वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 12
From जैनकोष
अप्पा तिविहु मुणेवि लहु मूढहु मेल्लहि भाउ ।
मुणि णाणमउ जो परमप्पसहाउ ।।12।।
जब यह प्रश्न किया श्रीप्रभाकरभट्टजी ने कि यदि चारों गतियों के दु:ख से छुड़ाने वाला कोई परमात्मा है तो बताओ ? तो श्री योगेंदुजी बता रहे हैं कि आत्मा तीन प्रकार की हैं―(1) मूढ़ (2) ज्ञानी (3) भगवान् । मूढ़ तो मोही है । जो मूढ़पने को छोड़ अपने ज्ञान के द्वारा ज्ञानमय भगवान् को भजे यह हुआ अंतरात्मा और जो निर्दोष सर्वज्ञ है वह है भगवान् । इन तीनों अवस्थाओं में रहने वाला परमात्मस्वभाव वही सहज भगवान हुआ । वही अपना दु:ख हर सकता है । योगेंदुजी बता रहे हैं कि जैसा तुमने प्रश्न किया है वैसा सभी भव्यों ने पूछा था क्योंकि वे भी इन दु:खों से दुखित थे । सगर चक्रवर्ती ने श्रीअजितनाथ भगवान् से पूछा था कि यदि इन चारों गतियों से छुटकारा, दिलाने वाला कोई भगवान् है तो बताओ? इसी को पांडवों ने श्री नेमिनाथ भगवान् से पूछा था कि यदि इन चारों गतियों में न रुलाने वाला कोई परमात्मा है, भगवान् है तो बताओ और इसी प्रकार श्री श्रेणिकजी ने महावीर भगवान् से पूछा था । अत: तुम्हारा प्रश्न बहुत उत्तम है उसका समाधान सुनो ।
हे भट्ट ! जो तुम्हारी आत्मा में चेतना स्वभाव पड़ा है वही भगवान् है । उसी के दर्शन कर लो तो इसी में स्थिर होने का यत्न करोगे और भगवान् हो जाओगे । इनके दर्शन करने से दुःख ही दूर नहीं होंगे बल्कि हमें अपने स्वरूप का पता चल जावेगा । इस प्राणी का स्वभाव तो देखो उपाधि में रत होकर तो नाना प्रकार की लीलाएं कर रहा है, चारों गतियों में नाटक कर रहा है और जब ज्ञान हो जाता है तो ज्ञानमय लीला करने लगता है । भेदरत्नत्रय को पालता है और अभेदरत्नत्रय की लीला करता है । आत्मा का दृढ़ श्रद्धान् सो सम्यक्दर्शन, आत्मा का सच्चा ज्ञान सो सम्यक्ज्ञान, जीवों की रक्षा करना, समिति गुप्ति का पालन करना सो हुआ भेद सम्यक्चारित्र । इन तीनों का नाम भेदरत्नत्रय है । भेदरत्नत्रय अभेदरत्नत्रय में पहुंचने का उपाय है । अपने आप में बसा हुआ जो असाधारण चिद्स्वभाव है उसरूप श्रद्धा करना ऐसी दृढ़ प्रतीति करना अभेद सम्यग्दर्शन है । ऐसा ही शुद्धआत्मा का चैतन्यमात्र ज्ञान सो अभेद सम्यग्ज्ञान हुआ और उसमें ही रम जाना सो अभेद सम्यक्चारित्र हुआ । अभेदरत्नत्रय तो साक्षात् मुक्ति का कारण है और भेदरत्नत्रयमय, अभेदरत्नत्रयमय में पहुंचाने का कारण है ।
यह जीव ज्ञान होने पर ज्ञान की ही लीला करता है । अपने ज्ञान के द्वारा संसार के समस्त पदार्थों का साक्षात् ज्ञान रखता है किंतु उनमें उपेक्षा भाव रखता है । लब्धि उनकी ज्ञान लीला है ऐसे वे अरहंत भगवान् हैं । शंकर भी वही हैं, क्योंकि सुख को जो करे उसे शंकर कहते हैं । अत: शंकर कहलाये । दुनियां को जो मोक्षमार्ग का विधान बताते हैं उन्हें ब्रह्मा कहते हैं अत: ब्रह्मा भी अरहंत भगवान् ही हुए । उनको ज्ञानमार्ग में रचा देना यह भी तो ज्ञानसृष्टि है तो उसके वे कारण हैं । मोक्षमार्ग की सृष्टि के ये कारणभूत हैं । अरहंतदेव विष्णु हैं । जो व्यापक हो, सब जगह फैला हुआ हो उसे विष्णु कहते हैं, सो जिस प्रकार आकाश का अंत नहीं उसी प्रकार ज्ञान का भी अंत नहीं ऐसे ये अरहंत भगवान् हैं । हरि भी ये ही क्योंकि जो पापों को हरे सो हरि कहलाता है । इनके गुणस्मरण से पाप दूर होते हैं अत: अरहंत भगवान् हरि भी हुए । जो स्वयं लौकिक कार्यों में लगे हुए हैं वे क्या पापों को हरेंगे, निष्पाप आत्मा ही पापों का हरण कर सकता हैं ऐसे ये जिनेंद्र भगवान् हैं,ये ही पुरुषोत्तम हैं क्योंकि रुपों में उत्तम हैं । अरहंत भगवान् मनुष्यगति के जीव कहलाते हैं वे उनमें सबसे उत्तम हैं अत: पुरुषोत्तम कहलाये । ऐसा जो परमात्मा है उसकी भावना यह ज्ञानी करता है ।
