वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 22
From जैनकोष
अत्थिण पुण्णु विण पाउ जसु अत्थिण हरिस विसाउ ।
अत्थिण एक्कुवि दोसु जसु सो जिणि रंजण भउ ।।22।।
परमात्मा जीव निरंजन है अर्थात् अंजनरहित है । वे अंजन कौन-कौन से हैं जिससे वह परमात्मा रहित है उन अंजनों का निषेधरूप इन तीन गाथाओं में एक साथ वर्णन किया जा रहा है । जैसे मुक्तात्मा में सफेद, काला, लाल, पीला, नीला रूप 5 प्रकार का वर्ण नहीं है । वर्ण तो जितने भी जीव हैं उनके नहीं हैं । चाहे निगोद हो, चाहे अन्य हो पर वर्णों का रंचमात्र भी संयोग और संबंध भी मुक्त जीव के नहीं । यह बात मुक्तात्मा की बताई जा रही है । संसारी जीव के वर्णात्मक शरीर का संयोग है पर सिद्ध महाराज के तो शरीर का संयोग नहीं है । सुगंध और दुर्गंध रूप दो प्रकार की गंध भो नहीं है । कडुवा, तीक्ष्ण, मधुर, खट्टा और कषायला ये 5 प्रकार के रस भी नहीं है । भाषात्मक और अभाषात्मक इत्यादि नाना प्रकार के शब्द भी इस आत्मा में नहीं है । ये सब चीजें भी अपनी नहीं है । किंतु यहाँ इस प्रकार के पुद्गलों का एक विशिष्टावगाहनरूप संबंध है । इस कारण इस जीव में रूपादिक का व्यवहार होता भी है । पर मुक्त आत्मा में ये रूपादिक भेद नहीं हैं । 8 प्रकार के स्पर्श हुआ करते हैं । ठंडा, गर्म, रूखा, चिकना, गुरु और लघु, कोमल और कठोर ये 8 प्रकार के स्पर्श जिस मुक्त आत्मा में नहीं हैं उसको तुम निरंजन जानो ।
इस मुक्त आत्मा का जन्म मरण भी नहीं होता । वह चिदानंद स्वभाव एकरूप सदा अविनाशी है । इसको ही निरंजन कहते हैं । अंजन रहित, अंजन माने परसंयोग । वहाँ अंजन का ही शब्द मिला । जैसे आंख में अंजन मला, उसे एक जगह कहां रखें? फैल करके सबमें विस्तृत हो जाता है । ऐसे ही जीव में अंजन भी विस्तृत हो जाता है । देखो यहाँ तैजस शरीर इस जीव के प्रदेश में कैसे फैला है? कार्माणशरीर, अन्य-अन्य रागद्वेषादि विकार कैसे आत्मा में फैले हुए हैं? ये सब अंजन उन मुक्त आत्माओं में नहीं हुआ करते हैं । अलख निरंजन बोलते हैं ना? एक तो किसी इंद्रिय द्वारा लखने में नहीं आ सकता है इस कारण ये अलख है और अंजनरहित है, रागद्वेष विकार आदि सभी प्रकार के अंजन नहीं हैं । मुक्तजीव में किसी भी प्रकार का अंजन नहीं है? क्रोध नहीं, मोह नहीं और 8 प्रकार का मद भी नहीं, माया नहीं, कषाय नहीं, लोभ नहीं, देह नहीं, कर्म नहीं, ऐसा जो शुद्ध आत्मतत्त्व है उसको निरंजन जानो ।
शुद्ध निश्चय से तो जैसा आत्मा का स्वभाव है वैसा ही मुक्त आत्मा का व्यक्तस्वरूप है । ये क्रोधादिक कषाय जब होते हैं तब वे विकट विकृत हो जाते हैं । वे सब भी अंजन हैं । एक ज्ञानस्वभावी आत्मा में यह प्रतिबिंब पड़ता है, ये सब भिन्न तत्त्व हैं, आत्मा का स्वभाव नहीं है और इसी कारण इस मुक्त आत्मा में विकार नहीं होता है । जिस मुक्त आत्मा के ध्यान भी नहीं है । ध्यान कहते हैं चित्त के निरोध होने को । चित्त के निरोध होने के स्थान अनेक हैं । एक तो नाभि स्थान है, जिसे डंडी बोलते हैं ना? उस नाभि की जगह अष्टदल कमल का चिंतन करके चित्त को रोका जाता है । एक हृदय का स्थान है । इस हृदय में भी कमल का चिंतन करके उस हृदय में रोका जाता है । एक ललाट का स्थान है, यहाँ ललाट में तो अक्सर लोग चित्त को रोका करते हैं । यहीं पर वैज्ञानिक युक्त कल्पनाएं करते हैं । ये सब ध्यान के स्थान हैं । इन सब स्थानों में चित्त रोकने का काम संसारी जीवों का है पर जिसके केवलज्ञान स्थित हो गया, जो आत्मा रागद्वेषों से रहित शुद्ध हो गया वह निरंतर सर्वविश्व के जानने के उपयोग वाला रहता है । उनको ध्यान भी नहीं होता है । ऐसा रूपरस गंध स्पर्श रहित विषयकषायों से रहित ध्यान से परे शुद्ध निरंजन परमात्मदेव को जानो ।
भैय्या ! इस जीव का कोई सहायक है तो निर्दोष आत्मा की भक्ति । संसार के दृश्यमान ये सब पदार्थ आकुलताओं के कारण हैं । इन सब पदार्थों का आश्रय करके कोई सुखी नहीं होता, न सुखी हो सकेगा । विवेक शील पुरुष वह है जो इन पदार्थों से आत्महित का विश्वास न करे । और देखो सभी को अनुभव भी है कि इन बाहरी विभूतियों से, वैभव से आत्मा को चैन नहीं है । क्रोध उमड़ आता है, घमंड आ जाता है, बल, कपट भाव हो जाता है, लोभ आ जाता है, बात-बात में अपमान महसूस कर लिया जाता है । ये सब ऐब और संकट क्यों हैं? इन बाह्यपदार्थों का आश्रय करता है, उनसे ही हित समझा है इस कारण पद-पद पर क्लेशों की ठोकरें मिलती चली जाती हैं ।
इस लोक में, इस दुनियां में जो बड़े आदमी मालूम होते हैं जिनके नाम जानते होंगे । टाटा, बाटा, डाल्मिया, बिड़ला हैं, और कोई हैं, नाम गिनने से कोई मतलब नहीं जो महान् धनिक पुरुष हैं उनको ऊपर से देखो सकल रहन सहन अच्छा है, साफ कपड़े हैं, लोग सलाम कर रहे हैं । बड़े आराम के साधन मिल रहे हैं पर चित्त शांति में हो तो सुखी वास्तव में वही कहलाता है । बाहर से शांतमुद्रा दिखती है किंतु चित्त में क्या है? उसे हम क्या कहें । यदि कोई अंदाजा लगा सकते हो तो लगा लो । एक साधारण बात कही जा रही है । इस लोक में इन बाह्यविभूतियों में क्या विश्वास करें । यह वैभव जिनके पास है वे भी शांत और सुखी नहीं रह सकते । तब वह साधन कौनसा है? वह तत्त्व कौनसा है कि जिसका आश्रय करने से शांति मिले । बस इतना ही निपटेरा तो धर्म है ।
बड़े बूढ़े कहते हैं धर्मपालन करो । क्या पालन करें? ये सब व्यवहारिक बातें हैं । ये तुम्हारे धर्म के साधन बन गए हैं । ठीक है, पर भीतर में धर्म के स्वरूप का निर्णय तो हो । धर्म क्यों करना चाहिये? आप यही बतलावों । धर्म इसलिये करना चाहिये कि हम जीवन में यह देख रहे हैं कि किसी भी जगह किसी भी परपदार्थ में किन्हीं भी भोगसाधनों में प्रवृत्ति रहती है तो शांति नहीं मिलती है । कदाचित् पुण्य के अनुकूल सर्वसाधन भी हों तो भी उनका भरोसा तो नहीं कि कब तक रहें, कब मिट जाएँ? जब ये सब क्लेश लगे हैं जगत् में तो हमें इन क्लेशों से दूर होना चाहिये । ये विषयभोग भोगने में आनंददायक प्रतीत होते हैं पर इनके संयोग को करें क्या, सब भिन्न हैं, सदा रहते नहीं हैं और जब तक हैं तब तक भी ये तृष्णा और बेचैनी के साधक हैं । इन दृश्यमान पदार्थों का हम करें क्या? ऐसी स्थिति में अंतर में आवाज होती है कि ये काम लौकिक हैं अलौकिक नहीं । जिस कार्य को करने के पश्चात् इस जीव में शांति न रहे उस कार्य का यह जीव क्या करे? यह कर ही क्या सकता है? उनमें इसके हाथ पैर नहीं; रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं, यह कोई गांठ नहीं, पिंड नहीं, पकड़ा नहीं जा सकता, यह करेगा क्या, यह तो केवलज्ञान करता, भाव बनाता है ।
