वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 16
From जैनकोष
अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्मविमुक्के जेण ।
मेल्लिवि सयत्नु वि दव्वु परु सो परु मुणहि मणेण ।।16।।
जिसने कर्मविभुक्त ज्ञानमय आत्मा को प्राप्त किया है जो, केवलज्ञान से रचा हो अर्थात् मात्र अपने स्वरूप से रचा हो और ज्ञानावरणादिक द्रव्य कर्मों से और रागद्वेषादिक विकार भावों से रहित हो ऐसे निजज्ञायकस्वभाव को जिसने प्राप्त किया है वह परमात्मा होता है । अपने आपको केवल बनाने का नाम कल्याण है, मोक्ष है, केवल बनने के लिए केवल देखना सर्वप्रथम कर्तव्य है । अपने आपको केवल देखे बिना केवल बन नहीं सकता । यह परिवार में लिप्त धन वैभव से युक्त, शरीरमय अपने आपको देखे और ऐसा आशय रखता हुआ धर्मपालन भी करे अर्थात् व्यावहारिक रुढ़ि वाला धर्म भी करे तो मोक्षमार्ग नहीं मिल सकेगा । मोक्ष का अर्थ है केवल रह जाना और केवल रह जाना तब बन सकता है जब अपने को केवल देखे । केवल देखने में दो बातें आई । समस्त परपदार्थों से रहित देखना और अपने को स्वरूपास्तित्व मात्र देखना । इस विधि से समस्त परद्रव्यों का विकल्प छूट जाता है । जो अपने को सहज चैतन्यस्वरूपमात्र चित्प्रकाशमात्र निरखता है वह केवल बनता है, अर्थात् परमात्मा होता है ।
त्याग केवल अपने आपके स्वरूप के ग्रहण करने का नाम है । बाह्य वस्तुयें कितनी हैं? किन-किनका विकल्प बनाकर त्याग किया जा सकेगा? केवल एक चैतन्यमात्र निजस्वरूप के ग्रहण करने में समस्त पदार्थों का त्याग हो जाता है । व्यवहार में जिन चीजों में पड़कर जिसका आश्रय लेकर हम विकल्प बनाया करते हैं, बुद्धिपूर्वक उन पदार्थो से अपने को अपने उपयोग द्वारा बाहर हटा लेना है क्योंकि कर्मों के उदय का फल भोगने के लिये बाह्यपदार्थ आश्रयभूत बन जाया करते हैं । हम सर्वपदार्थों को कहां तक हटाएँ? एक अपने आपके स्वरूप के ग्रहण करने में सबका त्याग हो जाता है ।
जैसे वनस्पतियां असंख्यात हैं । कोई यह चाहता है कि मैं काम लायक 5-7 वनस्पति के सिवाय सब वनस्पतियों को त्याग दूं तो वह वनस्पति का नाम लेकर कहां तक त्याग करेगा? उन दो चार वनस्पतियों का नाम लेकर कि इनके अतिरिक्त मेरा सब वनस्पतियों का त्याग है―ऐसा कह लो त्याग हो गया । इसी प्रकार मैं केवल अपने ज्ञानस्वरूप का ग्रहण करता हूँ अन्य किसी भी तत्त्व को मैं ग्रहण नहीं करता, न आत्मारूप मानता । ऐसे संकल्प में सर्वपदार्थों का त्याग हो जाता है । समस्त पदार्थो का त्याग करके और रागादिक परभावों का त्याग करके अर्थात् आत्मारूप से न ग्रहण करके जो शुद्धस्वरूप को ही अनुभवता है वह परमात्मा होता है, ऐसा जानो । ऐसा किस प्रकार बन सकेगा? इसके लिये प्रथम शल्यों का त्याग करना होगा ।
शल्ये 3 होती हैं―माया, मिथ्यात्व और निदान । इन तीनों शल्योंरूप जो समस्त परिणमन है उनसे रहित बना लेना यही आत्मा की शुद्धि है । जगत् के जीव इन तीन संकटों में फंसे हुए हैं माया, मिथ्या और निदान । इन शल्यों का मूल गुरु तो मिथ्यात्व है । पदार्थों का यथार्थस्वरूप न समझकर किसी का किसी में हित समझना अपने आप में असमानजातिय इन भावों को आत्मरूप से मानना यही मिथ्यात्व है । मैं एकमात्र ज्ञानप्रकाश हूँ, जानन ही मेरा काम है, जानन ही मेरा भोग है, जानन ही मेरा सर्वस्व है और जानन का आधारभूत ज्ञानस्वभाव ही मेरे लिये ज्ञानस्वभाव है । ऐसा न जानकर अपने आपको नानारूप मानना सो मिथ्यात्व