तीन प्रकार की बाध्य का ज्ञान कराने का प्रयोजन है कि बहिरात्मा को परपदार्थों में रागबुद्धि है कि ये मेरे हैं आदि इसे तो छोड़े और परमात्मा का ध्यान करे । इन दोनों का उपाय एक ही है कि अंतरात्मा बन जावे । यहाँ वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान होता यही उत्तम है । जीव विषयों के स्वाद में लग रहे हैं, उनको उससे हटाने का एक यही उपाय है कि उन्हें उससे अधिक आनंद का स्वाद चखा दो तो विषयों की ओर दृष्टिपात न करेंगे । उनसे विषयों से दिल हट जावे इसका उपाय है अंतरात्मा बनना । उसे का जो निर्विकल्प के वीतराग निर्विकल्पक स्वसंवेदन ज्ञान है इसके द्वारा तुम परमात्म स्वभाव को जानो । अपने को जानोगे तो परमात्मा को जानोगे । क्योंकि परमात्मा केवल ज्ञान से भरा हुआ है, वह केवलज्ञान का ही तो पुंज है । क्योंकि ज्ञान बिगड़ गया तो दुःख नहीं तो आनंद । इसके असंख्यप्रदेशों में सर्वत्र ज्ञानरस भरा हुआ है यही स्वभाव अपना है । तीन प्रकार को जो श्रीयोगेंदुजी ने आत्मा बताई है―(1) बहिरात्मा (2) अंतरात्मा (3) परमात्मा, इनमें से बहिरात्मा अर्थात् परपदार्थ में रागद्वेष कि मैं अमुक जाति का हूँ, अमुक मेरा धर्म, अमुक मेरा शहर आदि, ये मेरा भाई, ये मेरी बहिन, ये मेरा पुत्र, ये पत्नी आदि ऐसी मेरी पोजीशन है इतना मैं धनशाली हूँ, मेरे इतनी खेतीबाड़ी है आदि आदि परपदार्थों को ये मेरे हैं, मैं इनका हूं―ऐसा मानना बहिरात्मापन है । क्या तू आज तक किसी का हो सका, क्या कोई आज तक तेरा शरण हुआ या तू आज तक किसी का शरण हो सका ? जब ये शरीर ही अपना नहीं तब परपदार्थ मेरा कैसे हो सकता हैं? अत: ये बहिरात्मा तो छोड़ने लायक है और परमात्मा ध्यान करने लायक है । और इन दोनों का उपाय अर्थात् बहिरात्मा के त्याग करने का और परमात्मा के ध्यान करने का उपाय, इन दोनों का उपाय है ।
भैया ! अपने सहजस्वभाव का अपने चैतन्यस्वभाव का ध्यान करो, क्योंकि पहले कह आये हैं कि स्वयं को जानोगे तो परमात्मा को भी जान सकते हो दूसरा उपाय नहीं हे अपने ज्ञानस्वभाव को जानने से जो प्राप्त हुआ वह दु:खों को दूर कर देगा । किंतु वही निर्विकल्पकज्ञान स्वसंवेदन वीतराग ज्ञान होना चाहिये । अब यहाँ पर शंका की जा सकती है कि ज्ञान के साथ स्वसंवेदन वीतराग ज्ञान क्यों लगाया ? इसका उत्तर है कि विषयों का जो अनुभव होता है वह भी तो स्वसंवेदन है किंतु वह सराग स्वसंवेदन ज्ञान है । अत: वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान कहा । इसके द्वारा परमात्मा को जान सकते हो । जो इस वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा प्राप्त हुआ परमात्मा वही उपादेय है । इसमें यही बताया है जो कि प्रभाकर भट्ट ने अपने गुरु से प्रश्न किया है कि चारों गतियों के दु:खों को दूर करने वाला कोई परमात्मा हो तो बताइये । उसका उत्तर इसमें बताया है आत्मा के तीन भेद बताकर ।