वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 45
From जैनकोष
जो णियकरणर्हि पंचहिं वि पंचवि विसय मुणेइ ।
मुणिउ ण पंचहिं पंचहिं वि सो परमप्पु हवेइ ।।45।।
जो आत्माराम अपने इन इंद्रियों के द्वारा विषयों को जानता है पर इन इंद्रियों द्वारा जो जानने में नहीं आता है उसको तुम परमात्मा समझो । भैया, मोह को छोड़कर अन्य कोई आपको विपत्ति नहीं है । जरा मन को स्वच्छंद किया है उसमें आप मौज मानते हैं, उस मोह के कारण कितने क्लेश है और आगे कितने क्लेश होंगे? सो यह सामने ही विदित है । जब कोई चीज मेरे पास रह नहीं सकती और जिस समय रहती है उस समय भी उससे अपनी इच्छा की पूर्ति कर नहीं सकते तो उसका आकर्षण मात्र व्यामोह ही है । सब अपनी-अपनी, कषायों की पूर्ति में संलग्न हैं । किसी का कोई वश नहीं चलता है किसी दूसरे जीव पर । एकसी कषायें जब मिल जाती हैं, धर्म-पालन द्वारा आप भी अपना हित चाहते हैं, ये भी चाहते हैं, हम भी धर्म चाहते हैं, एकसी बात मिल गई इसलिये मित्र बन गये । भाई यह सब व्यवहार क्या है? जब कषाय से कषाय मिल रही थी तब तो दोस्ती थी और परस्पर की कषाय के मेल में जरा भी अंतर आ गया तो दोस्ती नहीं है । धर्मप्रसंग में भी जब विरुद्ध कषाय आ जाये तो प्रेम बिगड़ जाता है ।
समाज में कई जगह तो यह भी देखने में आता है कि परस्पर भाई लोग व्यापार में सहयोग देते हैं, रिश्तेदारी निभाते हैं, पर धर्म की बात कोई आ जाये तो वहाँ विवाद कर बैठते हैं । तो यह सब कषाय-कषाय के मिलने की मित्रता है । अमुक अमुक का कुछ लगता है ही ऐसा कुछ खुदा नहीं है । यह कषाय का सौदा है । सो भैया, कषाय से कषाय मिलने का नाम प्रीति है और कषाय से कषाय न मिलने का नाम द्वेष है । सर्व जीव अलग हैं । अलग-अलग अपने स्वरूप में हैं । यदि परिवार संग है तो उनमें मोह न करो अपने परिवार को धर्म पालन में लगावो । राग द्वेष न रहे, परिग्रह में आत्मीयता की बुद्धि न रहे, धर्ममार्ग में चलते हुए में यदि कोई संकट आवे तो सहनशक्ति रहे आदि बातों की शिक्षा बतावो । सब कुछ होता रहेगा, पर अंतर में यह श्रद्धा रहनी चाहिये कि मेरा तो मात्र मैं ही हूँ, मेरा दूसरा कुछ नहीं है । जो कुछ होगा मेरे में होगा, अन्य में कुछ नहीं होगा, ऐसा परिणाम निश्चित रहे और अपनी दृष्टि की लालसा रहे ।
हम और आप में जाननहार जो तत्त्व है वही परमात्मा है । जो इन इंद्रियों के द्वारा जान रहा है वह परमात्मा है । यह परमात्मा इस स्थिति में इंद्रियों के द्वारा जान तो रहा है पर इंद्रियों के द्वारा
परमात्मा जाना नहीं जाता । जैसे कोई चिक लगी है कमरे में तो भीतर बैठा हुआ पुरुष सड़क के सब लोगों को देख रहा है पर सड़क के लोग उसे नहीं देख सकते । इस तरह यह बसा हुआ परमात्मा इन इंद्रियों के द्वारा सब जगत के पदार्थों को जानता है, पर इंद्रियां इस परमात्मा का मर्म नहीं जान सकती । तब फिर किस प्रकार परमात्मा को जाना जाता है? जगत के पदार्थों को भिन्न और अशरण जानकर पर द्रव्यों में रुचि दृष्टि न करके योगी पुरुष समाधि के द्वारा समता रस के आनंद का पान करते हुए उस परमात्मा को जान जाता है । जरासी ओट है प्रभु के जानने में बाधक । उस उतनी ओट के कारण यह परमात्मा ज्ञात नहीं होता । इसी कारण यह शरीर विडंबना बन गया ।
