वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 123
From जैनकोष
जेण णिरंजणि मणु धरिउ विसयकसायहिं जंतु ।
मोक्खहं कारणु एत्तडउ अण्णु ण तंतु ण मंतु ।।123-3।।
यह प्रथम अधिकार का अंतिम दोहा है । इसमें यह बताया है कि मोक्ष का कारण क्या है? एक शब्द में बताओ, एक धुन में बताओ । तो कहते हैं कि जो पुरुष जाते हुए मन को निरंजन भगवान् में रख लेते हैं, बस वही (मन) मोक्ष का कारण है । दूसरा कोई न तंत्र है, न मंत्र है । शरीर चाहे बुरा मिले, चाहे पशु का मिले, चाहे पक्षी का मिले, कोई बात नहीं । ज्ञान की जैसी दिशा बनाओ वैसा ही सृजन होता है ।
एक खटमल को देखो । कहां होता है खटमल? जो खाट में होता है वह खटमल, जो तखत में भी होता है वह तख्तमल और जो कुर्सी में होता है वह कुर्सीमल, ऐसे कुछ नाम हैं क्या? नहीं । अरे ! हो किसी जगह, पर नाम सबका खटमल है । ऐसे ही लोग जो जेबकट होते हैं, पता न पड़े और जेब कट जाये ऐसी क्रिया में जो कुशल होते हैं, पाप करते हैं ऐसे जीव मरकर बनते होंगे खटमल । देखो खटमल के पंख नहीं कि उड़कर काट ले और उड़ जाये, पर काटने के बाद ढूंढो तो मिल नहीं सकता । मुश्किल से रजाई बिस्तर में कहीं जब दिखता है तब पता पड़ता है कि ये तो नवाब साहब जा रहे हैं । इसी तरह इस जीव के स्वभाव पर दृष्टि दें तो उनमें बहुत कुछ यह विज्ञान समझ में आता है कि कैसा परिणाम करने का कैसा फल होता है?
भैया ! कोई जीव इस जगत् में सुखी नहीं है । अपने को असहाय समझो । जैसे बच्चा असहाय और दुःखी होकर माँ की गोंद में पहुंचता है इसी तरह हम आप भी असहाय हैं, दुःखी है तो दौड़-दौड़कर छूट-छूटकर प्रभु के स्मरण में पहुंचें । प्रभु के गुणस्मरण के अतिरिक्त अन्य कुछ हमारी रक्षा का उपाय नहीं है । पुण्य का उदय हुआ इसलिए मौज में है, मस्त हैं । रह जाओ मस्त । कितने दिन गुजार लोगे? और कुछ दिन मस्ती भी होती है तो सदा मस्ती ही नहीं रहती । बीच-बीच में बड़े-बड़े कष्ट भी आ जाते हैं । किसी से पूछें क्यों भैया ! गृहस्थी में सुख है या साधु बनने में सुख है? तो जो जैसी रुचि का पुरुष होगा वह अपनी उस रुचि का उत्तर देगा; किंतु साधारणतया उत्तर मिलेगा कि जितना सुख है उतना ही दुःख है, साधु और गृहस्थ दोनों में ही ।
गृहस्थी में जब संध्या के समय खा-पी लेने के बाद जब तीन-चार बच्चे घेर लेते है, कंधे पर चढ़कर थप्पड़ भी मार रहे हैं, उस समय कैसा सुख मानते हैं, कैसी मौज मानते हैं । और जब कमाना पड़ता है तब सबकी एकसी बात नहीं रहती है, कोई रूठ जाये और उनकी कषाय को साधना पड़ता है तब नानी की खबर आ जाती है । नानी को धेवता-धेवती बहुत प्यारे होते हैं । उसे पोता-पोती इतने प्यारे नहीं होते हैं । कारण यह है कि लड़की तो दूसरे के घर जाती है, और बहुत दिन बाद आती है । तो नानी को धेवता-धेवती से बड़ा प्रेम होता है । दादी तो घर में रहती है । अत: जो ज्यादा समय घर में रहता है उससे प्रेम नहीं बढ़ पाता है और जो कभी-कभी घर में रहता है उससे प्रीति बढ़ती है । कहते हैं ना कि अजी अभी नानी की खबर आयेगी । यदि बड़े प्यार से रखा जाता है तो नानी उनको बहुत प्रिय होती है । तो जब कभी जिनको पीड़ा होती है उनको जो प्यारा होता है उसकी याद आती है । इसलिए तो जब कोई दुःखी होता है तो ऐसा कहते हैं कि अब आई नानी की खबर । तो गृहस्थी में जितना सुख है उतना दुःख भी है ।
अब दृष्टि डालो कि जब गृहस्थी के दुःख से ऊब जाते हैं तब कहते हैं कि इससे तो साधु होना अच्छा है । कोई दंद-फंद नहीं । फिर जब कुछ साधुओं को देखते हैं कि ये भी दुःखी हैं तब चित्त होता है कि साधुओं को भी जितने सुख है उतने ही दुःख है । कहाँ छांटे? संसार के किन साधुओं में केवल सुख का अनुमान करे? हाँ, साधु होकर यदि अपने ज्ञानस्वरूप से ही ज्ञान का नाता रखते हैं तो एकांतत: वे सुखी हैं ।
मोक्ष का कारण क्या है कि निरंजन में मन धर लें, बस, यही मोक्ष का कारण है । निरंजन कौन हुआ? द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मरूप जो अंजन है, उपाधियां हैं, उनसे जो रहित है । सुखी कौन है, जो द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित हो । ढूंढो, मिलेगा कोई ऐसा? सिद्ध मिलेंगे । अरे ! साधु तो बड़ी दूर है और वह सिद्ध अपने ज्ञान और आनंद में ही लीन है । साधुओं को तो अपने प्रभुस्वरूप की कभी-कभी खबर रख लेना इतना ही बहुत है । इससे ज्यादा उनका व्यवहार नहीं चल सकता है । तो ज्यादा हम उनसे क्या मिलें? तो जिससे हम ज्यादा मिल सकते हैं ऐसा भी कोई है? है । जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से रहित हो, उसे जरा ढूंढो । वह है अपने आपमें अनादि अनंत बसा हुआ एक स्वयं सहज ज्ञानस्वभाव । इस ज्ञानस्वभाव में न तो द्रव्यकर्म हैं, न भावकर्म हैं, न नोकर्म हैं, न शरीर है, न सुख-दुःख हैं । ऐसा निरंजन जो निज परमात्मतत्त्व है उसमें जो मन धरना है उसका ही नाम मोक्षमार्ग है ।
लोगों का अभी कहाँ धरा है मन? विषय और कषायों में । विषय कषायों के स्वाद के कारण इसे निर्विषय, अकषाय आत्मस्वभाव का स्वाद नहीं आता । अच्छा मीठी बर्फी खाने के बाद भुसावली केला तो खाइए । मीठा न लगेगा, रूखा-सूखा लगेगा । तो जहाँ स्वाद ज्यादा मालूम होता है उस स्वाद में आसक्त होने के बाद फिर सहज स्वाद उसे रुचता नहीं है । मिठाई का स्वाद कृत्रिम है और केले का स्वाद प्राकृतिक है, किंतु कृत्रिम स्वाद में आसक्ति होने पर प्राकृतिक स्वाद नहीं रुचता । यह मन कहाँ धरा हुआ है? विषय और कषायों में । सो विषयकषायों में जाते हुए मन को निरंजन निजस्वरूप में धरना ही मोक्ष का हेतु है । इससे अन्य न कुछ तंत्र हैं, न मंत्र हैं ।
भैया ! जब कोई शरीर में रोग हो जाता है तो उसका इलाज दो प्रकार से किया जाता है । एक तो औषधि से और एक तंत्र-मंत्र व जाप से । तो औषधियों में तो सर्व रोगों की पृथक्-पृथक् औषधियाँ हैं और ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध है कि उस औषधि से रोगों में फायदा भी पहुंचता है । पर औषधि के अतिरिक्त अन्य कुछ जादू टोना, तंत्र-मंत्र में बढ़ना चाहें तो सबका सिरताज एक ही मंत्र है । वह है निरंजन ज्ञानस्वभाव की दृष्टि करना । एक निरन्जन ज्ञानस्वभाव की दृष्टि में लगो तो औषधि कई दिने में इलाज कर सकेगी और यह ज्ञानदृष्टि कुछ ही समय में मूलत: इलाज कर देती है । यह एक विचित्र जादू है । एक ज्ञानदृष्टि आ जाये तो स्वयमेव ही जो कुछ रोग होता है वह सब दूर हो जाता है ।
