वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 42
From जैनकोष
देहि वसंतु वि हरि हरवि जं अज्जवि ण मुणांति ।
परमसमाहि तवेण विष्णु सो परमत्पु भणंति ।।42।।
परमसमाधिरूप तपस्या के बिना देह में बसते हुए भी जिस आत्मतत्त्व को हरि हर आदिक अब तक भी नहीं जानते हैं उसको तुम परमात्मा जानो । यह देह इस परमात्मा से जुदा है । देह में परमात्मा बसता है यह व्यवहारनय का कथन है और शुद्ध ज्ञानस्वरूप में परमात्मा बसता है यह निश्चयनय का कथन है । यह देह परमात्मस्वभाव से अत्यंत जुदा है, उसमें परमात्मा का बसना बताना अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है, अर्थात् परमात्मा जुदा है, देह जुदा है । देह का परमात्मा नहीं है, परमात्मा का देह नहीं है । यह परस्पर में अत्यंत असद्भूत है । दो की बात चल रही है सो यह व्यवहार है । यह आत्मा देह में बसा हुआ है यह बात असत् है । अत: असद्भूत है । देह आत्मा के एक क्षेत्रावगाह में है, निमित्त नैमित्तिक बंधन में है इस कारण अनुपचरित है, यों यह कथन असद्भूत व्यवहारनय से हुआ है ।
यद्यपि यह परमात्मा व्यवहार से देह में बस रहा है तो भी समाधि बिना इसको हरिहरादि कभी नहीं जानते । समाधि एक तप है । यदि कहा जाये कि घर में, वैभव में, शान में किन्ही में भी दृष्टि न देकर केवल अपने में अपने ज्ञानस्वरूप को देखो तो ऐसा करने के लिए पहिले कठिनाई होती है । अंतःस्वरूप के आनंद को तो उसके मन में डर बना हुआ है और इन बाह्य अर्थों में या कहीं गप्प छिड़ जाये तो उन गप्पों में उसका मन बड़ी अच्छी तरह से लग जायेगा, कहानी में अपना समय व्यतीत कर देगा ।
अरे भैया, मन 24 घंटा बाह्य चीजों में लगा रहता है यह अच्छा नहीं, कुछ समय को तो इन रागों से निकलकर अपने ज्ञानस्वरूप में रमने का यत्न करो । यह ज्ञानोपयोग एक बहुत बड़ा तप है । इस तप में कठिनाई नहीं है । इसमें विलक्षण नित्य आनंदरूप अमृत रस का स्वाद आता है । जैसे जब तक नमक की चींटी नमक की डली को मुँह में रखे हुए है तब तक मीठे का स्वाद किस प्रकार जान सकती है? इसी प्रकार जब तक हम विषय कषायों में चित्त जुड़ाये हुए हैं तब तक हम समाधि का आनंद नहीं ले सकते हैं । राग हटे तो इसको आत्मीय आनंदरस का स्वाद आये । उस आनंद के अनुभव के बिना यह परमात्मतत्त्व जाना नहीं जा सकता । वीतराग सर्वज्ञदेव परमात्मा उसको कहते हैं । जिस परमात्मा की अनुभूति के बिना ये सब धर्म-व्यामोही जीव कल्याण चाहते हुए भी ऊपर ही ऊपर लौटते रहते हैं ।
परमात्मतत्त्व के आश्रय बिना शांति व संतोष नहीं होता है । कोई मनमाफिक ही काम हुआ, आमदनी अच्छी हो गई, जो चाहता था वह बन गया, उस काम के होने पर यह एक संतोष की सांस लेता है, बड़े आराम से सुख से बैठता है तो इसकी संतोष लेने की पद्धति है सो उसे भी देखो, यह अपने आपकी ओर ही मुड़ता हुआ, झुकता हुआ विश्राम लेता है । इस संतोष के बिना बाह्य काम में लगता हुआ दुःखी है । संतोष की सांस लेगा तो अपने में झुकता हुआ लेगा, बाह्य में झुककर नहीं । यह लौकिक सुख की बात कह रहे हैं तो चाहे बाह्य पदार्थों के जानने से उसका लौकिक सुख मान लो पर लौकिक सुख में से संतोष करने का जो ढंग है उसके अनुसार वह अपने आप में सिमटता हुआ करता है, बाह्य की ओर झुककर संतोष नहीं करता है । काम बन जाने पर भी जो संतोष करेगा वह अपने में सिमटता हुआ संतोष करेगा । अपने-अपने अनुभव में विचार लो कि जो कोई बाहर में बहुत नहीं लगा और केवल अपनी ही धुनि बनाने में रहा उसे इस आत्मा में विलक्षण संतोष होगा या नहीं ।
