वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 43
From जैनकोष
भावाभावहिं संजुवउ भावाभावहिं जो जि ।
देहिजि दिट्ठिउ जिणवरहिं मुणि परमप्पउ सो जि ।।43।।
जगत के प्रत्येक पदार्थ उत्पाद व्यय ध्रौव्य करि संयुक्त हैं । यह आत्मा भी उत्पादव्यय ध्रौव्य करि संयुक्त है । इसमें नवीन पर्याय होते हैं, व पूर्व के पर्याय विलीन होते हैं फिर भी आत्मा का स्वरूप नहीं मिटता है । इस तरह उत्पाद व्यय ध्रौव्य करि सहित यह आत्मा है, इसको कहते हैं द्रव्यपर्यायात्मक । जो द्रव्य है वह कभी मिटता नहीं और जो पर्याय र्ह वह क्षणक्षण में मिटता है । कोई नवीन पर्यायों में जन्म लेता है तो पुरानी पर्याय का अभाव होता है । किंतु द्रव्यात्मक दृष्टि से देखा जाये तो न कोई चीज उत्पन्न होती है और न कोई चीज मिटती है । ऐसे यह वीतराग निर्विकल्प सत्य आनंदस्वरूप समाधि के द्वारा जो ज्ञानघन पदार्थ देखा गया है उसको ही तू परमात्मा जान ।
भैया, सही जानन क्या कहलाता है? उसका अनुभव कर लें । मिश्री जैसी मीठी है उसे चख लें तो पूरी तौर से जानन हो जायेगा और उसे बातों से जानना चाहें कि यह मिश्री ऐसी है तो इसके जानन में एक कमी है साक्षात जानन है उसमें व शब्दों के जानन है उसमें महान अंतर है । इस परमात्मा का जानन साक्षात तो अनुभव से है । अनुभव करने के लिए यह यत्न पहिले करना होता है कि पर वस्तु को भिन्न और असार जानकर उनके विकल्प को तोड़े, अपने आपको सबसे निराला जानें, इसमें किसी दूसरी चीज का संबंध नहीं । केवल प्योर, खालिस अपने आत्मतत्त्व को समझो तो वही परमात्मतत्त्व का यथार्थ जानन होता है ।
यह परमात्मतत्त्व सर्व अवस्थाओं में है जैसे अरहंत सिद्ध भगवान के कोई गति नहीं है, न नरक, न मनुष्य, न देव न अन्य, इस प्रकार अपने आपमें जो अपना ज्ञानस्वभाव है उस ज्ञानस्वभाव में कोई गति नहीं है व यह परमात्मतत्त्व न नारकी है, न मनुष्य है, न तिर्यंच है और न देव है । जैसे अरहंत सिद्ध भगवान इन झंझटों से दूर हैं इसी प्रकार हमारा सहजस्वरूप इन झंझटों से दूर है । किंतु इस आत्मा में वैभाविक शक्ति है जिसके कारण अनादि से पुद्गल कर्मों का निमित्त पाकर यह मनुष्य देव आदि रूप बन रहा है । पर इसके स्वभाव को देखो तो इन झंझटों से मुक्ति मिल सकती है । इंद्रियजातियाँ 5 होती हैं । वे भगवान में नहीं हैं और मेरे ज्ञान स्वरूप में भी नहीं हैं । पर वैभाविक शक्ति के कारण पुद्गल कर्मों का निमित्त पाकर इसमें यह इंद्रियजाति उत्पन्न हो गई । 6 कार्यों में से सिद्ध भगवान के एक भी कार्य नहीं है तो मेरे इस परमात्मतत्त्व में भी कोई कार्य नहीं है ।