भैया ! अंतर में परख तो, यह शरीर के अंदर रहने वाला जीव मात्र भाव बनाया करता है । तब हमें कैसे भाव बनाना चाहिये कि शांति प्राप्त हो? वह स्थान है अपने आपमें बसने वाले सहज स्वरूप का, मैं अपने सत्व के कारण स्वयं क्या हूँ इसका निर्णय होता है तो उसे स्थान मिल जाता है, प्रभुपद मिल जाता है । कैसा हूँ मैं? सहज अर्थात् किसी भी पर का संबंध न हो तो यह मैं आत्मा किस स्थिति में रह सकता हूं? वह है सहजभाव, इसका निर्णय हो जाना धर्म का पालन है । यह निर्णय अपने आपके पा लेने में होता है । आत्मनिर्णय किसी इंद्रिय के उपयोग से नहीं होता है।
वे परपदार्थ कौन-कौन हैं जो इस जीव के साथ लगे हैं और जिसके संबंध के कारण आत्मा का सहजस्वरूप तिरोहित हो गया है । वे पदार्थ हैं कर्म और शरीरे । कर्म और शरीर इस जीव के एकक्षेत्रावगाह रूप में हैं । उनके संबंध से हमारा चित्त विचित्र हो गया है । शरीर और कर्म ये मेरे नहीं हैं । ये तो मेरे से, स्वरूप से अत्यंत जुदे हैं । इस जीव ने शरीर को मान रखा है कि यह मेरा है । उससे ही अपना लगाव कर रखा है । जिस उपयोग में बाह्य तत्त्व बसे हुए हैं उस उपयोग से प्रभु के दर्शन नहीं हुआ करते हैं । ऐसे समस्त विकारों से रहित परउपाधि के संयोग से रहित निरंजन शुद्ध आत्मतत्त्व को जानो । अर्थात् अपनी समाधि में स्थित होकर समता परिणाम में बसकर परमात्मा के स्वरूप का अनुभव करो ।
समाधि कब बनेगी? जब विकल्प हटे । विकल्प जिसके हटते हैं उसे शुद्ध आत्मा का अनुभव होता है अर्थात् मात्र ज्ञानस्वरूप का अनुभव होता है । केवल जानन का क्या स्वरूप है? केवल जिसको जाना ही जा रहा है वह स्थिति क्या होती है? उस स्थिति का जहाँ अनुभव होता है वहाँ ही निर्विकल्प दशा है । यह निर्विकल्प समाधि तब प्रकट होगी जब समस्त विभाव परिणामों का त्याग करो । समाधिभाव, समतापरिणाम, रागद्वेष से रहित केवलज्ञानदृष्टि रहने की स्थिति होने पर शांति मिलती है । हे आत्मन् ! ऐसी समाधि की स्थिति को प्राप्त करना यही धर्म का यत्न है । हमें क्या करना है? निर्विकल्प समता परिणाम में रहना है यदि यह भाव उठता है तो उसके धर्म का अभ्युदय हुआ समझिए । ऐसे स्व का अनुभव करने के लिये सर्वविभाव परिणाम को त्याग करना होगा ।
विभाव परिणाम नाना प्रकार के हैं । उनको संक्षेप में कहे तो ख्याति की इच्छा होना यह एक विभाव है ना? मुझे सब लोग जान जायें । कौन लोग जान जाएँ? ये कर्मसहित, रागद्वेष सहित, मोह विकार पाप परिणामों में लिप्त ये जीव जान जाये । बहुत बड़ी शाबासी की बात सोच रहे हैं । ये मर मिटने वाले जीव स्वयं असहाय मेरी ही तरह अशरण असार मलीन जीव मुझे जान जावें, यह यों समझो कि हुआ क्या? एक मोही ने दूसरे मोही की प्रशंसा कर दी । उष्ट्राणाम् विवाहेषु गीतं गायंति गर्दभा: । एक बार ऊंट का ब्याह हुआ । सो ब्याह में गाने वाले चाहियें । गाने वालों की जरूरत थी । सो गाने के लिये मिले गधे, सो गधों ने क्या गीत गाया? अहो धन्य है, तुम्हारा रूप बड़ा सुंदर हूं । सारा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा होता है, गर्दन टेढ़ी होती है । पैर टेढ़े होते हैं । इसी प्रकार से सारा शरीर टेढ़ा मेढ़ा है । फिर गधों से ऊँट बोलते हैं, अहो धन्य है तुम्हारा राग । तुम्हारा राग बड़ा सुरीला है । इस प्रकार से ऊँट ने गधों की प्रशंसा कर दी और गधों ने ऊँट की प्रशंसा कर दी । इस जगत् में यही हाल हो रहा है । जब कभी दो आदमी बैठे होते हैं तो एक ने दूसरे की प्रशंसा कर दी, दूसरे ने उसकी प्रशंसा कर दी ।
कोई पहिले जमाना था, जब कि जमीदार लोग जाड़े के दिनों में पीड़ा जलाकर बैठते थे । वहीं चपरासी वगैरह भी बैठते थे तो मालिक तो चपरासियों की प्रशंसा कर उन्हें प्रसन्न कर देता और चपरासी मालिक की प्रशंसा कर उन्हें प्रसन्न कर देता । देखो यहाँ भी जो दोस्ती होती है उसमें एक ने दूसरे को भुला कह दिया, दूसरे ने उसे भला कह दिया । इस प्रकार से यह मोही जगत् एक दूसरे की प्रशंसा में जुट रहा है । यह ख्याति चाही जा रही है । अरे 10-20 वर्ष जीना है मर कर यहाँ से चले जाना है, फिर इस ख्याति से क्या लाभ मिलेगा? जैसे भोगों के बाह्य साधनों से कुछ लाभ नहीं मिलता है इसी प्रकार इस ख्याति की चाह के परिणाम में भी कुछ लाभ नहीं मिलता है । ख्याति की चाह एक मलिनता का विभावपरिणाम है ।
पूजा की चाह, मेरी पूजा हो, प्रसिद्धि हो, यह भी विभाव परिणाम है । लाभ की चाह, धन वैभव हो जाय, इतने हजार रुपयों का मुनाफा हो जाय, ऐसी स्थिति बन जाय कि बैठे-बैठे किराये से ही गुजारा हो तो किराये से भी गुजारा चल जायगा, मगर फिर भी बैठे-बैठे खा न सकेंगे । कुछ न कुछ चिंता करके उद्यम करने का यत्न करेंगे । शांति का कारण । तो बाह्यपदार्थ है ही नहीं । शांति का हेतु तो शुद्ध ज्ञान है । यथार्थ ज्ञान है । बाहर में चाहे कुछ भी हो, मैं ता सबसे निराला एक शुद्ध ज्ञानस्वरूप विराजमान हूँ, यह मेरा मतलब किसी अन्य से नहीं निकलता है ।
सहज स्वरूप का जिसके बोध होता है, वह अपने उपयोग को वहीं ले जाता है । यदि ऐसा अपना उपयोग कर ले तो सारे काम बन जायें । बाह्य चीजों में न फंसकर उनको हितरूप न मानकर अपने आपका जैसा सहजस्वरूप है उसको हितकर समझो । यदि ऐसी दृष्टि बनती है तो वही धर्म का पालन है । यदि ऐसी दृष्टि नहीं बनती है तो चाहे मंदिर में साक्षात् प्रभु के सामने विराजमान हो जावो तो भी आप धर्म नहीं कर रहे हैं । यदि अपने आपके स्वरूप का भान हो जाय तो ऐसी स्थिति होने पर आपको राग के साधन न मिलेंगे, फिर रागादि विकारों का आदर न करके आप अपने स्वभाव का आदर करने लगेंगे । यदि मंदिर में भी मोह की वृत्ति हो रही है, स्त्री पुत्रों को ही अपना सर्वस्व समझ रहे हो तो उस समय भी आप धर्म नहीं कर रहे हो ।
भैय्या ! धर्म का संबंध तो आत्मभाव से है । धर्म मन, वचन, काय को चेष्टाओं से नहीं है । धर्म करने के लिये विभाव परिणामों का त्याग करना होगा । वे विभाव परिणाम बताए जा रहे हैं । भोग की इच्छा करना भी विभाव परिणाम है, भोग तीन प्रकार के हैं (1) दृष्ट (2) श्रुत और (3) अनुभूत । कुछ भोग तो ऐसे हैं कि सुख दुःख हैं । कुछ भोग ऐसे हैं कि जिन्हें सुना है और कुछ ऐसे हैं कि जिनका अनुभव किया है । अनुभूत भोग निकट के भोग हैं और दृष्ट उससे दूर हैं और श्रुत उससे अधिक दूर हैं ।