कभी धनंजय गृहस्थ थे । पूजा का उन्हें बहुत अनुराग था । एक दिन ये तो कर रहे थे पूजा और उसी समय धनंजय सेठ के लड़के को सांप ने डस लिया । वह लड़ का बहुत विह्वल हो गया । तुरंत उस लड़के की माँ मंदिर पहुंची, जहाँ कि धनंजय पूजा कर रहे थे । चिल्लाने लगी, अरे ! लड़के को सांप ने डस लिया तुम्हें पूजा की पड़ी है । किंतु अब भी धनंजय अपनी पूजा में ही लीन रहा । स्त्री को बड़ा क्रोध आया सो उसमें घर में आकर उस अधमरे लड़के को उठा लिया और मंदिर में डाल दिया । कहाइसे अब जिंदा करो चाहे मारो । छोड़कर चल दी । इतने पर भी धनंजय अपनी प्रभुभक्ति में ही लीन रहे । वे बड़े कविराज थे । जिनकी कला में थोड़ा प्रवेश करने में उस कला की महिमा जानी जा सकती है ।
धनंजय कवि ने एक ऐसा पुराण बनाया है कि उसी पुराण के सब श्लोकों में रामचंद्रजी का चरित्र चल रहा है और साथ ही पांडवों का चरित्र चल रहा है । क्या कोई साधारण विद्वान् ऐसी कविता कर सकता है? जो श्लोक पढ़ो उसमें ही राम का अर्थ निकले और पांडवों का भी अर्थ निकले । उनकी सारी जिंदगी का चरित्र लिख डाला । कवि धनंजय सेठ की बात कह रहे हैं । वे सर्विस वाले कवि नहीं थे । वे सेठ धनंजय कवि थे । उन्होंने श्लोक रचने में कोई कलम कागज नहीं लिया । कवि लोग जब कविता करते हैं तो थोड़ी काट-छांट करना पड़ता है । कभी कुछ बनाया, कभी कुछ बनाया । उन्होंने कागज-पेंसिल नहीं ली, जो उन्होंने भगवान का स्तवन किया । स्तवन करते-करते उसको कविता में बोलते गए ।
बीच में जब यह काव्य पढ़ा―‘विषापहारं मणिमौषधानि मंत्रं समुद्दिश्य रसायनं च । भ्राम्यंत्यहो न त्वमिति स्मरंति पर्यायनामानि तवैव तानि ।।’
इस काव्य में यह भाव भरा है कि लो विषापहार मणि की दृष्टि बना कर औषधि, मंत्र, रसायन की दृष्टि करके यहाँ वहाँ लोग घूमते फिरते हैं । हीरादेव, रत्नदेव कहते हैं ना कोई? हमारी राशि के नाम पर नीलम फिट बैठेगा । हाँ, तुम्हारी राशि का नाम नीलम ठीक है । तलाश करते हैं कि हमें नीलम दे दो, जड़ाने के काम आयेगा । धन आयेगा, वैभव होगा और जिस पर चाहे उस पर असर होगा । ऐसे ही सब छोड़कर बैठ जाएँ तो क्या सब बन बैठेंगे? घूमते फिरते हैं । औषधि, मंत्र व रसायन की तलाश में डोलते फिरते हैं । पर हे नाथ ! ये लोग कोई तुम्हारा स्मरण नहीं करते । ये सब मंत्र, औषधि, तंत्ररसायन? तुम्हारे ही पर्यायवाची नाम हैं । ये कुछ और नहीं है ।
भैया ! और भी गहरे चलें तो अपने आपका अपनी सत्ता के कारण जो सहजस्वरूप है उसकी दृष्टि होना ही सर्व रागों के विनाश का मूल हैं । जगत् में कोई मनुष्य दुःखी नहीं है और दुःखी होने की कल्पना करें तो सब दुःखी हैं । अपने शुद्धस्वरूप को निहारो और अपनी ही ओर से देखो तो यहाँ एक भी दुःखी नजर न आयेगा । पर ऐसे जगत् के जीव हैं नहीं, सो अन्य जोव को जब सुखी और आराम से देखेंगे तो दुःख बढ़ जाता है । कोई देहाती आदमी छोटे गांव में रहने वाला, जो ज्वार की रोटी में चैन मानता है, उसने कुछ देखा नहीं है । यहाँ तो एक-आध मिठाई, पापड़ आदि की कमी रह जाये तो झुँझला उठेंगे । मगर वहाँ चने की रोटी, भाजी खाकर देहाती मस्त रहता है । वह देहाती कोई क्लेश नहीं मानता । यदि आपकी उस देहाती से खटपट हो जाये और उसे कष्ट पहुंचाना हो तो एक तरकीब है । वह क्या कि उसे शहर में ले आओ और छक कर उसे रसगुल्ले, इमरती आदि खिला दो । बस, आपने उससे दुश्मनी मना लिया । अब उसका जीवन दुःखमय बना दिया । दो दिन रसगुल्ले, इमरती खिलाकर उसका सारा जीवन किरकिरा कर दिया । अब उसे चैन कहां? कहाँ तो वह भाजी, रोटी में मस्त रहता था । उसे कोई कष्ट न था, पर अब उसे आपने मिष्ठान खिलाकर दुःखी बना दिया ।
भैया ! आवश्यकताओं के माफिक अपनी ओर से किसी भी मनुष्य को दुःख नहीं है । किंतु दूसरों का सुख, वैभव व आराम देख करके जो यहाँ से तृष्णा की तरंग उठती हे, उस तृष्णा तरंग से वह दु:खी हो जाता है । मुक्ति का कारण और है क्या? विषयकषायों में जाते हुए इस मन को निरंजन ज्ञानस्वभाव में स्थित करना, यही मोक्ष का कारण है । मोक्ष का कारण यंत्र, तंत्र, मंत्र, औषधि आदि कुछ नहीं है । धन्य है वह समागम जो चाहे घर का हो, चाहे समाज का हो और चाहे साधुओं का हो, पर जिस समागम में दूसरों से इस आत्मा की बात सुनने को मिले, मनन को मिले । स्त्री भी यदि ऐसी ही चर्चा करे, पुत्र और नौकर भी ऐसी ही चर्चा करें, ऐसे इस निरंजन नाथ की याद दिलाते रहें तो वह समागम धन्य है । सच्ची मित्रता यही है कि विषयकषायों में जाते हुए मन को थाम दें, ऐसा वचनव्यवहार करें ।
दूसरों को विषयकषाय में लगाकर माने कि इन पर मैंने प्रेम किया तो प्रेम नहीं किया, बल्कि आपने दुश्मनी बनाई । जैसे किसी देहाती पुरुष से बैर निकालना हो तो उसका उपाय है कि कुछ नये-नये विषयों में जो उसे कठिनता से प्राप्त हो सकते है उसमें चित्त लगवा दो । तो जो जान-जानकर उछल-उछल कर पुत्र को मित्र को विषयकषायों में जुड़ाते हैं, उपदेश देते हैं, समझाते हैं तो भला बतलाओ कि तुम उन पर प्रेम कर रहे या उनसे बैर बना रहे हो । समागम तो वहो सराहनीय है जिसमें सर्व विविक्त ज्ञानमात्र निज आत्मस्वरूप की खबर रहा करे ।
भैया ! जैसे धन की कमाई में आपका लेखा-जोखा है कि भाई । लो 5 वर्ष से मैंने इतनी उन्नति की, इतना तो संचय कर लिया है । ऐसा ही उत्साह आत्मज्ञान के संचय में जगे कि लो ! चार वर्ष में हमने अपने को इतना बना लिया है कि जरा-जरासी बातों पर क्रोध नहीं आता, घमंड की बात की भीतर से तरंग नहीं उठती । तो दिल में कोई मायाचार न रहे, लोभ को कोई बात न रहे, हमारी इतनी हिम्मत रहे कि बाह्यवैभव का या अन्य पारिवारिक जीवों का जो कुछ होता हो, वे सब उनके अधीन हैं, उनके वे ही जिम्मेदार हैंऐसा चिंतन करे तो केवल आत्मदृष्टि के लिए प्रेरणा जगे । कुछ तो उपयोग में आना चाहिए । जैसे धन का हिसाब हो जाता है कि 2 वर्ष पहले से अब हमारी स्थिति ड्योढ़ी है । जैसे वहाँ समझ में आता है इसी प्रकार को समझ धार्मिक ज्ञान में और आत्मा के आचरण में आए ।
