वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 30
From जैनकोष
जीवाजीवमएक्कु करि लक्खण भेउ ।
जो परु सो भणमि मुणि आपा अप्पु अभेउ ।।30।।
जीव और अजीव को एक न कर डालो, इसी बात को इस दोहे में कह रहे हैं । जीव इस शरीर को लक्ष्य में लेकर यही मानता है कि मैं यह शरीर ही जीव हूं तो इसका अर्थ है कि जीव और अजीव को एक न कर डालो । सो जीव और अजीव में एक मत बनाओ । अपना ज्ञान जगाये रहो, लक्षण के भेद से उनमें भेद है क्योंकि जीव का लक्षण तो रूप रस, गंध स्पर्श रहित शुद्ध चैतन्य है और अजीव का स्वरूप जिसमें चेतन नहीं है सो अजीव है । कुंदकुंद स्वामी ने भी बताया है कि जिसमें रूप नहीं, रस नहीं, गंध नहीं, स्वर्ण नहीं किंतु चेतना गुण है शब्द भी नहीं है और, किसी चिह्न के द्वारा पहिचाना नहीं जाता, कोई एक निर्दिष्ट आकार नहीं । कोई जीव की निजी आकार है क्या? अगर जीव का निजी कोई आकार होता तो कल्पना करो कि सांप चींटी आदि जीवों में कैसे पहुंच जाय? जीव का निजी आकार कुछ नहीं है । वह तो जिस शरीर में जाता है उसही शरीर रूप हो जाता है । जैसा लंबा चौड़ा शरीर का आकार हो वैसा हो लंबा चौड़ा आकार उस जीव के आकार में हो जाता है । बड़े शरीर वाला जीव मरकर छोटे शरीर वाले जीव में जाय तो आत्मा के प्रदेश संकुचित होकर उस शरीर प्रमाण हो जायेंगे । दो ही बातें कुंद स्वामी ने कही कि उसमें पुद्गल का कोई गुण नहीं, पर्याय नहीं और किसी चिह्न के द्वारा ज्ञान में नहीं आता और निजी आकार भी जिसका कुछ नहीं है ऐसा तो जीव का लक्षण है और जीव के इस स्वरूपसे विपरीत जोव का लक्षण है । वे अजीव दो किस्म के हैं ।
जीव संबंधी सहित और एक जीव संबंध रहित । जैसे के शरीर है, राग है, विकार है ये सब जीवसंबंधी अजीव हैं । जिसमें शुद्धचैतन्य नहीं है वह अजीव कहलाता है । देह का शुद्धचैतन्यस्वरूप है? नहीं है । देह का स्वभाव तो रस रूप गंध सहित है । तो वह पुद्गल नहीं हो सकता और रागादिक भाव यद्यपि जीव के परिणमन हैं फिर भी वे पुद्गलों का निमित्त पाये बिना नहीं होते । इसलिये स्वभाव से तो उत्पन्न होता नहीं सो जीव के तो कहाये ही नहीं और उपाधि के संबंध से तो अजीब कहलाता है । शुद्ध चैतन्यस्वरूप जिसमें न पाया जाय उसे अजीव कहते हैं । शुद्ध चैतन्यस्वरूप का अर्थ है कि जिसमें रागद्वेष नहीं, मोह नहीं, कल्पनाएँ नहीं, केवल अपना शुद्ध चैतन्यस्वभाव है । इतना ही मात्र जीव का लक्षण है और उसमें ही अपनी शरण माना है कि वह शुद्ध चैतन्यस्वरूप मेरे निगाह में हो । यही धर्म का पालन है तो जीवसंबंधी अजीव क्या? शरीर और रागादिक भाव और अजीवसंबंध अजीव क्या है? पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य इन 5 प्रकार के जीवद्रव्यों में धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य तो एक-एक ही हैं और कालद्रव्य अनगिनते हैं । लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर ठहरे हैं और पुद्गलद्रव्य अनंत हैं । एक छोटा तिनका या कंकड़ होवे तो सब अजीव हैं ही, पर मेरे लिये तो दुनियां में जितने जीव हैं वे भी सब अजीव हैं । वे जीव मैं नहीं हूँ । मुझ में जो रागादिक विकार उत्पन्न होते हैं वे विकार भी जीव नहीं हैं । मैं तो शुद्ध चेतनमात्र एक चेतन सत् हूं । ऐसा अपने आपके आत्मा में विश्वास हो तो बहुत निकट में ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है । तो जीव के लक्षण से अजीव का लक्षण न्यारा है । और अजीव से न्यारा अपने जीव को पहिचान लिया तो समझो कि हमने सब कुछ पा लिया । मोह से जिनमें कल्पनाएं कर लीं कि यह मेरा है, स्त्री है उनकी चाकरी भी अच्छी कर ली लेकिन लाभ कुछ नहीं मिलेगा । ज्यों के त्यों दीन गरीब भिखारी बने रहे, मर गए, नया जन्म पा लिया, सारी बातें मोह ही मोह की करते रहे । जन्ममरण का यही चक्र चलता रहा इसलिये इस चेतना को पहिचान कर मोह में शिथिलता करना चाहिये । सो मोह शिथिल तभी हो सकता है जब यह समझ में आ जाय कि मैं तो मात्र शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूँ, औरों से मेरा वास्ता नहीं है और जो पदार्थ मेरे साथ हैं वे साथ रहें किंतु उनसे मेरा कुछ हित नहीं है । हमारा हित तो अपने आपके शुद्ध चेतन्यस्वरूप की दृष्टि में है । वे मैं नहीं हूँ । जिसमें माना कि यह मैं हूँ तो उसमें वेदना होगी, मुक्ति नहीं हो सकती है । जैसे घर में दो चार जीवों को मान लिया कि ये मैं हूँ तो उनके मोह में आकर यह जीव केवल अपना श्रम ही श्रम करेगा । अपने को शांतिमय नहीं रख सकता । शांति का मार्ग है सर्वप्रथम मोह का छूटना । मोह छूटे तो शांति मिले ।
अब कोई कहे कि मोह तो साधु के ही छूटता है गृहस्थ के नहीं छूटता है तो यह बात बिल्कुल गलत है । मोह तो गृहस्थ के भी छूटता है किंतु मोह छोड़ने में ज्ञानप्रकाश की ही जरूरत है । चारित्र और व्रत तप आदि ये न हों तो भी मोह छूट सकता है । मोह माने क्या है? परवस्तु में एक कल्पना कर लेना कि यह मैं हूँ, अथवा यह मेरा है । बस यह बात छूट गई तो मोह छूट गया । मोह छुड़ाना तो सरल है । चाहे राग देर में छूटे किंतु मोह शीघ्र छूट सकता है । और यह एक ही मात्र उपाय की चीज है कि मोह तो नियम से छोड़ दो । यह बात आप सब गृहस्थों से कही जा रही है । इसमें यह शंका न करो कि गृहस्थी में मोह छूटा नहीं करता । मोह छोड़ दो तो धीरे-धीरे राग भी शिथिल हो जायगा । और जब जो हो सो हो पर मोह रच भी न रहे । गृहस्थावस्था में भी रहते हुए यह तो विश्वास बनाए रहो कि जितने परिवार के जीवों का समागम हुआ है उनका सत् उनमें ही है और वे खुद अपने आपमें परिणमते रहते हैं । उनके साथ उनका भाग्य है । उनका सुख दुःख वे अकेले ही भोगते हैं किस गति से आये हैं यह उनकी चीज है, जिस गति से जायेंगे वे जायेंगे । आपका किसी भी परजीव में अधिकार नहीं है कि मैं इनका इस प्रकार का परिणाम बनाए रहूं । स्त्री का कषाय और प्रकार का, पुरुष का कषाय और प्रकार का, उनका ही कषाय नहीं मिल सकता । अपने ही परिणामों के अनुकूल दूसरों को नहीं परिणमा सकते फिर और जीवों को तो परिणमाओगे ही क्या? तो तब मेरा कहीं कुछ नहीं है, ऐसा ही विश्वास बना लो कि मैं सर्वपदार्थों से न्यारा केवल चेतन स्वभावमात्र हूँ । ये मुझमें जो रागादिक भाव होते हैं ये भी तो सदा नहीं रहते । होते हैं मिट जाते हैं और होते हैं अपने को बर्बाद करने के लिये होते हैं पर उपाधि का निमित्त पाकर होते हैं । इसलिये भैय्या इतनी हिम्मत अंतर में बसाओ कि अंतर यह अनुभव करने लोगे कि मेरा तो मात्र मैं ही हूँ । मुझसे सभी भिन्न हैं जो कुछ है वह मेरा नहीं है । रही संबंध की बात । सो जब तक राग है तब तक बंध है । मोह छूटना सच्चे ज्ञान पर निर्भर है । स्वरूप न्यारा है, मेरा स्वरूप न्यारा है और जितने भी परद्रव्य हैं उनका स्वरूप न्यारा है । इतनी बात समझलो तो इसी का नाम मोह का त्याग है । अगर यही बात नहीं बन सकती तो फिर कल्याण की और क्या बात हो सकती है ? ये तो रागादिक तत्त्व आत्मा में होते हैं फिर भी आत्मा के स्वरूप से भिन्न है । इस प्रकरण से क्या जानना है कि शुद्ध लक्षण से सत् जो शुद्ध आत्मस्वरूप है, वह ही उपादेय है । यह भेदविज्ञान में बताया जा रहा है कि मैं वास्तव में क्या हूं? यह जाने बिना धर्म नहीं हो सकेगा । किसे धर्म करना है? कहां धर्म हुआ करता है? इसका हीं पता नहीं है तो धर्म क्या है? इसलिये मोक्ष की चाह करने वाले धर्म में प्रगति चाहने वाले पुरुष सबसे पहिले यह निर्णय करें कि मैं क्या हूं? अच्छा मैं क्या हूं? इसके जानने का एक उपाय बतलायें । अच्छा पहले तुम यही बतलाओ कि तुम सदा रहना चाहते हो या चाहते हो कि मैं किसी दिन बिल्कुल मिट जाऊं, नष्ट हो जाऊं ? बतलावो क्या चाहते हो ? अगर धनी हो तो यह जानते हो कि मैं सदा धनी रहा हूं । अगर तुम्हारा सत् है, अस्तित्त्व है तो यह चाहते हो ना कि मेरा अस्तित्व सदा रहा है । जीव की अंत: से यह चाह होती है कि मैं सदा रहा हूँ, मिट न जाऊँ । तो समझो कि जीव वही है जो सदी रहता हो मिटता नहीं है, बस एक पहिचान हाथ में ले लो । मैं वह हूँ जिस रूप में सदा रहा हूँ, मैं मिटता नहीं हूं, बस इतना सा एक सूत्र बना लो अपनी हिंदी में । मैं वह हूँ जो ध्रुव हूँ । जो सदा रहा हूं । मैं मिटने वाला नहीं हूं । बस इस आधार पर अब सब चीजों की परीक्षा कर लो । क्या यह