है । जब मिथ्यात्व परिणाम है तो निदान हुआ करता है, परवस्तुओं का बंधन हुआ करता है । जब निदान होता है तो उस निदान में शांति के लिये मायाचार बर्तना पड़ता है । माया, मिथ्या और निदान इन तीन प्रकार के परिणामों में यह सर्व जगत् लिप्त हो रहा है । इन विभावों से रहित मन के द्वारा अपने आपको पर से रहित ज्ञानमात्र निरखो । इस प्रकार के उपाय से उक्त लक्षण वाला परमात्मपद प्रकट होता है और यह परमात्मपद उपादेय है । इसके अतिरिक्त समस्त वैभवरूप परद्रव्य हेय है । इतना शुद्ध चित्त बने कि जिससे यह निर्णय बना रहे कि परमात्म दशा ही मेरे लिये हितकर है । जहाँ राग है, वहाँ फंसाव है, जहां फंसाव है वह न सुहावे, उससे रहित केवल ज्ञानमात्र निजस्वरूप की बात सुहाए, इतना जिसके निर्णय है उसको ही शुद्धमन वाला कहते हैं । लौकिक बातों में यदि चतुराई अधिक प्राप्त कर ली तो उसे चतुराई नहीं कहते, किंतु अपने आपके स्वरूप के दर्शन में यदि कुशलता प्राप्त कर ली तो क्षण में ही जब चाहो तब एकदम इस ज्ञानसुधा के समुद्र में अपने उपयोग को बसा सकोगे । ऐसी योग्यता यदि बना ली तो इसको ही अपनी चतुराई कहते हैं ।
एक सेठजी थे सो अपने मकान के आगे चबूतरे पर बैठकर रोज दातुन किया करते थे । और सामने से भैंसे निकला करती थीं । उनमें से एक भैंस मानो पंजाब की हो बड़ी सुंदर सींग वाली थी भेड़ बकरी जैसी, एकदम गोलाई को लिये हुए सींगे थी । सेठजी सोचते हैं उसे देखकर कि ये सींग यदि मेरे सिर पर लगी होती तो मैं कितना सुंदर जंचता ? रोज दातून करने बैठते और रोज भैंस सामने से निकलती तो उसको देखकर यही विचार करते । लगातार विचार करते-करते 6 महीने हो गये । 6 महीने के बाद के दिन वही भैंस सामने से निकली । सेठजी ने सोचा देखो विचार करते-करते 6 महीने हो गये, अब तो इन सींगों को अपने सिर पर लगा लें । सो सोचा कि अपने सिर की सींगों में मारने लगे तो सींगे लग जायेंगी । वह सींगों में सिर लगाने लगा तब भैंस बिचकी तो है और उसे कुछ न सूझा सो भैंस के गले में चिपट गया । वह भैंस एक फर्लांग तक दौड़ी । सेठजी उसके गले से चिपके रहे । गांव के लोग सेठजी को बचाने दौड़े । सेठजी से बोले अरे सेठजी ! बिना विचारे यह क्या कर रहे हो? सेठजी―बोले कि मैंने बिना विचारे तो कुछ नहीं किया, विचारते-विचारते तो 6 महीने बीत गए थे, तब फिर मैंने यह काम शुरु किया । अरे 6 महीना क्या, वर्ष दो वर्ष भी विचार करते बीत जायें तो क्या यह कोई चतुराई का विचार था?
भैया, परमार्थ के मार्ग से चलकर देखो परद्रव्यों के संबंध में कुछ भी विचार करो, कितनी ही अपनी चतुराई खेलों, इस बुद्धि से धन आयगा, इस पद्धति से अमुक का धन छीन लिया जायगा, उसमें सफलता भी हो, धन भी बढ़ जाय किंतु वह सब चतुराई नहीं कही जा सकती । उसका फल तो एकदम अभी न सही तो मरने के बाद पशुपक्षी बनकर भोगना पड़ेगा । वहाँ कोई मना नहीं कर सकता कि मैं कीड़े-मकोड़े न बनूंगा । यहाँ कुछ पुण्य का उदय है तो कुछ हठ भी चल जाती है, मगर मृत्यु के बाद कुछ हठ न चलेगी । यहाँ पुण्य के उदय में थोड़ा बहुत मायाचार का बहकावा भी किया जा सकता है पर परिणामों का फल अवश्य मिलता है । मरण बाद चाल न चलेगी । परद्रव्यों के संबंध में हम कितना भी विचार करें, कितने ही यत्न किया करें तो उसे चतुराई नहीं कही जा सकती । गुरुजी कहते थे कि ठगा जाना बुरा नहीं है पर दूसरों को ठगना बुरा है । दूसरों के ठगने का भाव किया तो उसमें नुकसान पड़ता है और खुद ठग गया तो उसमें नुकसान नहीं है । यदि ठग गये तो कुछ पैसा या बाह्य वस्तु कम हो गया, इतना ही तो हुआ, मगर परिणाम तो मलिन नहीं हुआ । ठगना बुरा परिणाम है ठगा जाना कोई हानि वाली स्थिति नहीं है ।
