वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 121
From जैनकोष
जसु हरिणच्छी हियवडए तसु णवि बंभु वियारि ।
एक्कहिं केम समंति वढ़ बे खंडा पडियारि ।।121।।
जिसके मन में हरिणाक्षी (स्त्री) बसी हुई है, उसे निज परमात्मा नहीं दिख सकता है । ऐसा हे प्रभाकर भट्ट ! तू विचार कर । क्या कभी एक म्यान में दो तलवार समा सकती हैं? नहीं । इसी तरह एक हृदय में विषयों की बात और मुक्ति की बात―ये दोनों समा सकती हैं क्या? नहीं । सप्तम नरक में रहने वाला नारकी सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकता है और विषयों में आसक्त रहने वाला चाहे अपने को बड़ा जैनी भी कहे और बड़े-बड़े व्रतों के कामों में भी लगता हो, किंतु विषयासक्त है तो उसे सम्यक्त्व नहीं हो सकता । ऐसे चित्त में परमात्मा नहीं दिख सकता है । किस चित्त में? जो विकल्पजालों से मूर्छित है, स्त्री के रूप के अवलोकन से और चिंतन से उत्पन्न हुआ हाव-भाव, भ्रम-विलास के विकल्पसमूहों से जिसका हृदय मूर्छित है, रंजित है, उस चित्त में परमात्मा का प्रवेश नहीं होता । कैसा है यह विकल्पजाल, कि वीतराग निर्विकल्प परमसमाधि में उत्पन्न होने वाले परमआनंद का विरोधी है, आकुलताओं को उत्पन्न करने वाला है―ऐसे विषयों से जिसका चित्त रंजित है, उस पुरुष के हृदय में परमात्मस्वरूप नहीं दिख सकता है ।
भैया ! परमात्मस्वरूप तो शुद्ध ज्ञानस्वभावी है और वहाँ विषय और अज्ञान की बात समाई है, तो उस परमात्मा के कैसे दर्शन हो सकते हैं? कभी ऐसा पुरुष धर्म भी करे, जिसका हृदय संसार, भोग और विषयों से विरक्त नहीं है, तो केवल रूढ़ि की बात है, अथवा अपना पोजीशन रखने के लिए धर्म की धुन है, पर वास्तव में धर्म की ज्योति प्रकट नहीं हो सकती । जैसे एक म्यान में 2 तलवार नहीं समा सकतीं, इसी प्रकार एक हृदय में विषयवासना और परमब्रह्म अथवा भगवत्स्वरूप अथवा निज शुद्ध आत्मस्वरूप ये दोनों नहीं ठहर सकते हैं । पहली गाथा में यह बताया था कि जैसे मलीन दर्पण में अपना प्रतिबिंब नहीं दिख सकता, इसी प्रकार मलीन हृदय में अपना भगवान्स्वरूप नहीं दिख सकता है । वह मलीनता किन बातों से आती है, उसका स्पष्टीकरण इस दोहे में आ गया है कि मलीनता आती है विषयों की आसक्ति से ।
जितने झगड़े खड़े होते हैं, वे विषयों को रुचि से ही -खड़े होते हैं । जिनका हृदय विषय-वासना से पृथक् है, जो निज शुद्ध ज्ञानस्वरूप की स्मृति में लगे हुए हैं, उनको ज्ञानस्वरूप दिखता है । विषयों में सबसे भयंकर विषय है स्पर्शन का । और तो सभी हैं, पर स्पर्शन का विषय सबसे भयंकर है । जिसे दूसरों की निंदा की बात सुनने में रुचि हो, रागभरी बात सुनने की रुचि हो, यह है उसका कर्णेंद्रिय का विषय । मनुष्य के मन का विषय तेज रहता है । जिस जीव के जितनी इंद्रियां हैं, उसकी आखरी इंद्रिय तेज रहती है, प्राय: करके । पंचेंद्रिय जीवों के कान का विषय तेज रहता है । और तीन इंद्रिय जीवों के नाक का विषय तेज रहता है । तीसरी इंद्रिय है नासिका । और जिसको मन मिला है, उसके मन का विषय तेज रहता है । इन पंचेंद्रिय के विषयों में जिनका चित्त उलझा हुआ है, उन्हें ज्ञानस्वरूप की खबर नहीं हो सकती ।