धन, वैभव मैं हूं? मैंने अभी क्या लक्षण बताया? जो मेरे साथ सदा रहता हो और मिटने वाला न हो । यह धन वैभव तो मिटने वाला है । नियम से मिटेगा । आपकी जिंदगी में मिट जाय या आपकी जिंदगी पूरी-पूरी करके मरण हो जाय तब मिट जाय पर धन वैभव का प्रसंग नियम से मिटने वाला है । वह बुद्धिमान् पुरुष है जो जानता है कि यह जबरदस्ती छूट जायगा, तो वह अपने जीवन में ही छोड़ने का अभ्यास करता है ।
वह मैं हूँ जो सदाकाल रहता हूं, ध्रुव हूं, तो जो शुद्ध लक्षण करके संयुक्त है, केवल चैतन्यमात्र है वह तो मैं आत्मा हूँ और वह ही उपादेय है । मेरे अलावा और चीजें रहते हुए भी अंतरंग में यह समझो कि ये सब हेय हैं । छूट जायेगी और छोड़ने योग्य हैं, भेदविज्ञान असल में किया जाता है स्वभाव से और अभाव से । यह बात जल्दी समझ में आ जायगी कि मकान मेरा नहीं है क्योंकि मकान दूसरी जगह खड़ा है, मैं इस जगह बैठा हूँ । यह बात भी जल्दी समझ में आ जायगी कि यह शरीर में नहीं हूँ । दूसरों को देखते हैं ना कि मर जाते हैं, शरीर को जलाने जाते है, तो मैं शरीर नहीं हूँ, यह भेदविज्ञान भी सुगमता से हो जाता है और मैं रागादिक विकार नहीं हूँ, यह भेदविज्ञान बड़ी कठिनाई से होता है । यह जीव वास्तव में किसी परपदार्थ में राग नहीं करता चाहे मिथ्यादृष्टि क्यों न हो किंतु परपदार्थों के संबंध में जो उसने कल्पनाएँ बनाई, राग बनाया, कुछ किया नहीं किंतु परपदार्थों का ख्याल करके राग भर बनाया है उस राग में यह जीव मस्त है, परपदार्थों में यह जीव वहीं लगा है, यह निश्चय से बात जानो । कोई भी जीव किसी परपदार्थ से नहीं लगा है किंतु परपदार्थों के बारे में जो विकल्प बनाया है, उन विकल्पों में राग किये हुए हैं । सौ परपदार्थों का छोड़ना क्या है? जो अपने आप आपमें विकल्प बनाया है उन रागों को छोड़ना है । यह राग कैसे छूटे? मोह मिटने पर छूटेगा । मोह कैसे मिटेगा ? सबका यथार्थ ज्ञान होने पर मोह मिटेगा । सबका यथार्थ ज्ञान कैसे होगा? उन सबके स्वरूप को समझने में उपयोग लगाओ तो मिटेगा । सबका स्वरूप कैसा है? सो देख लो, सब न्यारे हैं कि नहीं । तुम्हारे आधीन तो तुम्हारे बच्चे का भी परिणाम नहीं, ऊधम न करो । मगर ऐसा चित में ख्याल सूझता रहता है तो वह ऊधम करने से रुकता नहीं है ।
आपका अधिकार तो जिसको आप अपना प्रेमी समझते हो उस पर भी नहीं है । वे अत्यंत भिन्न हैं । रंच भी संबंध नहीं है । उनका परिणमन भी आपके हाथ नहीं है, आपका अन्य पदार्थों में संबंध ही क्या होगा? सो किसी क्षण शुद्ध हृदय करके असार और अशरण पदार्थों का विकल्प त्याग करके अपने आपके शुद्ध ज्ञान के होने की दर्शन करो तो यही शांति का उपाय है, ऐसी श्रद्धा के रखते हुए गृहस्थोचित कार्य करो, धन कमा लो मगर कमाने का टाइम रखो कि 10 बजे से 4 बजे तक । जितना समय आप उचित समझते हो व्यापार में उतना समय रखो, पर 24 घंटे तो न फंसे रहो । यदि 24 घंटे विकल्पों में ही उपयोग लगाया तो फिर मरण तो होगा ही । मरण के बाद फिर क्या हाथ आयेगा ? जैसा बनना होगा वैसा बनना पड़ेगा । और धर्म में समय लगावो तो कुछ हाथ भी लगेगा । धर्म में चाहे दो तीन घंटे का ही समय लगावो मगर वह समय सुव्यवस्थित रूप से लगाना चाहिये । धर्म के समय में धन का, परिवार का, किसी का भी विकल्प न रखो । धर्म करना है, मुझे अपने उत्थान का कार्य करना है, मुझे केवल निजी ज्ञान रस का पान करना है