भैय्या ! इस जीव पर एक संकट यह लगा है कि दूसरों के भोगों को देखकर यह बाधाएं बनाने लगता है । जैसे तुम को अगर वांछा है तो भोग भोग लो, कितना भोगोगे? थोड़ा भोगने से ही तृप्त हो जावोगे, मगर दूसरों को भोगते जब यह जीव देखता है तो बेचैन हो जाता है । गांवों के लोग कितना खाकर संतुष्ट रहते हैं सो समझते ही होंगे । सीधी वह दाल रोटी चाहिये । उनको कुछ मिठाई, रबड़ी, चटपटी खाने की इच्छा नहीं । उन्हें सूखी दाल रोटी में हो संतोष रहता है । इच्छा बढ़ गई है सो अब गुजारा नहीं चलता है । क्या हो गया? अरे अपने आपकी आवश्यकता से भोग साधे जाते थे । वे भोग थे किंतु दूसरों के भोग देख करके तृष्णा बड़ी है यह बड़ा कठिन रोग है । दृष्ट, श्रुत और अनुभूत भोगों की आकांक्षा होना यह सब विभाव परिणाम है, सुन लिया कि अमुक-अमुक प्रकार के रेडियो बने हैं । सिनेमा बने हैं तो दिल हो जाता है कि इनको देखना चाहिये । यह क्या है? भोगों की बात सुनकर उसके इच्छा बढ़ी और जब यह सब सही अनुभूत हो जाता है तब तो और भी अधिक रंग जाता है । ये सब बड़े संकट जीव पर छाये हैं । वह गृहस्थ पुरुष धन्य है कि जो बड़ी विभूति के बीच रहते हुए भी सात्विक रहन सहन से रहे । व्रत तपस्या परिणाम पूर्वक रहे, भोग के त्याग पूर्वक रहे, वह गृहस्थ धन्य है । भले ही लोग कहें कि इन्हें मिला तो सब कुछ है मगर रूखे सूखे व्रत तपों में रहा करते हैं, अमुक सेठ की यह बुद्धिमानी है क्या? परंतु सेठ स्वयं बुद्धिमान है, जानता है कि ये भोग आज हैं कल न रहे तो अपनी वृत्ति तो ऐसी बनाओ कि ये भोग न रहे तो कोई आकुलता न रहे ।
कठेरा में सुना करते हैं कि एक धनिक जैन था । वह रायसाहब कहलाता था, धार्मिक था । वहाँ का राजा भी उसका आदर करता था । यद्यपि उसके पास बड़ा धन था पर उसका काम था कि प्रतिदिन दो घन्टे नमक तंबाकू की खास पीठ पर लादकर फेरी लगाया करे और खुद तौलकर बेचा करे । दो घंटे के बाद फिर हजारों रुपये सैकड़ों रुपयों का काम करे । लोग पूछते थे कि तुम्हारा तो इतना ठाठ है कि राजा भी आदर करता है और तुम तंबाकू की फेरी करते हो । वह कहता था कि आज तो ठाठ है कल यह कुछ न रहे तो फेरी लगाने में कोई संकोच तो न होगा । यह उसकी बात थी । इतनी बात के लिये तो भरा आपको नहीं कह रहे हैं पर सब प्रकार के साधनों में रहते हुए भी अपना रहन सहन सात्विक हो यह जरूर ध्यान में रहे और आजकल तो सात्विक रहन सहन का महत्व भी है ।
शृंगार अपना बनाना है तो दीनों की दुखियों की सेवा में उपकार में धन खर्च करो । अपने खर्च में पान, बीड़ी, सुपाड़ी, तंबाकू, सिनेमा आदि में जो खर्च किया जाता है उससे न अपनी उन्नति है, न लोगों की दृष्टि में बड़प्पन है । रहन सहन सात्विक हो और परोपकार में यत्न होना अपना शृंगार है । इसी शृंगार से अपनी शोभा है । आश्रितों का भरणपोषण करो यही शृंगार है । दोन दुखियों के उपकार में धन व्यय हो और अपना व्यय कम रखो तो इससे धर्म की बातों को अधिक स्मरण करने का वातावरण रहेगा । सो किसी भी प्रकार विभाव परिणामों को त्यागकर अपने समाधिभाव में स्थित होओ ।
भगवान्, परमात्मा निरंजन है । अंजन अनेक हैं उन सब अंजनों से रहित हैं, जिसके पुण्य और पाप भी नहीं हैं । कर्म भी अंजन हैं और वे दो प्रकार के हैं, (1) पुण्यरूप और (2) पापरूप । जिसके हर्ष और विषाद भी नहीं है, हर्ष में आये राग और विषाद में आये द्वेष, तथा जिसके सुधा तृष्णा आदि 18 दोषों में भी एक भी दोष नहीं है । हे प्रभाकरभट्ट ! उसको तुम शुद्ध आत्मा निरंजन समझो । अर्थात् निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर अनुभव करो । जब तक उस शुद्ध आत्मा का विशद यथार्थ जानन न हो तब तक उसका जानना ही नहीं बताया गया है । और शुद्ध आत्मा का जानना शुद्ध आत्मिक उपयोगरूप से अनुभव किये बिना होता नहीं है । यहाँ जैसा कुछ बाह्यपदार्थों का जानना तो है नहीं कि यथा तथा जान गया । शुद्ध आत्मा का जानना चरित्र के उपयोग बिना नहीं हो सकता । अत: वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर शुद्ध आत्मा का अनुभव करो ।
वह निर्विकल्प समाधि कैसी है? कि निज शुद्ध आत्मा के सम्वेदनरूप निर्विकल्प है । चाहे यह कहो कि किसी प्रकार का विकल्प न हो और चाहे यह कहो कि मात्र अपने शुद्ध आत्मतत्त्व का सम्वेदन हो, दोनों का भाव एक ही है । ज्ञान एक गुण है । वह गुण किसी न किसी को जाने बिना रह ही नहीं सकता । किसी को न जाने और ज्ञान गुण बना रहे यह कैसे हो सकता है? बाह्यपदार्थों को न जाने तो ज्ञान का आधारभूत जो निज शुद्धआत्मा है उसको तो जान ही लेगा तो केवल शुद्ध आत्मतत्त्व के सम्वेदन में रहकर शुद्धआत्मा का अनुभव करो । इस प्रकार तीनों में बताये गये निरंजन परमात्मा को जानना चाहिये और अन्य प्रकार का कोई निरंजन कल्पित आत्मा नहीं है । इस प्रकार परमात्मा के स्वरूप को निरंजन शब्द के द्वारा बताया गया है, उसमें जिन-जिन अंजनों का विरोध किया है उन सब अंजनों का सद्भाव इन सब आत्माओं के स्वभाव में नहीं । सो ज्ञान दर्शनस्वभाव वाले जो शुद्ध आत्मतत्त्व हैं वे उपादेय हैं ऐसा समझना चाहिये ।
भैय्या ! लोक में मनुष्यजन सब कुछ कर डालते हैं, अपने आनंद के लिये सब कुछ कलाएँ खेलते हैं किंतु एक ज्ञानरस का स्वाद लेने की कला और देख लो । करने का काम केवल एक ही है, अपने को ज्ञान मात्र निरखना इस ज्ञानमात्र स्वरूप से बाहर मेरा अस्तित्व नहीं है । इस ज्ञानमात्र स्वरूप से बाहर मेरा कुछ कर्त्तव्य नहीं है । मेरा काम है अपने आपका जानन बना रहे । ज्ञान ही कार्य, ज्ञान ही भोग है । ज्ञानमात्र अपने आपको समझने से सहजआनंद प्राप्त होता है । उसका स्वाद लेना एक ही कर्त्तव्य शेष रह गया है और तो सब कुछ किया यह ही निरंजन स्वरूप हम आपके लिये उपादेय हैं । अब उस निर्दोष आत्मा की आराधना के ग्रहण करने में व्यवहार ध्यान का विषयभूत धारणा ध्येय तंत्र मंत्र मुद्रा आदि का निषेध करते हैं ।
जिस परमात्मा के वायु धारणादिक ध्येय नहीं हैं वे वायु धारणा तीन प्रकार की होती हैं―(1) कुंभक (2) रेचक और (3) पूरक । ये ध्यान के प्रकार हैं, उपाय हैं । स्वांश को धीरे-धीरे अंदर लेना और फिर पेट में श्वास वायु को थाम लेना, फिर उस । वायु को धीरे-धीरे स्वासनासिका से निकालना इसको कहते हैं कुंभक पूरक और रेचक । ये ध्यान में कुछ सहायक होते हैं ।
यद्यपि मोक्षमार्ग का प्रयोजकभूत ध्यान ज्ञान से ही संबंध रखता है, भेदविज्ञान के बिना ये कुंभक, पूरक, रेचक इत्यादि क्रियायें कुछ लाभ नहीं देतीं । हां मन की उद्दंडता को बचाने के लिये और मन को स्थिर बना सकें इस अभ्यास के लिये यह कारण बनता है वस्तु के मर्म के ज्ञान के बिना क्रियायें धर्मफल नहीं दे सकती हैं । कर्मों का क्षय जिस पद्धति से होता है उस पद्धति से ही होगा वह तन, मन, वचन की चेष्टाओं से नहीं होता । भेदविज्ञान का फल है अपने सहजस्वरूप शुद्ध आत्मतत्त्व का अवलोकन । जब तक इस केंद्रभूत निजआत्मतत्त्व को न जान लिया जाय तब तक भेदविज्ञान कैसा? अनात्मा कौन है? यह बात आत्मा के ज्ञान के बिना नहीं निर्णीत हो सकती है । इस शुद्ध आत्मा का तो मात्र एक प्रतिभासस्वरूप है सो प्रतिभासमात्र करने की परिणति से यह अनुभूत होता है ।