यहाँ प्रकरणवश हर और हरि के संबंध में उनका चरित्र बतलाते हैं । हरि कौन कहलाता है? नारायण और हर कौन कहलाता है? रुद्र । ये दो पदवी होती है । रुद्र 11 होते हैं और नारायण 9 होते हैं । उन सब नारायणों में से सबसे अंतिम नरायण श्री कृष्णजी हुए हैं, और श्री कृष्ण के पिता का नाम वसुदेव था । तो उनके पुत्र होने से इन्हें वासुदेव कहते हैं । जितने भी नारायण हुए हैं वे सब स्वर्ग से अवतार ले करके जन्म लेते हैं । नौ के नौ ही नारायण स्वर्ग से आते हैं । वे सामान्य मनुष्य नहीं थे, महामानव थे । साधु हुए, तपस्वी हुए, उन मनुष्यों ने बड़ी तपस्या की किंतु उस तपस्या में निदान आ गया कि मैं ऐसे स्वर्ग में रहूं, चक्रवर्ती बनूँ, राजा बनूँ, ऐसा निदान आ गया ।
वे स्वर्ग में उत्पन्न हुए, सो भैया ! स्वर्ग में तो लौकिक आनंद बहुत है । उनको जो शरीर मिला वह वैक्रियक है । मनुष्य लोक में या अन्य कहीं जो उनका शरीर आता है वह मूल शरीर नहीं आता, किंतु वैक्रियक-वैक्रियक शरीर आया करता है । वहाँ पर उन्हें कभी भी भूख प्यास नहीं सताया करती है । वर्षों बाद भूख प्यास लगती है और भूख प्यास लगी तो कंठ से अमृत झड़ जाता है । तो उससे भूख प्यास मिट जाती है । देवियों के सुख में, भोगों में रमण करते है, उसमें आनंद लूटा करते हैं, उनके भोगों में आशक्ति है । उसकी दृष्टि से देखा जाये तो यह मनुष्य कहीं अच्छा है । कम से कम कुछ समय खाने कमाने में तो लगाता है । उनकी तरह तो उन भोगों में नहीं रहता, उन्हें न खाना, न कमाना, न खिलाना कुछ काम नहीं है । उनकी आयु अनगिनती है । मगर मरते वे हैं और वहाँ से उतरकर जन्म लेते हैं ।
बैकुंठ की बात प्रसिद्ध है । बैकुंठ मानने वाले कहते हैं कि यह जीव तप, दान करके बैकुंठ पहुंचता है और वहाँ अनगिनते वर्षों रहता है, और बाद में जब ईश्वर की मर्जी होती है, जब ईश्वर ने संसार को खाली देखा तो उन्हें वहाँ से ढकेल दिया जाता है । वह बैकुंठ क्या है? उसका शुद्ध नाम है बैकंठ । लोक का नक्शा देखा होगा ! दोनों पाँव फैलाकर खड़े हुए पुरुष के आकार लोक का नक्शा है । उसमें देखा होगा नव ग्रैवेयक कंठ स्थान में है । अभव्य जीव भी द्रव्यलिंग धारण कर साधु बनकर वह ग्रैवेयक तक जाता है । वह ग्रैवेयक इस कंठ के स्थान पर पड़ता है । जैन सिद्धांत में उसका नाम ग्रैवेयक है । ग्रीवा भी कंठ को कहते हैं । द्रव्यलिंगी साधु तपोबल से देवायु का बंधकर बैकुंठ तक उत्पन्न हो सकते हैं । वे वहाँ पर कई सागरों तक रहते हैं । वे ही बैकुंठ के प्रभु हैं । अपनी आयु की समाप्ति में चूंकि उनका पुण्य खतम हो जाता है तो कर्म की प्रेरणा होती है कि अब जावो, तुम्हारा पुण्य खतम हो चुका, फिर वे नीचे जाकर जन्म लेते हैं । ये