विषय, विकल्प चाह आदिक जो विकार हैं वो उन विकारों को अपने में नहीं आने देना है, सो यह हिम्मत तभी बन पायगी जब यह ज्ञान हो जायगा कि मैं मात्र शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूँ । इसमें कोई दूसरी चीज नहीं । इसी तरह पालन पोषण का काम हो तो समय निश्चित रखो प्रयोजन यह है कि धर्म का समय निश्चित रखो और उसमें कुछ विकल्प जाल न ला करके एक प्रण से धर्म कार्य करो । उस धर्म के कार्य में कई बातें लगा लो तो आपका मन लगेगा । थोड़ा देवदर्शन में और देवभक्ति में जरा मन लगावो । अब वह ही समय पूजन का है, वह ही समय दर्शन का है, पूजन करने वाले जोर-जोर से पढ़ते हैं तो इसका अर्थ है कि दर्शन करने वालों पर दया नहीं रख रहे हैं । आप सोचें कि जिसमें इतना प्रेम नहीं है कि दर्शन करने वाले भी आ रहे हैं इनका भी उपयोग शुद्ध रहे और प्रभु के दर्शन का लाभ उठायें, इतनी दया जब अपने धर्मात्माजनों पर नहीं है तो हमें बतलावो कि चिल्लाने से भगवान् के पास शब्द नहीं पहुंच जायेंगे । पूजा तो अपने भावों की चीज है । इसी तरह जब दर्शन करने वाले भी जब धीरे-धीरे दर्शन पाठ पढ़ते हैं तो वे अपना पूरा नियम बनाए । सो प्रभु के गुणों का स्मरण उनके स्वरूप से अपने स्वरूप की तुलना करो पर विकल्प छोड़कर केवलज्ञान प्रकाश स्वरूप को जानो सो दर्शन है । गुरुओं की उपासना करो, गुरुओं का सत्संग करो । उनसे कोई शिक्षा लो, यह गुरु उपासना है । याने कोई प्रकार का अपने धर्म का पालन करो, स्वाध्याय करो, एकचित्त होकर किसी एक ग्रंथ का विधिपूर्वक क्रम से स्वाध्याय करो । समझ में आये तो अपनी नोट बुक में नोट कर लो ।
कोई विवेक ज्ञानबल मिले तब समझलो और संयम करो । जो सुगमता से घर पर खाने को मिले उस पर संतोष रहे और अपने आपमें इच्छा न बनाओ कि मैं भी कोई भोग भोगूं यही संयम है । और कोई इच्छा होती हो तो तुरंत उसके खिलाफ बन जावो । खीर खाने की इच्छा हुई तो खीर का त्याग है । इसी प्रकार अपने मन का नियंत्रण करने की कोशिश करो और गृहस्थ के सबसे बड़े तप तो दो ही हैं कि जो पुण्योदय से मिला उसमें ही दान पुण्य कर लो, अपने खाने पीने का विभाग रखो, कर्ज लेकर न खावो स्वाद के लोभ में आकर खर्च मत बढ़ावो । सात्विक रहन सहन में रहो । ज्यादा पैसा है तो परोपकार करो । जो-जो तुम्हें मिला है उसमें यह विश्वास रखो कि ये सब मिट जाने वाली चीजें हैं, ये ही तो बड़े तप हैं । एक कर्तव्य है दान का । अपने कुटुंब पर जितना खर्च होता है कम से कम उतना खर्च तो दुनियां के और सब जीवों में करो । सारा श्रम केवल माने हुए घर के चार जीवों पर होता है तो यह मोह नहीं है तो और क्या है ? और जीवों को भी तो देखो, सबका स्वरूप एक है तो इसी प्रकार अपनी शक्ति माफिक धर्म काम करते हुए अपने इस जीवन को धर्मयुक्त बनाओ ।
हम आप जितने भी जीव हैं उन सबकी एक ही अभिलाषा है कि समस्त दु:खों से छूट जावें । तो हम दुःखों से छूटना चाहते हैं तो दुःखों को ही तो जान ले कि दुःख क्या है? कोई पुरुष दुःख को ही सुख मान ले तो फिर उनसे छूटने की इच्छा क्यों करेगा ? इसलिये दुःख क्या है इतनी पहिचान भली प्रकार से समझ लेना चाहिये । दुःख क्या है, जिसमें क्षोभ हो वह दुःख । अब क्षोभ उपसर्ग के समय भी होता है । कोई कभी विषयों में बाधा डाले उसमें भी होता है । सो ये सब बातें दुःख हैं तो दुनियां जानती है कि अगर किसी प्रकार के विषयों के भोगने का संकट किया है तो वहाँ भी क्षोभ होता है और किसी विषय को भोग रहे हो तो वहाँ भी क्षोभ होता है । बढ़िया भोजन जिसे बर्फी पेड़ा कह लो । अब भी पेड़ा बढ़िया भोजन तो है नहीं । कहीं सुना है कि कोई रबड़ी खोवा नहीं बना सकता है, यह सरकार प्रतिबंध लगावेगी । जीवों की आदत है कि स्वाद के लिये स्वादिष्ट चीजों को भी खराब कर दे ।
