकाश में धर्मद्रव्य व्याप रहा है परस्पर एक प्रदेश और दूसरे प्रदेश के बीच में व्यवधान नहीं है । जैसे नगर में मनुष्य बैठे हैं ये यहाँ हैं, वे वहाँ हैं, बीच में साफ मैदान है । इस तरह धर्मद्रव्य के प्रदेश नहीं हैं और वे सघन विराजे हैं, जैसे अभव्य जीव में मिथ्यात्व रागादिक पूरे में फैले हुए हैं अथवा जैसे आकाश पूरा विस्तृत है, स्वभाव से ही फैला है, इसी तरह यह धर्मद्रव्य इस आकाश में लोकाकाश में स्वभाव से ही है ।
वस्तु का स्वातंत्र्य―देखिये वस्तुस्वरूप की दृष्टि से निरखें तो कोई पदार्थ किसी पदार्थ का नहीं है । जैसे यहाँ कहने का रिवाज है कि आकाश में जीव है, पुद्गल हैं, ठहरे हुए हैं तो यों कहा गया है कि चूँकि आकाश निष्क्रिय है और विशाल है, उसके कुछ हिस्से में यह भावात्मक पदार्थ है । इस कारण कहते हैं कि आकाश में जीवादिक ठहरे हैं, किंतु स्वरूप से देखा जाये तो जैसे आकाश अपने अस्तित्व को लिए हुए अपने आपमें विराजा है इसी प्रकार प्रत्येक जीव अपने स्वरूप को लिए हुए अपने ही प्रदेश में विराजा है । किसी के प्रदेश में किसी दूसरे द्रव्य के प्रदेश स्वरूप पद्धति से प्रवेश नहीं करते हैं और इस दृष्टि से यह नहीं कहा जा सकता कि आकाश में जीव हैं । आकाश में आकाश है, जीव में जीव है, शरीर में शरीर है । यह एक निश्चयदृष्टि की बात है । जैसे स्कूल में किसी बच्चे की कोई किताब गुम जाये और कोई विद्यार्थी उसे पा ले । तो बाद में वह उठकर पूछता है कहो यह किताब किसकी है? तो कोई मस्खरा विद्यार्थी बोल देता है कि यह किताब कागज की है । अरे ठीक ही तो कहा ना ।इसी प्रकार निश्चयदृष्टि का अंदाज करिये । एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से संबंध नहीं बताया जा सकता निश्चय दृष्टि से । इसी प्रकार एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का आधार नहीं बताया जा सकता है निश्चयदृष्टि से । जीव में जीव है, आकाश में आकाश है, धर्मद्रव्य में धर्मद्रव्य है । प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने प्रदेश में बस रहा है । कोई कहीं अन्यत्र नहीं बसता । यह वस्तु स्वातंत्र्य का प्रतिपादन है ।
वस्तुस्वातंत्र्य के श्रद्धान में सिद्धि―जो भी जीव निर्मोह होकर सिद्ध हुए हैं उन सब जीवों ने यही दृष्टि अपनाई थी । यों ही इन्होंने सब पदार्थों को देखा था । प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूप को लिए हुए है, किसी एक पदार्थ का किसी दूसरे पदार्थ में प्रवेश नहीं है । देखिये यह जगत अशरण है, यहाँ अपना स्थान समझना, अपना घर समझना कोरा अज्ञान है और जो लोग इस अज्ञान में डूबे रहते हैं उनका संसार लंबा होता रहता है, जन्ममरण की परंपरा बढ़ती रहती है । क्या है यह परिग्रह? किसी भी चीज में ममता करने से तो न जाने कितने जन्ममरण करने पड़ेंगे? ज्ञान में इतनी बात तो आना ही चाहिए कि मेरा मात्र केवल मैं हूँ, मेरा मैं मुझ में हूँ अन्यत्र नहीं । मेरा जो कुछ भी परिणमन होता है, क्रिया होती है वह सब मेरे में होती है, किसी दूसरे पदार्थ के लिए नहीं होती । मैं जो कुछ करता हूँ, अंतरंग में किया करता हूँ, भावात्मक परिणमन करता हूँ । निर्दोष निराकुल जो परिणमन होते हैं वे शुद्धपरिणमन कहलाते हैं और रागद्वेषों से मलिन जो परिणमन होते हैं उन्हें अशुद्ध परिणमन कहते हैं । कुछ भी मैं करूँ अपने ही साधन से, अपनी ही शक्ति से, अपने ही परिणमन से मैं किया करता हूँ । किसी का कोई दूसरा साथी है नहीं । मेरा जब जैसा उदय आयेगा तब तैसा मुझे ही भुगतना पड़ेगा, दूसरा कोई किसी भी काम में साथी नहीं है । ऐसे इस असार अकारण संसार में हम मौज में मस्त हो जाये और मन की स्वच्छंदता करें और मन के अनुकूल ही अपनी हठ बनाया करें तो उससे इस जीव को सिद्धि नहीं है, जगजाल में भ्रमण करना ही उसका फल है ।