नारायण सब स्वर्ग से ही तो आये हुए जीव हैं । स्वर्ग से उनका अवतार होता है । ऊपर से नीचे जगह पर जन्म लेने को ही अवतार कहते हैं । मनुष्य हुआ, तीन लोक का अधिपति हुआ । सभी नारायण तीन खंडों के मालिक होते हैं । हर होता है महादेव । यह भी महापुरुष है । यह महापुरुष पहिले भव में जिनदीक्षा धारण करके स्वर्ग गया था । आयु की समाप्ति पर स्वर्ग से आकर महादेव के भव में दीक्षा ली और बाद में पुण्य विशिष्ट समाधि लगी जब इसको सैकड़ों विद्यायें सिद्ध होती हैं तब वे विद्यायें देवी के रूप में आकर विनती करती हैं । महाराज ! जो हुक्म हो बताइये । तब वे उन लौकिक इच्छाओं से आकृष्ट हुए और पर्वत राजा की सुपुत्री से पाणिग्रहण भी किया । हरिहर जैन सिद्धांत में त्रेसठशालाका के पुरुष माने गये हैं । ये नियम से मोक्ष में जावेंगे ।
वहाँ यद्यपि रत्नत्रय की आराधना की, मोक्ष के लिए उद्यम चला और ये भव्यजीव हैं फिर भी वीतराग निर्विकल्प समाधिभाव हो तो उसही भव में मोक्ष होता है । परमात्मा को जो नहीं जानता उसका उत्कृष्ट तप भी उस परमात्मतत्त्व को प्राप्त नहीं कर पाता । यह बात साधु की है । आप भी ख्याल छोड़ दो, घर परिवार कुटुंब के उनके विकल्पों से कुछ निवृत्त होकर विश्राम करके बैठ जावो तो प्रभु के दर्शन हो जायेंगे । कोई कहे कि यह तो बड़ा कठिन काम है । सो भैया, घबड़ाना नहीं कि 24 घंटा विषय कषाय में न रहें, पर कभी-कभी एक मिनट तो ऐसा भाव बनायें कि मैं पररूप नहीं हूँ किंतु हूँ अपने स्वरूप मात्र । ऐसी क्या आफत आयी है कि 24घंटे में से एक मिनट को भी इन सारे समागमों का ख्याल नहीं छोड़ा जाता है । यदि थोड़े समय को ख्याल छोड़ दिया जाये तो ऐसा वहाँ क्या अपना-नुकसान हो जायेगा? वह तो अपने स्वभाव की ओर जाता है । जो है सो है सो ठीक है । पर दो मिनट को भी अपनी बुद्धि न करे, स्वभाव के दर्शन नहीं किये जायें तो फिर कल्याण का मार्ग नहीं मिलेगा ।
रोज की चर्या है, रूटीन बन गई है कि नहाना पूजन करना, जाप देना, टहलना यात्रा करना इत्यादि करने से इतने मात्र से आत्मशुद्धि नहीं होती है । यह एक साधना है । इन साधनों में रहकर कुछ मौका मिल जाता है । तुम्हारे धर्म करने का यह स्वरूप नहीं है किंतु धर्म के साधन होने से जिनको कि धर्म कहां जाता है, इस प्रसन्नता में रह करके हमें अवसर मिलता है कि हम अपने परिणामों को निर्मल बनायें । तो धर्म के लिए उन साधनों में रहकर यही प्रयत्न करना पड़ेगा कि सर्व बाह्य अर्थों का ख्याल छोड़कर ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्योतिमात्र हूँ, ऐसी प्रतीति करनी होगी । जैसे एक बालक कहता है कि माँ मैं भी पानी में तैरना चाहता हूँ, मुझे भी तैरना सिखा दो । हाँ हाँ बेटा तू तैरना सीख जायेगा । माँ ने कहा चलो अभी पानी में, सिखाती हूँ । तो वह बच्चा पहिले साथियों की डूबने की विपत्ति देख चुका था सो बच्चा बोला माँ मुझे तैरना सिखा दो मगर पानी को नहीं छूना पड़े । सो भैया यह कैसे हो सकता है? ऐसे ही उपयोग को इस निर्मल ज्ञानस्वरूप या आत्मस्वरूप में नहीं लगाना पड़े और धर्म की प्राप्ति हो जाये यह कैसे हो सकता है?