यदि साग है तो उसमें नमक मिर्च डालकर खाते हैं, दाल जो होती है उसका छिलका बड़ा स्वास्थ्यप्रद होता है पर स्वाद के लिये उसे कूटकर छिलका निकालकर खाते हैं । अच्छा ये जो स्वाद के लिये पेड़ा बर्फी खाते हैं वे भी आनंद से नहीं खाते हैं, उनके खाने में भी क्षोभ होता है । कोई मनुष्य इन्हें शांति से नहीं खा सकता है । शांति हो तो वहाँ प्रवृत्ति का काम ही क्या है । क्षोभ होता है विषयों की भक्ति में भी क्षोभ होता है और विषय न मिलें और इच्छा बनी हो तो वहाँ भी क्षोभ होता है । जहां-जहां क्षोभ है वहाँ वहां दुःख है । हमें दुःखों से छूटना है तो हमारा भाव यह होना चाहिये कि मुझे इन पर से छूटना है । चाह विषयों की हो, इज्जत की हो, प्रतिष्ठा की हो, चार लोगों में हम भले जंचे, हमारी इज्जत हो इन सबसे छूटना है । इस प्रकार की भावना हो । गृहस्थावस्था में भी रहकर सच्ची बात तो जानना चाहिये जितनी पूरी बातें साधु जानते हैं । हम बराबर शुद्धचारित्र गृहस्थावस्था में नहीं पाल सकते हैं मगर इतनी बात जानने में अ । जाये कि मैं एक शुद्ध जानन हूँ । जानना तो ज्ञान गुण का काम है । ज्ञान हम में भी है, साधु में भी है । ज्ञान से हम पूरा सही जानकर और जितने ख्याल हैं उन सब ख्यालों को गलत मानकर हमें दुःखों से छूटना है । तो दुःख क्या है? किसी भी पदार्थ का ख्याल हो रहा हो तो वह दुःखों में शामिल है । हम क्यों 50 पदार्थों में से 40 को छोड़कर 10 का ख्याल करते हैं? ख्याल करते हो तो 50 का करो । नहीं करना है तो एक का भी न करो । जगत् के अनंत जीवों में से तुम घर के 10-5 जीवों का ही ख्याल क्यों करो? ख्याल करते हो तो सबका करो और नहीं करते हो तो एक का भी न करो । जो यह ख्याल होता है यह साबित करता है कि उनके अंदर राग है, इच्छा है, मोह है तो जब तक परवस्तुओं का हमें ख्याल है, किन्हीं बाह्य पदार्थों की हमें इच्छा है तब तक हम दुःखी हैं । हमें दुःखों से छूटना है इसका अर्थ यह है कि हमें शरीरादिक बाह्यपदार्थों की अभिलाषा से छूटना है । जो बाह्यपदार्थों की अभिलाषा करता है उस जीव को कहते हैं बहिरात्मा और जो जीव अंतरंग में बाह्यपदार्थों की रुचि नहीं करता है किंतु अपने ज्ञानस्वभाव की रुचि करता है उसको कहते हैं अंतरात्मा और जो अपने ज्ञानस्वभाव की आराधना करके उपासना करके परम हो जाता है, पूर्ण विकास वाला हो जाता है, समस्त विश्व की ज्ञाता हो जाता है उसे कहते हैं परमात्मा । जीव तीन प्रकार के होते हैं । एक हो गया बहिरात्मा, एक हो गया अंतरात्मा और एक हो गया परमात्मा । बहिरात्मा वह है जिसकी रुचि बाहर में भी होती है । कोई धर्म पर संकट नहीं है कदाचित् धर्म पर संकट आये तो घर की भी आप परवाह न करके धर्म की रक्षा में बैठ जाते हैं । अभी देख लो किसी साधु को आहार कराने की इच्छा हुई तो खाना शुद्ध बनाते हैं और आहार को शुद्ध बनाने का भाव होता है उस समय यदि बच्चा भी रोता है तो यही कहते हैं अभी ठहर जावो आधा घंटा, एक घंटा । यह धर्म की रुचि का द्योतक तो है पर कदाचित् एकदम धर्म पर पूर्ण संकट आ जाये और आपकी धन हानि की भी बात आ जाय तो तन, मन, धन सर्व कुछ धर्म के पीछे लगा देने को तैयार हो जाते हो । इतना धर्म के नाम पर अंतरंग में साहस हो जाता है । और अपने अंतरंग में ज्ञानस्वभाव की रुचि किए हुए हैं ।
इस कारण वह विषयों में लग रहा है तो भी अंतर में अरुचि है । उस अंतरंग से विषयों में अरुचि के प्रसाद से यह जीव घर में बसता हुआ भी अनेक कर्मों को क्षय कर रहा है । उस गृहस्थ की बात कह रहे हैं जिसके ज्ञान जग गया है । वह ज्ञानी गृहस्थ घर में रहता हुआ भी कर्मों का क्षय अपनी योग्यता माफिक बराबर कर रहा है । जैसे कोई मुनीम दुकान का सर्व भार संभालकर भी अंतरंग में उसे धन के प्रति यह विश्वास है कि यह मेरा नहीं है । वह जानता है कि यह सब धन सेठ का है । यह धन मेरा नहीं है । इस प्रकार ज्ञानी गृहस्थ घर में रहता हुआ भी यह जानता है कि यह धन वैभव सब कुछ मेरा नहीं है । मेरा तो मात्र