जब चित्त में यह बात समा जाय कि यह मेरी स्थिति कर्मबंध करने वाली है, विश्वास के योग्य नहीं है तब यह बात समा जाती है कि परमात्मपद ही सारभूत है, शरण है । भैया अपन उसे प्राप्त कर सकते हैं, थोड़ा चित्त में साहस ही बनाना है, विषय कषायों से ही निवृत्त होना है फिर तो अन्य सब साधन सुगम होते चले जाते हैं । परमात्मा कौन होता है? जो अपने को शुद्ध निरखता है, शुद्ध के माने, रागद्वेषरहित नहीं किंतु सब परपदार्थों से न्यारा केवल अपने अस्तित्व मात्र । जैसी दृष्टि होती है वैसी सृष्टि होती है । हम शुद्ध बनना चाहते हैं तो हमें शुद्ध का ध्यान करना होगा । शुद्ध का ध्यान किए बिना हम शुद्ध नहीं हो सकते हैं । शुद्ध तत्त्व का ध्यान करने के लिये यत्न यह आना है कि किसी भी परचीज का ध्यान न करें । हम तो स्वत: अशुद्ध हैं नहीं । रागादिविकारों से रहित हैं । सो अपनी ही सहज स्थिति का ध्यान करके ही तो मोक्ष पा सकेंगे ।
अरहंत और सिद्ध परमात्मा शुद्ध हैं । वे रागादि दोषों से रहित हैं । सो हैं तो शुद्ध किंतु परद्रव्य हैं, मेरे अस्तित्व से अत्यंत पृथक् हैं । सो किसी परद्रव्य का आश्रय करने से उपयोग में निर्विकल्पता नहीं आती । वे पर-पर ही तो हैं । पर की ओर निज उपयोग एकमेक स्थिरता से रह सके यह नहीं हो सकता । किंतु जिन जीवों की विषयों में ही प्रवृत्ति उपयोग है, उन्हें शुद्ध परमात्मा अरहंत सिद्ध प्रभु के ध्यान में होना ही चाहिये । उसका आश्रय करने से भी अशुद्धता नहीं होती । यदि खुद शुद्ध दृष्टि में दृढ़ हैं तो बिना किसी के आश्रय किए हम मोक्षमार्ग में बढ़ते चले जायेंगे । इसका हल द्रव्यानुयोग से किया है । हमें रागरहित पर्यायशुद्ध परद्रव्य का आश्रय करने की आवश्यकता नहीं है किंतु समस्त परपदार्थों से भिन्न केवल खुद के स्वरूपास्तित्व मात्र निज का आश्रय करने की आवश्यकता है । इस ही को शुद्ध कहते हैं ।
द्रव्यानुयोग से शुद्ध का क्या अर्थ है, पर से न्यारा अपने स्वरूपास्तित्व मात्र होना इसी का नाम शुद्ध है । वह चाहे वर्तमान परिस्थिति में विकार पर्याय में परिणति है और चाहे किसी भी प्रकार की परिणति हो उस पर दृष्टि देना है । इसे एकत्वविभक्त कहते हैं । विभक्त माने अन्य से न्यारा, एकत्व माने एकत्वमय, अपने स्वरूपमात्र । ऐसे एकत्व विभक्त निजस्वरूप का आश्रय करने से परमात्मत्व प्रकट होता है । यहाँ तीन प्रकार की आत्माओं का वर्णन चल रहा है । बहिरात्मा तो वह है जो बाहर में अपना आत्मा समझता है, अर्थात् ये बाह्यपदार्थ मेरे हैं, उनसे ही मेरा जीवन है, इनसे ही मेरा सुख हो इनसे ही मेरा हित हो सकता है । जैसे माता कह देती है ना कि मेरा तो सब कुछ मेरा ऊंचा है, यही मेरा सर्वस्व है, इस प्रकार सभी चेतन अचेतन पदार्थों में जो ऐसा विश्वास रखते हैं कि यही तो मेरा पुत्र है, यही तो मेरा जीवन है यों जो अपना नास्तित्व समझते हैं वे जीव बहिर्मुख कहलाते हैं । सीधे शब्दों में जो देह को ही आत्मा मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं ।