भैया ! इतना तो समझ में आना चाहिए कि इतने वर्षों में धर्म के मामले में अब सवायापन आया है । कुछ दिखना तो चाहिए । पर आज भी वैसे ही रहे जैसे 10 साल पहले थे । पहले जो क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि सताते थे वैसे ही और उससे भी अधिक अब सता रहे हैं; क्योंकि जरा बड़े हुए तो और परिचय बढ़ गया, इज्जत बढ़ गई, लोगों में तनिक बात बन गई । सो अब लोगो की छोटी-छोटी बातें देखकर जरा अधिक क्रोध आने लगा । तो क्या किया हमने 10 वर्ष में? क्या आगे बड़े? नहीं । ज्यों के त्यों रहे, बल्कि पीछे हो गए । अपने आपकी सुध तो लो, अपने आप पर दया तो करो । जगत्का कोई जीव हम और आपके लिए, शरण नहीं है । किसको आशा तकते हो? घर का पुत्र ही काम न देगा । घर के ही बड़े मित्र जन, जो बहुत बड़ी हिम्मत दिलाते रहे, समय आने पर साथ न देंगे ।
एक कोई सेठ राजा का बड़ा मित्र था । उसने राजा को बहुत सुंदर घोड़ा भेंट दिया । राजा ने प्रसन्न होकर कहा कि जब तुम पर कोई आपत्ति आयेगी तो हम तुम्हारे सहायक होंगे । अभाग्यवश, सेठ कुछ समय बाद निर्धन हो गया । जब सेठ राजा से सहायता मांगने गया तो राजा ने उसके रहने के लिए एक बड़ा कमरा दिया और 20 बकरियाँ दीं और कड़ा कि तुम इनमें गुजारा करलो । कुछ समय बाद 2 बकरियां मर गयीं तथा 18 रह गयीं । राजा सेठ से पूछ लेता था कि काम ठीक चल रहा है या नहीं? 10 और मर गयीं तो 8 रह गयीं । 6 माह गुजर गये । एक दिन राजा ने पूछा तो बकरियां 28 हो गयीं । राजा ने कहा कि सेठजी तुम्हें 2 लाख, 4 लाख, 10 लाख जितने रुपये चाहिए लो, और कुछ व्यापार करो । सेठ जी ने कहा कि इतनी बात 6 माह तक क्यों न कही? राजा बोला कि हम मौ का देख रहे थे कि कब तुम्हारा भाग्य पनपे । जब तुम्हारे पुण्य का उदय आया तो तुम्हें धन देने को कहा और अगर पाप का ही उदय रहता तो यह सब धन मिट जाता । इसी परीक्षा के लिए मैंने तुम्हें बकरियां दे दी थीं । मैंने देखा कि तुम्हारा समय खोटा चल रहा है, इसलिए नहीं कहा था । अब पुण्य का उदय आया है, अब तो ले जाओ, लाखों रुपये । सेठ ने कहा कि जब मेरा उदय अच्छा आ गया है तो हमें कुछ न चाहिए । थोड़े ही समय में उसका पुण्योदय था, सो धनी हो गया ।
कोई किसी का सहायक नहीं है । अपनी आत्मा ही हमें अपने लिए सहायक है । इसलिए अपने आप पर ही भरोसा रखो व अपने में लीन रहो ।
जगत् के जीव सुख-शांति की तलाश में मंत्र-तंत्र व औषधि की पूछ किया करते हैं । आत्मा के आनंद का संबंध मात्र ज्ञान से ही है । तो मंत्र तंत्र, औषधिरूप परपदार्थ इस आत्मा के आनंद के साधक कैसे हो सकते हैं? आत्मा के आनंद का साधकतम तो मात्र सम्यग्ज्ञान ही है । सो हे भव्य जीव ! एक यही यत्न मोक्ष का कारण है कि शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना के प्रतिकूल जो विषयकषाय हैं, उन जाते हुए इस मन को वापिस कर लें । वीतराग, निर्विकल्प, स्वसंवेदन ज्ञानबल के द्वारा इसे लौटा लें और शुद्ध आत्मद्रव्य को अपने उपभोग में लगावें । जो विषयकषायों को चित्त से हटा कर अपने ज्ञानस्वरूप में लगाते हैं, वे ही मोक्ष प्राप्त करते हैं । अन्य कोई चाहे मंत्र, तंत्र आदि बलिष्ठ भी हों, किंतु वे मोक्ष को प्राप्त नहीं करा सकते । क्या मोक्ष पहलवानी से मिलता है? कोई आदमी दंड बैठक लगा लेता है तो ऐसी पहलवानी से क्या कोई मोक्ष पा लेगा? कोई बनिया सेठ करोड़पति है तो वह पैसे के बल पर सर्व प्रकार के आराम और ठाठ रख सकता है; पर क्या वह पैसे के बल से मोक्ष प्राप्त कर सकता है? न बल काम देगा, न धन काम देगा, न अन्य कोई काम आयेगा । मोक्ष की प्राप्ति में तो अपना शुद्धज्ञान ही काम देगा ।
इस प्रथम महाधिकार में मुख्यतया तीन प्रकार की आत्माओं का वर्णन है―जगत् में जितनी भी आत्माएँ हैं, उन सब आत्माओं में कोई आत्मा बहिरात्मा है, कोई आत्मा अंतरात्मा है, कोई आत्मा परमात्मा है―ऐसे इन त्रिविध भिन्न-भिन्न आत्माओं में तीन प्रकार की आत्माएँ पाई जाती हैं । एक ही आत्मा में ये तीन शक्तियां मौजूद हैं । जो आत्माएँ बहिरात्मा हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, अज्ञानी हैं, उनमें अंतरात्मा होने की शक्ति है । वे हो सकते हैं और परमात्मा होने का भी उनका स्वभाव है । तीन प्रकार की शक्ति प्रत्येक आत्मा में है । जो आज अंतरात्मा है, वह पहले बहिरात्मा था, परमात्मा होगा । जो इस समय परमात्मा है, वह पहले अनंतकाल तक बहिरात्मा बने रहे, पश्चात् अंतरात्मा हुए और अब परमात्मा बने हुए हैं । प्रत्येक आत्मा में तीन प्रकार को शक्तियां मौजूद हैं ।
बहिरात्मा का अर्थ है कि अपने आत्मा से भिन्न पदार्थों में आत्मतत्त्व ढूँढना । अर्थात् ऐसी श्रद्धा करना कि मुझे ज्ञान बाहरी पदार्थों में मिलता है । ये बाहरी पदार्थ न हों तो मेरा जीवन न चल सकेगा, मेरी सत्ता नहीं रह सकती । ऐसा विश्वास जिन जीवों के होता है, उन्हें बहिरात्मा कहते हैं । बहिरात्मा को यह खबर नहीं है कि यह मैं आत्मा सत् हूँ, स्वतःसिद्ध हूँ, सुरक्षित हूँ, अविनाशी हूँ । बाहरी पदार्थों से मुझे ज्ञान और आनंद आता ही नहीं है, बल्कि बाहरी पदार्थों में उपयोग जाने से यह अपने अंतरंग में रीता हो जाता है, ज्ञान और आनंद स्वभाव को ठुकराता है अत: उससे इसकी हानि ही है । अत: जो आत्मस्वरूप को नहीं समझता है, बाहरी पदार्थों में मिथ्यात्व आत्मीयता किया करता है, उसे बहिरात्मा कहते हैं ।
अंतरात्मा पुरुष महान् आत्मा है, उसे अपने आपके स्वरूप का स्पष्ट बोध है कि यह चैतन्य प्रकाशमात्र सर्वमूर्त व अन्य अमूर्त पदार्थों से निराला ज्ञानभावमात्र, यह मैं आत्मतत्त्व हूंऐसा उनके उपयोग में दृढ़तम निर्णय है । जिसमें सुख और दुःख का अनुभवहोता है और जो अहंप्रत्यय द्वारा वेद्य है, मैं हूँ । मैं में सबका अनुभव चलता है । मैं कह रहा हूँ, मैं जा रहा हूँ आदि कथनों में जिसके लिए मैं कहता हूँ, वही तो मैं आत्मा हूँ । इस आत्मा का जिसके शुद्ध आत्मस्वरूप में निर्णय है, उसको अंतरात्मा कहते हैं । यही अंतरात्मा ज्ञानी पुरुष ज्ञानबल से अपने स्वरूप की ओर झुककर जो विषयकषायों से निवृत्त होकर आत्मा में शांति प्राप्त करता है, उसे कहते हैं उत्कृष्ट महात्मा ।
यही अंतरात्मा बन जाता है परमात्मा । परमात्मा तीन लोक, तीन काल के समस्त पदार्थ को एक साथ स्पष्ट जानता है, उसके रंच भी आकुलताएँ नहीं हैं । ऐसे तीन प्रकार की आत्माएँ होती है । तीन बातें क्या है, क्या होना चाहिए? इस प्रकरण को सुनकर अपने लिए कुछ निष्कर्ष निकालना चाहिए । बहिरात्मा होने में इस जीव को लाभ नहीं है । यह मोही जीव परवस्तुओं को अपना मानता है, किंतु कोई भी परवस्तु इस आत्मा का बनकर रह सकता है क्या? नहीं । न राम रहे, न रावण रहे, न भीम रहे, न वीर रहे, न बड़े बलवंत रहे, जिनके समय में जिनका बड़ा चमत्कार था, साम्राज्य था, वे भी इस लोक में नहीं रहे । बहिरात्मा होने से क्या लाभ है?