ज्ञानानंद स्वभावी मैं चेतन सत् हूँ । ऐसी जिसकी दृष्टि होती है उसको अंतरात्मा कहते हैं । जो भी समागम मिले हैं वे साथ तो जायेंगे नहीं । इतना तो सबका निर्णय है कि जिसे लाखों की संपदा मिली है उसमें से एक नया पैसा भी उसके साथ नहीं जायगा । जिसको जितना धन मिला है उसका एक नया पैसा भी साथ नहीं जायगा । गया हो किसी के साथ तो बतलावों । आप लोगों में से किन्हीं के बाबा गुजर गए, पिता गुजर गए, चाचा गुजर गये पर किसी को क्या देखा है कि वे साथ में एक नया पैसा भी ले गये हैं? कोई कहे कि मैं इसे श्रम से कमाता हूँ, इस पर तो मेरा पूरा अधिकार है, यह साथ क्यों नहीं जायगा? तो भाई किसी के साथ नहीं जायगा । जो चीज तुम्हारे साथ नहीं जायगी उन विषयों को अभी से समझ लो कि ये मेरे नहीं हैं, ये वियुक्त होंगे । ये मेरे साथ नहीं चलेंगे । ऐसे विश्वास समागमों के संबंध में हो तो कितने ही कर्मों का क्षय कर लिया । बात वही चल रही है । केवल भावों का फेर है । मिथ्यादृष्टि भी घर में रह रहे हैं, सम्यग्दृष्टि भी घर में रह रहा हो, खाना पीना भी साथ चल रहा हो पर अंतर में इन दोनों में अर्थात् मिथ्यादृष्टि वे सम्यग्दृष्टि में महान् अंतर हो गया है । वह मुनीम दूसरे लोगों का हिसाब बताता हुआ कहता कि तुम पर मेरा इतना है । तुम्हारा हमारे पास इतना आया, इतना हमने जमाकर लिया, इतना हमारा तुम पर निकलता है, वचन बोल रहा है पर भीतर की श्रद्धा और है । भीतर में यह श्रद्धा है कि मेरा तो इसमें कुछ नहीं है । यह सब सेठ का है । पर वचनों से बोल रहा है कि मेरा तुम पर इतना निकलता है । वचनों से ऐसा कहते हुए भी मुनीम की श्रद्धा यह है कि मेरा कुछ नहीं है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष भी जिसने यह निर्णय किया है कि एक अणुमात्र भी मेरा नहीं है । मेरा निजस्वरूप ही मेरा है, वह घर में रहता हुआ यह मेरी स्त्री है, यह मेरा घर है, यह मेरा वैभव है, यह मेरी दुकान है । इतनी बातें क्या कहनी नहीं पड़ती? कहे बिना गुजारा नहीं चलता है पर कहते हुए भी यह श्रद्धा उस सम्यग्दृष्टि के बनी है कि मेरा कुछ नहीं है । जैसे आप मुसाफिरी में दिल्ली गये । किसी धर्मशाला में एक कमरा मिल गया, आपके प्रेमियों को भी अलग-अलग कमरे मिल गये । क्या आप उस समय यह नहीं कहते हैं कि यह मेरा कमरा है और यह कमरा आपका है अथवा यह मेरा कमरा है आप दूसरा कमरा ढूंढ लें पर श्रद्धा में क्या बसा है कि मेरा तो कमरा है नहीं, कुल चले जायेंगे । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि घर में रहता हुआ भी चूँकि जान रहा है कि मेरी आत्मा का तो मात्र मैं ही आत्मा हूँ, जो मेरे साथ सदा से है और सदा तक रहेगा ।
इस मेरे स्वरूप के अतिरिक्त परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है । जिसके ऐसा ज्ञान है ऐसा अंतरात्मा गृहस्थ का क्या यह नहीं कहता है कि यह मेरा घर है, दूसरे ने घर खरीद लिया है, तो क्या वह रजिस्ट्री कराने नहीं जाता है? वह यह भी कहता है कि बढ़िया मजबूत बनाना जिसमें कोई कमी न रह जाय । होश हवास से मैंने बेचा है, इसकी अच्छी-अच्छी रजिस्ट्री लिख दो । यह सब कुछ करते हैं फिर भी उसकी श्रद्धा यह है कि मेरा कुछ नहीं है । और कभी-कभी अपनी वृत्तियों में उसे हंसी भी आ जाती है कि मैं प्रभु के समान अनंत ऐश्वर्य का स्वामी होकर भी छोटे-छोटे वैभवों में कैसा लिप्त हो रहा हूँ । ज्ञानी अंतरात्मा अपने श्रद्धान के कारण घर में भी वह जल में कमल की भांति अलिप्त रहता है ।