द्रव्यशुद्धि व पर्यायशुद्धि―देखो यह धर्मास्तिकाय द्रव्य अचेतन है, ठीक है, फिर भी इसके स्वरूप को तो देखो―यह त्रिकाल शुद्ध रहता है, प्रकट शुद्ध रहता है । सबसे न्यारा अपने स्वरूपमात्र रहना, यह तो कहलाती है द्रव्यशुद्धि और पर की अपेक्षा बिना अपने आपके सत्त्व के कारण पर निमित्त किए बिना जो स्वत: सहज परिणमन होता है वह है पर्यायशुद्धि ।धर्मद्रव्य में द्रव्यशुद्धि भी है, पर्यायशुद्धि भी है । सिद्ध भगवान में द्रव्यशुद्धि भी है, पर्यायशुद्धि भी है । अन्य सब पदार्थों से न्यारा स्वरूप रहना और अपने ही स्वरूप में तन्मय रहना द्रव्यशुद्धि है और ऐसे ही बाह्यशुद्धि, पूर्णविकास होना पर्यायशुद्धि है । हम आप संसारी जीवों में द्रव्यशुद्धि तो वैसी ही है जैसी कि सिद्ध भगवंतों में है अथवा समस्त अनंत पदार्थों में है । दूसरे पदार्थों से न्यारा रहना और अपनी ही सत्ता के कारण सत्ता बनी रहना यही है द्रव्यशुद्धि, और इस आत्मा का सहज ऐसा ही प्रकाश होने पर कर्म उपाधि का निमित्त किए बिना ऐसा ही विकास होना यह है पर्यायशुद्धि ।
शुद्धि के उपाय की जिज्ञासा―जरा एक बात सामने रखिये । किसी को सिद्ध होना हो तो क्या अशुद्ध का आश्रय करके, ध्यान कर के सिद्ध हो सकते हैं? चित्त कहेगा कि नहीं ।सिद्ध का आश्रय लेने से, सिद्ध का ध्यान करने से सिद्ध बना जा सकता है पर अशुद्ध के सहारे से अशुद्ध के ध्यान से सिद्ध नहीं बना जा सकता । तब एक बात और सामने आ गयी । हमें बनना है शुद्ध तो हम किस शुद्ध का सहारा लें? अपना लें । वाह हम तो अशुद्ध हैं और हमें बनना है शुद्ध तो जब हम शुद्ध ही नहीं हैं तो इस अशुद्ध का सहारा लेने से हम सिद्ध कैसे बन सकेंगे? अच्छा तो अरहंत भगवान सिद्ध भगवान ये तो सिद्ध हैं ना, हम इनका सहारा लें तो सिद्ध बन जायेंगे? ठीक है । कुछ सीमा तक तो यह बात ठीक बैठती है । जहाँ विषयकषायों की अधिक गंदगी लदी हुई है उससे निवृत्त होने के लिए अरहंत भगवान और सिद्ध भगवान का ध्यान हितकारी है, लेकिन एक बात तो बतावो । जो आत्मा की आत्मा में सिद्धता होती है वह शुद्धि किसी परपदार्थ का आश्रय लेने से क्या बन सकती है? अरहंत सिद्ध भिन्न द्रव्य हैं या नहीं? हम से तो भिन्न हैं ना? उनका ज्ञान उनमें है, उनका आनंद उनमें है, वे जो कुछ परिणमते हैं अपने आपमें परिणमते हैं । दूसरे का सहारा क्या काम करेगा? क्या वह मुझ में आकर मुझ में शुद्धरूप परिणमन करेंगे? नहीं । वे अपने स्वरूप से चिगते ही नहीं हैं । वे मुझ में आ ही नहीं सकते फिर होता क्या है?
शुद्धि के उपाय का समाधान―भगवान का हम सहारा नहीं लिया करते, भगवान को तो ज्ञान और ध्यान का विषय बनाते हैं, सहारा लेते हैं, परिणमन करते हैं, अपने आपके आधार में उस-उस प्रकार का उपयोग बनाकर परिणमन करते हैं । तो निश्चय से हमने प्रभुभक्ति में किसका सहारा लिया? प्रभु का, किंतु प्रभु के संबंध में जिस प्रकार का विचार बनता है, जो भावना उत्पन्न होती है उस प्रकार के अपने परिणमन का सहारा लेते हैं । कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ का आश्रय कर ही नहीं सकता । तो यहाँ हमने अपना आश्रय लिया है । फिर अब वही प्रश्न उठ खड़ा होता है । हम तो अशुद्ध हैं और अशुद्ध का सहारा लेने से शुद्धि कैसे प्रकट हो? भगवान सिद्ध हैं किंतु वे भिन्न पदार्थ हैं, कोई पदार्थ किसी भिन्न पदार्थ में आश्रय नहीं लेता, समाता नहीं, तब हम कैसे सिद्ध हों? इसका समाधान यही मिलेगा कि देखो अभी हमारी पर्याय शुद्ध तो नहीं है किंतु द्रव्य तो शुद्ध है । प्रत्येक पदार्थ में द्रव्य शुद्ध सनातन रहता है । तो द्रव्य शुद्ध है ना । मैं द्रव्यतः शुद्ध हूँ, उपयोग में सबसे न्यारा निजसहज स्वरूपमात्र अपने अंतस्तत्त्व का आश्रय लीजिए । उस अंतस्तत्त्व के ध्यान के प्रसाद से पर्याय में विशुद्धि जगने लगेगी । तो बाह्य में सिद्ध का ध्यान करने से तो अपने आप में प्रभाव बनता है शुद्ध दृष्ट होने का, पर निश्चय से अपने आप में ही विराजे हुए इस शुद्ध सहजस्वभाव का आलंबन लेने से निर्विकारता प्रकट होती है, इस कारण सिद्ध पदार्थ का ध्यान करना हमारी उन्नति के लिए बहुत आवश्यक बात है ।