शरीर ही मैं हूँ, और इन लौकिक पदार्थों से ही मेरी इज्जत है, दो चार आदमियों ने मुझे बड़ा कह दिया तो मेरा जीवन सफल है, मेरी इज्जत हो गई पोजीशन बन गई । क्या हुआ कुछ विवेक तो करो । ये रागी, द्वेषी, मोही, प्राणी स्वयं जगत में रुलने वाले, अपवित्र मलिन प्राणी हैं । उन्होंने अच्छा कह दिया, बड़ा कह दिया, उसमें ही अपना पोजीशन समझते, यह सब बहिर्मुखता है । ये सब विडंबनायें शरीर को आत्मसर्वस्व माने के कारण हो जाया करती हैं । पहिले देह को माना कि यह मैं हूँ, ये मेरे हैं, तब के बाहरी पदार्थों से निमित्तनैमित्तिक चलता है ना? इस कारण बाह्य अन्य पदार्थों में ममता उत्पन्न होती है । संसार के दु:खों का मूल शरीर में आत्मबुद्धि करना है ।
भैया, एक यह निर्णय करना अपने भावनिर्माण के लिये बड़े महत्व की है कि हम अपने आपको कैसा अनुभव करें कि हम शांति, सुखी, महान, निराकुल, पवित्र, शुद्ध बन सकें? और हम अपने आपको कैसा मानते चले आये कि जिसके कारण हम संसार में व्याकुल मोही बने हुए रहे? निर्णय उपयोग तो यही एक है, ज्ञान की वृत्ति तो यही एक है किंतु यह ज्ञानवृत्ति बाह्यपदार्थों में लगती है तो संसार में रुलना बना है । और ज्ञानवृत्ति यदि अपने अंतर में त्रैकालिक शुद्ध चैतन्यस्वभाव में प्रवृत्त है तो हम मोक्षमार्गी हैं । जो कुछ करना है वह अंतर में गुप्त ही गुप्त अपने आपमें करना है । धर्म कहीं दिखाकर नहीं करना है । दिखावट, बनावट, सजावट में धर्म नहीं हुआ करता बल्कि वह तो पाप ही बसाता है । धर्म तो अंतर में गुप्त अपना स्वभावमात्र है । यह किया जा सका तो समझिये हम संसार से तिर रहे हैं । अपने आपको सबसे निराला केवल ज्ञानमात्र न तक सके तो हमारा धन पाने का बड़प्पन भी व्यर्थ है और नाना प्रकार की बुद्धि की कुशलता पाना भी व्यर्थ है ।
भैया ! जिन-जिन बातों से लोक में बड़ा माना जाता है, वे सब बातें व्यर्थ हैं क्योंकि दूसरे लोग, जिनके लिये तुम श्रम कर रहे हो, वे भी तुम्हारी मदद न कर सकेंगे । यों विवेक करके बाह्य में अपनी आत्मा न मानकर अंतर में अपने ज्ञायकस्वरूप को ही आत्मा मानना है, इसे ही अंतरात्मत्व कहते हैं । यह कर्मधूल कैसे उड़े? यह शरीर बंधन कैसे मिटे? ये नाना प्रकार के विषय कषाय कैसे दूर हो? काम बहुत पड़ा है करने को । अरे काम नाना प्रकार के नहीं करने को पड़े हैं । काम करने को पड़ा है केवल एक । एक ही काम के फल में नाना प्रकार के काम अपने आप हो जाते हैं । यह मैं एक ज्ञायक हूँ, सबसे निराला केवल अपने ही स्वरूपमात्र हूँ । जैसा कि यह अमूर्त है, रूप, रस, गंध, स्पर्श रहित है, ऐसा अपने आपमें अनुभवना, देखना एक ही काम है । इस काम के प्रसाद से ये सर्वविलक्षण काम अपने आप हो जाया करते हैं ।
इस प्रकार आत्मा का प्रतिपादन करने वाले इस प्रथम महाधिकार में संक्षेप में तीन प्रकार की आत्मा की सूचना देते हुए इन पांच गाथाओं में तीन प्रकार की आत्माओं का वर्णन हुआ है । केवल ज्ञानानंद व्यक्तिरूप सिद्धि जिससे प्राप्त होती है ऐसे शुद्ध जीव की व्याख्या की मुख्यता में 10 गाथाएँ कही जायेंगी । व्यवहार में तो शरण प्रभु की स्मृति है और निश्चय से शरण अपने आत्मस्वभाव की दृष्टि है, आत्मस्वभाव और प्रभु विकास दोनों का समानस्वरूप है । इस कारण छठवें सातवें गुणस्थान में प्रभु भक्ति आत्म उपासना करते हुए ज्ञानानंद रहा करते । सो भैया ! परमात्मा के स्वरूप स्मरण में विश्वास बनाएँ, आचरण बनाएँ और चेतन अचेतन का यथार्थ अवगम करें क्योंकि इनको छोड़कर जाना ही पड़ेगा । अत: अपने अंतरात्मा को प्राप्त कर, बस एक ही यह अपना कर्तव्य है । इसके अतिरिक्त इस मुझ आत्मा का कोई काम नहीं ।