हाय ! उपाधि के संबंध में अपने ही भ्रम से इस संसारी जीव की क्या परिस्थिति बन गई है? शरीर से बँधा है, फंसा है, बड़ी बेचैनी है, मेरा कुछ भी तो नहीं है यह मेरी स्त्री है, बच्चे हैं, मकान हैं पोजीशन है इन चीजों में हमारा क्या है? जो चीज सिद्ध भगवान में नहीं है वह मेरे स्वभाव में भी नहीं है । न योग है न कषाय है, कोई भी विकार सिद्ध में नहीं है और मेरे स्वभाव में भी नहीं है । शुद्ध आत्मा की उपलब्धिरूप ध्यान किया जाये तो वह परमात्मा अपने को दृष्ट हो सकता है । यह जीव अमूर्तिक है, इसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं है, केवलज्ञान और आनंद स्वभाव वाला है । यह चमड़ा हड्डी मांस स्वरूप नहीं है ।
जैसे ईंधन में सर्व ओर अग्नि व्याप्त रहती है, पर अग्नि अग्नि है, ईंधन ईंधन है । अग्नि गर्म स्वरूप है और ईंधन पकड़ ली जाने वाली चीज है । ईंधन को पकड़ लें, जलते हुए ईंधन को पकड़ ले पर वास्तव में आग पकड़ी नहीं जा सकती । पकड़ा क्या है? ईंधन, कोयला । आग उष्णभाव रूप है और ईंधन आकार वाला है । इसी प्रकार यह देह हाड़ मांस के आकार वाला है और इसमें सर्वत्र व्याप गया जो जीव है वह आनंद मात्र है । जानन कुछ चीज है कि नहीं? इस जानन को किसीने देखा है क्या? आनंद तो सभी को आता है लेकिन उस आनंद को किसी ने देखा नहीं, किसी ने पकड़ा नहीं किंतु इसका परिचय देखे व पकड़े से भी अधिक होता । ज्ञान और आनंद-भावरूप तत्त्व है, और यह आत्मा भी भावरूप है । ज्ञानी पुरुष आनंद-स्वरूप को, केवल आत्मा की इस पद्धति से देख पाता है कि देखने की इच्छा करने वाले पुरुष सकल पदार्थविषयक राग द्वेष संकल्प विकल्प को दूर कर दें ।
भैया, यह अज्ञानी भी पर में कुछ कर नहीं सकता किंतु कल्पना से कर्तृत्व का गर्व करता है कि मैंने बहुत बड़ा काम किया । जैसे बैल साँड एक गाँव के निकट आकर एक घूरे को अपने सींगों से उखाड़ कर जिसमें कि कुछ कूड़ा उसकी पीठ पर भी जा रहा है । थोड़ा सा कूड़ा उठा कर वह गर्व से टाँगों को फैला कर, पूंछ को ऊंची करके मुंह को उठाकर गर्व के साथ यह अनुभव करता है कि मैंने इतना काम कर डाला । इस प्रकार अज्ञानी जीव परवस्तु के रागवश परवस्तु में विकल्प करके गर्व से अपना सिर उठाता है, अपने आपमें अहंकार करता है कि मैंने इतना बड़ा कार्य कर डाला । कितना कर डाला, तो उसका फैसला मरण के बाद हो जायेगा । तुमने 60,70 वर्ष में कितना काम किया या जिसमें इसका नाम हो रहा है वह सब मरण के बाद इससे पूछो तो नहीं बता पायेगा । जैसे कोई इस भव में पूछे कि तुमने पूर्वभव में कितना कार्य किया और उसमें से तुम्हारे साथ है कुछ? उत्तर आयेगा नथिंग, कुछ नहीं ।
जितने कार्य बनते जा रहे हैं उन सब पदार्थों के साथ इसका कोई संबंध नहीं है । यह विकल्प करके अपने को बड़ा मानकर श्रम कर रहा है । यह आत्मा तो ज्ञानानंदस्वरूप है । यह मात्र ज्ञान का काम करता है । कुछ भी जाने, जानता जावे । जानने में इसका अधिकार है, इससे आगे बढ़ता है तो यह फंस जायेगा । इसे चैन नहीं है । जैनसिद्धांत के मर्म को तत्वार्थसूत्र के दो सूत्र वस्तुस्वरूप को और मोक्षमार्ग को बता देते हैं । एक तो है सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: और दूसरा सूत्र है उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् सत् । इन दो सूत्रों से सब काम निकल आया ।