भैया, अपनी-अपनी बात देखो । जब वृक्ष की योनि में पहुंचता है तो डाली-डाली पत्ते-पत्ते और फूल-फूल में मकरंद जैसी बिल्कुल पतले धागों में यह आत्मा फैल जाता है। इस आत्मा की यह सब कहानी है कि पेड़ बन गया तो पेड़ जैसा पसर गया, और कीड़े बन गया तो कीड़ों का जैसा यह जीव पसर जाता है । एक इस अपने लक्षण को न जानने वाले इस जीव की बाह्य में दृष्टि रहती है इस कारण यह रो रोकर दुःखी होकर समय गुजारता है । एक बच्चा दूसरे बच्चे के हाथ में खिलौना देखकर रो उठता है बच्चे की मां उसे पीटती भी है किंतु वह रोता ही जाता है । तो पीटने से डाटने डपटने से बच्चे का रोना बंद नहीं हो सकता । उस बच्चे के हाथ में उसका खिलौना लाकर दे दिया जाये तो उसका रोना बंद हो जायेगा । जगत में संसारी जीव इन पर वस्तुओं को देखकर रोते हैं, तरसते हैं, इनकी ओर दौड़ते हैं । तो सुख शांति के लिए कितना ही श्रम कर डालें, पर रोना बंद नहीं होता है । इस आत्मा को अपना ही खिलौना अपना ही आनंदमय प्रभु स्वरूप दिख जाये जिसकी क्रीड़ा में, लीला में उपयोग रम जाये तो यह बाहर का रोना, दौड़ना समाप्त हो सकता है ।
यह सब अपने-अपने साहस और पुरुषार्थ की बात है । अपनी उदारता के बिना आनंदनिधान ज्ञानस्वरूप नजर नहीं आ सकता । इस ही परमात्मतत्त्व को बड़े-बड़े विशेषणों द्वारा बड़े-बड़े गणधर देवों ने वर्णन किया इसका वर्णन करना तो कठिन है पर अनुभव करना सरल है । जैसे बड़ी भयंकर वायु से रत्नाकरों का रत्नों से भरे हुए समुद्र का जल बिखर जाये तो सारे रत्न आंखों से दिख जाते हैं किंतु गिनने में नहीं आते हैं । इसी प्रकार यह परमात्मस्वरूप अनुभव में तो आयेगा, किंतु इसका वर्णन करना कठिन है, कैसे बताया जाये?
जिस मिठाई या फल का जिसने स्वाद नहीं जाना उस वस्तु या फल का स्वाद उसको बहुत समझाया जाये तो क्या समझ में आ सकता है? नहीं । एक फल बताया था पदमचंदजी ने, उसको अनन्नास बोलते हैं उसे बहुत से लोग नहीं जानते होंगे । अब जिसने उस फल को नहीं खाया उसको कोई भारी परिश्रम करके समझाये कि इसका तो ऐसा स्वाद मान लो पर उसकी समझ में क्या आया? कुछ । भी नहीं । अगर उसे चखाकर उसका स्वाद बतायें तो इतनी दिमागपच्ची नहीं करनी पड़ेगी । इसी प्रकार खुद ही तो परमात्मस्वरूप है और खुद ही यह समझ नहीं रहा । समझाने वाले आचार्यजन क्या करें? कैसे समझायें? फिर भी उनकी शब्द रचना दृढ़ है, खूब बताया है । आचार्यों के बताने से एकमन तो कहने लगा कि मैं समझता हूँ उस परमात्मतत्त्व को मगर बता नहीं सकता ।
