वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 24
From जैनकोष
केवल दंसण णाणमउ केवल सुक्खसहाउ ।
केवल वीरिउ सो मुणहि जो जि परावरु भाउ ।।24।।
जो केवल है, असहाय है, खालिस है याने जिसके साथ उपाधि नहीं लगी है शरीर आदि का संबंध नहीं है ऐसा जो ज्ञानदर्शन करि रचा गया परमात्मा है वह इस कारणपरमात्मा का व्यक्तस्वरूप है । जैसे पत्थर की मूर्ति पत्थर से ही निकलती है, बाहर से नहीं निकलती है । इसी तरह हम आपका परमात्मतत्त्व हम आपसे ही निकलेगा कोई बाहर की चीज से नहीं बनेगा । यह आत्मा जब मोह करता है तो उसका नाम मोही है यही आत्मा जब ज्ञान में लगता है तो उसका नाम ज्ञानी है, यही आत्मा जब रागद्वेषों से छूट जाता है तो उसका नाम वीतराग है । यही आत्मा जब पूर्ण विकास पा लेता है तो उसका नाम परमात्मा है ।
भैया ! अपनी शक्ति का विश्वास हो जाय तो सबसे बड़ा प्रथम पुरुषार्थ यही है । धन वैभव किसी को कम मिलता है, किसी को ज्यादा मिलता है तो इससे किस बात का अंतर है? जिसका पुण्य अधिक है उसे धन वैभव,ज्यादा मिलता है और जिसका पुण्य कम है उसे धनवैभव कम मिलता है, जिसकी धर्म में रुचि के साथ-साथ शुभराग था, उसे बड़ा पुण्य मिलता है, छोटा मोटा पुण्य तो भूखों को रोटी दे देने आदि से मिलता है । बहुत बड़ा पुण्य धर्म साधनों के बिना नहीं मिलता है । धर्म माने आत्मा का स्वभाव । मेरे आत्मा का स्वभाव सब परवस्तुओं से निराला केवल प्रतिभास स्वरूप है । ऐसी दृष्टि जगे बिना धर्म नहीं होता है । धर्मदर्शी ज्ञानी पुरुष के ही सातिशय पुण्य होता है । सातिशय पुण्य चक्रवर्ती और तीर्थंकर इत्यादि के फलित होता है थोड़ा बहुत पुण्य तो मात्र पुण्यकार्यों से हो जाता है ।
भैया ! मोक्षमार्ग में लग सके ऐसी शक्ति तो धर्म में ही है । लौकिक सुख तो पुण्य के प्रताप से होते हैं किंतु अलौकिक सुख धर्म के प्रताप से प्राप्त होता है । यहाँ अरहंत और सिद्धभगवान् का स्वरूप बतला रहे हैं । हम जिनकी पूजा करते हैं उनको ही न जानें तो वह हमारी भक्ति क्या कहलायेगी? जिसकी हम पूजा करते हैं उस प्रभु का स्वरूप कैसा है? यह जानना प्रथम आवश्यक है । जिसकी पूजा रोज करते हों उसका स्वरूप नहीं जाना तो उससे तो यह अच्छा है कि दो महीने तक चाहे पूजा करने का अवसर न रहो, मगर भगवान क्या है? उसका क्या स्वरूप है, यह जानने में ही समय लगा दो । यदि प्रभु की पूजा करते हैं और प्रभु के स्वरूप को न समझा और पूजा का अर्थ न समझा तो उस पूजा से क्या लाभ? पहिले प्रभु का स्वरूप समझो, फिर प्रभु की पूजा करलो, भक्ति करलो, प्रभु का स्वरूप जाने बिना प्रभु की पूजा कैसी?