जिस प्रकार शहद लपेटी तलवार छोड़ी नहीं जाती, खाये बिना मन नहीं मानता, जीभ से उसे चाटते हैं, पर उससे जिह्वा कट जाती है । इसी प्रकार ये मायामय चिकने जो दृश्य हैं, बे अत्यंत पर हैं । जिनसे रंच भी संबंध नहीं है । आज हैं, हो गए, कुछ दिन पास रहते ही हैं । परद्रव्य चले कहाँ जायें? यदि ये हैं तो हैं और नहीं हैं तो नहीं हैं, पर अज्ञानी जीव अपनी ओर से ज्ञान में वासित होकर सर्व परद्रव्यों को अपना गान लेता है । उन्हें छोड़ नहीं सकता, उन्हें रख भी नहीं सकता, यही तो भूल है । बहिरात्मापन को हमें छोड़ देना चाहिए और अंतरात्मात्त्व को हमें स्वीकार करना चाहिए ।
भैया ! अपना लक्ष्य परमात्मत्व विकास में रहना चाहिए । ऐसी जिनकी मति है, वे सच्चे श्रावक हैं, साधुजन हैं । मनुष्यभव का लाभ ऐसे ही लोग पाते हैं, जो समस्त परद्रव्यों को छोड़कर केवल ज्ञानमय कर्मादिक रहित ज्ञानप्रकाशमात्र निज आत्मस्वभाव को तकते हैं । वे ही परमात्मा होते हैं । इस परमात्मत्व के मर्म को बड़े-बड़े पुण्यवान् भी नहीं जान सकते, किंतु एक स्थिरचित्त होकर सर्वपदार्थों का विकल्प छोड़कर इस शाश्वत आत्मतत्त्व के अनुभव के लिए आग्रह कर लें तो मनुष्य क्या पशु-पक्षी भी इस आत्मतत्त्व के मर्म को जान सकते हैं ।
जब रावण सीता को हरकर लिए जा रहा था तो जटायु पक्षी ने सीता का बड़ा पक्ष लिया । जब तक दम रहा रावण से लड़ता रहा, पर इस रावण दुराशयी ने उस जटायु की गर्दन को तलवार से काट दिया और जटायु परोपकारी भक्त बनकर मरकर देव बन जाता है । तो इन पदार्थों को देखो, कभी कुछ होते हैं, कभी कुछ । लोक में एक बात स्थिर नहीं रहती है । किस पर नखरे किये जायें । ये ज्ञानी पुरुष इस समस्त विश्व को मायामय जानकर इनसे उपेक्षित रहते हैं और इसी के परिणाम में वे निराकुल मोक्षमार्गी होते हैं । देखो, इस आत्मतत्त्व को । यहाँ न तो रूप मिलेगा, न रस मिलेगा, न गंध मिलेगा, न शब्द मिलेगा । जरा देखो तो अपने निजस्वरूप को, जो ज्ञान भावमात्र है, जो अपने स्वरूप को त्रिकाल में भी नहीं छोड़ता ।
जो पर के स्वरूप को भी नहीं ग्रहण कर सकता । ऐसा यह भोलाभाला, शुद्ध, सरल, ज्ञानमात्र, पवित्र परमात्मतत्त्व है । इसके दर्शन में ही अलौकिक आनंद प्रकट होता है । जरा और चलकर देखो । यह तो एक ज्ञानमात्र भाव है । इसका जन्म क्या, इसका मरण क्या । यह तो अपने स्वरूप से ज्ञानमात्र ही है । प्रतिक्षण वर्तता रहता है । इसके जन्म-मरण भी नहीं है । अब जरा और आगे चलकर देर के तो इसके क्रोध भी नहीं, क्रोध मान, माया, लोभ भी नहीं । इसके व्रत-संयम की साधना भी नहीं है । यह तो मात्र ज्ञानप्रकाशस्वरूप है । इस लोक में जितने भी दर्शन प्रकट हुए हैं नैयायिक, मीमांसक, सांख्य, भट्ट, बुद्ध आदि जितने भी दर्शन हुए हैं ये सब गप्प नहीं मारते हैं । इनको कुछ नजर आया है, किंतु भूल हुई है कि जो नजर आया है उसके सिवाय किसी और गुण पर विचार नहीं करते ।
यदि हम दक्षिण की ओर मुँह करके भींत को देखें तो मुझे यह भींत ही दिख रहा , किंतु इसके मायने यह नहीं हैं कि दूसरी ओर की भींत ही नहीं है । यदि दूसरी ओर से भींत न हो तो यह टिक कैसे सके, इस मकान के अंदर । इसी प्रकार जब द्रव्यदृष्टि करके म आत्मा के नित्य स्वरूप को देखते हैं, किंतु इसके मायने यह नहीं है कि इस आत्मा के नित्य स्वरूप को देखते हैं, किंतु इसके मायने यह नहीं है कि इस आत्मा में पर्यायरूप अनित्यस्वरूप ही नहीं है । जब पर्यायदृष्टि करके हम आत्मा के अनित्य स्वरूप को देखते हैं तो उसका अर्थ यह नहीं है कि आत्मा में शुद्ध नित्यस्वरूप है ही नहीं । तो अनित्यपर्याय भी नहीं बन सकता । यदि आत्मा में अनित्य पर्याय नहीं है तो आत्मा का एक स्वभाव भी नहीं बन सकता ।
एक कहानी में कहते हैं कि एक पंडितजी के गायें चराने वाल बरेदी गाय चराने जाता था । एक महीना चराने के बाद उसने वेतन माँगा, गायों की चराई मांगी । पंडितजी बोलते हैं कि तुम किससे मांगते हो? जिसने गाय चराने को दी थीं वह तो नष्ट हो गया । यह मैं दूसरा हूँ । क्षणिकवादी लोग ऐसा मानते हैं कि एक घंटे में हजार आत्माएँ यहाँ पैदा हो जाती हैं । एक ही आत्मा एक घंटे तक नहीं रहती । एक ही आत्मा जन्म से मरण तक नहीं रहता । मिनट-मिनट ही क्या, सेकंड-सेकंड में, सेकंड क्या, आवली में आवली भी क्या, एक-एक समय में यह जीव नया-नया आया करता है । ऐसा क्षणिकवादी लोग मानते हैं । सो वे पंडितजी क्षणिकवादी थे । बरेदी ने चराई मांगी । उसने कहा कि जिसने महीने भर पहले गायें चराने को दी थीं वह तो अब नष्ट हो गया । बरेदी बेचारा अपना मुँह लेकर घर चला आया । अब वह सोचता है कि पंडितजी ने तो हमारे साथ चालाकी की है । तो दूसरे दिन उसने गाय घर में बाँध ली । अब पंडितजी ने जब देखा कि गाय छोड़ने बरेदी घर नहीं पहुंचा । कई दिन हो गए । वह पंडित पहुंचा व बोला, हमारी गायें क्यों घर नहीं भेजी? बोला, जिसको आपने गाय चराने को दी थीं, वह आत्मा तो नष्ट हो गया है । यह तो दूसरा आत्मा है । जिसे दी थीं, उससे मांगो । देखो