आत्मा की रुचि होना सम्यग्दर्शन, आत्मा का ज्ञान होना, सम्यग्ज्ञान, और आत्मरमण करना सो सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता मोक्ष का मार्ग है । तुम्हें संसार से छूटना है तो हे जीवों ! सबसे निराले अपने आत्मतत्त्व को निहारो और उसमें ही रम जावो, यही संकटों से छूटने का उपाय है ।
खरगोश, जिसके बड़े कान होते हैं उसके पीछे एक शिकारी कुत्ता लग गया तो खरगोश उसे देखकर बड़ी छलांग मारकर झाड़ी में घुस गया पर अब भी भय के मारे उस झाड़ी में से भी ढूंढ़ता है और उसे देखकर भय से झाड़ी में नहीं रहता और वहाँ से उस शिकारी कुत्ते के डर के मारे भाग जाता है । अरे खरगोश! तू उस झाड़ी में ही बैठा रह और अपने उन बड़े कानों से आँखों को ढक ले । भैया, यह आंखों को ढक ले, तो जान जायेगा कि मेरा विरोधी कहीं कोई भी नहीं है । तब तू सुरक्षित रहेगा ।
इसी तरह खरगोश के मानिंद जीव के पीछे नाना व्याधियां लगी हैं परिग्रह संबंधी और ख्यालात संबंधी भी । यह कुछ-कुछ थोड़ा भगवान की शरण में आकर उस परमात्मतत्त्व की सुरक्षित झाड़ी में थोड़ासा घुसता है मगर इसको संसारी जाल लगा है तो अपने घर से निकल कर बाहर देखता है । उसे यह मालूम नहीं कि मेरी रक्षा इस परमात्मतत्त्व की झाड़ी में है । मेरा हितू, मेरा सुखदाता, मेरा सर्वस्व मेरे में है । मेरे में कोई विपदा डालने वाला है कहाँ? बाहर क्यों ढूंढ़ता है? तू सुरक्षित रहेगा ।
काम तो भैया ! सब सीधा है । गृहस्थधर्म है तो गृहस्थ धर्म का पालन करो । गृहस्थ धर्म के पालन में क्या-क्या होता है? धर्म के अर्थ पहिला काम तो सम्यक्त्व का है । इसके बिना श्रावक धर्म का भी प्रारंभ नहीं होता है सो सम्यक्त्व के योग्य ज्ञान चाहिए । उस ज्ञान का उद्यम करो । वस्तु के स्वातंत्र्य का परिणमन सम्यग्ज्ञान कहलाता है । प्रत्येक पदार्थ अपने ही स्वरूप से है पर के स्वरूप से नहीं है । यह देह अनंत परमाणुओं का पिंड है । ये पर पदार्थ हैं, यह मैं आत्मा हूँ, स्वतंत्र ज्ञानमय हूँ । सर्व पदार्थ स्वरूपत: सत् हैं । किसी का कोई स्वामी नहीं है । ऐसा ज्ञान करके अपने जीवन में उस ज्ञानस्वभाव का अनुभव कर लें तो उस अनुभव के साथ सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । शांति का मूल उपाय सम्यक्त्व है ।
