वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 10
From जैनकोष
चडगइदुक्खह लत्ताइं जो परमप्पउ, कोइ ।
चडगइदुक्खविणासयरु कहहु पसाएं सो वि ।।10।।
इसमें श्री प्रभाकर भट्टजी ने यह प्रश्न किया कि चारों गतियों के दु:खों से यदि छुटकारा दिलाने वाला कोई भगवान है तो बताओ? कितना सरल प्रश्न किया जो कि लोक में भी घटित होता है और तत्त्व में भी । सुखी वही होते हैं जिन्होंने परमात्मा के दर्शन के आनंद का अनुभव किया, ज्ञान रस का पान किया । उन्ही की चारों गतियों के दु:खों का नाश होता है । वह आनंद तो रागद्वेषरहित समाधि से प्राप्त होता है । आहार, भय, मैथुन, परिग्रह संज्ञा जिनमें नहीं है उन्हें सुख प्राप्त होता है । संज्ञादि के दु:खों से पीड़ित प्रभाकर भट्ट जिज्ञासा कर रहे हैं कि हे गुरु ! हमें वह सुख बताओ जो दुःख दूर करे । उसी भगवान का वर्णन इस ग्रंथ में है । खुद का आनंद खुद में ही खुद के द्वारा मिलना है । अत: खुद में कुछ ऐसी कला होनी चाहिये ताकि आनंद प्राप्त हो और यदि कला नहीं तो प्रयास व्यर्थ है ।
भगवान् तो सूर्य की तरह से है । रास्ता दिखा दिया कोई देखना चाहे तो देख लेवे । कोई यदि आंखों पर पट्टी बांधे पड़ा रहे, तो इसमें किसी का क्या दोष ? ये तो उपेक्षक निमित्त मात्र है । कोई उनके बताये मार्ग पर चल जावे तो ठीक है, कल्याण हो जावेगा । आत्मीय रस का पान कर लेगा अन्यथा ठोकरें खाता रहेगा, इसी संसार में चारों गतियों में । किसी का अन्य कोई रक्षक नहीं, शरण नहीं । स्वयं भी तो यह प्राणी किसी का रक्षक नहीं, शरण नहीं । उत्कृष्ट समता परिणामों में लीन हुए पुरुषों को परमात्मा का आभास होता है । स्थापित भगवान की मूर्ति के दर्शन भी तो इसी प्रयोजन से किये जाते हैं । अब कोई यदि भगवान से धनादि की कामना हेतु उनकी पूजा करे, आराधना करे तो जब श्रद्धान ही सम्यक् नहीं तो पुण्य की अपेक्षा पाप का ही बंध होगा । उनके दर्शन का भी तो यही प्रयोजन है कि वे जिन गुणों को प्राप्त कर परमात्मा हो गये हैं वे ही गुण मैं भी प्राप्त करूं, वैसा ही आचरण, वैसा ही अदान करूं तब उस आनंद को उस पद को प्राप्त कर सकता हूँ । अब कोई यदि यह सोचे कि भगवान् दुःखों के हरने वाले व सुख के देने वाले हैं, सो वह बात भी ठीक नहीं है, भगवान् तो सूर्य की तरह उपेक्षक निमित्तमात्र है, रास्ता आलोकित कर दिया कोई चले तो चल जावे, न चले तो भटकता रहे । जैसे कोई अंधा पुरुष सूर्य के प्रकाश का भान नहीं कर सकता, उस प्रेरणा पर नहीं चल सकता । उसी प्रकार विषयों के दुःखों में पांचों इंद्रियों के व मन के दु:खों में उनकी इच्छाओं में बंधा प्राणी कैसे भगवान् का अपने स्वरूप का दर्शन पा सकता है । प्रभु की मुद्रा देखकर यही भावना भावे कि हे नाथ ! तुम भी तो ऐसे ही थे जैसा मैं हूँ किंतु आज आप उत्कृष्ट आत्मा हो गये । संसार के सकल पदार्थों को आप जानते हैं फिर भी निज आनंदमय हैं उन बाह्यपदार्थों में आपकी प्रवृत्ति नहीं । सबको जानते हुए भी उनके प्रति उपेक्षा भाव रखते हैं ।
सिद्ध भगवान की परिणति को जानकर, जिनेंद्र भगवान की मुद्रा को देखकर, कल्याणमय भाव जगे तो उसे भव्यदर्शन कहते हैं । भगवान की मुद्रा को देखकर ऐसी भावना करने से कर्म टिक नहीं सकता, कर्मों का क्षय उसी समय हो जाता है । उनके अनंत गुणों को देखने से, विचार करने से, आचरण करने से कर्म स्वयं टूटते चले जाते हैं । जहाँ उपयोग आत्मतत्त्व की ओर है वहाँ कर्म नहीं जकड़े रह सकते । और जहाँ रागद्वेषरूप परिणाम हो रहे हैं वहाँ कर्मों का तांता लगा हुआ ही है कर्मों का बंध होता जा रहा है । हे प्राणी ! विचार तो कर कहां तो तेरा आत्मा का स्वरूप ही जिसका ध्यान करने से उस रूप आचरण करने से कर्म स्वयमेव तड़ातड़ टूटते चले जाते हैं और कहां ये परपदार्थ जिनमें रागद्वेष की बुद्धि कर कर्मों के जाल में फंसता जा रहा है? सारी तारीफ उपयोग की है । सोच हे भव्य जीव ! कहां उपयोग लगाने से तेरा उद्धार है और कहां उपयोग लगाने से तेरा पतन है । और फिर यह सोचकर भी क्यों पतन की ओर जाने को अग्रसर है? क्यों परपदार्थ की बुद्धि कर रहा है? ये सब तेरी शरण नहीं, कोई तुझे सुख नहीं पहुंचा सकता । ये सब जिन्हें तू मां, बाप, भाई, बहिन, औरत आदि समझ रहा है तेरे पतन के कारण हैं उत्थान के नहीं । यह समझ बूझ कर भी क्यों चारों गतियों के दुःख भुगतना चाहता हैं । क्या सुख है उनमें क्या आज तक तू सच्चा सुख पा सका ?