एक नित्यस्वभाव माने बिना व्यवहार में गुजारा नहीं चलता और कोई ऐसा ही ढूंढो जिसे नित्य मान लें कि हिले-डुले नहीं, कोई परिणमन न हो तो जगत में कोई काम भी चल सकता है क्या? इसलिए यह सर्व विश्व नित्यनित्यात्मक है―ऐसा माना जाता है । तो इस अनित्य को दृष्टि न देकर जो त्रिकाल शाश्वत है ऐसे आत्मतत्त्व को देखो । इसमें क्रोध, मान, माया, लोभ भी नहीं है, यह तो स्वभावत: ज्ञानस्वरूप है । एक भगोने में 10 सेर पानी में कोई रंग डाल दो । माना कि पीला रंग डाल दिया । आपको दिखेगा कि पानी पीला हो गया है, पर क्या सचमुच पानी पीला हो गया है? कतई पीला नहीं हुआ है, पानी तो जैसा था वैसा अब भी है । उसमें पीले रंग का विस्तार है । जो रंग पहले छोटीसी पुड़िया में आ गया था, वह रंग पानी का निमित्त पाकर ऐसा फैल गया है । फिर भी वहाँ पानी में पानी है और रंग में रंग है ।
एक ग्वालिनी थी । सो अपने गांव से 5 सेर दूध शहर बेचने ले जाये । तो रास्तेमें एक बड़ी नदी पड़ती थीं । उसमें से पांच सेर पानी मिला ले । तो अब हो गया 10 सेर । सो वह दूध बेच आए । जब महीना भर हो गया तो जिसके घर दूध बँधा हुआ था, उनसे महीने भर के अंत में रुपये ले लिये । मान लो 50 रुपये हो गए । वह 50 रुपये की पोटली बांधे खुश हुई चली जा रही है । मन में सोचती जाता कि अच्छा शहर वालों की आंख में धूल झोंका । 25 रुपये की जगह पर 50 लिया । जब रुपयों की पोटली लिए जा रही थी तो फिर वही नदी पड़ी । उसने सोचा―नहा लें । रुपये रख दिये और नहाने चली गई । इतने में एक बंदर आया और वह रुपयों की पोटली उठाकर नदी के किनारे पर स्थित पेड़ पर चढ़ गया । अब ग्वालिनी हाथ जोड़ती है, अरे ! कुछ दे-दे । चने दिखाती है, बंदर तो चंचल होते हैं । उसने गठरी खोल लो । अब वह एक रुपया तो डाल दे सड़क पर और एक रुपया डाल दे पानी में । इस तरह आधे रुपये पानी में चले गए और आधे रुपये सड़क पर आ गए । जब ग्वालिनी नहा चुकी तो सड़क पर पड़े रुपयों को बटोरा और घर चली । सोचा कि पानी के रुपये पानी में चले गए और दूध के रुपये हाथ में आ गए ।
भगौने के पानी में जिसमें रंग घोल दिया है, क्या रंग पानी में आ गया? दिखता तो सामने यों ही है कि वाह ! पानी पीला हो गया, पर पानी रंच भी पीला नहीं हुआ । सूक्ष्म दृष्टि से देखो तो पानी का सत्त्व पानी में है और रंग का सत्त्व रंग में है । उससे और मोटी बात देखो । इस भींत पर यह पीला रंग पोत दिया, क्या भींत में रंग चढ़ गया? नहीं । रंग में रंग है और भींत में भींत है । भींत का आश्रय पाकर, पानी का संबंध पाकर यह रंग पतला-पतला बनकर फैल गया है । तो भीत पीला है या रंग ही पीला है । भींत पीली नहीं है । यह तो जो है सो है, यह रंग ही पीला है । एक पदार्थ दूसरे पदार्थ में प्रवेश नहीं करता । तो देर के आत्मतत्त्व को । इसके न क्रोध है, न मान है, न कषाय है, न हर्ष है, न विषाद है । एक भी दोष इसके अंदर नहीं है । ऐसे निज में बसे हुए सहज ज्ञानस्वभाव को जो ग्रहण कर लेता है वह पुरुष अंतरात्मा कहलाता है । ‘बहिरात्मा हेय जानि तजि अंतर आतम हूजो ।’ इस बहिरात्मा को हेय जानकर अंतरात्मा बनो । प्रगति का, चमत्कार का उपाय ज्ञानदृष्टि है । धर्म―ध्यान, समाधि के यत्न मोक्षमार्ग नहीं हैं । मोक्षमार्ग तो शुद्ध ज्ञान का उपयोग है ।
एक सन्यासी था तो उसे समाधि लगाना बहुत उत्तम आता था । वह 24 घंटे की, 12 घंटे की समाधि लगाता था । राजा के यहाँ पहुंचा । राजा से कहा कि आप हमारी समाधि देखिए । राजा ने कहा―अच्छा दिखाओ । कितने घंटे की? बारह घंटे की । अच्छा लगाओ, साधु जी । आपकी समाधि ठीक बैठ जायेगी तो फिर आप जो मांगेंगे सो मिलेगा । तो मन से मांगने का निर्णय करने में देर नहीं लगती । तुरंत निर्णय कर लेते हैं कि मैं यह चाहूंगा । क्या सोच लिया, सो पीछे बतावेंगे । अब उसने समाधि ली । जब 12 घंटे की समाधि पुरी हो गई और जब आंख खली तो तुरंत कहता है ‘लाओ राजन् काला घोड़ा ।’ उसने सारी समाधि में काला घोड़ा दिल में बसा रखा था कि यही मांगेंगे ।
चित्त अस्थिर रहता हो तो उसका एक उपाय है कि चित्त स्थिर हो जाये । भींत में एक निशान बना लो और उसको टकटकी लगाकर देखते रहो पलक नोचे न गिरे । जितनी देर तक बने, करो, फिर करो । चाहे ऐसा करके देख लो, चित्त एक ओर लगता है या नहीं । चित्त एकाग्र करने के धारणा आदि साधन है । पर विवेक तो सच्चा करना है ना, यह आत्मतत्त्व अपने आपके द्वारा अपने को जान जाता है । इस कल्याण के मर्म को न कोई दूसरा बता सकता है और न शास्त्रादिक से जाना जा सकता है । शास्त्र आदि हमारे जानने के साधन तो हैं, पर जानते हम ही है । देखा होगा कि जब किसी चीज का ख्याल करते हैं तो किसी दूसरे का सिर नहीं मोड़ते हैं, किंतु अपने ही सिर पर, दिमाग पर अंगुली लगाकर या जोर देकर कुछ अपने में सोचते हैं । कहाँ बल जगाया भूली हुई चीज को जानने के लिए? अपने में बल लगाया । इसी प्रकार अपने उस प्रभु को भूल गए तो इसके जानने के लिए हमें अपने अंतरात्मा से बल लेना चाहिए । भूल जाओ सबको एक बार, इस पुरुषार्थ से आनंद मिलेगा ।