भैया, कोई भी काम हो धुनि बन जाती है 24 घंटे की, तब काम होता है । लोक में देखो शादी कितने सेकेंड में होती है? जितने सेकेंड में 7वीं भांवर पड़ती है उतने सेकेंड में शादी होती है । सातवीं भांवर होने के पूर्व लड़का या लड़की कह दे कि मैं शादी नहीं करता, मुझे इष्ट नहीं है तो वह कुमारी है, वह कुमार है, दूसरी जगह शादी कर सकते हैं । 7वीं भांवर पड़ने पर उनका पाणिग्रहण कहलाता है । कितनी देर में शादी हुई? दो तीन चार सेकेन्ड में अथवा एक मिनट में ही हो गई । पर एक मिनट की शादी के लिए कितना श्रम किया गया? महीनों से संबंधी मित्रादि बुलाये गये । कितना श्रम किया केवल एक मिनट के काम के लिए । कोई कहे कि यह तो एक ही मिनट का काम है । महीनों, क्यों लगाये जायें? तो ऐसा नहीं किया जा सकता अन्यथा अव्यवस्था हो जायेगी । परेशानी और दुःख बढ़ जायेंगे ।
इसी तरह आत्मानुभव का काम दो चार सेकेंड में होता है, पर उस आत्मानुभव के कार्य के लिए कैसी धुनि चाहिए? कितना समय लगाना चाहिए? अरे एक दो जिंदगी लगाई जाये तो भी कुछ नहीं है । एक नहीं लगातार दो चार जिंदगियां लगाकर भी ऐसा दो चार सेकेंड का काम पा लिया जाये तो सब कुछ पा लिया । कोई चाहता है कि क्यों पढ़े-लिखें, दिमागपिच्ची करें, अरे चार मिनट का तो काम है, हो जायेगा । भैया, लगातार उद्यम करना पड़ेगा, उसकी धुनि रखनी होगी, जो निकट संसारी जीव हैं धुनि उनकी ही लगती है और जो निकट संसारी नहीं हैं उनको ज्ञानभाव की यह धुनि आनी कठिन है ।
जैसी स्त्री की धुनि, पुत्र की धुनि, दुकान पैसा की धुनि मोहियों के अंतर में बसी रहती है ऐसी शुद्ध स्वभाव के निरखने की धुनि अंतर में रह सके तो कभी ज्ञानानुभव हो सकता है । हो जायेगा ज्ञानानुभव ।
अब उसके बाद गृहस्थ का और कार्य क्या है? प्रथम कार्य तो यही शुद्ध दृष्टि बनाए रहने का है दूसरा कार्य वैभव में आत्मसावधानी का है । जब गृहस्थ का चित्त वैभव में उलझा होता है तो जब अपने आत्मा का सही ज्ञान हो गया तो उसके यह निर्णय भी हो गया कि यह वैभव किसलिए बढ़ता है । यह तो पुण्य के उदय से आता है । आने दो । ज्ञानी उसका सदुपयोग करेगा । मैं धन को अपनी ओर से बढ़ाने की क्यों इच्छा करूं । उत्तर दो कि हम किसलिए धन बढ़ाना चाहते हैं? दो ही प्रयोजन हो सकते हैं, एक तो यह कि हमारे परिवार को किसी प्रकार से अड़चन न आये दूसरा यह कि मेरा नाम दुनियां में ऊँचा हो कि यह धनी है खास पुरुष है । परिवार को कोई बाधा न हो, हम को कोई बाधा न हो, इसके लिए तो धन बढ़ाने की धुनि छोड़ो, किंतु जो भी स्थिति है पुण्यानुसार जितना भी धन है उसही से व्यवस्था करलो । अन्यथा न तुम, निर्बाध रह पावोगे और न परिवार निर्बाध रह पायेगा ।
भैया, आप जैन हैं, लखपति हैं और एक ठेला लेकर अपनी गुजर बसर करने वाला जैन है, तो तुम हो सो वह है । जैन तुम हो, जैन वह भी है । उसका निर्वाह हो रहा है या नहीं । आप कहेंगे कि यह रोकर कर रहा है सो जैसे लखपति तुम करते हो वैसे वह भी करता है । तुम आगे की तलाश में रोज रोकर किया करते हो, वह रोज रोकर किया करता है । ज्ञान जागृत रहे तो रोने का न उसका काम है और न हमारा काम है । अच्छा सारे देश के धनियों की कमेटी करो और उस कमेटी से एक प्रश्न करो कि कितने पैसे वाला धनी कहलाता है? तो क्या फैसला होगा? वे किस जगह बैठेंगे? कोई कहेगा कि 5 लाख हो जायें तो वह धनी कहलायेगा, तो उसका विरोधी कहेगा कि वह क्या धनी है । जिसके पास एक करोड़ रुपया हो वह करोड़पति ही धनी कहला सकता है । कोई अरबपति को धनी करार करेगा । धन से धनी की व्याख्या नहीं बन सकती ।