इसका वायुधारणादिक स्वरूप नहीं है अथवा प्रतिमादिक ध्येय नहीं है । ये सब साधन हैं पर ये कुछ वस्तु आत्मा के स्वरूप नहीं है । स्वरूप के बोध के बिना क्रियाओं से कहीं कर्म क्षय का अथवा शांति लाभ का काम नहीं बन जायगा । गुरुजी एक दृष्टांत बताया करते थे कि एक बार शीत ऋतु में देहातों से बजाज लोग घोड़ों पर बैठकर ललितपुर को चले क्योंकि ललितपुर में उधार माल मिलने की बड़ी ख्याति थी और लोग कह भो बैठते हैं कि ‘झांसी गले की फांसी, दतिया गले का हार । ललितपुर तब तब नहिं शुरू, जब तक मिले उधार ।।’ तो ललितपुर को तीन चार लोग चले, जाड़े के दिन थे । रात में ठहर गये जंगल में एक पेड़ के नीचे । उनको बड़ा जाड़ा लगा । तो उन लोगों ने यहाँ वहाँ से खेतों की बाड़ी से जरेंटों को बटोरा, उनको इकट्ठा किया । बाद में माचिस या चकमक से आग निकालकर उसे बढ़ाकर कुछ जड़ों में डाल दिया और सब लोग तापने बैठ गये । रात्रिभर ऐसा ही किया और सुबह सबके सब लोग वहाँ से चल दिये ।
अब दूसरा दिन हुआ तो उस पेड़ पर रहने वाले बंदरों ने सोचा कि देखो जैसे हाथपैर उन मनुष्यों के थे वैसे ही हमारे हैं । वे लोग किस प्रकार का यत्न करके अपने को ठंड से बचाकर चले गये । वही अपने काम के लिये अपन लोग करें तो अपनी भी ठंड मिट जाय । तब बंदर लोग भी वैसा ही काम करने लगे । शाम के समय सब बंदरों ने सलाह करके वही काम किया । सब दौड़ गये और जल्दी-जल्दी से जरेंटों की जड़ें बीनकर इकट्ठा कर लिया । अब इकट्ठा करने के बाद सब बंदर बैठ गये । आपस में चर्चा करने लगे कि ठंड तो नहीं मिटी इतना तो काम कर डाला तो उनमें से कोई समझदार बंदर बोला कि अभी ठंड कैसे मिटे? अभी इसमें वह लाल चीज तो डाली ही नहीं जो उन मनुष्यों ने डाली थी । तो लाल चीज क्या थी? आग । तो बंदर लोग उस लाल चीज की तलाश में चले तो जुगनू कुछ मिल गयीं । उनको पकड़ा और जरेंटों में डाला । जुगनू डाला तब भी ठंड न मिटी । सोचने लगे क्या बात है? सब कुछ कर लिया पर ठंड न मिटी तो उनमें से एक चतुर बंदर था । वह बोला कि वे हाथ पर हाथ रखकर बैठ गये थे हम तुम भी बैठ जाएँ । वे हाथ पर हाथ पसारकर बैठ भी गये । अब भी ठंड न मिटी सोचो तो भैया ! बंदरों ने सब कुछ कर लिया पर ठंड न मिट सकी । ठंड कैसे मिटे? ठंड मिटने का साधन तो आग थी । आग का उनको ज्ञान नहीं था । बहुत-बहुत चेष्टाएँ करी पर आग का ज्ञान न होने से ठंड न मिटी ।
इसी प्रकार कर्मों का क्षय शांति की प्राप्ति किसी मुद्रा से, श्रम से, वायु धारणा से मिलती है या अन्य किन्हीं बातों से नहीं मिलती है । एक शुद्ध निज आत्मतत्त्व के ज्ञान से ही शांति मिलेगी । बाह्य में सब जगह तलाश लो । यत्न करलो पर शांति न मिलेगी । भैया ! इन परपदार्थों में शरण मानने से शरण न मिली, शांति न मिली बल्कि वेदना ही मिली । मोह का प्रताप देखो । कुछ थोड़ा सा समझ भी रहे हैं कि बाह्यपदार्थों से आखिर आत्मा का हित क्या होगा? फिर भी लगते हैं बाह्य पदार्थों में ही । ठोकरें भी खाते जाते, बाह्य पदार्थों में लगते भी जाते ।
जैसे लालमिर्च खाने वाले तेज लालमिर्च खाते हैं तो उनके पसीना भी बहता जाता है, आंखों से आंसू भी गिरते जाते हैं पर वे मिर्च खाना नहीं छोड़ते । वे खूब चरपरा खाते हैं । आंसू गिरते जाते हैं फिर भी भागते जाते हैं कि मुझे और मिर्च चाहिये । इसी प्रकार मोहियों को भी देखा जा रहा है । इस शुद्ध आत्मा को, जिसके कि अवलोकन से सारे संकट टल जाते हैं । कोई यंत्र मंत्र स्वरूप नहीं है । मंत्र क्या कहलाता है जिसमें अक्षर रचनाएँ की गई है और सन्मान, मोहीकरणे वशीकरण आदि विषय लेकर वह यंत्र मंत्र माना जाता है । वह सब इस मुझ शुद्ध आत्मा में नहीं हैं और मंत्र नाना प्रकार के उच्चारणरूप होते हैं यह भी शुद्ध आत्मा के नहीं हैं । ये तो एक शुद्ध ज्ञानस्वरूप है ।
अच्छा, सब कुछ तो जाना पैर यह तो बतलाओ कि जानन क्या कहलाता है? ऐसा सोचते-सोचते उस समय में जानते-जानते जो प्रतीत होता है, प्रतिभासमात्र केवल एक ज्ञानप्रकाश, ऐसा ज्ञानप्रकाश मात्र, चित् प्रकाश ही जो बर्तना है वह सब जानन है और जो यह जानना है वह ही मैं हूँ । इससे आगे जो कुछ है वह सब दोष है, औपाधिक भाव है । मैं नहीं हूँ, ऐसा मात्र जाननस्वरूप मैं हूँ ।
इस शुद्ध आत्मा के मंडल भी नहीं है । ध्यान के काम में इनका प्रयोग किया जाता है । पृथ्वीमंडल, जलमल, अग्निमंडल, वायुमंडल में जैसे पृथ्वीमंडल में विचार किया जाता है कि यह मैं आत्मा जिनेंद्रदेव की ही तरह निर्मल मुद्रा में इस जंबूद्वीप के बीच मेरुपर्वत के ऊपर बहुत विस्तृत एक कमल में कर्णिका के ऊपर एक श्रेष्ठ आसन पर मौजूद हूँ, बहुत ऊंचा हूं, पृथ्वी से बहुत ऊंचे कमल के आसन पर मैं मौजूद हूँ, ऐसा कल्पना से विचार रहा है पृथ्वीमंडल को ज्ञानीपुरुष । देखा जब अपने को कल्पना से ऐसा विचारते हैं कि मैं इस जमीन से बहुत ऊंचे कहां स्थित हूँ ऐसा विचारते हुए मैं अपने को भाररहित हल्का अनुभवता हूँ ।
जैसे जब बच्चे लोग कोई बंटा वगैरह खेलते हैं तो कोई जगह खड़े होकर और गल्ला के पास बंटा फेंकते हैं उनमें प्रथम ही प्रथम फेंकने की कोशिश में रहते हैं । जैसे कहते हैं कि हम पानी से पतरे तो कोई लड़का कहता है कि हम हवा से पतरे । जो अपने आपको जितना पतला बता सके वह सबसे पहिले अपने खेल का अधिकारी है । जरा देखो तो सही इस आत्मा को यह आत्मा कितना पतला है । है ना पतला? यह आत्मा हवा से भी अधिक पतला है तो क्या यह आकाश से भी पतला हुए? आकाश की तरह मान लो पर आकाश तो एक स्थिर व्यापक है । यह आत्मा अपने ज्ञानविकास में असीमित है । समस्त आकाश ज्ञान के एक बिंदु में रह सकने वाला है इसलिये यह बहुत अधिक पतला है और अपने आपको केवलज्ञानमात्र जाननमात्र ही निरखने में आ जाय तो उस समय न इसको शरीर का भान है और न स्थान का भान है । केवल जाननस्वरूप भान वाला आत्मा कितना भाररहित कहा जाय? अपनी इस बर्तने की स्थिति में सहज सत्य आनंद का अनुभव करना है ।
यह पृथ्वीमंडल का जो चिंतन है कि मैं समुद्र के बीच में जंबूद्वीपरूपी कमल वन में मेरुपर्वतरूपी कमलनाल पर एक सिंहासन पर विराजमान हूँ । यह पृथ्वीमंडल ध्यानाभ्यास करने वाले के एक ध्यान का विषयभूत विषय है । परंतु कैसा तो यह शुद्ध आत्मा और कहां ये कल्पनाओं की चीजें? इनमें बड़ा अंतर है । इस शुद्ध आत्मा में ये पृथ्वीमंडल इत्यादि कुछ नहीं हैं ।
वह ज्ञानी फिर यह विचार करता है कि लो इस नाभिकमल के उन 8 दलों से ज्ञान के प्रतीक अरहंत सिद्धस्वरूप के ध्यान से या मात्र ज्ञानस्वरूप के स्वच्छ विस्तार के अनुभवन से एक ज्वाला निकली और उस ज्वाला से हृदय कमल के ऊपर स्थान पर उल्टी पंखुड़ियों की लिए हुए दल के 8 कर्मों की ओर वह ज्वाला बड़ी और उसने इन कर्मों को दग्ध किया । आप लोग सोच रहे होंगे कि क्या बात कही जा रही है? यह तो सब ध्यान की और कल्पना की बात है । लेकिन भैया ! सुनो अभी कोई लड़का बड़ा ऊधमी हो और कहे कि तू तो राजा है, राजा कहीं ऊधम करता है । वह जल्दी ही सोच लेता है कि मैं राजा हूँ, उसका ऊधम छूट जाता है । ध्यान में अपने आपको इस प्रकार सिद्ध स्वरूप में विचारा जा रहा है तो आखिर यह उपयोग विशुद्ध बने तो शुद्ध का अनुभवन करोगे ना? वह शुद्धात्मतत्त्व की ध्यानाग्नि की ज्वाला ऐसी बड़ी कि सर्व कर्म भस्म हो गए, जलकर राख हो गए । ऐसे चिंतन में निर्भार ज्ञानमात्र अनुभव हुआ ।