भैया ! जैसे बातें करने से पेट नहीं भरता, किंतु भोजन बनाकर अंगुलियों द्वारा मुँह में रखकर पेट में उतारने से पेट भरता है । इसी प्रकार केवल बातों से शुद्ध लाभ नहीं मिलता है । जो बात कही जा रही है उसको वाच्य में, अपने उपयोग में लाओ । यह परमात्मतत्त्व जगत् के सर्वपदार्थों में दृष्ट है । संसार, शरीर और भोगों से विरक्त मन होकर एक इस आत्मतत्त्व का ध्यान करो । यह देह देवालय है, मंदिर है । इस देह के अंदर में आत्मा बसता है । उस आत्मा के अंदर में आत्मस्वरूप बसता है । ऐसे इस देह द्वारा उस अंदर में बसते हुए अनंत आनंदमय, नित्य प्रकाशमान ज्ञानानंदरस से निर्भर इस आत्मतत्त्व का ज्ञानप्रकाश के द्वारा जो अनुभव करता है, उसकी संसार की सब बेड़ियों खुल जाया करती हैं । ऐसे इस आत्मतत्त्व के अनुभव का आनंद समतापरिणाम में स्थित योगीजनों को ही मिलता है ।
भैया ! हम आप इस समय मलिन हैं शरीर से जकड़े हैं, कर्मों से जकड़े हैं । कहीं चैन नहीं है; पर ऐसी स्थिति में भी हम अपने को देखना चाहें, शुद्ध यथार्थरूप में, तो हम देख सकते हैं । सो जैसे गोबर के गड्ढे में पड़ा हुआ पुरुष भी यदि स्वाद शक्कर का लेता है तो आनंद उसे शक्कर का आता है । इस गृहस्थावस्था में रहकर भी यदि हम आपको शुद्ध आत्मतत्त्व का दर्शन होता है तो हम आप इस शुद्ध परमात्मतत्त्व का आनंद पा सकते हैं । दृष्टि देने की जरूरत है । इसकी ओर दृष्टि लगाना है, बाहर से मुख मोड़ लेना है । अब हमारा कर्तव्य है कि बाहर से तो मुख मोड़ लें और अपने अंतरंग में दृष्टि लगा लें । यदि कोई वीर-धीर, निकट भव्य पुरुष अपनी आत्मा में अपने उपयोग को जोड़ सकता है तो उसे सर्वसिद्धि प्राप्त हो सकती है । कम से कम भी 24 घंटे में 5 मिनट तो संकल्प विकल्परहित उपयोग बनाना चाहिए । जिससे इस शेष जीवन में शांति रहे और परलोक में भी शांति रहे ।
इस ग्रंथ में जिस शुद्ध आत्मा का वर्णन किया गया है, वह शुद्ध आत्मज्ञान भाव से जाना जाता है, यह तो ठीक ही है । किंतु समतापरिणाम में स्थित होने से इस शुद्ध आत्मा का अनुभवात्मक बोध होता है । समतापरिणाम में रहने वाले योगियों को कोई विलक्षण आनंद उत्पन्न होता है । योगींद्र पुरुष जंगल में एकाकी रहते हुए जो प्रसन्न रहा करते है, वे इस शुद्ध, आत्मा के ध्यान के बल में ही प्रसन्न रहते हैं । अपने आपके संबंध में इतना विशद बोध रहे कि यह मैं आत्मा, ज्ञानमात्र, समस्त परवस्तुओं से न्यारा, एक स्वरूप, त्रैकालिक व अनंतशक्तिरूप हूँ । ऐसा जब ध्यान बने तो उस पर कोई संकट नहीं रह सकता, क्योंकि संकट वास्तव में किसी पर कुछ भी नहीं हैं ।
भैया ! जो जितने अपने पर संकट बना ले, यह उसकी मर्जी है । व्यवहार में जैसे कहा करते हैं कि हम पर बड़ा बोझ है, कच्ची गृहस्थी है, नया काम किया है । अरे ! एक शुद्ध ज्ञानस्वरूप को निहारो, कुछ भी बोझा नहीं है । कोई कहे वाह ! घर वालों को आखिर हमें ही तो खिलाना-पिलाना पड़ता है? जबकि तथ्य यह है कि घरवालों के पुण्य का उदय है, इसलिए निमित्त बन जाते हो, खिलाते-पिलाते कुछ नहीं हो ।
एक गरीब ब्राह्मण था । वह 10-15 घरों से आटे की चुकटी लेकर 10 बजे आए, रोटी बनवाये और सब बच्चे खाये । एक दिन वह चुकटी माँगने गया । रास्ते में एक साधु मिला । साधु ने कहा कि क्या कर रहे हो राम? वह बोला आटा माँग रहे हैं । वह बोला कि किस लिए? बाल-बच्चों को खिलाना पड़ता है । क्या तुम खिलाते हो बच्चों को? हाँ, हाँ, जब हम आटा माँगकर लाते, घर में रख देते, तब घर के बाल-बच्चे खाना खाते हैं । साधु बोला कि ‘तुम्हें भ्रम है, तुम बच्चों को नहीं खिलाते हो’ । तो क्या करें महाराज ! इसी जगह से हमारे साथ जंगल को चल दो, तुम किसी का विकल्प इन करो । कितने दिन को महाराज ! कम से कम 15 दिन को । वह 15 दिन के लिए चल दिया । जब 10-12 बजे तक न आया आटा लेकर, तो गांव में ढिंढोरा लगा दिया । सो गांव के लोगों ने ढूंढते-ढूंढते किसी एक मसखरे ने कह दिया कि उसको तो एक तेंदुआ पकड़कर ले गया और खा गया । यह खबर उसने घर वालों को बताई । शाम तक जब न आया तो सब लोगों को यह विश्वास हो गया कि उसे तेंदुवे ने खा लिया है, तो घर में रोवा-रोवी मच गई ।
सब लोगों ने सोचा कि देखो बेचारा मांगकर लाता था और सबको खिलाता था, वह मर गया है । अब घर वाले भूखों मरेंगे । यही सोचकर जिसको जो कुछ देना था, दिया; कौन रोज-रोज दे, इकट्ठा 6 माह का सामान सबने दे दिया । अनाज वालों ने 2-4 बोरा अनाज दे दिया । घी वालों ने घी दे दिया, कपड़ा वालों ने कपड़ा दे दिया, शक्कर वालों ने शक्कर दे दी । अब क्या था? 10-12 दिन के अंदर ही अंदर सबके कपड़े सिल गए, आराम से रहने लगे । जब 15 दिन पूरे हो गए तो ब्राह्मण कहता है साधु महाराज से कि महाराज ! अब घर जाकर देख आयें ना । साधु ने कहा जाओ, देखो, मगर छिपकर जाना घर । पहले देख लेना कि घर में क्या हो रहा है ? फिर जाना । कौन जिंदा है, कौन मर गया है, सब देखभाल लेना, फिर घर जाना । अच्छा महाराज !