अब हावभाव का स्वरूप बताते हैं कि इनमें जिनका चित्त मूर्छित हो जाता है, उनको परमात्मस्वरूप नहीं दिख सकता । इस शरीर में ऊपर से देखो तो यह चादरसी मढ़ी हुई है, तो ठीक दिखती है । जैसे मुर्दे की खोपड़ी होती है, उसके भीतर जो भरा रहता है; ऐसी ही चीज इस सारे शरीर में पाई जाती है ।
भैया ! जिसका हृदय मोह से वासित है, उसको भीतर की गंदगी नहीं दिखती है । उन्हें तो बाहरी रूप दिखता है । यह तो अपने ज्ञान और अज्ञान का परिणाम है । जो सर्वत्र अशुचि है ऐसे देह में भी मोही जीव हावभाव के कारण आनंदित हो जाता है । हाव के मायने क्या हैं? मुख का विकार । हास्य कर दिया, हँस दिया, मुस्करा दिया । भाव क्या है? चित्त में विकार परिणाम का उठना और विलास है नेत्रों की मटकन और विभ्रम है भौंहें टेढ़ी-मेढ़ी करना । ये सब क्या हैं? यह सब एक मोही की पगलाई है । सार तो कुछ रखा ही नहीं है, पर जिन्हें अपने ज्ञानमय प्रभु का परिचय नहीं है । उनको ये फोकट खिलौने ही रुचते हैं । उन्हें परमात्मतत्त्व नहीं दिखता है ।
लक्ष्मणजी के 8 कुमार हुए थे । वे कुमार अवस्था में ही विरक्त हो गए । लक्ष्मणजी बैठे ही रह गए और उनके पुत्र कुमार अवस्था में ही मुनि हो गए और उनको ऋद्धि उत्पन्न हो गई । वे आकाशगमन करते रहे । एक सा ही उन आठों कुमारों का रूप था । एक बार दो मुनि आये, उनको आहार दिया । फिर दो मुनि और आ गये, उनको भी आहार दिया । फिर दो मुनि और आ गये, उनको भी आहार दिया । वे एक ही रूप के थे । सोचा कि अरे ! ये तो भोजन कर गये और फिर आ गये, ये तो तीन बार खा गये । एकसा उनका रूप था । बाद में पता लगा कि ये लक्ष्मण के 8 कुमार हैं, एक से ही रूपवान् ।
भैया ! यह तो होनहार की बात है । जिनका होनहार अच्छा है, उनके छोटी उमर में ही भाव अच्छा बन जाता है और जिनका होनहार अच्छा नहीं है तो वृद्धावस्था हो जाती है, पर आत्मकल्याण का भाव उत्पन्न नहीं होता । इस जगत् में सार क्या चीज है, जिसके संचय के लिए हम अपने आत्मस्वरूप का घात करें, रागद्वेष बढ़ाएं । कोई सारभूत वस्तु हो तो बतलाओ । पर अपनी ही कल्पना से यह जीव विचार-विचारकर दुःखी होता है ।
श्रीकृष्णजी के कुमार प्रद्युम्नजी, जो भारी नटखट थे । बतलाओ, कुमार अवस्था में [छोटी अवस्था में] विरक्त हो गए और उसके पहले कैसे-कैसे ऊधम उन्होंने किए? उनकी मां का नाम था रुक्मणी । रुक्मणी की सौत का नाम था सत्यभामा । तो सत्यभामा को छकाने के लिए और दूसरों को आश्चर्य में डालने के लिए बहुत नटख में किए । सत्यभामा के द्वार पर प्रद्युम्न गिर गए । वे वजनदार थे, उठाये न उठे । सत्यभामा ने प्रद्युम्न को उठाने के लिए औरों को बुलाया, पर वे टस से मस न हुए । कितने ही नटखट दिखाए, पर जब ज्ञानगम्य हो गए तब सीधे हो गए ।
ज्ञान और वैराग्य जगने पर सबका एकसा रूप हो जाता है । उससे पहले तो गड़बड़ियां रहती हैं । अभी अपने ही समाज में देख लो―जब तक वास्तविक ज्ञान और वैराग्य नहीं जगता तब तक दसों तरह के उपद्रव धर्म के नाम पर मचते हैं । ज्ञान और वैराग्य से जब चित्त वासित होता है तब चूंकि अक्ल ठिकाने आ गई, इसलिए सब कल्याणार्थी मुमुक्षु सब अपने हित का कार्य कर लेते हैं ।
