वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 93
From जैनकोष
जम्हा उवरिट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
तम्हा गमणट्ठाणं आयासे जाण णत्थि त्ति ।।93।।
गतिस्थितिहेतुता का युक्तिपूर्वक सिद्धांत का प्ररूपण―सिद्ध भगवान का स्थान जिनवरभगवान ने लोक के शिखर पर बताया है । इस कारण गमनक्रिया में हेतुभूत आकाशद्रव्य को नहीं कहा जा सकता । बहुत-बहुत वर्णन हो गया है कि सिद्ध भगवान लोक के शिखर पर विराजमान हैं, अब आगे क्यों नहीं गए? गमन का बहिरंग कारणभूत जो कुछ भी है वह आगे नहीं है, इस कारण आकाश को गति का हेतुभूत नहीं कहा जा सकता । गति का हेतुभूत धर्मद्रव्य ही है । और धर्मास्तिकाय का अभाव होने से वे वहीं रुक गए । भगवान जहाँ से मुक्त हुए हैं वहाँ से जाते तो अवश्य हैं ऊपर, पर वे लोक के ऊपर ही अवस्थित हैं । इससे यह पूर्ण सिद्ध है कि गति और स्थिति का हेतुपना आकाश में नहीं है ।लोक और अलोक इस विभाग के करने वाले धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य ही हैं । ये ही जीव और पुद्गल की गति और स्थिति के कारण होते हैं । भगवान सिद्ध का यहाँ उदाहरण लिया है ।
सिद्धता―सिद्ध मायने जो एक विलक्षण पक गया है अथवा अनुपम अवस्था को प्राप्त हो गया है । लोक सिद्ध तो बहुतसी बातें हैं । कोई अंजन सिद्ध होता है जिस अंजन को लगा ले तो सारा शरीर अंतर्ध्यान हो जाता है । कोई पादुका सिद्ध होता है, कोई खडाऊ सिद्ध हो जाती जिसको पहिनकर तालाब में जल के ऊपर-ऊपर गमन हो सकता है । किसी को गुटका सिद्ध हो गया, किसी को खड्गादिक शस्त्र सिद्ध हो गये । लौकिक बातें तो बहुतसी हैं मगर उन सबसे विलक्षण ये सिद्ध भगवंत हैं, जिसमें सम्यक्त्व आदिक अष्टगुण प्रकट हो गए है उन सिद्धों की बात कह रहें हैं, उनका ऊर्द्धगमन स्वभाव है । और वे जहाँ भी जाये ऊपर एक ही समय में पहुंच जाते हैं । सिद्ध भगवंतों का निवास लोक के अग्रभाग पर है, उससे आगे नहीं है । इस अंतराधिकार में धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य की सिद्धि गति स्थिति के हेतुरूप में हुई है । आकाशद्रव्य तो पदार्थों के अवगाह का ही कारणभूत है । इन सब द्रव्यों की चर्चा करके हमें शिक्षा यही ग्रहण करना है―यह मैं जीवद्रव्य इन सब मिले हुए समस्त पदार्थों से न्यारा केवलज्ञानानंदस्वरूप हूं, इस प्रतीति से ही कल्याण का मार्ग मिलता है ।