वह घर की छत पर चढ़ गया और छिपकर देखता है कि वहां तो मंगौड़ी, पकौड़ी, हलुवा, पूड़ी उड़ा रहे हैं और सब हँस रहे हैं । सब बढ़िया-बढ़िया कपड़े पहिने हैं । वह देखकर दंग रह गया । सोचता है कि जब तक मैं घर में था और फिक्र करता था तो सूखी रोटियां भी न मिलती थी और अब ये सब गुलछर्रे मार रहे हैं । अ भाग्य उदय में आ गया । अब तो बड़े सूखी हो गए, सो खुशी के मारे एकदम वही से आँगन में कूद गया । जब एकदम कूद गया तो घर वालों ने सोचा कि यह भूत आ गया । क्योंकि वह तो मर गया था, उनके ता मरने की खबर है । सो भूत को भगाने की तरकीब क्या है ? जानते हो, अधजला लूअर उठाकर वे घर के लोग उसे मारने दौड़े तो वह छिपकर भाग गया । साधु के पास पहुंचा, बोला महाराज ! वहाँ तो सब बड़ा आनंद मना रहे थे और ज मैं उनके पास पहुंचा तो लूअर लेकर मुझे मारने दौड़े । साधु बोला कि उनको आनंद आता है तो तुम्हें कौन पूछे ? जब वे दु:ख में थे तब तुम्हारी पूछ करते थे ।
सो भैया ! तुम्हारे ऊपर घर का भार नहीं है, तुम मानते हो कि मुझ पर घर का भार है । भार किसी पर नहीं है; पर अज्ञानभाव उत्पन्न कर रहे हैं, रागद्वेष भाव बना रहे हैं तो संकट है । बड़े महात्माओं और साधुओं की बात क्या है कि चैतन्यमात्र अपने स्वरूप का उन्हें विश्वास है, इसलिए वे सम्यग्दृष्टि हो गए, विजयी हो गए, महात्मा हो गए और इन संसारी मोही प्राणियों के इतनी कला नहीं आयी जिसके कारण संसार में दु:खी हैं । तो इस शुद्ध आत्मा का ज्ञान हो और कुछ करनी भी उत्तम हो, समतापरिणाम में अपना उपयोग लगावे तो इस आत्मा में शुद्ध जीव का बोध होता है । और उसी शुद्ध आत्मा का बोध करके योगींद्रजन जंगल में अकेले अपने आपमें प्रसन्न रहा करते हैं और यही स्थिति हम आपमें चाहिए । तब तो अपना कल्याण हो सकता है ।
भैया ! वह शुद्ध आत्मा मेरा शरण परमात्मा, मेरा परमपिता अन्यत्र कहीं नहीं दिखेगा, किंतु संकल्प-विकल्प त्यागकर केवल ज्ञानमात्र अपने आपका अनुभवन किया करें तो हमको शुद्ध आत्मा नजर आता है । अपने में ही अ एक चमत्कार अनुभव में आ जाये कि संसार के सारे संकट मुझसे दूर हैं, सब मायामय है, मायामय का आदर करने में सारे संकट हो रहे हैं और यह सब हे पुण्य का फल । चाहने से पुण्य नहीं बनता, किंतु पुण्य की चाह न करें परिणाम निर्मल रखें तो उसे पुण्य बंध होता है । यह सब पुण्य का ही ठाठ है, पर विनाशीक है । इसमें जो रमता है उसको शुद्ध आत्मा के दर्शन नहीं होते हैं । अपने आपमें बसा हुआ शुद्ध आत्मा अपने में बसा है तो इसके बसने पर यह इंद्रियसमूह बस जाता है और इसके उजड़ने पर ये सब इंद्रियां उजड़ जाती हैं । वहीं तो एक आत्मा निज परमात्मतत्त्व है । उसकी दृष्टि से चिगे कि संसार में सर्वत्र क्लेश ही क्लेश होते हैं।
इस शुद्ध आत्मा के केवलज्ञान की कला प्रकट होती है । न इसका बंधन है, न इसमें संसार है, न सुख-दुःख उत्पन्न होता है । यह तो मात्र अपने ज्ञानस्वभाव में स्थित रहता है । मेरा भला करने वाला परमपिता रक्षक अपने आप में अवश्य मौजूद है, किंतु हम ही उसके दर्शन नहीं करना चाहते । इसके दर्शन बाह्य के संकल्प-विकल्प त्याग देने से स्वयमेव होते हैं । जिसे इसका दर्शन हो गया, उसका निकट संसार है । वह शीघ्र ही निर्विकल्प स्थिति को प्राप्त होता है ।
एक घर में स्त्री ने पति से कहा कि देखो आज के समय में सब लोग देश-रक्षा के लिए युद्ध करने जा रहे हैं तो तुम भी मिलेक्ट्री (सेना) में शामिल हो जाओ । तो घर वाला कहता है कि यह तो नहीं हो सकता है । क्यों? अरे ! युद्ध करने जायेंगे तो प्राण नष्ट हो जायेंगे । तो उस स्त्री ने चक्की में चने डाल कर चने को दलकर बताया कि देखो―जैसे इस चक्की में चने दले हैं तो उनमें से कोई चना समूचा भी निकल आया है । जांते में चने दलों तो कुछ देवली निकले, कुछ भूसी हो गए और कुछ समूचे निकले । तो स्त्री कहती है कि देखो―ये चने समूचे निकल आये हैं । इसी प्रकार युद्ध में सभी नहीं मरा करते हैं, कोई बचा भी करते हैं । तो पुरुष बोला कि जो इसमें चूर हो गये, हम उनमें से हैं और जो बचे हैं उनमें मेरी गिनती नहीं है । यदि कोई अपने को प्रारंभ से ही ऐसा माने कि जो दुःखी हो, चिंतित हो, अरक्षित हो वहो मैं हूँ, प्रभु स्वरूप मैं नहीं हूं―ऐसा ही कोई निरखता रहे, चैतन्यस्वभाव की प्रतीति न रखे तो इसकी चिकित्सा दूसरा कौन करेगा?
भैया ! किसी भी जीव पर कोई संकट नहीं है । जवान, बूढ़ा, बालक, कोई भी ले आओ, दुःखी नहीं है । बाह्यविषयक विकल्प सबने बनाए हैं । और उन विषयों के एकाकी बनाकर ही सब अपने आप दुःखी हो रहे हैं । एक खटिया पर पुरुष व स्त्री दोनों पड़े थे । दोनों में गप्पें हो रही थी । स्त्री ने पूछा―क्यों जी अगर एक बच्चा हो जाये तो वह कहाँ पड़ेगा? तो वह थोड़ा खिसक कर बोला इस बीच में पड़ेगा और अगर दूसरा हो गया तो? इस बार वह ऐसा खिसका कि नीचे गिर पड़ा । कभी ऐसा भी हो जाता है कि थोड़ी दूर से गिरने पर भी चोट आ जाती है । तो गिरने से उसका पैर टूट गया । फिर उठने के बाद स्त्री ने चर्चा की कि अगर तीसरा होगा तो कहां पड़ेगा? कहा―छोड़ो, कल्पना करने में तो टूटा पैर, होने पर तो न जाने क्या टूटे? तो सब कल्पना ही करके दु:खी हैं । एक भी जीव को कोई दु:ख हो तो बतलाओ ? मगर कल्पना किए बिना रह कौन सकता है ? लखपति करोड़पतियों को देखकर मन में यह तरंग उठाते हैं कि मुझे भी ऐसा ही होना चाहिए, तब तो मेरी इज्जत हो । मान लो, जो बड़े धनी हैं, जिनके लिए मात्सर्य करने के लिए कोई दूसरा आदर्श नहीं नजर आता, सर्वोत्कृष्ट धनी हो तो भी वे अपने धन की रक्षा के लिए ही बड़े चिंतित रहते हैं ।
बनारस में एक वृद्ध पंडित थे । वे सबसे अधिक बुद्धिमान् थे, पर वे इतने बूढ़े होने पर भी पुस्तकों को ही देखा करें । लोग कहते हैं कि पंडितजी आप वृद्ध हो गए हैं । आप सबसे अधिक बुद्धिमान् माने जाते हैं, सब लोग आपकी इज्जत करते हैं फिर भी आप रात-दिन पढ़ते रहते हैं । आपकी अवस्था वृद्ध हो गई है । अब तो आपको आराम से रहना चाहिए तो पंडित जी बोलते हैं कि यदि किसी समय हम से किसी ने शास्त्रार्थ छेड़ दिया और हम हार गये तो कुए में गिरना ही पड़ेगा और मेरी कुछ गति न होगी । एक बार ऐसा ही हुआ । एक जवान पंडित से शास्त्रार्थ के लिए दिन निश्चित हो गया । उसमें वे हार गए तो दूसरे दिन लोगों ने उन्हें जिंदा न पाया ।