एक दृष्टांत दिया है वेश्या के प्रेम का । वेश्या जिस किसी मुसाफिर को, पुरुष को, वचनों से प्रेम दिखाती है पर वेश्या के अंतरंग में क्या उस मुसाफिर के प्रति प्रेम है? रंच भी प्रेम नहीं है । केवल पैसा ठगने के लिये वचन बोलना पड़ रहा है । पर अंतरंग में प्रेम नहीं है । इसी तरह केवल पद्धति को ही देखते हैं । यह ज्ञानी गृहस्थ भी सबसे प्रेम के वचन बोलता है किंतु क्या भीतर में किसी के प्रति अनुराग है? नहीं । वह जानता है कि मेरा आत्मा का तो मात्र मैं ही हूँ । ऐसा ज्ञानी गृहस्थ जिसकी वृत्ति ऐसी है कि पुण्य के उदय के अनुसार आना है आयगा । उसमें ही मैं व्यवस्था बनाऊँगा । मैं उससे अधिक की चाह न करूंगा । मेरे पास जो धन है वह मेरी जरूरत से ज्यादा है―ज्ञानी यह सोचता है । पर अज्ञानी यह सोचता है कि अभी मेरे पास धन इतना ही है अभी और धन आवे तब मेरा गुजारा चलेगा । किंतु ज्ञानी सोचता है कि इतना धन भी मेरी आवश्यकता से बहुत अधिक है । अच्छा हमें यह तो बता दो कि कितना धन हो तो गुजारा चलेगा? कमेटी बनाकर प्रेसीडेन्ट चुनकर वोट लेकर यह निर्णय कर लो कि गुजारा कितने में होता है । गुजारा एक गृहस्थ का बढ़िया कितने में होता है, इसका निर्णय कर लो । क्या निर्णय आप दे सकते हैं? क्या 50 हजार की जायदाद में गुजारा हो सकता है? हमने बहुत कम सोचकर लगाया है । तो, एक जो हजारपति नहीं है, सैंकड़ापति ही है और घर में 10-5 प्राणी भी हैं तो उनका गुजारा कैसे चलता है? उनका भी गुजारा हो रहा है ना? ज्ञानी सोचता है कि जो मिला है वह भी मेरी जरूरत से ज्यादा मिला है, क्योंकि ऐसा न सोचे तो कोई आकर दे देगा क्या? जैसे लोग लक्ष्मी की मूर्ति बनाते हैं और दोनों हाथों से रुपया टपकाते हैं ऐसा कोई नहीं है कि ऐसा करने से वह मूर्ति रुपया दे दे और न कोई ऐसा लक्ष्मी नाम का देव है । इस लक्ष्मी की पूजा कर लेने से उसकी उपासना कर लेने से क्या द्रव्य आ जायगा? इस सनक में रहने वाले लोगों को देखा होगा कि गरीब से गरीब रहे । यह तो अपने निर्मल परिणामों का फल है । पूर्व में निर्मल परिणाम किया, पुण्य का बंध हुआ उदय हुआ और सर्व समागम हुए । जो मिला है वह मेरे लिये बहुत ज्यादा हो गया है―ऐसा स्वभाव होगा तो सुख होगा, संतोष होगा । इन बातों से तरसते हैं कि मेरी इज्जत मेरी पोजीशन माफिक हो जानी चाहिये । अरे इतनी भी पोजीशन का माप भी अपनी कल्पना से बढ़ा लिया है । और पोजीशन मेरे अनुकूल बढ़ जाय यह अपने अधिकार की बात नहीं है । हां ज्ञान बल बढ़ाकर पोजीशन का विकल्प मिटा लो यह आपके अधिकार की बात है । पर दुःखों से छूटना चाहते हो तो दुःखों से छुटाने वाला जो ज्ञान है उस ज्ञान को हम अपने अंतर में लायें तो दुःख छूट सकते हैं न संकटमोचन ज्ञान का तो आदर नहीं, करते और संकटों का आश्रयभूत बाह्यपदार्थों का आदर करें तो दुःख छूटेंगे या बढ़ेंगे । इसलिये अपने को सुखी करना चाहते हैं तो अपने को एकाकी मानकर अपने ज्ञानस्वभाव की रुचि करें और जो गृहस्थ हैं उन्हें अपने आप अवसर विधि मिलती है उस विधि में गुजारा चलता है । ऐसा गृहस्थी में रहकर भी संतोष कर सकें ऐसा अंतरंग ज्ञान होता है । यह अंतरात्मा गृहस्थी जब वैराग्य में बढ़ता है तब अपने समागमों का त्याग करता है । गृहस्थ समागम का त्याग करना बहुत ऊंचा सगुन है क्योंकि ज्ञानदृष्टि साथ हो तो वह अनेक संकटों से छूटकर ज्ञानरस का पान व अलौकिक आनंद को लेना चाहते हैं । आनंद तो अपने ज्ञान में है । बाह्यपदार्थों में आनंद नहीं है । जब बाह्यपदार्थों का समागम भी है तो उस समय भी आनंद बाह्यपदार्थों से नहीं आ रहा है किंतु अपने ज्ञान से कल्पनाओं से आ रहा है । नहीं तो कोई घर लखपति करोड़पति है तो उस घर के लोग क्यों दुःखी हैं, लाखों करोड़ों का धन होकर भी वे दुःखी है, किलस रहे हैं, क्रोध में भरे हैं । दिल नहीं थम सकता है । और बाजे लोग जो गरीब हैं और सुमति से रहते हैं तो उस सुमति के कारण वे गरीब होकर भी सुखी हैं । दुःख और सुख का संबंध ज्ञान की पद्धति से है । एक वृद्ध ब्राह्मण था, उसकी बुढ़िया स्त्री थी । एक छोटा बच्चा था और बच्चे की स्त्री थी, चार लोग जा रहे थे । रास्ते में एक जंगल मिला तो लौटते हुए मुसाफिर उनसे बोले कि अभी जंगल बहुत दूर है और वह जंगल मुलखना है उसमें एक राक्षस रहता है । वह पहिले प्रश्न करता है और जो प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाता है उसे खा डालता है । प्रश्न करना केवल खाने का एक बहाना मात्र है । तो चारों लौटे नहीं, जंगल में घुस गये । अब तो जंगल में ही डेरा डाल दिया, रात्रि में जागने की चारों ने ओसरी बाँध ली । पहिले पहर बुड्ढा दूसरे में बुढ़िया तीसरे में लड़का और चौथे पहर में बहू, इस तरह से पहरा देने का निर्णय किया पहिले बुड्ढा पहरा देने लगा । राक्षस आता है और बुड्ढे से प्रश्न करता है, एकोगोत्रे । सीधा अर्थ नहीं लगाना, वह कविता बनाता है गोत्र में पुरुष वही एक है जो समस्त कुटुंब का पोषण करे । उत्तर मिलते ही खाना तो दूर रहा और इनाम देकर चला गया । दूसरे समय में बुढ़िया पहरा देने लगी, राक्षस आया और प्रश्न करता है ‘सर्वस्य द्वे’ तो उसकी कविता वह बुढ़िया बनाती है ‘सर्वस्य द्वे सुमतिकुमति संपदापत्तिहेतु ।’ सब जीवों की ये दो बातें संपत्ति और विपत्ति के कारण हैं । कौनसी दो बातें? सुमति और कुमति । जहाँ सुमति तहँ संपत्ति नाना, जहाँ कुमति तहँ विपत्ति निधाना । भैय्या यह परिग्रह कोई चीज नहीं है, मनुष्यों को तुच्छ समझकर उसे ठुकराना नहीं चाहिये । सुमतिपूर्वक रहना चाहिये । एक सादगी पुरुष जो होता है वह किसी परिग्रह की कोई वांछा नहीं रखता है । वह जानता है कि जो परिग्रह की वस्तुएँ हैं उनमें सरकार दुगुना टैक्स लगायेगी । खैर न्यारा रहकर भी प्रीति हो एक में रहकर भी प्रीति हो पर जिसमें धर्म है, समता है, सुमति है वहां पर कोई आपदा नहीं है । अब वह राक्षस लड़के की जब बारी आती है तो उससे प्रश्न करता है । ‘वृद्धो यूना’ लड़के ने उत्तर दिया―सह परिचयात् त्यज्यते कामिनिभिः ।
स्त्री हो युवती और पति हो बूढ़ा तो उस युवती का कदाचित् किसी अन्य पुरुष से अंतरंग से प्रेम हो जाय तो वह वृद्ध पुरुष को यों ही छोड़ देती है । उसे भी राक्षस ने इनाम दिया । अब चौथी बार बहू ने पहरा दिया, राक्षस आया उससे यह प्रश्न किया ‘स्त्री पुंवच्च’ ? बहू ने उत्तर दिया―प्रभवति यदा तद्धि गेह विनष्टम् । जिस घर में स्त्री पुरुष की तरह स्वच्छंद अर्थात् चताचाली हो जाती है वह घर नष्ट हो जाता है, उसे भी राक्षस इनाम देकर चला गया । तो देखो ज्ञान में इतना बल है कि संकटों के बीच भी रहकर सुखी है, और कोई मनुष्य के सुखों के साधन हैं फिर भी कल्पना करके दुःखी बनते रहते हैं । ज्ञान में ही सामर्थ्य है कि सुखी हो लें अथवा दुःखी हो लें । तो हमें सच्चे ज्ञान का अर्जन करना है । और इन बाह्य चिंताओं से यह जगत रुलता फिरता है । अरे बाह्यपदार्थों की उपेक्षा कर दो, उनको पुण्य पर छोड़ दो । जो होना होगा सो होगा । जो ज्ञानी पुरुष है, जो ज्ञानी गृहस्थ है वह भी छोड़ देता है । बहुत से तो अभी मिलेंगे । डबरा में राजाराम है परवार जाति के, उनका नियम है कि दुकान में 500 रुपया का जब बिक जाय तब दुकान बंद करके और अन्य काम करना, पूजन करना, स्वाध्याय करना आदि, दुकान पर बहुत से ग्राहक खड़े रहते हैं और वे विलंब करके बैठे रहते हैं । 500 का सामान तीन चार घंटे में बिक जाय बस बंद कर दिया । इतनी उनकी ख्याति है कि थोड़ी ही देर में 500 का बिक जाता है । बस वे दुकान बंद करके पूजा स्वाध्याय आदि करने चले जाते हैं । तो पुण्य पर छोड़ा कि नहीं छोड़ा? तो इन बाह्य बातों को पुण्य पर छोड़ो, अपने हित की बात को अपने ज्ञान पर छोड़ो । पदार्थों से न्यारा और अपने गुणों से तन्मय को सिद्ध कहते हैं । याने मोह में जीव अपने को और अजीव में मिला हुआ कर देता है । वह मिला हुआ कल्पना में न रहे, तो सिद्ध आत्मा का ज्ञान होता है अर्थात् मैं खालिस आत्मा इसके साथ कुछ भी संयोग लगा हो उसको न देखकरकेवल अपने आपके सत्य के कारण जो मैं हूं, मुझमें है, केवल उसको निहारना सो सिद्ध आत्मा कहलाता है । वह सिद्ध आत्मा कैसा है? उसका वर्णन इस दोहे में किया जा रहा है―