देखो यह कितना गजब है कि जो बात अपनी नहीं है वह तो सरल लग रही है और जो बात अपनी है वह कठिन लग रही है साक्षात् उपादेयभूत और मोक्ष की सिद्धि करने में समर्थ यह शुद्ध आत्मा है । सबसे निराला, शरीर से भी पृथक्, कर्म के उदय से होने वाले रागादिक भावों से भी पृथक् केवल ज्ञानमात्र इस आत्मतत्त्व का जो आश्रय करता है वह ही पुरुष निकट भव्य है, यह सदा को संकट से छूट जाता है । कुछ भी ज्यादा नहीं बताना । तो भैया, इतना तो यह सोचता जाये, घर में, दुकान में बैठे हुए काम करते हुए कि यह सब झंझट है, जंजाल है । हम से इतना भी नहीं बन सकता तो धर्म की बात छोड़, फिर तो इस रास्ते की ओर मुख भी नहीं करना चाहिए । ज्ञानमय आत्मतत्त्व में लगना भी कठिन लग रहा है और बाह्यपदार्थों को जंजाल भी नहीं मान सकता, तब फिर धर्म में लगने की गुँजाइश कहाँ है?
देख लो भगवान ने कल्याण का उपाय सम्यग्ज्ञान बताया है । जो बात सच्ची है उसे मान लो, इतनी ही तो बात है । और कुछ तो नहीं कहते । सबसे बड़ा संकट तो भ्रम ही है । भैया, परिवार को छोड़कर दूसरे भव को जाना पड़ेगा । कभी तो छोड़कर जाना पड़ेगा, और उन सबको छोड़कर यह जीव चला जायेगा । यहाँ के मोह से लाभ क्या है? घर में भी बड़े संक्लेश हैं कि वार्तालाप के संकट आयें तो इनको सम्हालो । सबसे बड़ा संकट सबकी कषायों को सम्हालने का है । यह बच्चा रूठ गया और उसको मनावो, तो कभी स्त्री रूठ गयी उसको मनावो, भैया रूठ गया तो उसको मनावो । सबको प्रसन्न करने की चेष्टा करो, चिंता करो । कोई किसी प्रकार डाकू द्वारा किसी को कोई संकट आ जाये तो उसे भी बरदास्त करो । और हम तो गिना क्या सकते हैं । संकटों का वर्णन तो दस गुना आप कर सकते है । तो कम से कम इस समागम को संकट तो मान लो, झंझट तो समझलो इसमें मौज न मानो तो इतने ही भाव के बाद फिर कुछ आगे प्रगति हो सकती है ।
ये जो भी इष्ट लगने वाले पदार्थ हैं वे इष्ट नहीं हैं । किंतु इस आत्मा से ये एक दुश्मनी निकालने के लिए शत्रुता का रूप लेकर आये हैं सामने । जैसे कोई बालक पैदा हुआ है, बचपन में दो चार महीने देखो तो बड़ा सुखी, बड़ा सुंदर और उसकी चाल भी बड़ी बुद्धिमानी की है । जिसे देखकर यह मालूम पड़ता है कि इसका पुण्य इसके सामने नाच रहा है । और 6 महीने का होकर वह मर जाये तो लोग क्या समझाते हैं उस पिता को कि यह पूर्वभव की दुश्मनी मंजाने के लिए आया था । अर्थात् तुम्हें दुःखी करने आया था । एक बहुत बड़ा सुंदर ज्ञानी आया था जिसमें तुम मोहित हो गये जो सबको अच्छा लगा, अब गुजर गया तो इससे अधिक दुःख हो रहा है । पैसा, सोना चाँदी मकान स्त्री सबके सब जो अपने सामने आये हैं वे एक चैतन्यस्वरूप प्रभु पर प्रहार करने के लिए आये हैं । ये सब क्षणिक हैं । वियोग तो हो जायेगा पर जितने समय ये हैं उतने में भी बुद्धि हर ली जायेगी कि उसका आगे पैर भी नहीं ठीक पड़ेगा ।