ज्ञान की महिमा को कोई नहीं कह सकता है । इस रुपये-पैसे, सोना-चांदी आदिरूप धन के । तो चोर लूट सकते हैं, राजा ले सकता है । कहो ऐसे कानून बन जाएं कि आपत्तिकाल आ जाय तो मकान सरकार ले सकती है । रह रहे हो, ठीक है, मगर हैं मकान सरकार के । जितने मकान हैं उनकी जब तक सरकार को जरूरत नहीं है तब तक रहते जाओ, पर जब सरकार को मकानों की जरूरत महसूस होगी तब वह सरकार ले लेगी, कहेगी कि आप इस घर से चले जाओ । ऐसा उनका कानून है । और धन-वैभव का तो कुछ कहना ही नहीं है, जो पड़ा रह जाये तो कितने ही ले सकते हैं । राजी से दो या बेराजी से । अभी गाना गाने वालों को सरकार इकट्ठा करले और 100-100 रुपये का टिकट जबर्दस्ती लगाई । इस तरह से आपका धन सरकार ले सकती है । तो इस पैसे को सरकार जब चाहे तब आप से ले सकती है । इन विषयों का प्रसंग ऐसा है कि इनके भोगने से सम्यक्त्व नहीं जग सकता ।
राजा सत्यधर थे । तो वे अपनी रानी के बड़े प्रेमी थी । उन्हें अपने विषयों में विद न आए, ऐसा सोचकर राजदरबार को कम करने के लिए आधा राज्य एक काठ बेचने वाले काष्ठांगार को दे दिया । जिसको आधा राज्य मिल गया वह सोचेगा कि पब्लिक तो इसी का राज्य कहेगी, हमारा कौन कहेगा? इसलिए सारा राज्य छुड़ा लें तस तो अपना राज्य कहलाए । सो उस काष्ठांगार ने सत्यंधर पर चढ़ाई कर दी । अब तो उन पर आफत आ गई । तुरंत सत्यधर ने एक यंत्र बनाया, जैसे हवाई जहाज होता है । उसमें 3 घंटे की ही उड़ान थी । तीन घंटे बाद वह किसी जगह गिर जायेगा । रानी को उस यंत्र पर बैठाल दिया और वह यंत्र उड़कर श्मशान में जाकर गिरा । रानी गर्भवती थी । सो वहीं पर जीवंधर कुमार उत्पन्न हुए । कथा बहुत है । पर विषयों की आसक्ति देखो कितनी कि सत्यधर का सारा जीवन दुःखी हो गया । जब राज्य पर काष्ठांगार ने चढ़ाई कर दी तो युद्धस्थल में अचानक वैरागी हुए व उन्होंने मुनि अवस्था में प्राण छोड़े, विरक्तता अंत में आई । सो भव संभल गये सत्यधर विरक्तचित हो गया । वहाँ पर भी दुष्टों ने न छोड़ा, सिर उतार लिया, क्या भरोसा कि अभी साधु है, फिर दाव बैठ जाये तो लड़ने लगे । न विश्वास हुआ अत: सिर अलग कर दिया ।
विषयासक्त चित्त में यह अपना शुद्ध स्वरूप नहीं दिखता है । एक पैसा कमाने का उपाय बनाते हैं तो 5-10 साल भी यदि उसमें मुनाफा नहीं मिलता है तो भी हिम्मत नहीं हारते, फोर्स रखते हैं, धैर्य रखते हैं । कारखाना यदि विकसित हो रहा है तो धैर्य रखकर 10 साल भी गुजर जाते हैं, पर हिम्मत नहीं हारते, एक थोड़े से जीवन के आराम के लिए । पर अनंतकाल तक आनंद पाने के लिए 10 वर्ष क्या, 10 जिंदगी भी लगानी पड़े तो कुछ बात नहीं है । ऐसा सुलझा हुआ चित्त रहना चाहिए कि दुकान की जगह पर जाकर दुकान की बात करें, और मंदिर में आकर धर्म की बातें करे । चाहे दुकान पर मंदिर का ख्याल रहे, पर मंदिर में दुकान का ख्याल न रहे । मंदिर में धन-वैभव का ख्याल आए तो यह बुरा है । ज्ञानी पुरुष में ऐसा साहस होता है कि धर्मसाधना के समय में एकदम राग की बातों को तोड़ डालते हैं । किसी भी बात में उपयोग नहीं लगाते ।