आत्मा में चार गुण हैं―(1) ज्ञान (2) दर्शन (3) आनंद (4) सुख ये सब जीवों के अंदर पाये जाते हैं । किसी के ज्ञान कम है किसी के ज्यादा है, किसी को अच्छा है किसी को अच्छा नहीं है, किसी को सुख थोड़ा है किसी को बहुत है, किसी की शक्ति कम है, किसी की ज्यादा है मगर सबमें ये चार चीजें मौजूद हैं । जैसे ये पुद्गल है तो इनमें रूप, रस, गंध, स्पर्श ये चारों चीजें जरूरी हैं । चाहे किसी पुद्गल में रूप न मालूम पड़े और रस वगैरह ही मालूम हों, किसी में कुछ न मालूम पड़े, मगर हैं सबमें ये चारों चीजें । जैसे हवा है तो वह भी एक पुद्गल है । हवा का रूप किसीने नहीं जाना, हवा तो केवल स्पर्श से ही मालूम पड़ती है मगर उसमें भी ये चारों चीजें हैं । हवा में तो केवल स्पर्श मालूम पड़ा,इसमें तीन चीजें नहीं मालूम पड़ी, फिर भी इसमें चारों चीजें हैं । और जैसे आग है । क्या किसी ने आग के रस को मालूम किया कि आग मीठी है या खट्टी है । मगर उसमें भी रूप है तो रस जरूर है । तो पुद्गल में चार गुण नियम से हुआ करते हैं ।
इसी प्रकार आत्मा में ज्ञान, दर्शन, आनंद और शक्ति ये चार गुण जरूर हुआ करते हैं । भगवान् के ये चार गुण पूरे विकसित होते हैं । जिसके ये पूरे प्रकट होते हैं उसको परमात्मा कहते हैं । भगवान् का ज्ञान पूर्ण प्रकट है, जिस ज्ञान के द्वारा तीन लोक तीनकाल के सब पदार्थ ज्ञात होते हैं । कुछ-कुछ ज्ञान तो हम आपमें है मगर भगवान को पूर्ण ज्ञान है और शुद्धज्ञान है और हमारा अपूर्ण ज्ञान है और अशुद्ध ज्ञान है । हम ऐसा जाना करते हैं, यह घर मेरा है, यह वैभव मेरा है, ये भाई मेरे हैं? यह हमारा अशुद्ध ज्ञान है । भगवान् शुद्ध जाना करते हैं, भगवान् तो जैसा है तैसा जाना करते हैं । वह नहीं जाना करता कि यह इनका मेरा घर है, यह उनका घर है । भगवान् तीन लोक तीनकाल के सब पदार्थों को जानता है और शुद्ध जानता है ।
भगवान् निश्चयत: ज्ञेयाकार परिणत निज आत्मा को जानता है । ऐसे ज्ञाता निजआत्मा को देख लेता है यह उनका अनंत दर्शन है और सुख कितना है? तीनलोक के जितने जीव हैं, जितने देव हैं, जितने इंद्र है, जितने धनी हैं, जितने राजा महाराजा आदि हैं उन सबको मिला करके उनका जितना सुख है उससे भी अनंतगुणा सुख उस प्रभु को है । और अनंतगुणे की बात क्या उनका सुख तो इन सुखों से विलक्षण अलौकिक सुख है । यह प्रभु निरंतर अनंतानंत स्वभाव को वर्तता रहता है । यह सब प्रताप है मोह रागद्वेष हटने का । मोह रागद्वेषों पर विजय किया, यह तो उनकी उत्कृष्ट स्थिति है इसके ही परिणाम में भगवान् अनंत सुखी हैं ।
प्रभु में अनंतचतुष्टय में चौथा गुण है अनंत बल, जिसके यह अनंतचतुष्टय प्रकट होता है उस आत्मा को तुम परमात्मा समझो । जो परमात्मा कैसा है कि परात्पर है याने गुरु तो हुए अरहंत परमेष्ठी और उससे उत्कृष्ट हैं सिद्ध भगवान् और उन परात्परों में भी परव्यक्त सहजसिद्ध कारणपरमात्मा है । अरहंत भगवान् के ये चार गुण प्रकट हो गये । यद्यपि अरहंतदेव के शरीर है परम औदारिक है, स्फटिक मणि के समान है, पर शरीर सुखदुःख की अनुभूतियों का निमित्त भी नहीं है । सिद्धभगवान् के शरीर नहीं रहा चार अघातियाकर्म भी नहीं रहे । ये भगवान् शरीरादि से अत्यंत जुदे हैं केवल आत्मा ही आत्मा रह गये । वे सिद्ध भगवान् हैं ।
परमात्मा में अरहंत भी आ गए और सिद्ध भी आ गए और अंतरात्मा में चौथे गुणस्थान से लेकर 12वें गुणस्थान तक के ज्ञानी जीव आ गए और बहिरात्मा में तीन गुणस्थान आते हैं उनमें भी पहिले मिथ्यात्व गुणस्थान के जीव तो पूर्ण बहिरात्मा हैं और दूसरे तीसरे गुणस्थान वाले जीव तारतम्यरूप से बहिरात्मा हैं । इन सभी जीवों में जो शुद्ध आत्मपदार्थ वह है कारणपरमात्मा । स्वभावदृष्टि से वह आत्मस्वभाव देखा जाय तो वह हम में भी है, ज्ञानी में भी है, भगवान् में भी है । वह है कारणपरमात्मा सहजसिद्ध आत्मा । उस परमात्मा का ग्रहण हो तो कर्मों का क्षय होगा और धर्म का काम भी होगा । परमात्मा अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति और अनंत आनंद से संपन्न है, जिसको न वेदों से, न शास्त्रों से, न इंद्रियों से जाना जा सकता है किंतु केवल अपने निर्विकल्प समता परिणाम वाले ज्ञान से ही जान सकते हैं । ऐसा परमात्मा रहता कहां है? इस प्रश्न का उत्तर इस दोहा में दे रहे हें―