भय्या ! जरा अंतर्दृष्टि तो करके देख ! तेरे अंदर स्वयं लबालब आनंद भरा हुआ है उसका पान कर । दु:ख को सुख समझकर इनके चक्कर में मत पड़, इनसे निकलने का प्रयास कर । यह सब उपयोग का ही बोल वाला है । आत्मा की और पहुंचा कि ये सब संकट समाप्त हो जाते हैं । बाह्य में यदि उपयोग है तो क्लेश ही नजर आयगा । धन से जिन्हें तू बड़ा आदमी समझ रहा है, कहां हैं वे सुखी? भिखारी को उस जैसा दुःख है और धनाढ्य को उस जैसा दुःख है । वे सुखी हैं पैसे के बल पर ये सोचना निर्मूल है । वे और भी दुःखी हैं । पैसे के कारण चोर का डर, हिस्सा छांटने का डर । तात्पर्य यह कि न संतोष है न सुख है, सदा उसी में संकल्प विकल्प करता हुआ दुःख भोगता रहता है । सुख पावे भी कैसे क्योंकि उसे वास्तविक सुख का ज्ञान ही नहीं ।
क्या धन आदि प्राप्त कर आज तक कोई आनंद मना सका? नहीं । अपितु और दुःखी ही हुआ । नाना प्रकार के कष्ट मिले । जिन्हें तू बड़ा मान रहा है, उनको देख विकल्प कर रहा है, कषाय कर रहा है, उनके प्रति तू यही सोच कि ये सब मायामय हैं, क्षणभंगुर है । जब ये ही नहीं रहेंगे तो नाम ही क्या रहेगा । जब ये ही नष्ट होने वाले हैं तब उनके प्रति रागद्वेष की बुद्धि करने से क्या लाभ होगा, क्या यश प्राप्त हो सकेगा इन सब ढकोसलों में ।
जो परमसमाधि है, समता परिणाम है वही पार लगाने वाला है अन्य कुछ नहीं । परभव में सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को साथ ले जाना सो समाधि है । अत: समाधि के दो अर्थ हुए―एक तो समतापरिणाम का नाम समाधि है, दूसरा अपने रत्नत्रय को परभव में भी साथ ले जाना सो समाधि है । और उसी अवस्था में प्राणत्याग करने से समाधिमरण है । यदि समाधि नहीं है, आधि व्याधि उपाधि का लगाव है तो उसका कटु फल होगा । एक व्यक्ति एक को मार देता है तो उसे फांसी की सज़ा होती है और यदि वह कई आदमियों को मारे तो भी यहाँ फांसी ही होगी । तब इतने बड़े पाप की सजा कौन देगा ? वह कर्म के अनुसार स्वयं ही विकट दु:ख पावेंगे । कोई किसी को दुःख सुख देने वाला नहीं है । अपने परिणामों के कारण ही सब दुःखी होते हैं । नरक तिर्यक मनुष्य और देव इन चारों गतियों के दुःखों को यह जीव सहता रहता है ।
यदि कोई सोचे कि देवगति में आनंद है तो वह उसका भ्रम है, उनमें जो वाहन का काम करते हैं उन्हें वह कार्य करना ही होगा । मनुष्यगति में तो अपनी तनख्वाह पाकर काम छोड़ भी सकता है किंतु वहां पर उन्हें अपनी ड्यूटी पूरी करती ही होगी । तिर्यंचों में देखो घोड़ा है तांगे में जोत दिया भूख लगी, प्यास लगी, लेकिन कोई पूछता है ऊपर से मार ही पड़ती है । ये चले जा रहे हैं कोई पूछने वाला नहीं है । वह भी तो परमात्मा ही है किंतु कर्मों के जो जाल साथ बांध रखे हैं उनके कारण दुःख भोगता है । देवता अपने से बड़े ऋद्धि धारी को देख झुरते हैं दुःखी होते हैं । क्या कम दुःख है इस संसार में । संसार के दुःखों की कोई गणना नहीं, उन्हें यह विश्वास नहीं देवलोक में कि कभी मुझसे यह दासता छूट जावेगी । मनुष्यों में मान की बहुत मुख्यता है । देवों में लोभ की मुख्यता है । तिर्यंचों में मायाकषाय की मुख्यता है और नरकों में क्रोध की मुख्यता है । वे सब अपनी-अपनी कषाय की वेदना में दुःखी हैं । यहां प्रश्न किया गया मैं यदि कोई इन चारों गतियों के दुःखों से बचाने वाला परमात्मा है तो उसे बताओ । अब उसी का न्याय बताया जा रहा है । गुरु श्रीयोगेंदुजी ने आत्मा तीन प्रकार की बताई । (1 )अंतरात्मा (2) बहिरात्मा और (3) परमात्मा । इन तीन प्रकारों में हेय उपादेय का वर्णन करके भगवत्तत्त्व को बतायेंगे ।