अब इतने में बड़े वेग से एक आंतरिक हवा उठी और हवा ने इस सब कर्मधूलि को उड़ा दिया । लो अब सुधारस की वृष्टि हुई । उसकी छटा उड़नी भी शेष न रही । तब यह शुद्ध आवश्यकता निर्लेप ज्ञानमात्र रहा । इतना तो ध्यान किया और थोड़ी देर बाद में वही अपना मनुवा दिखाई दिया, तो कुछ यहाँ फर्क नहीं आया । यह एक ध्यान का प्रकरण है । यह ध्यान ध्येय भी इस शुद्ध आत्मा का कुछ नहीं है । इसका तो मात्र एक ज्ञायकस्वरूप है । इस एक निज को ग्रहण करे तो सर्वस्व वैभव पा ले । एक इस निज को छोड़ दे तो धर्म के कितने भी यत्न करें कुछ नहीं पाया ।
एक राजा ने किसी राजा को जीता और उसी देश में रहने लगा । सब रानियों को राजा ने पत्र लिखा कि जिस रानी को जो चाहिये वह पत्र लिखे । किसी रानी ने साड़ी लिखी, किसी ने अंगूठी, किसी ने हार, किसी ने कुछ, पर छोटी रानी ने पत्र में केवल एक का अंक लिखा और दस्तखत कर दिया । जब राजा ने पत्रों को खोला तो देखा ठीक, पर छोटी रानी का जब पत्र देखा तो राजा उस एक के अंक को देखकर कुछ समझ न सका । मंत्रियों से राजा ने पूछा कि रानी ने क्या मांगा है? तो मंत्रि ने कहा कि छोटी रानी ने केवल आप अकेले को चाहा है, उसे साड़ी, अंगूठी कुछ चीजें न चाहिये । अब राजा जब अपने देश को चला तो सारी चीजें रानियों के लिये ले ली । जब अपने नगर में पहुंचा तो कहा यह उस रानी को भिजवाओ । सो जिसने जो मंगाया था सो वह-वह चीज भिजवा दी । पर राजा छोटी रानी के यहाँ स्वयं चला गया । भला बताओ कि सबसे ज्यादा वैभव किसने पाया ? छोटी रानी ने । राजा व राजवैभव छोटी रानी के यहाँ है ।
इसी प्रकार एक जो शुद्ध आत्मा को ही चाहता है उसे सब कुछ मिल जाता है । अपने आपमें बसे हुए अपने सहजस्वरूप के दर्शन के बिना आत्मा का उद्धार हो नहीं सकता । धन वैभव संपदा में उपयोग देने से लगाव करने से कोई सम्यक्त्व न बनेगा । अंत में रीता का रीता ही मिलेगा , पछताना ही हाथ रह जायगा । यदि इस जीवन में समय-समय पर अपने आपको शुद्ध ज्ञानमात्र अनुभव करके ज्ञानरस का सिंचन किया, स्वाद लिया तो यहाँ भी तृप्ति निर्दोष मिलेगी और परभव में भी इस ही निर्दोष आनंद को भोगेगा । इस कारण सर्व प्रकार के प्रयत्न करके शुद्ध ज्ञानतत्त्व का करना परम आवश्यक है । चाहे सब कुछ न्यौछावर करना पड़े और यथार्थज्ञान मिले तब सब कुछ प्राप्त हुआ समझिये ।
यह परमात्मप्रकाश ग्रंथ है । इसमें परमात्मा के प्रति प्रकाश डाला है कि परमात्मा क्या है ? परमात्मा दो प्रकार से देखा जाता है एक तो व्यक्तपरमात्मा और एक अव्यक्तपरमात्मा । जिसके दूसरे नाम हैं―एक कार्यपरमात्मा और दूसरा कारणपरमात्मा । कार्यपरमात्मा तो वह कहलाता है जो साधु व्रत अंगीकार करके अपनी निर्विकल्प समाधि बनाकर कर्मों से रहित हो गया है, अनंतज्ञान, अनंतसुख जिसके प्रकअ हो गया है, संसार के संकटों से मुक्त हो गया है, उनका तो नाम है कार्य परमात्मा । वे हुए अरहंत और सिद्ध, और कारणपरमात्मा घट-घट में विराजमान है । शुद्ध ज्ञायकस्वभाव परमात्मा हम आप सबमें विराजमान कारणपरमात्मा कहलाता है । जिस परमात्मतत्त्व के दर्शन से, ध्यान से कर्म कटते हैं, वह कारणपरमात्मा है । ऐसे इस कारण परमात्मा का वर्णन इस ग्रंथ में है ।
कारणपरमात्मा के स्वरूप को जल्दी समझने के लिये अपने आपमें ऐसा ध्यान बनाओ कि यह मैं केवल हूं । शरीर भी साथी नहीं हो तो, कर्म भी साथ नहीं रहते और इस आत्मा के स्वभाव से रागादि विकार भी नहीं रहते । तो में किस रूप में हूं ऐसा ध्यान बनाओ । यदि यह शरीर भी न होता तो मैं किस प्रकार होता ? ऐसा ख्याल करो । शरीर तो भिन्न है और जीव जुदा है । जीव तो समझने वाला एक पदाथ्र हे और शरीर रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड है, पुद्गल है । यह शरीर अलग है, आत्मा अलग है ।
कोई कहे कि केवल बातें ही ये हैं । जो शरीर है सो ही मैं हूं । शरीर से न्यारा मैं कुछ नहीं हूं । तो भाई आंखें खोलकर अपनी इंद्रियों को इस ओर लगाकर देखते हैं तो वहाँ अपना पता नहीं रहता । इंद्रियों को बंद कर शरीर की भी चेष्टा छोड़कर अंतर में जाननरूप से विचार किया जाय तो मालूम होता है कि इसके अंदर जानने वाला पदार्थ और है, शरीर और है । यदि न होता जीव कोई और तो फिर मरण क्या कहलाता है । शरीर को छोड़कर जीव चला जाय इसी के मायने हैं मरण हो गया । शरीर जुदा है और जीव जुदा है, तब शरीर का जीव से निकलना मरण है । शरीर ही जीव होता तो फिर निकलता कुछ नहीं ।
जैसे तिल के दाने में तेल रहता है और फुलकी भी रहती है । वह तेल उसमें शुरु से है । अगर कोल्हू से पेलने पर फुलकी रह जाती है तेल अलग हो जाता है । तो अब स्पष्ट विदित हुआ कि उस तिल के दाने में तेल भरा हुआ है । इसी प्रकार इस शरीर के भीतर जीव है । जीव निकल गया, शरीर रह गया । अब उस जीव की बात देखो कि जो इस शरीर से निकलकर जायगा वह कुछ चीज है क्या? उस जीव का यह लोक समागम कुछ हित कर देगा क्या? उस अपने जीव की बात विचारो । कुछ भी संबंध नहीं है किसी भी जीव से ।
भैय्या ! बड़ा ही ऊंचा होनहार हो तब यह बात समझ में आती है कि मैं सत् अलग हूँ, यह देह सत् अलग है । इससे मेरा कुछ भी संबंध नहीं है । यह यथार्थता मेरी समझ में आती है तो कुछ होनहार अच्छा है । निकट भव्यता है, मोह छूटने वाला है । तो इस तरह से अपने को ध्यान में लावो । इस शरीर का मेरे साथ संबंध न लगा होता, ये पुण्यपाप भेदरूप कर्म मेरे साथ न होते तो मैं केवल क्या कहलाता? मैं कहलाता केवलज्ञान और आनंदस्वरूप । ज्ञान और आनंदस्वरूप यह मैं इन शब्दों से न्यारा हूँ । इस मेरे का ज्ञान और आनंद मेरे से सतत झरता रहता है क्योंकि ज्ञान और आनंद मेरा स्वरूप है ।
ज्ञान और आनंद प्रकट होने के लिये किसी दूसरी वस्तु की पराधीनता नहीं है । ऐसा ज्ञानानंदस्वरूप मैं आत्मा स्वभावरूप कारणपरमात्मा कहलाता हूँ । सबको पार करके और अपने ही अंतर में सदा से विराजमान जो चैतन्यस्वभाव को अनुभवे वह कारणपरमात्मा है उसे स्वभाव की परख से कर्म कटते हैं । उस स्वभाव के आश्रय से भगवान बनते हैं, सो यही कारण कहलाया निज की दृष्टि रखने से परमात्मा स्वयं प्रकट होता है वह कारण परमात्मा है । जीव ने धर्म के नाम पर बहुत कुछ परिश्रम किया, स्वाध्याय किया, पूजा किया, दर्शन किया, यात्रा किया, बड़े-बड़े बहुत कुछ परिश्रम किया, स्वाध्याय किया, पूजा किया, दर्शन किया, यात्रा किया, बड़े-बड़े श्रम किये, उत्सव किया, विधान किया, तपस्यायें की, किंतु अपने आपमें बसा हुआ यह कारणपरमात्मा शरण है ऐसा कभी निगाह नहीं किया और इतनी बात न समझने के कारण कितना भी तप किया, व्रत किया, यत्न किया उससे कर्म नहीं कटे ।