इस प्राप्त समागम में हम खुशी नहीं मनाएं और इसे जाल ही समझें और यह भावना बनायें कि हम प्रभु के दर्शन को आते, ध्यान करते, ज्ञान स्मरण करते, इस सब प्रयत्न के बावजूद मुझे आत्मरुचि प्राप्त हो, कोई उपद्रव हो उसकी सहनशीलता प्राप्त हो । उसमें कोई मुझे नहीं माने और गालियाँ तक दे डाले वह भी बड़ा मौज मालूम हो । हे प्रभो ! तत्त्व ध्यान के प्रकाश में मेरी बुद्धि ऐसी स्वच्छ बने कि उसके लिए इस आत्मा में एकत्वस्वरूप दृष्टि प्राप्त हो इसे अकेला रहना ही रुचे, इसको अपने आपके प्रदेशों में केवल अपने आपमें अकेला ही अनुभव करना बने । महाराज ! और कुछ इच्छा नहीं है इस प्रकार जो परमात्मा की शुद्ध भावना, पूजा, ध्यान करेगा उसको यह शुद्ध अवस्था मिल जायेगी ।
जिसके पास जो चीज नहीं है उसको वहाँ माँगे तो वह चीज न मिलेगी और जो मिल सकती है वह भी न मिलेगी । जैसे कोई ज्ञानी के पास आ करके धन मांगे तो न उसे धन मिलेगा और न ज्ञान मिलेगा, और वह ज्ञान सीखने आयेगा तो उसे ज्ञान तो मिल जायेगा कम से कम । प्रभु के पास न धन है, न वैभव है तो उनसे यदि मांगें तो न धन मिलेगा और न मोक्ष मिलेगा । दोनों ही गए । एक निर्णय कर लो कि प्रभु के ध्यान में मैं केवल मोक्षमार्ग का दर्शन ही चाहता हूँ ।
जिस परमात्मा के ज्ञान में यह सारा लोकालोक प्रकाशित होता है फिर भी जो लोकालोक में यह तन्मय नहीं होता है, उसको हे प्रभाकर भट्ट ! तू परमात्मा जान । परमात्मा के मात्र जानन क्रिया होती है । उसे अपने आप में रागद्वेष संकल्प विकल्प से रहित होकर जानो । जब तक अपनी ज्ञान भूमिका में अज्ञान का अभाव नहीं होगा तब तक परमात्मा के दर्शन न होंगे । परमात्मतत्त्व दो प्रकार का है । एक कारण परमात्मा और एक कार्य परमात्मा । कार्य परमात्मा तो अरहंत और सिद्ध भगवान हैं । कारण परमात्मा सब जीवों में विराजमान अनादि अनंत अहेतुक चैतन्यस्वरूप है । तो वह चैतन्यस्वरूप जब अपने अनुभव में आता है तब कैवल्य का, मुक्ति का कारण होता है । इस परमात्मतत्त्व को अनेक बड़े-बड़े महापुरुष भी बड़ी ऊँची तपस्या करके भी प्राप्त नहीं कर पाते, यदि उनकी एकत्व की दृष्टि नहीं होती । रत्नत्रय की आराधना के प्रति जिसके लगन है, उसके वीतराग निर्विकल्प अनुभवस्वरूप रत्नत्रय के स्वरूप में मोक्ष होता है । अनात्मज्ञानी को मोक्ष नहीं होता ।
इस गाथा में यह बताया गया है कि जिस शुद्धात्मा को जो कि उपादेयभूत है, जानने वाले आराधना में समर्थ है उस परमात्मतत्त्व को बड़े-बड़े महापुरुष भी निर्विकल्पसमाधि बिना नहीं जान पाते । स्थूल दृष्टि से देखो कि दुनिया की कौनसी चीज ग्रहण करने योग्य है सब धोखा देने वाले हैं, घर, मकान, परिवार, दुकान वैभव में से कौनसी चीज ऐसी है जो आत्मा के लिए सत्य शरण है? कुछ नहीं । यह देह भी तो इस जीव का शरण नहीं होता । केवल अपने आपका जो सहज स्वरूप है, दुःख से रहित है, विकल्पों से रहित है, केवल शुद्ध स्वरूप जानन ही जिसका कार्य है ऐसी उस चैतन्य स्वरूप की दृष्टि ही शरण है और वही धर्म है ।
अब इस परमात्मतत्त्व के संबंध में यह बात बता रहे हैं कि जो उत्पाद व्यय रूप पर्यायों से सहित है वही द्रव्यात्मक दृष्टि में पर्याय से रहित है, वही परमात्मा है । निर्विकल्पसमाधि द्वारा देह में भी ऐसा परमात्मतत्त्व देखा जाता है ।