अच्छा, अब हमारा धनी देखिये, धनी वास्तव में वही हो सकता है कि जो केवल आत्मा के शुद्ध सहज स्वरूप को जानकर उसही में रमता है, वही संतोषी है और सुखी भी है । इस अमूल्य धन में कोई बाधा नहीं डाल सकता । उसमें बाधा डाल सकता है कोई तो अपना अज्ञान विषय व कषाय का परिणाम । गृहस्थ का काम है कि वह अपना काम ऐसे निर्णीत बनाये कि उस उदय के अनुसार जो कुछ भी समागम आये उस ही में व्यवस्था बनाए अपनी ओर से कुछ नहीं चाहे कि इससे थोड़ा धन हो जाये । ऐसी हिम्मत कर सकता है तो वह गृहस्थ अपने धर्म में है अन्यथा लौकिक जनों की भाँति बेचैनी ही रहेगी । तो गृहस्थ का दूसरा काम है कि जो कुछ भी है उसमें व्यवस्था बना लें और धर्मलाभ लेकर जीवन सफल कर ले । चाहे कोई रो करके व्यवस्था बनाये पर गुजर तो करनी ही पड़ेगी । किंतु उसमें धर्म लाभ नहीं है । गृहस्थ का तीसरा काम यह है कि गृहस्थ के जो 6 आवश्यक कार्य हैं उसमें अपनी शक्ति न छुपाकर लगे ।
गृहस्थ का प्रथम कर्त्तव्य है कि वह प्रतिदिन देव पूजा, भगवान की पूजा करे, जितना समय हो देव पूजा करे । एक पूजा करे, जितनी चाहे पूजा करे, शांति से धीरे-धीरे गुणानुराग का भाव भरकर आधा घटा एक घन्टा निःशल्य हो मंदिर में लगाये । दूसरा आवश्यक कार्य है गुरु की सेवा करो समस्त आवश्यक कार्य बिना प्रयोजन के नहीं है । इनमें रत्नत्रय की सिद्धि है । श्रद्धालु श्रावक को भगवान की पूजा करना आवश्यक है । उससे सम्यग्दर्शन की पुष्टि होती है । गुरु की उपासना से चारित्र के लिए प्रेरणा मिलती है, विषय कषाय के खोटे परिणाम से छुट्टी मिलती है । अपने गर्व अहंकार का विनाश होता है जो अपने में पोजीशन, ज्ञान, इज्जत मानते हैं उनमें पूजा के समय में, गुरु के सामने हाथ जोड़ने, नमस्कार करने आदि की पूर्ण विनयपूर्ण चेष्टा नहीं बन सकती । गुरु की उपासना में घमंड का नाश पहिले करना पड़ेगा । गर्व नाश से पुण्य की, धर्म की वृद्धि होती है । तीसरा आवश्यक कार्य है स्वाध्याय । स्वाध्याय से ज्ञान प्राप्त होता है । आत्मानुभव की जागृति होती है । चौथा आवश्यक कार्य है संयम, विषय का निरोध करना । कोई चीज अच्छी लगी है छोड़ दी । पांचवां आवश्यक कार्य है तप, इच्छाओं का रोकना । छठवां आवश्यक कार्य है दान, परोपकार में दान करना । गृहस्थधर्म में दो चीजें मुख्य हैं, दान और पूजा । इन 6 कर्त्तव्यों में जुटा रहे, अपने कर्त्तव्यों में बना रहे तो उस गृहस्थ को अवश्य शांति मिलेगी ।
अब आगे यह कह रहे हैं कि जिसके देह में बसने से पंचेंद्रियों का समूह बसता है और जिसके निकल जाने से यह इंद्रियों का ग्राम उजड़ जाता है वही परमात्मा है ।