परोपकार करने से लोगों को दाने करने से पुण्य तो बढ़ जायगा परंतु कर्म नहीं कटते । कर्म कटेंगे तो इस कारणस्वरूप परमात्मा के दर्शन से कटेंगे । उस कारणपरमात्मा को इस ग्रंथ में बताया है । कैसा है यह परमात्मा? इसका वर्णन बहुत पहिले से चल रहा है और निकट समीप में यह बताया गया है कि यह कारणपरमात्मा नित्य है । रहता है ना? यह मेरा चैतन्यस्वभाव किसी दिन आया हो और किसी दिन खत्म हो जाय ऐसा नहीं है । कारणपरमात्मा नित्य है । हम किसका ध्यान करें कि हम को कोई संदेह न रहे कि हम नियम से मोक्ष में पहुंचने का काम कर लें । ऐसा कुछ तत्त्व है? ऐसा तत्त्व अपने आपको आत्मा में बहुत भीतर छुपा हुआ स्वभाव है । इस स्वभाव की दृष्टि हो तो सम्यग्दर्शन होता है ।
जैसे हड्डी की फोटो लेने वाला एक्सरा यंत्र होता है । उसमें आदमी को लिटा दो और हड्डी का फोटो लो तो खून, चाम, मांस और मज्जा सबको एकदम छोड़कर हड्डी का फोटो ले लेता है । इसी तरह इस ज्ञान में ऐसी शक्ति है प्रज्ञा में, भेद विज्ञान में कि यह शरीर भी नहीं घूमेगा, शरीर के अंदर जो कुछ भी सत् है, धातु है उसको भी नहीं ग्रहण करता है और जो 8 कर्म हैं उनका भी नहीं ज्ञान करता । विकारों को छोड़ देता, विचारों को छोड़ देता, सीधा नित्य चैतन्यस्वभाव को ग्रहण करता है । यह अध्यात्मविद्या का मर्म है । इसकी विद्या यद्यपि कठिन नहीं है पर जिसने नहीं सुना अथवा ख्याल नहीं किया उसके लिये कठिन हो सकती है ।
अन्य पदार्थविषयक ज्ञानों की अपेक्षा अध्यात्मज्ञान बहुत सरल है। और यह कारणपरमात्मा कैसा है किं इसमें परद्रव्यों का कोई लेप नहीं है । यह अपने स्वरूप से है, ज्ञानमय है, आनंदस्वभावी है, स्वयं कल्याणरूप है, इसमें क्लेशों का नाम नहीं है । क्लेश तो जीव को परपदार्थों की दृष्टि से आते हैं, परपदार्थों की दृष्टि न हो तो इसको कोई क्लेश नहीं है । जैसे यहाँ कोई मनुष्य कष्ट में नहीं है पर किसी दूसरे की निधि को देख ले, दूसरे के रहन सहन को देख ले तो उसके क्लेश आ जाते हैं । मेरे पास इतना क्यों न हुआ? इस बात से क्लेश हो जाता है ।
देहात में रहने वालों का आप विचार कर लो । जब तक देहात में रहे तब तक थोड़े से साधारण भोजन से खुश रहते थे पर वे शहर में आकर दूसरों का रहन सहन मकान महल ज्यों-ज्यों देखते जाते हैं त्यों-त्यों उनके क्लेश बढ़ते जाते हैं । नहीं, तो स्वयं अपने आपमें क्या क्लेश है? कुछ भी तो क्लेश नहीं है । दूसरे पदार्थों को यह जीव न तके तो इसे कोई क्लेश नहीं है । यह कारण परमात्मा कैसा है? जो इसका स्वरूप है उसको तों कभी छोड़ता नहीं और जो इसका स्वरूप नहीं है उसे कभी ग्रहण नहीं कर सकता है । जल में कमल जैसे अछूता रहता है, जल में रहता है, फिर भी कमल जल से न्यारा है । इसी प्रकार शरीर के कर्मों के अनेक अंगों के बीच यह आत्मा फंसा है फिर भी सबसे अछूता है । जैसे पानी में पड़ा हुआ कमल का पत्ता हो उसे पानी में चाहे जितनी गहराई में ले जावो, वह पत्ता पानी के बीच में रहकर भी पानी से अछूता है । पत्ते के रंग और स्वरूप में पानी का प्रवेश नहीं,पानी से उस पत्ते को निकालो ज्यों का त्यों सूखा पत्ता देख लो । कमल का पत्ता ऐसा ही होता है । पानी में डुबा देने पर भी वह पानी से अछूता है और पानी से निकालो तो देख लो कि बिल्कुल अछूता है । इसी प्रकार यह आत्मा सबसे निराला स्वरूपमात्र है ।
भैया ! कारणपरमात्मा की चर्चा हो रही है, इसका स्वभाव जानने का है । यह परमात्मा सबको जानता है, इस विश्व में जो है उसको जानता है । जानना ही परमात्मा का स्वभाव है । यह जानन जिसके पूर्ण प्रकट हो गया उसको तो कहते हैं कार्यपरमात्मा, पर हमारे जानने की जो शक्ति पड़ी हुई है उसको कहते हैं कारणपरमात्मा । कार्य और कारण ये दो बातें सब सिद्धांतों ने करीब-करीब मानी है । जैसे ये जो दृश्यमान भौतिक पदार्थ हैं ये सब कहलाते हैं कार्यपरमाणु और इसमें एक-एक परमाणु है, और उन परमाणुओं में कभी मिलकर एक दृश्य भौतिक बनने की शक्ति है उन परमाणुओं को कारणपरमाणु कहते हैं । और भी देख लो जहाँ यह माना गया है कि रामजी श्रीकृष्णजी आदि अनेक ईश्वर के अवतार होते हैं तो वे अवतार कार्यरूप कहलाएं और ईश्वर कारणरूप कहलाया । हर जगह यह दो रूपता मिलती है ।
भैया अपने को अपने आत्मा में निरखो, इसका अचिंत्यस्वरूप है । इस लोक में भी देखते हैं कि बड़े-बड़े पुरुषों के बड़े-बड़े चमत्कार समझ में आते हैं । बड़े बहुत ऊँचे पहुंचे हुए हैं, बहुत बड़ा ज्ञान है । सब आत्मा की शक्ति का चमत्कार है । उनमें अभी पूरी शक्ति नहीं प्रकट हुई । पूर्ण शक्ति प्रकट हो गई उसका नाम है कार्यपरमात्मा । अपने अंतर में विराजमान कारणपरमात्मा के दर्शन करो । उसका ही भरोसा रखो अपने स्वरूप की दृष्टि में अपने को सुरक्षित व शरण समझो । जगत में कोई दूसरा जीव, कोई भी वैभव शरण अपने को नहीं है । मोह में दिन गुजर रहे हैं तो वह जीवन की बर्बादी है ।
भैया ! जितने क्षण मोह न रहे, अपने आपके और परमात्मा के ही दर्शन रहे तो समझो जीवन के उतने क्षण सफल रहे । जीवन तो भैया तभी सफल होगा जब मोह रागद्वेष छूटेंगे । भैया अपने जड़ों को खूब पड़ा लो, खूब बड़ा बना लो, यह लोक की व्यवस्था है, पर उसमें यदि यह भाव है कि यह मेरा है, मैं इसको खूब ऊँचा बना दूं, मैं इसको सुखी बना दूं तो यह मोह का परिणाम है । जीव तो अनेक हैं । उन सब जीवों में से इन दो तीन जीवों को ही क्यों छांटा कि ये मेरे हैं, इनको खूब सुखी रखूंगा । अरे यह कितना मोह अंधकार है? जैसे सब जीव हैं वैसे ही वे घर के दो चार जीव भी हैं । घर में बसने वाले दो चार जीवों के लिये तन, मन, धन सब कुछ न्यौछावर और दूसरे लोगों के लिये उसमें से एक पाई नहीं है । यह बुद्धिमानी मानी जाती है जगत के अंदर परमार्थ के बिना यह जीवन बेकार गंवाना माना जाता है ।
समय का सदुपयोग तो वह कहलायगा कि मरने के बाद भी कुछ साथ रह सके । मरने के बाद एक पैसा भी तो साथ नहीं जाता । घर में जो गुजर गये हैं उनपर दृष्टिपात तो करो क्या वे साथ में कुछ ले गये हैं? उनका कितना अनुराग था कितनी श्रद्धा थी उन्होंने कितना धन कमाया पर बिल्कुल सूने चले गये हैं । उन्होंने जो कुछ पुण्य परिणाम किया होगा, ज्ञान परिणाम किया होगा वही उनके साथ गया होगा । तो यह जो पुण्यपरिणाम किया यही उनकी हुई कमाई, और जो कुछ यहाँ छोड़ गये सब मुफ्त की ही चीजें थीं । तो हम मरने के बाद भी वैभव संपन्न कहलाएं, महान् कहलाएं ऐसी चीज क्या हो सकती है? वह है सम्यग्ज्ञान ।
भैया ! अपने आपमें बसी हुई अनेक परदों के भीतर छिपी हुई उस चैतन्यशक्ति का ज्ञान करो, उसका ही सहारा लो । यदि ऐसा दृढ़ ध्यान करो तो वह अपने आपमें बसी हुई चैतन्यशक्ति ही अपनी शरण है । ऐसी दृष्टि जगे और निर्विकल्प बनकर ऐसा आत्मा में अनुभव बने तो जीवन सफल है और कारणपरमात्मा के दर्शन हुए समझो । इस कारणपरमात्मा में न तो रूप है, न गंध है, न स्पर्श है, न शब्द है, न जन्म है, न मरण है । इस शरीर के अंदर जो एक चेतने वाला ज्ञानानंद स्वभावी निर्लेप आकाशवत् अमूर्त जो आत्मा है वह अन्य कुछ नहीं है । ज्ञानानंदमय है इसमें न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है, न ध्यान है, न विकास की डिग्रियां है, न पुण्य, न पाप है, न हर्ष है, न विषाद है ।