ये कोई भी अन्य हमको विशद समझा नहीं सकते कि परमात्मा क्या है? पर हां, इन ग्रंथों के बताये हुए मार्ग में चला तो जब वीतराग निर्विकल्प चैतन्यस्वरूप का आदर करते हुए चारों ओर के विकल्प हटाने की स्थिति बन जायेगी तब वह परमात्मतत्त्व अपने अनुभव में तुरंत आ जायेगा । बताने से नहीं आयेगा । इसलिए धर्मसाधना के लिए केवलज्ञान ही ज्ञान नहीं चाहिए भीतर के परिणमन को भी बनाने का यत्न करना चाहिए केवल बातों का वर्णन करना, उनका सुनना यही परमात्मा का अनुभव नहीं है । यह पढ़ना लिखना अपने को ऐसा बना देता है कि यह अनुभव करने में लगे, जो अनुभव करने की प्रेरणा दे ऐसा जान जाना भी कोई साधारण लाभ नहीं है । अनेकों के तो मन ही नहीं करते कि मैं अपनी ही करतूत में अपना अनुभव बनाऊं ।
भैया, अनुभव के लिए करतूत कला भी अन्य क्या चाहिए, जितना उल्टा चला गया यह मन उसको उतना ही वापिस कर दें, रोक दें, और कुछ नहीं करना है । तुम्हें परमात्मस्वरूप को जानने के लिए कुछ अलग कला नहीं खेलनी है, यह स्वरूप ही परमात्मतत्त्व है, इसके अनुभव के लिए मेहनत नहीं करनी है, किंतु अनुभव के लिए करना क्या है कि हम जितना उल्टे चले हैं, उतना उल्टा चलना समाप्त करना है, रोकना है । ये सब दृश्यमान परद्रव्य हैं, असार हैं, उनमें जो हमारी दृष्टि लग गई, विकल्प लग गये उस दृष्टि को खतम करना है । यह आत्मा तो स्वयं ज्ञानमय है, इसका क्या यत्न करना? यत्न करना है जिस बाह्य दृष्टि में वह बह गया उस बाह्य दृष्टि को मिटाना है ।
फिर आप प्रश्न करेंगे कि इतना भी हम कैसे करें, सुनिये इसका उपाय है कि हम अपनी आत्मा को जानें और इस समयसार को समझलें तो इसके विषय कषाय का होना बंद हो जायेगा । आत्मा के अनुभव के लिए केवल शुद्ध आत्मतत्त्व को जानने का उपयोग करना कर्त्तव्य होना चाहिए । पर द्रव्य को रोकने के यत्न करने का कष्ट नहीं करना है । पशु पक्षी तो जीवादिक सात तत्त्वों के नाम भी नहीं जानते । जीव तत्त्व, अजीव तत्त्व क्या है? संवर क्या है? निर्जरा क्या है? पशु पक्षी इन शब्दों को नहीं जानते किंतु निकटभव्य पशुपक्षी निज चैतन्यस्वभाव का अनुभव कर लेते । पर द्रव्यों में असारता समझ में आ गई, अहिंसा समझ में आ गई, और असार अशरण वस्तु से अपने उपयोग को हटा लिया, लो फिर क्या है? ज्ञान का और आनंद का झरना फूट निकलता है । फिर तो जो ज्ञानार्जन में उद्यमी रहें, उनके आत्मानुभव न हो, यह कैसे हो सकता है? हां, उन्हें इस रूपपरिणमन का यत्न भी करना चाहिए ।
भैया, आत्मा का ज्ञान करें और आत्मा के जानने में लग जायें तो इससे ऐसा अवसर होता है कि पर द्रव्यों को भिन्न और असार जानकर ईमानदारी से गुस्सा होकर नहीं, झंझटों से थककर नहीं, किंतु ईमानदारी से इन पर द्रव्यों से अपना उपयोग हटा लें तो आत्मानुभव तैयार है । यह परमात्मतत्त्व तो एक बाट देख रहा है कि कब विकसित हो जाऊं? इसकी तो प्रकृति विकास की है । जैसे खेल के मेंढक के लिए खिलौने बिकते हैं उनके नीचे एक तार लगा रहता है वह तार चिपकाये तो चिपक जाता है, किंतु थोड़ी देर में अलग हट जाता है उसमें चिपका हुआ मेंढक बैठा रहता है, अब उस चिपक में इतनी शक्ति नहीं होती है कि देर तक चिपटे, सो आधे मिनट बाद वह खिलौना उछल जाता है । ऐसे ही यह परमात्मतत्त्व विकसित होने के ज्ञानस्वभाव को लिए हुए है, विषय कषाय का परिणाम उसको दबाए हुए है, किंतु यह परमात्मतत्त्व बाट जोह रहा है कि मैं विकसित हो जाऊं, पर अभी केवल एक विघ्न है इस मेरे परमात्मतत्त्व के विकसित होने में । यह उपयोग एक बार तो मेरी ओर निगाह करले फिर मेरा सब वश चल जायेगा । एक बार भी इसका उपयोग इस चैतन्यस्वरूप के अनुभव को देख तो ले, फिर किसी अन्य परिणाम का प्रावल्य नहीं रहता ।
भैया, एक नजर से भी परमात्मप्रभु को न देखें तो इसको भूल भूलकर ऐसे-ऐसे भव मिलते, जिनमें ‘‘दमरी रूकन भाव बिकाया’’ वाली हालत होती रहती है पहिले दमरी में भाजी खरीदी जाती थी । एक पैसा में आठ दमरी होती हैं, उनमें से एक दमरी में भाजी खरीद लेते थे और फिर वे खरीदने वाले कहते थे कि रूगन और दो, तो चुटकी भर और भाजी दे दी जाती थी । उस रूगन की एक चुटकी भाजी में आ गया साधारण वनस्पति का पत्ता तो उसमें अनंत निगोद जीव आ गये । सो कहा दमरी रूकन भाव बिकाया । भैया, हम अपने निगोद जैसे तुच्छ भव इस परमात्मतत्त्व के जाने बिना पाये । इस जगत में तू किसको प्रसन्न करना चाहता है? कोई यदि मायामय जीव खुश हो जायेगा तो क्या तेरे संकट टल जायेंगे? नहीं ।
एक सेठ थे, उनके चार लड़के थे । उनकी 5 लाख की जायेदाद थी । सबको एक-एक लाख बाँट दिये । सबके सब प्रेम से न्यारे हो गये । आजकल प्रेम से न्यारा हो जाना ही लाखों की कमाई है । पिता ने कहा देखो प्रेम से अलग हो गये तो बिरादरी वालों को प्रीतिभोज कराओ । छोटा बेटा बोला अच्छी बात है पिताजी! तब फिर छोटे लड़के ने सबसे पहिले प्रीतिभोज कराया और उसने 8 मिठाई बनवाई और खिलाई बिरादरी वालों को । तो वे खाते जाते है, स्वाद लेते जाते हैं और कहते जाते हैं कि पिता ने इसको ही सारा धन दे दिया होगा, तभी तो इसने 8 मिठाई बनवाई है । छोटा बच्चा है, उस पर प्रेम अधिक होता है । आगे तो कुछ भी होने की आशा नहीं है इसलिए सबसे ज्यादा प्रेम होता है उस छोटे बच्चे पर । सब धन दे दिया होगा तब ही 8 मिठाई खिलाई है । अब उसने बड़े लड़के से भोज कराया तो उसने केवल 4 मिठाई बनवाई । तो बिरादरी वाले कहने लगे कि यह तो बड़ा सयाना निकला । वैसे चाहे कितना ही धन चोरी में रख लिया होगा मगर चार ही मिठाई हैं । अब उससे बड़े लड़के ने भोज दिया तो उसने मिठाई का नाम भी नहीं लिया तो बिरादरी वाले लोग कहते जा रहे हैं कि यह तो उनसे ज्यादा चालाक निकला, चाहे कितना ही कुछ धर लिया होगा तिजोरी की चाबी इसी के पास रहती थी, सब धन चाप गया होगा और भोज में मिठाई का दाना भी नहीं रखा । सबसे बड़े लड़के ने जब भोज किया तो केवल दाल और रोटी परोस दी तो बिरादरी वाले लोग कहने लगे कि इसने तो पूड़ी भी नहीं की । वैसे सबसे बड़ा लड़का है और सारा धन रख लिया होगा मगर इसने तो पकवान का नाम भी नहीं लिया।
अब बताओ कौन सबको खुश कर सकता है? और कोई खुश भी हो जाये तो वह उसका सुख है । उसको कषाय के अनुसार उसका इष्ट विषय मिल गया इसका उसे सुख है । उस सुख से याने दूसरे की खुशी से इस मेरे को कुछ नहीं मिल जायेगा । मेरा सच्चा रिश्ता और भलाई करने वाला यदि कोई है तो वह प्रभु है । जिनके गुणों का स्मरण करना मेरे विकारों को हटाता है और विकास के मार्ग में लगाता है । वहाँ भी यह उपासक स्वयं में स्वयं की दृष्टि भगवद्विषयक कर रहा है । सो लो यह स्वयं की दृष्टि ही स्वयं को विकसित कर रही है और प्रसन्न कर रही है । ऋषि महंत महर्षि संतजन खुद कुछ प्रमत्त अवस्था में दया का परिणमन रखकर हम लोगों का बड़ा भला कर गये । उनके महोपकार को सोचकर हृदय गद्गद् हो जाता है । इनकी कृपा से कितना हम सबने सत्पथ जाना । प्रभुमूर्ति की छवि को देखकर एक अपने को सत्पथ मिलता है । पर भगवान के दर्शन में उनको विशेष लाभ होता है, जो अकेले में ही प्रभु से बात करते हैं । जिनको कोई देखने वाला नहीं है, कोई जाने आने जानने वाला नहीं है, ऐसे एकांत में प्रभु मूर्ति की मुद्रा से दृष्ट प्रभुगुणों में और स्वरूप में मन लगाते हैं । उस समय में देखो कि भक्त कैसी-कैसी गद्गद् वाणी में कैसी मुद्रा में अपने को धिक्कार कर और प्रभु दर्शन से प्रमुदित होकर मिश्रित तोतली बोली से प्रभु से बात करने लग जाता है । इसे अपनी कुछ खबर नहीं रहती । वह तो सीधे बात करने लगता है ।
जब दर्शन में सार दृष्ट होता है तब उस तत्त्व की भक्ति में सीधे प्रभु से बात की जाती है कि कोई छिपकर सुन रहा हो तो उसकी वाणी सुनाई नहीं दी जा सकती । सुनाई भी दी जाये तो उसका अर्थ नहीं जान सकता । प्रसन्नता और विह्वलता दोनों का संगम है । परमात्मा का स्मरण, अपने स्वरूप का ध्यान व वर्तमान दशा की निगाह इन तीनो के संगम में तो भावभीनी दशा हो जाती है । जो अतिंद्रिय सुख का साधक है, सत्य आनंद रूप है ऐसा ही परमात्मा साक्षात उपादेय है ।
अब यह बतलाया जायेगा कि जिस परमात्मा का परमार्थ से न बंध होता है न संसार होता है उस आत्मा को तुम व्यवहार छोड़कर जानो । व्यवहार किया जाता है इसके जानने की पात्रता बनाये रहने के लिए, पर साक्षात् परमात्ममिलन अपने में होता है तब व्यवहार छूट जाता है । यह परमात्मतत्त्व ज्ञान स्वरूप है । इसका न बंध होता है और न संसार होता है । इस स्वरूप भाव में न रुलना है न छूटना है । अहा देखो इसकी गाठ की व उधार की कला का परिणाम! रुलता भी यही है, और रुलता भी नहीं है, भटकता भी यही है और भटकता भी नहीं है । एक मुद्रा तकी जा रही है । अच्छा जब बारात तैयार कर भेजी जाती है तब गांव में सजाकर घुमाई जाती है । अब रिवाज नहीं होगा शायद कुछ समय पहिले दूल्हा को खूब सजाकर गांव में घुमाया जाता था । उस साज में उस लड़के की माँ अपने लड़के को देखकर तृप्त नहीं होती । वह इस निगाह से नहीं देख रही जैसे कि उसका लड़का है वैसे तो उसने 18 साल तक के देखा पर उस समय की मुद्रा समन्वय को लिए हुए है, उसको उसके देखने में जो आनंद है बच्चे के नाते वह उस ही समय की मुद्रा में उसे मानती है ।
इसी प्रकार आत्मा के देखने की कला है । यह रुलता भी है और नहीं रुलता । नहीं रुलता है इस मुद्रा से देखने लगे तो उसको आनंद विलक्षण आता है और रुलता है उस निगाह से देखें तो अनादि से ही देखते चले आये हैं । उत्थान के पथ के प्रारंभ क्षण में जो अलौकिक विशुद्धता होती और अनुपम मुद्रा जगती है तो वह मुद्रा तो प्रगति पथ पर चलती हुई स्थिति में नहीं होती । युद्ध प्रारंभ करने के प्रस्ताव के समय में जो वीरों का जोश वीरों का यत्न, ढंग अद्भुत होता है उस तरह की बात लड़ाई करते हुये में भी नहीं पाई जाती है । करणानुयोग को जानने वाले पुरुष इस बात को समझते हैं जैसे कि सूत्रजी में बताया है―सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानंतवियोजकदर्शनमोहक्ष पकोपशमकोपशांत मोहक्षपकक्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा: ।
सम्यग्दृष्टि, श्रावक, महाव्रती, अनंतानुबंधी का विसंयोजन करने वाले आदि आदि के असंख्यात असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । यहाँ यह मर्म जानें कि जब सम्यक्त्व होता है, उस समय बड़ी निर्जरा होती है । जब देशव्रत होता है तो बड़ी निर्जरा होती है । देशव्रत लेकर वर्षों तक पालते हैं तो उन वर्षों में वह विशुद्धि नहीं होती, उतनी कर्मनिर्जरा नहीं होती है, जितनी देशव्रत धारण करने के परिणमन में होती है । यह तो करणानुयोग बतला रहा है किंतु अब लोगों के चरित्र को देख लो, कहते हैं कि अजी जो बात इसमें 10 साल पहिले थी वह अब नहीं है । जिसने दीक्षा का अवसर देखा है वह कहेगा ऐसा, और कोई नहीं ।
भैया, सम्यग्दर्शन होता है तो अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण परिणाम होता है । इसका मतलब आठवें, नवें गुणस्थान से नहीं लेना, यह कई स्थानों में होता है । मिथ्यादृष्टि के होता है जब यह सम्यग्दर्शन प्रकट होता है । उस मिथ्यात्वावस्था में अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण में विशाल कर्मनिर्जरा कर डालते हैं । सम्यक्त्व को प्रकट करने की तैयारी में, गिनती में जितनी कर्मनिर्जरा सम्यक्त्व करने के क्षण में होती उतनी निर्जरा अविरत अवस्था में शेष जीवन में अन्य क्षण नहीं हो पाती । सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय भी तीन करण होते है―(1) अधःकरण (2) अपूर्वकरण व (3) अनिवृत्तिकरण । यहाँ ये तीनों मिथ्यात्व अवस्था में अंतिम अंतर्मुहूर्त में होते हैं । ये सम्यक्त्व योग्य निर्मल परिणाम के तीन यत्न हैं । जैसे मूर्ति बनानी है तो उस मूर्ति बनाने की तीन प्रकार की तैयारी होती है । वन, टू, थ्री । तो बड़ी तैयारियाँ मोटी छैनी लगी और बड़ा हथौड़ा लगा तथा बड़े-बड़े पत्थर हटाये । और दूसरी बार में पतली छेनी लगी और इतने बड़े पत्थर नहीं काटेगा, छोटे-छोटे टुकड़े निकालेगा । और तीसरी तैयारी में देखने वाले कहेंगे कि दो तोला पत्थर निकला है इस पूरे दिन में इतनी सावधानी का सूक्ष्मता से कार्य होता है । इसी प्रकार सम्यक्त्व उत्पन्न करने के समय मिथ्यात्व के विनाश का मोटा यत्न होता है । फिर उससे अधिक सावधानी होती है । मिथ्यात्व के निषेक दूर होने लगते हैं, फिर तीसरी सावधानी में पूर्ण सावधानी के परिणमन होते हैं जिससे सूक्ष्म कलंक भी दूर हो जाते हैं ।
अब योगेंद्र देव कहते हैं कि जिसके परमार्थ से बंध और संसार नहीं होते हैं, उसको हे प्रभाकर भट्ट ! तुम व्यवहार छोड़कर परमात्मा को जानो । इस ही विवेचन के लिये यह दोहा कहा जा रहा है :―