भैया ! दुकान पर बैठो । तो खूब दुकान का काम करो । यह तो गृहस्थ का धर्म ही है । कौड़ी न हो तो बिना कौड़ी के मूल्य क्या है? और अगर हृदय में विरक्ति है, कुछ जानकारी है तो सब छोड़ दो । केवल एक गृहस्थी का पालन हो, धन न कमायें तो गृहस्थी की बात नहीं निभ सकती है । गृहस्थ की तीन बात बताई है । धर्म में, अर्थ और काम । धर्म के समय धर्म करें, धन कमाने के समय धन कमाएँ । समाज की, देश की, कुटुंब की खबर रखने के समय खबर रखें । कोई मनुष्य चाहे कि धर्म तो अच्छी बात है सो धर्म की ही धुन में लगे रहें; न दुकान जावें, न कुछ करें, न कोई उद्यम करें तो वह गृहस्थी की जिम्मेदारी को नहीं निभा रहा है और कोई सोचे कि धन ही कमायें और धर्म न करें तो वह भी गृहस्थी अच्छी नहीं निभा रहा है ।
भैया ! धर्म की पूट बिना जीवन नीरस है । आप सुबह-शाम मंदिर आते हैं, स्वाध्याय, पूजन करते हैं तो आपका जीवन कितना रसीला है? फिर बढ़िया-बढ़िया खाना-पीना व ढंग से रहना शोभा देता है और 24 घंटे में धर्म की कोई बात न पूछे, न मंदिर आना, न स्वाध्याय करना, 24 घंटे बस कमाई में ही लगे रहें तो इससे तो जीवन नीरस हो जायेगा और फिर विश्राम भी नहीं मिलेगा । धर्म तो आराम करने का नाम है । थक गए विकल्प करने में, तो निर्विकल्प समतापरिणाम को देखो, आराम करो । संसार के क्लेशों से थकने वाला पुरुष एक सच्चे आराम को प्राप्त करता है । उसी के मायने धर्म करना है । धर्म संक्लेश में नहीं होता है, क्लेश में नहीं होता है । धर्म होता है निराकुलता के अनुभव में और निराकुलता के अनुभव से ही आत्मीय आनंद का अनुभव होता है । तो सम्यग्ज्ञान करके वस्तुस्वरूप का सही-सही अवगम करके अपने प्रभु के निकट अधिक से अधिक जा विराजमान होवे ।
अपनी जिम्मेदारी अपने परिणामों पर है । कोई भी मित्र, पुत्र आदि जिम्मेदारी आपकी नहीं ले सकते । जैसा परिणाम करोगे वैसी गति में तुम को जाना पड़ेगा । नरकगति में पहुंचने के बाद इस जीव को होश होता है तो वहाँ सच्चा ज्ञान जगता है कि उस कमाई के भोगने में तो सभी साझीदार थे, मेरी कमाई में मौज तो उड़ाया सबने, पर इस नरकगति में वे एक भी साथी नहीं हुए । तो अपनी जिम्मेदारी अपने पर जानकर एक भरकम रहना चाहिए, गंभीर रहना चाहिए, समता का पुजारी रहना चाहिए । अपने आपके कर्म अपने आपको हो भोगने पड़ते हैं―ऐसा जानकर निरंतर अपने परिणामों की सावधानी रखनी चाहिए । और भी बात देखो, मनुष्य की जितनी आयु है उसके दो भाग व्यतीत होने पर आयुबंध का समय आता है । जैसे किसी मनुष्य की आयु 99 वर्ष की है तो 66 वर्ष तक नई आयु का बंध नहीं होगा । तब तक किस गति में जायेंगे, यह निर्णय नहीं हो सकता । 66 वर्ष तक नवीन आयु का बंध न होगा । उसके बाद आयुबंध का पहला मौका आता है । उस समय के परिणाम में जैसा बंध होगा, उसमें इस जीव को उत्पन्न होना ही पड़ेगा ।
कोई पुरुष था पता हमें नहीं है, गुरुजी सुनाते थे, उसके चित्त में यह भाव रहता था कि पैसा तो विनाशीक है, इसे दूसरों के उपकार में लगायें । परिणामों में तो यह बात थी मगर अपने हाथ से पैसा नहीं देना जानता था । मौका पड़े तो लोगों से वह कह दे कि जावो जो जरूरत हो मेरे घर से उठा लावो । पर वह अपने हाथ से नहीं दे सकता था । कुछ ऐसा ही कर्मों का उदय था । अब देखिये परिणाम तो है ऐसा कि लगे तो हमारा धन पर उपकार में, पर हाथ से नहीं दिया जा सकता । इच्छा तो रहती थी कि कोई उठाकर लगाई परोपकार में, पर खुद हाथ से उठाकर नहीं दे सकता था । विचित्र कर्मों का उदय तो देखो ।