यह कारणपरमात्मा स्वभाव दृष्टि से देखा जा रहा है । जब हम अपने स्वभाव को छोड़ देते हैं और अन्य पदार्थों को देखते हैं तो इसमें भेद उत्पन्न हो जाता है । यदि हम निर्लेप रहे तो इसमें कोई भेद नहीं आ सकता । यह, अपने आपके कारणपरमात्मा की चर्चा है । कभी इसको कारणपरमात्मा दर्शन होते हैं और उसकी भक्ति में परिग्रह का संग छोड़कर ध्यानावस्था में लगता है तो वह भी जो धारण करता है यंत्र मंत्र मंडल मुद्रा प्राणायाम इत्यादि साधन करता है ये सब भी इस कारणपरमात्मा में नहीं है ।
यह कारणपरमात्मा तो सदा अपरिणामी ध्रुव चैतन्यशक्तिमात्र है । जिसके ये सब परपदार्थ और परभाव नहीं है उस परमात्मदेव को आराध्यदेव समझो । अर्थात् द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से अनंत अविनाशी । अनंतज्ञान आदि गुणों के स्वभाव वाला समझो । देखो दूसरी बात, वस्तु के जानने के दो तरी के हैं । (1) द्रव्यार्थिकनय और (2) पर्यायार्थिकनय । जो ज्ञानपर्याय पर दृष्टि देने से दिखता है उस ज्ञान को कहते हैं पर्याय वाला ज्ञान और जो ज्ञानपर्यायों पर दृष्टि न देकर शक्ति पर दृष्टि देने से दिखता है उसे कहते हैं ज्ञानस्वभाव । कार्यपरमात्मा पर्याय है और कारणपरमात्मा द्रव्य है । दो चीजें चलती हैं (1) द्रव्य और (2) पर्याय । सदा रहने वाली चोज और उसमें से प्रकट होने वाली चीज । सदा रहने वाले को द्रव्य कहते हैं और प्रकट होने वाली बात को पर्याय कहते हैं । जैसे आपकी आत्मा चैतन्यद्रव्य है और आत्मा में जो बात प्रकट हो रही है, कार्य हो रहा है वह मायामय हो रहा है या अनंतानंत हो रहा है? वे सब पर्यायें हैं । जहाँ सारे विश्व का ज्ञान हो गया है, किसी प्रकार की आकुलता नहीं रही है, सदा के लिये कर्मों से मुक्ति हो गई है ऐसी जो दशा है वह भी पर्याय है । वह चेतन कार्यपरमात्मा है और कारणपरमात्मा बनने की शक्ति, आत्मा का चैतन्यस्वभाव यह कारणपरमात्मा है ।
भैया ! अनुकूल प्रयत्न करके कारणपरमात्मा की आराधना करो । परमात्मदेव की भक्ति कर रहे हो तो वहाँ भी ऐसा विचार करो कि धन्य है परमात्मदेव, यह पूर्णज्ञान और आनंद में तन्मय है और जैसा इसका स्वरूप है तैसा उसका स्वभाव है । द्रव्यदृष्टि में हम और भगवान् एक हैं और कहते भी हैं सब लोग कि जो हम हैं सो परमात्मा हैं । जो आत्मा सो परमात्मा । परमात्मा कोई भिन्न चीज नहीं है । भिन्नता कितनी है कि हम आत्माओं में विषयकषाय विकल्प है और परमात्मा में विषयकषाय रागद्वेष विकल्प नहीं है । किंतु जिस स्वभाव से बना हुआ वह परमात्मा है उसी स्वभाव से बने हुए हम सब आत्मा हैं । द्रव्य पृथक नहीं है किंतु करणी का अंतर है । जिस मार्ग से संयम साधकर आत्मसमाधि बनाकर वह परमात्मा बना है उस मार्ग को यदि हम अपनाएँ तो हमारा भी वही कार्य हो सकता है ।
भैया ! एक ही काम है इस जिंदगी में जो करता सो पार होगा । किसी बाह्यवस्तु में मूर्छा ममत्व न रखे । सबको विनाशीक जानें, अपने से भिन्न समझे और अपने आपको सबसे निराला जानकर इसमें बसा हुआ जो ध्रुव चैतन्यस्वरूप है वही मैं हूं―यों इस कारणपरमात्मा के स्वरूप की प्रतीति करे, बस यही एक जीवन में करने का काम है । यह परमात्मा का प्रकाश है । परमात्मा दो प्रकार से देखा जाता है । एक तो कार्यपरमात्मा और एक कारणपरमात्मा । कार्यपरमात्मा तो वह कहलाता है कि जिसके अनंतज्ञान, अनंतदर्शन,अनंतसुख, अनंतशक्ति ये अनंतचतुष्टय प्रकट हों और कारणपरमात्मा वह कहलाता है जो सभी जीवों में परमात्मा बनने की शक्ति है अथवा जो सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजआनंद, सहजशक्तिमय है वह है कारणपरमात्मा ।
कारणपरमात्मा का ध्यान करने से कार्यपरमात्मा बनता है याने अपने आपके आत्मा में जो शुद्ध जानने की शक्ति है उस शक्ति का ध्यान करने से भगवान् होता है, अपने आपमें जो कषाय के विषय के विकार लगे हैं वे दूर होते हैं अपने कारणपरमात्मा का ध्यान करने से । छहढाला में लिखा है ना कि ‘‘जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को न विकल्प वच भेद न जहाँ’’ जहां ध्यान ध्याता ध्येय एक हो जाता है, ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय एक हो जाता है ऐसा जो अपना परिणमन है उससे कर्मों का क्षय होता है याने अपने आत्मा के स्वभाव का ध्यान करने से कर्मों का क्षय होता है । किसी का सहारा ढूंढ़ना व्यर्थ है, सब जीव अपने स्वार्थ में है, यहाँ सब अपने विषयकषाय वृत्ति में हैं, खुद संसार में रुलने वाले हैं उनका सहारा नहीं हो सकता । सच्चा सहारा तो अपने आपमें ब से हुए स्वरूप के ध्यान से है । मेरा स्वरूप सबसे निराला ज्ञान और आनंद से परिपूर्ण स्वतःसिद्ध है । उस प्रभु का ध्यान करने से कर्मों का क्षय होता है ।
जब किसी सहजप्रभु का ध्यान किया जाय तो उसका उपाय एक ही रहा है कि सबसे पहिले तो जिह्वाइंद्रिय के विषय पर विजय करना । सब इंद्रियों से कठिन इंद्रिय रसना है स्वाद लेना, अमुक चीज बने इसका स्वाद लूँ अमुक स्वाद लूँ । तो पहिले जिह्वाइंद्रिय पर विजय प्राप्त करो । जिह्वाइंद्रिय का जो स्वाद है वह इंद्रियजंय है, क्षणिक है, जो विकल्प मचाने वाला है । रसना के स्वाद से कुछ लाभ नहीं है, आत्मा में अपने आप सहज स्वाद बसा है । अतींद्रिय सुख के स्वाद में रुचि करो । जिह्वा इंद्रिय के स्वाद की आसक्ति स्पर्शनेंद्रिय भोग की ओर प्रेरणा देती है इसलिये सर्वप्रथम जिह्वा इंद्रिय पर विजय प्राप्त करो ।
मोह पर विजय प्राप्त करो । मोहविजय तो सर्वप्रथम करने की बात है, किंतु साधारणजनों की दृष्टि रखकर कहा जा रहा है । किसी भी परद्रव्य को अपना मत मानो । मोह को दूर करने का उपाय क्या है? मोहरहित शुद्ध आपका जो स्वभाव है उसका ध्यान करो । इसी से मोह पर विजय हो सकती है । दूसरा काम है निर्मोह शुद्ध आत्मस्वभाव का ध्यान करो और मोह पर विजय प्राप्त करो । तीसरी बात है ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करो मन, वचनकाय का कृतकारित अनुमोदन, ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करना मुमुक्षुजनों का कार्य है । ब्रह्मचर्य व्रत कैसा है कि जिसके प्रताप से वीतराग सहज समतारूप सुखरस का अनुभव होता है और अब्रह्मभाव इससे विपरीत है । इसलिये अब्रह्मभाव को त्यागकर ब्रह्मभाव का पालन करें यह मुमुक्षुजनों का तीसरा कदम है । फिर चौथी बात मन के संकल्प विकल्प जगजालों पर विजय प्राप्त करना । ये मन के जो संकल्प हैं ये ही वीतराग समाधि का घात करते हैं । जीव का घात करनेवाले संकल्प विकल्प ही होते हैं । यदि ये न हों तो जीव तो आनंदमय है । उसे किसी प्रकार का क्लेश नहीं है । सो इन संकल्प विकल्पों पर भी विजय प्राप्त करो । हे प्रभाकरभट्ट ! सर्वप्रयत्न करके एक इस शुद्ध आत्मा का अनुभव करो ।