भैया ! खुद में ही कल्पनाएँ बनाकर सब दुःखी हो रहे हैं । साधुओं में, संन्यासियों में, महात्माओं में और है क्या कला, सो बतलाओ । भीतर के उजेले को उन्होंने निरखा और परमानंद उनके उत्पन्न हुआ । उस आनंद के कारण ही उनके कर्म झड़ जाते हैं । ग्रंथों में जिस शुद्ध आत्मा की चर्चा की गई है उस शुद्ध आत्मा का स्वरूप मात्र प्रतिभास है । इस आत्मा को पिंड की दृष्टि से मत निहारो । इसमें आकार-प्रकार नहीं दिखेगा । यह आत्मा कितना लंबा-चौड़ा है, इस रूप इसे न देखो । यह क्रोधवान् है, कषायवान्, शांत है―इस प्रकार से न देखो । इसे केवल एक ज्ञान उजेले है, के रूप में देखो । जो ज्ञानज्योतिमात्र है । एतावन्मात्र मैं हूं―ऐसे एक ज्ञान प्रकाश के रूप में अपने को देखो तो इस आत्मा का ग्रहण हो सकता है । बस, ऐसे ज्ञान के उपयोग को जो जान गया, उसे कहते हैं शुद्ध आत्मा । उस शुद्ध आत्मा को देखो । सर्व की स्थितियाँ देखकर मरण, रोग, बुढ़ापा आदि देख कर तू भय मत कर । तू शुद्ध आत्मतत्त्व है । केवल अपनी स्वरूपसत्तामात्र है, उसको ही ग्रहणकर । तू किसी भी प्रकार से परवस्तुओं का परिणमन तककर खेद मत कर । परवस्तुओं के बारे में कुछ न विचारो ।
देखो तो अज्ञान की महिमा । भिखारी जन अपने को उतने ही रूप में तककर अपने में गर्व किया करते हैं, कुछ मांगने की अच्छी कला आ जाय और 5 रुपये के पैसे मिल जायें तो भिखारियों के बीच में वह भिखारी गर्व के साथ बैठता है । मैं बुद्धिमान् हूँ । मैंने बड़े-बड़े लोगों को चकमा दिया है । मैं पैसा कमाने की, माँगने की विशेष कला जानता हूं―इस तरह से भिखारियों के बीच में वह भिखारी गर्व किया करता है । धनीजन धनिकों के बीच बैठकर अपने धन पर गर्व किया करते हैं । प्रत्येक जीव अपने बारे में कुछ न कुछ विश्वास लिए हुए है । मैं गोरा हूँ, मैं सांवला हूँ, मैं अमुक जाति का हूँ, मैं अमुक कुल का हूँ, मैं अमुक पोजीशन का हूँ, ब्राह्मण हूँ, वैश्य हूँ, जवान हूँ, वृद्ध हूँ, रूपवान हूँ, साधु हूँ, संन्यासी हूँ, आदिरूप से अपने आपमें विश्वास करते हैं । पर शुद्धनय से देखा गया यह आत्मा कतई इन रूप नहीं है । वह तो केवल निजज्ञान प्रकाश का है ।
केवलज्ञान प्रकाशमात्र के रूप में निरखा गया यह आत्मा शुद्धआत्मा है । इस रहस्य को जो जानता है उसे योगी कहते है । जिनको इस रहस्य के पता नहीं है वे किसी न किसी रूप, किसी पर्यायवान स्वरूप अपने को निर्णय करके मिथ्यादृष्टि रहते हैं । यह आत्मा न भला है, न बुरा है, न पुण्यरूप है, न पापरूप है, न सुखरूप है, न दुःखरूप हैं; किंतु शुद्ध ज्ञानस्वभावमात्र है । शुद्ध का अर्थ है सबक निराली । केवल अपनी सत्तामात्र यह शुद्ध आत्मा वास्तविक तीर्थ है । अन्य तीर्थंस्थानों पर जाने का प्रयोजन इस निज तीर्थ का ज्ञान करना है । काम तौ किया और प्रयोजन छोड़ दिया तो उसे कौन बुद्धिमान कहेगा? किसी सेठ के यहाँ मकान बन रहा है और बहुत से मजदूर उसमें काम कर रहे हैं । एक भोला-भाला मजदूर गया और उन सब मजदूरों से अधिक काम करने लगा, किंतु मालिक के रजिस्टर में अपना नाम न लिखाया । काम सबसे ज्यादा किया । जब हफ्ते के पैसे बंटने लगे तो सबको तो मिले, पर उसे न मिले । उसने कहा कि काम तो मैंने सबसे अधिक किया पर मुझे कुछ नहीं मिला । मालिक ने रजिस्टर में उसका नाम देखा तो नाम ही न था । मालिक ने कहा कि तुम्हारा तो रजिस्टर में नाम ही नहीं है; जाओ हटो । देखो―काम तो इतना किया पर मिला कुछ नहीं । अरे ! तो काम करने का जो विधान है, उस पर तो दृष्टिपात नहीं किया । इसी प्रकार तीर्थ जाने का प्रयोजन है कि निश्चय तीर्थ की खबर मिल जाय, जो तुम्हें तार सकती है । और उस निश्चय की खबर न ली तो बाह्यक्षेत्र के तीर्थ पर जाने से बताओ कौनसा मोक्षमार्ग तुमने पाया?
यह शुद्ध आत्मा ही तीर्थ है । जिसके ध्यान के प्रताप से ये समस्त कर्म मल ध्वस्त हो जाते हैं, एक शुद्ध आत्मा के जान लेने पर सर्व विश्व जान लिया जाता है, ऐसी यह शुद्धआत्मतत्त्व कारणरूप है, तो इसका नाम कारण समयसार है । इस शुद्ध आत्मतत्त्व का आश्रय करने से, अभेद उपासना करने से समस्त उपाधि और औपाधिक भाव ध्वस्त हो जाते हैं । इस कारण यह शुद्धआत्मा ही परमपिता व कारणसमयसार है और अनुरूप जो शुद्धपरिणमन चलता है वह सब कार्यसमयसार है।
भैया ! हम वंदना करते हैं ‘‘णमो अरहंताणं’’ और बोलते समय यह विश्वास बनाए है कि जो अरहंत हैं सो मैं हूँ । जो अपनी शक्ति का अंदाज नहीं करते हैं वे ‘णमो अरहंताणं’ की वंदना करते हैं तो वह रस्म सी अदा का जाती है । णमोसिद्धाणं बोलने पर अपने आपमें सिद्धस्वरूप हूं―ऐसा विश्वास आना चाहिए था । पर उसका ख्याल भी न किया तो एक रस्म अदा की । पंचपरमेष्ठीस्वरूप यह मैं आत्मा हूँ । ये परमेष्ठी स्वयं अपना अधिकार लेकर नहीं पैदा हुए । जैसे हम हैं तैसे ही ये सब थे । पर इनके ज्ञानभाव जाग्रत हुआ और अपने ज्ञानस्वरूप में ध्यान दिया तो सर्व उपद्रवों से पार हो गए । इस कारण वे पूज्य हैं । पर जैसे वे हैं वैसा ही मेरा स्वरूप है―ऐसा अपने आपमें विश्वास रखना चाहिए । जो यह शुद्धआत्मतत्त्व है इसके ध्यान के प्रताप से भव-भव के बांधे हुए कर्म क्षणभर में ध्वस्त हो जाते हैं ।
इस शुद्ध आत्मा का ध्यान करने पर शाश्वत अविचल आनंद प्रकट होता है । सो सर्व उपाय करके अपने इस चित्त को निर्मल बनाओ । निर्मल आसन पर यह शुद्ध आत्मतत्त्व विराजमान रह सकेगा । हे आत्मन् तुम इस शुद्ध आत्मा का ज्ञान करो और साथ ही कुछ ऐसा उद्यम करो कि कुछ क्षण अपने उपयोग को ऐसा बनाओ कि इसमें कोई दूसरा पदार्थ स्थित न रहे । खाली बनाओगे तो उस शून्य हृदय को देखकर भगवान विराजमान हो जायेगा । भगवान् बड़ा कृपालु है । वह देखेगा कि इस आसन पर क्रोध, मान, माया, और लोभ―ये बच्चे खेल रहे हैं, ये बड़ा ऊधम मचा रहे हैं; इनको देखकर वह भगवान् लौट जायेगा ।
यह प्रभु जहाँ आसन सूना होगा वहीं विराजमान होता है । ऐसा रागादिक से रहित, विषयों की आसक्ति से रहित अपना चित्त करो और विश्वास रखो कि कोई दूसरा मेरे लिए शरण नहीं है । मेरा मात्र मैं ही हूँ । सबसे निर्लेप होकर परमविश्राम पाये तो यह पुरुष आनंदमग्न होकर इस आनंद भूमि पर आ जायेगा । इसके प्रताप से ही संकट टलते हैं । इसका ही तीन आत्माओं के वर्णन के बहाने से प्रतिपादन किया है कि तुम सीधा एक इस शुद्ध आत्मतत्त्व को निरख लो, जिसके देखने पर सारे संकट समाप्त हो जाते हैं । इस प्रकार इस परमात्मप्रकाश का प्रथम महाधिकार संपूर्ण हुआ ।
।। इति चतुर्थ भाग समाप्त ।।