देखो, सब बात बराबर पड़ जाती हैं । खूब अच्छी तरह से हलुवा-पूड़ी खावो, 2-3 दिन खालो, फिर 15 दिन मू ग की दाल पी लो और चाहे 17-18 दिन आराम से सीधे दाल-रोटी खाकर समय गुजार लो, खर्चा एक ही पड़ेगा । 5 दिन अच्छा खालो, बीमार हो गये सो और 10 दिन मूंग की दाल पी लो, और चाहे 15 दिन सात्विक भोजन खाकर आराम से गुजार दो । चाहे इस जिंदगी में पुण्य के उदय से पाये हुए समागम में खूब मौज मान लो, कितने दिन मान लोगे? मान लो 10 वर्ष, 20 वर्ष; फिर हजारों वर्षों का नरक गति का लटका भी देख लो । यहाँ 10 वर्ष का दुःख भोगकर हजारों वर्षों का सुख भोग लो । यहाँ यदि किसी चीज में आसक्ति न हो, ज्ञान भाव को सावधान बनाए रहे तो अनगिनते वर्ष तक मौज में रहो । मरण के बाद अच्छा भव मिल गया, उस भव में खुश रहो, बात एकसी पड़ती है । थोड़े समय कष्ट भोग लें तो अनंतकाल के लिए निर्वाण का सुख प्राप्त होता है । थोड़े समय को सुख भोग लिया तो उससे भविष्य खतरे में रहता है ।
विवेकी पुरुष वह है जो अभी से अपना काम ठीक रखे । एक बार पड़ा अकाल । दो पड़ौसी थे । एक के पास था 11 महीने का खाने को अनाज और 1 महीने का न था और एक के पास था 1 महीने का खाने को अनाज और 11 महीने का न था । तो जिसके पास 1महीने का खाने को अनाज न था उसने सोचा कि 1 महीना पहले उपवास करके व्यतीत कर दें, फिर 11 महीने खूब खायेंगे और एक ने ऐसा सोचा कि एक माह खाने को अनाज है तो उसे खूब खाओ, बाद में फिर देखा जायगा । तो इसने तो 1 माह तक खूब आराम से खाया और वह, जिसके पास 11 महीने का खाने को अनाज था, वह थोड़े दिन में ही मर गया । अब जिसका घर अनाज से सूना पड़ा था जिसने 1 महीना खूब खा-पीकर व्यतीत किया, उसे 15 दिन के बाद में ही धरा-धराया अनाज मिल गया । वह अनाज उसके काम आ गया ।
भैया ! वर्तमान में इतनी व्यग्रता नहीं होना चाहिए । कोई सोचे कि महीने, दो महीने खूब व्यग्र हो लें और फिर शांति से समय निकलेगा तो जो अभी से व्यग्र हो रहा है, उसको शांति का समय मिलने का विश्वास क्या है? थोड़ासा कष्ट भोग लें फिर आराम से रहेंगे । यदि ऐसा सोचना है तो मोक्ष के लिए सोचो कि थोड़े समय का दुःख भोग ले; ज्ञान का, तप का, व्रत का, ब्रह्मचर्य का, अकेले रहने का, थोड़े समय को कष्ट भोग लो । फिर सदा के लिए सर्व प्रकार का आराम रहेगा । सीधा अपना जो स्वरूप है उस स्वरूपरूप अपने को मान लो । दुःख तो यहाँ है नहीं । दुःख तो बनाए जाते हैं, दुःख बनाना छोड़ दो, सुखी अपने आप हो जाओगे । दुःख बनता है तो परपदार्थों की आसक्ति से । पर की आसक्ति छोड़ दो, बस, सब आराम हो गया । लोग पाप के फल से डरते हैं, मगर पाप नहीं छोड़ना चाहते और पुण्य से फल को चाहते हैं मगर पुण्य नहीं करना चाहते हैं । मोह में दोनों ही तरफ के अकल्याण का वातावरण बन जाता है । इस तरह का उत्तम समागम पाकर ज्ञानार्जन का अधिक लाभ उठा लें, इससे बढ़कर उत्तम कार्य अपने लिए और कुछ नहीं हो सकता है ।
अब रागादि विकारों से रहित अपने मन में परमात्मा निवास करता है, इस बात को बताते हैं ।