वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 14
From जैनकोष
मूढो विचक्षणो ब्रह्मा पर: आत्मात्रिविधोभवति ।
देहमेव आत्मानं यो मनुते स जनो झड़ने भवति ।।
तीन प्रकार के आत्मा के भेद हैं, उनमें से प्रथम बहिरात्मा का लक्षण कहते हैं (मूढ:) मिथ्यात्व रागादिरूप परिणत हुआ बहिरात्मा, (विचक्षण:) वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानरूप परिणमन करता हुआ अंतरात्मा (ब्रह्मापर:) और शुद्ध-बुद्ध स्वभाव परमात्मा अर्थात् रागादि रहित अनंत ज्ञानादि सहित, भावद्रव्यकर्म नोकर्म रहित आत्मा इस प्रकार (आत्मा) आत्मा (त्रिविधोभवति) तीन तरह का है, अर्थात् बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्मा ये तीन भेद हैं । इनमें से (य:) जो (देहमेव) देह को ही (आत्मान) आत्मा (मनुते) मानता है, (सजन:) वह प्राणी (मूढ:) बहिरात्मा (भवति) है, अर्थात् बहिर्मुख मिथ्यादृष्टि है ।
भावार्थ―जो देह को आत्मा समझता है, वह वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न हुए परमानंद सुखामृत को नहीं पाता हुआ मूर्ख है, अज्ञानी है । इन तीन प्रकार के आत्माओं में से बहिरात्मा तो त्याज्य ही है―आदर योग्य नहीं है । इसकी अपेक्षा यद्यपि अंतरात्मा अर्थात् सम्यग्दृष्टि वह उपादेय है, तो भी सब तरह से उपादेय (ग्रहण करने योग्य) जो परमात्मा उसकी उपेक्षा वह अंतरात्मा हेय हो है, शुद्ध परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है, ऐसा जानना ।।13।।