श्री मुलाचारजी में कहा है कि इंद्रियों में सबसे प्रबल इंद्रिय रसना इंद्रिय है । रसना इंद्रिय पर विजय प्राप्त करना कठिन है । और 8 कर्मों में सबसे विकटकर्म मोहनीयकर्म है, मोहनीयकर्म के कारण श्रद्धान बिगड़ता है, चारित्र बिगड़ता है । श्रद्धान और चारित्र बिगड़ा तो जीव का सब बिगड़ा । ज्ञान और दर्शन बिगड़ता नहीं है किंतु कम, ज्यादा हुआ करता है । पर श्रद्धान् और चारित्र बिगड़ा तो संसार में रुलना ही पड़ेगा । जिसकी श्रद्धा विपरीत हो गई, देव, शास्त्र, गुरु को छोड़कर कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु में मन लग गया । राग, द्वेषों की परंपरा लग गई तो फिर मोक्षमार्ग कैसे मिलेगा? इस कारण सबसे प्रबल कर्म मोहनीयकर्म है । मोहनीय ही तो इस जीव को संसार में रोके हुए है और व्रतों में सबसे कठिन व्रत है ब्रह्मचर्य । और गुप्तियों में सबसे कठिन है मनोगुप्ति ।
भैया ! किसी से कहो कि एक आसन से निश्चल बैठ जावो तो वह शरीर से निश्चल बैठ जायगा और कहा जाय कि वचन भो न बोलो, बोलते-बोलते भी बंद कर देगा । अब कहो कि मन से कुछ न विचारो, मन की चंचलता न करो तो यह बात कठिन है । मन तो सर्वत्र दौड़ लगाता ही रहता है । शरीर को मूर्ति की तरह निश्चल करने पर भी, वचनों का कार्य बंद करने पर भी मन को बंद नहीं किया जा सकता है । तो सबसे कठिन काम है मन को बस में करना । यदि इन चारों पर विजय नहीं होती है तो साधु होना बड़ा कठिन है ।
यहाँ जैसे कहते हैं ना कि सब व्यसनों का मूल जुवा है, जुवा खेलने के आगे सब व्यसन लघु बातें हैं । इसी तरह सब पापों का मूल एक रसना इंद्रिय है । रसना में स्वाद की आसक्ति होती है, कुछ मौज मानना चाहते हैं, आराम से रहना चाहते हैं तब अनेक प्रकार के पापों के विकार इनमें आने लगते हैं । इन इंद्रियों में गड़बड़ी करनेवाला मूल रसनाइंद्रिय है । इसलिये रसनाइंद्रिय को अवश्य ही सर्वप्रथम बस में करो । इस कारण साधु लोग कभी रस का त्यागकर देते हैं, कभी आहार का त्याग करते हैं, कभी मन, वचन, काय पर संयम बनाते चलते हैं । सब बिगाड़ करने वाली मूल जड़ यह एक रसनाइंद्रिय है ।
कर्म 8 होते हैं । ज्ञानावरण का काम तो ज्ञान रोकने का है, दर्शनावरण का काम है दर्शन को रोकने का । रोके रहते हैं पर बिगाड़ नहीं करते और वेदनीय का काम सुख दुःख का अनुभव करना है किंतु वेदनीय स्वयं अपने आप कारण सुख दुःख का अनुभव नहीं करता है किंतु मोह साथ में लगा हो तो सुख और दुःख का अनुभव होता है । मोह साथ न हो तो धन का सुख नहीं मान सकते । और कैसी ही विपत्ति हो पर मोह न हो तो दुःख नहीं मान सकते तो वेदनीय में सुख दुःख देने की प्रबलता मोहनीय कर्म से है ।
आयु का काम जीव को शरीर में रोकने का है । जीव शरीर में रुका रहे तो बुरा नहीं है, चला जाय तो बुरा नहीं है । पर शरीर में मोह हो तो अज्ञान की बात है । नामकर्म का काम है शरीर की रचना करना ऐकेंद्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, पंचेंद्रिय नाना प्रकार के जो जीव है इनके शरीर की रचना का कारण नामकर्म है । सो नामकर्म भी वास्तव में दुःखी करने वाला नहीं है पर इसके साथ मोहनीय कर्म लगा हो तो शरीर भी दु:खों का कारण बन जाता है । अब देखो गोत्रकर्म । गोत्रकर्म का यही फल है कि कोई उच्चकुल में पैदा हो जाय और कोई नीच कुल में पैदा हो जाय । नीच कुल और उच्च कुल में पैदा होने से आत्मा दुःखी नहीं होता है किंतु मोहवश जब ये नीच की कल्पना कर लेते हैं तो दुःखी होते हैं और उच्च की कल्पना कर लेते हैं तो अपने में मौज मानने लगते हैं । तो गोत्रकर्म भी इन जीवों का दुःख का कारण नहीं है पर उसके साथ जो मोह लगा हुआ है वह दु:ख का कारण है । इसी तरह आठवां कर्म है अंतराय, उसका परिणाम देखिये, अंतराय का परिणाम यह है कि दान देना चाहते हैं पर दान का भाव बिगड़ जाता है । या शक्ति नहीं है या विघ्न हो जाता है लाभ की बात आती है तो ऐसी खुद की चेष्टा बन जाती है कि वह लाभ खतम हो जाता है । इसी तरह भोग की बात मिलती हो तो वहाँ भी विश्व आ जाय । शरीर में या आत्मा में शक्ति का विकास नहीं हो पाता, यह भी अंतराय का फल है ।
कैसी भी स्थिति हो, यदि मोह साथ है तो दुःख होगा और मोह साथ नहीं है तो दुःख नहीं है । इसलिये दुःखों का कारण तो मोहनीय कर्म है । इसी से 8 कर्मों में सबसे प्रबल मोहनीय कर्म माना गया है । देखो भैया ! बड़े-बड़े तप कर डालते हैं ऋषिसंत, पर मन में रंच भी विकार न आये यह बात बहुत कठिन है और जो विकारों को जीत लेता है, अपने ब्रह्मचर्यव्रत को निर्वाध पाल लेता है वह सब्र व्रतों का अधिकारी हो जाता है । बाह्य में तो त्याग है ही, अब मन की बात है । जितना बुरा दोष जो कुछ लगता है वह मन से लगता है । किसी का मन से कोई बुरा चिंतन कर ले चाहे वह शरीर से, बचने से वैसा बुरा न कर सके लेकिन मन से दूसरों का बुरा सोचने से सोचने वाले का बुरा हो जाता है । सो प्रत्येक उपाय से अपने मन को संयत रखना साधु पुरुष का कार्य है ।
यह परमात्मत्व वेद शास्त्र इंद्रियादिक का विषय नहीं है अर्थात् यह परमात्मस्वरूप न तो वेद से जाना जाता है, न शास्त्रों से जाना जाता है, न इंद्रियादिक परद्रव्यों से जाना जाता है किंतु यह खुद के ज्ञानबल से जाना जाता है । इस अपने आपमें बसे हुए परमात्मस्वरूप का जब पता पड़े तब रागद्वेष कम होते हैं । चिंता तो कहीं लगा रखी हो और परमात्मा का भान हो जाने की आशा करें तो कैसे हो सकता है? धर्म तो करते हैं पर थोड़ा-थोड़ा मन को डुलाकर करते हैं । यदि कुछ क्षण भी मन की पूरी सम्हालकर सके रागद्वेषों को तजकर केवल अपने सत्य प्रभु का आग्रह करके रह जावो तो परमात्मा के दर्शन होंगे ।
भैय्या ! किन्हीं बाह्यपदार्थों से इस आत्मा का मेल नहीं है । जिसकी चिंता करते हो उससे कुछ लाभ तो नहीं मिलता है । चाहे वह भाई हो, चाहे बहिन हो, चाहे माता हो, चाहे पिता हो, किसी भी अन्य पुरुष से अपने को लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि वे खुद अपने स्वार्थ और विषयों में फंसे हुए हैं । कोई द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य को अपना परिणमन नहीं देता है । कोई जीव मेरा सुधार नहीं कर सकता? और न बिगाड़ कर सकता, फिर हम दूसरे की चिंता क्यों करें? किस दूसरे पदार्थ का चिंतन किया जाय? किसी भी जीव से अपने को सिद्धि कुछ नहीं होती है । अपने ही ज्ञान से अपने में देखा गया जो अपना प्रभुस्वरूप है उस प्रभु के स्वरूप का शरण लिये बिना किसी जीव का उद्धार नहीं हो सकता है । अब इसही परमात्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं ।