वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 48
From जैनकोष
कम्महिं जासु अणंतहिंवि णिउ णिउ कज्जु सयावि ।
किंपि ण जणियउ हरिउ णवि सो परमंपउ भावि ।।48।।
ज्ञानावरणादिक कर्मों के द्वारा सदा अपने-अपने सुख-दुःख कार्यों को यद्यपि यह प्रगट करता है तो भी शुद्ध निश्चय के द्वारा जिस आत्मा को कुछ भी नहीं उत्पन्न किया जाता है और न विनष्ट किया जाता है उसको परमात्मा समझो । यहाँ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीनों से युक्त आत्मा में देखो कि आत्मा में नवीन-नवीन परिणतियाँ होती हैं, तो उत्पाद है और पूर्व-पूर्व पर्याय विलीन होती हैं तो यह व्यय है । जिस तत्त्व के आधार पर नई-नई परिणतियां बनती हैं उस आधारभूत तत्त्व को ध्रुव कहते हैं । आत्मा की ऐसी जो ध्रुवशक्ति है उसका कारण परमात्मा कहा है । सो यह परमात्मतत्त्व अर्थात् हम और आप सबकी आत्मा कर्मों से घिर जातीं है, इसमें सुख और दुःख न उत्पन्न होता है और न विनष्ट होता है उसको तुम परमात्मा जानो ।
संसार के जीव अपने आपमें किसी न किसी पर्यायरूप अनुभव करने का कार्य करते हैं । पर्यायरूप के अनुभव के कारण विषय और कषाय में पगकर उत्पन्न शरीर में बद्ध हुआ है । मैं दुःखी हूँ, सुखी हूँ, धनी हूँ, गरीब हूँ, पंडित हूँ, मूर्ख हूँ यों आपको अपने आपमें अनुभव करने वाले चूँकि मिथ्यादृष्टि जीव हैं इस कारण इनमें आकुलता रहा करती है, और सन्मार्ग में उसको अंधेरा रहा करता है । इसके रहते हुए भी जो सहज शक्ति है वह सबमें समान है (संसार के प्रत्येक प्राणी इस स्वभावदृष्टि में एक समान हैं) । उसमें कोई भी अंतर नहीं है । जैसे निगोद में रहने वाले जीव द्रव्य हैं वैसे ही जीव द्रव्य अरहंत और सिद्ध हैं । केवल पर्याय का अंतर है ।
वस्तुत: अंतर में देखो तो सब जीवों में एक समान पारिणामिक भाव है । यदि सब जीवों का स्वरूप समान नहीं होता तो एकद्रव्य जाति न मानकर भव्य और अभव्य आदि रूप से जीव माने जाते । सो 6 द्रव्य न कहकर 7 आदि द्रव्य कहे जाते हैं, किंतु ऐसी बात नहीं है । भव्य और अभव्य भी एक जीवद्रव्य के नाते से पूर्ण समान हैं । जैसे भव्य में केवलज्ञान की शक्ति है इसी प्रकार अभव्य में भी केवलज्ञान की शक्ति है । यदि अभव्य में केवल ज्ञान की शक्ति नहीं होती तो केवलज्ञानावरणादिक कर्म अभव्य के फिर नहीं होने चाहिए, किंतु अभव्य के भी केवलज्ञानावरण प्रकट है इसका यह अर्थ है कि बाह्य कर्म केवलज्ञान को नहीं प्रकट होने देता । इससे यह प्रकट है कि इसमें शक्ति है पर वह ज्ञान प्रकट होने की वृत्ति कभी हो नहीं सकती है । जितने जीव हैं वे सब समान नजर आते हैं इस दृष्टि में भी प्रभु के दर्शन होते हैं ।
अन्य लोगों से भी यह सुना होगा कि प्रभु प्रत्येक जीव में है । प्रत्येक जीव में वे प्रभु निरखते हैं । स्वामी विवेकानंदजी हुए, वे हर जीव को राम कह कर पुकारते थे । सबको राम के रूप में निरखते थे । राम के रूप में निरखने से वे अन्य जीवों में जुदाइगीपन नहीं समझते थे । इसी प्रकार शुद्ध चैतन्य प्रभु के एक समान निरखे जाने पर भिन्न-भिन्न व्यक्ति ही नहीं नजर आते । जब तक यह शुद्ध-चैतन्यस्वरूप जानने में न आये तब तक धर्म का पालन नहीं हो सकता । हाँ मंद कषाय है, त्यागवृत्ति है तो पुण्य के कार्य तो हो सकते हैं परधर्म का कार्य तो ज्ञान जगने पर ही हो सकता है । जब चैतन्य ज्योति निरख लो तब समझो कि सम्यग्दर्शन हुआ है । हां, उपाय करके सम्यक्त्व को उत्पन्न करें, विषय, कषाय की प्रीति से हट जायें, ऐसे परिणाम कार्य भी नैतिकता का संपादन करेंगे और सम्यक्त्व का पात्र बनायेंगे । अन्यथा जो मूल निधि है उसका दर्शन तो है ही नहीं, और अन्य–अन्य आचरण धर्म को रूढ़िवश करते हैं । सो यह श्रम करते हुए भी विषय और कषाय में अंतर नहीं आ सकता कि बलपूर्वक यह कह सकें कि हमको विषय और कषाय अब जग नहीं सकते ।
मद अहंकार चूर हुए बिना धर्म हृदय में प्रवेश नहीं करता है और मद अहंकार, इस पर्याय को निरख कर ही होता है कि मैं अमुक-अमुक पद का हूँ, अमुक पोजीशन वाला हूँ, इस, तरह अपने आपका अपनी पर्याय में सर्वस्व मानकर शुद्ध सहज स्वरूप से उपयोग हटा लेता है तब विषय, कषाय का परिणाम चलता है । वह कौनसा तत्त्व है, वह कौनसा निजधर्म है जिसमें पहुंचने पर सब संकट समाप्त हो सकते हैं? वह स्वरूप एक आत्मा है । यह जीव भ्रम करके पर घर में ही भटकता फिरा, जिसको मानता है कि यह घर मेरा है वह सब पर है । घर का अभिमान करके यह प्रभु गरीब बना चला आ रहा है । तो आत्मा की गरीबी तो मिथ्याज्ञान से कहलाती है और आत्मा की अमीरी सम्यग्ज्ञान से कहलाती है । किसी की चाहे राज्य में कितनी ही मान्यता हो, यदि अहंकार है तो वह गरीब है और एक गरीब पुरुष जो रोज कमाकर ही पेट पाल सकता है यदि उसे आत्मा अनात्मा का बोध है, शांति और आनंद है तो वह पुरुष अमीर है । जिसके संतोष है वह अमीर है, जिसके सम्यग्ज्ञान और संतोष नहीं है वह गरीब है ।
एक बार एक संन्यासी को रास्ते में एक पैसा मिल गया । सोचा कि यह पैसा किसको दिया जाये? जो सबसे गरीब हो उसको ही यह पैसा दिया जाये । वह गरीब को ढूंढ़ने निकला, उसे अधिक गरीब कोई न मिला । सब कुछ-न-कुछ संतोषी ही मिले । अचानक देखा कि एक बादशाह बड़ी सेना के साथ सज-धज कर जा रहा है । किसी से पूछा कि यह राजा कहाँ जा रहा है ? उत्तर मिला कि यह बादशाह एक राजा पर चढ़ाई करने जा रहा है । तो उस संन्यासी ने वह पैसा उस बादशाह की झोली में फैंक दिया । राजा ने देखा और सोचा कि इतने मुझे पैसा क्यों मारा है? उसके गुस्सा आ गया । पूछा कि यह पैसा क्यों मारा? तो उस संन्यासी ने कहा महाराज यह पैसा मुझे मिल गया था तो मैंने सोचा था कि हम इसे ऐसे व्यक्ति को देंगे जो महा गरीब होगा । पर अधिक गरीब मुझे कोई न मिला । आप ही उन सबसे गरीब हैं, इस कारण मैंने यह पैसा आपको ही दिया है । बादशाह ने पूछा कि मैं कैसे गरीब हूं? मेरे पास इतना बड़ा राज्य है । तब संन्यासी बोला कि महाराज यदि आप गरीब ने होते तो आज उस बेचारे राजा पर चढ़ाई करने क्यों जाते? सो राजा की समझ में आया व बोला कि सेना को लौटा दो, हमें वापिस जाना है । किसी दूसरे को सताने का प्रोग्राम अब नहीं रहेगा । लौटता हुआ बादशाह बोला हे महाराज ! आपने मेरा कल्याण कर दिया और हमें सन्मार्ग दिखाया ।
आज राजा तो नहीं रहे फिर भी राष्ट्रों में यह कुमति छाई हुई है कि एक देश दूसरे देश की भूमि को छुड़ाना, हड़पना चाहता है । करीब सब देश भी शांति चाहते हो सैन्य व्यय न करना चाहते हों, किंतु कोई एक देश आक्रमण पर उतर जाये तो जैसे कहते हैं कि भैंस पुखरियों को गंदा कर देती है इसी तरह एक देश यदि बेईमानी पर तुल जाता है तो उससे सारे देशों में खलबली मच जाती है और अपनी-अपनी सैन्य प्रगति में उन्हें जुटना पड़ता है । आज दुनिया में संतोष और शांति नहीं रही । जैसे इन देशों की बात है इसी तरह इन व्यक्तियों की बात है । भैया यह जो वैभव मिला है यह मेरे पेट में पचेगा नहीं । यह तो किसी न किसी को देना ही पड़ेगा और जिनको दिया जायेगा वे सब पराये हैं ।
कैसे माना जाये किसी अन्य को कि ये मेरे हैं । जगत में ये अनंत जीव हैं उनमें से कोई एक आपके घर में आ गया उसे आप अपना मानते हैं । अगर वह नहीं आता, बजाये उसके और कोई दूसरा आता तो उसको अपना मानने लगते । किसी से कोई संबंध नहीं है । संबंध के कारण यह किसी को अपना नहीं मान रहा किंतु खुद में कुटेव करने की आदत पड़ी है । जो आया उसको अपना मान बैठा । यहाँ कोई चिह्न नहीं है कि यह मेरा है, और यह आपका है । जो आपके घर में दो चार जीव हैं वे तो आपकी निगाह में आपके सर्वस्व हैं और बाकी जो अन्य जीव हैं उनसे कुछ भी आपका मोह नहीं रहता है ।
प्रभु का जिसने सहारा पकड़ा है वे भी उपदेश यह देते हैं और भलाई करते हैं । उनका आदेश है कि मोह का त्याग करना चाहिए । राग और द्वेष प्रभु का दर्शन करके छूटेंगे । उपदेश देने पर भी ये नहीं छूटते । मोह ज्ञान से ही हट सकता है । अज्ञान दूर होता है तो राग द्वेष भी दूर हो जायेंगे, मोह और राग में अंतर है । राग उसको कहते हैं कि कोई वस्तु सुहा जाये और मोह कहते हैं उस अज्ञान परिणाम को जहाँ अपने में और परपदार्थों में भेद ही नहीं समझ में आ सकता; यह मुझसे भिन्न है, इसका स्वरूप न्यारा है, यह ज्ञान नहीं हो सकता है ।
जैसे कोई रईस पुरुष बीमार हो जाये तो उसको कितनी सुविधायें दी जाती हें? उसके लिए सजा हुआ कमरा, पलंग बड़ा कोमल स्प्रिंगदार, एक दो मित्र सदा बैठे रहें, एक दो नौकर और बढ़ा दिये जाते हैं, डाक्टर अपने समय पर आता रहता है । लोग बड़ी सहानुभूति से प्रेम भरे शब्दों में पूछा करते हैं । कितनी सुविधायें हैं उस बीमार पुरुष के लिए । यह बीमार पुरुष भी बीमारी की दशा में तो आराम चाहता है, गद्दा गड़ता है तो उसे अच्छा नहीं लगता । दवाई पीता है, यदि दवाई देने में आधा घंटा देर हो गई तो वह उस पर झुँझलाता है कि इतनी देर में दवाई क्यों लाये हो? सब कुछ बाह्य वृत्तियाँ हो रही हैं किंतु उसके अंतर में यह इच्छा है कि मैं कब तीन मील चल सकूं और यह औषधि सुहा रही है किंतु उसमें मोह नहीं है । वह यह नहीं चाहता है कि ऐसा आराम हमें जिंदगीभर मिले, ऐसा औषधि में जिंदगी भर पीता रहूं । वह चाहता है कि मैं कब तीन मील जाने लगूं, और यह औषधि मुझसे छूटे । इस प्रयोजन के लिए औषधि को प्रेम से पीता है ।
ऐसे ही अंतर से यदि मोह छूट जाये तो अपना बड़ा कल्याण होगा । साहस ही तो करना है, अंतर में यह भाव ही तो बनाना है । हो सकता है कि उसके लिए आपको त्याग करना होगा, पोजीशन तो धूल में मिलानी पड़ेगी ही । भैया, अपन अनेकों इच्छाएँ करते हैं उनमें से 95 प्रतिशत तो इच्छाएं विफल हो जाती हैं । जरा हिम्मत और कर लें कि शेष इच्छाओं को भी खो दें उसको भी भूल जायें, अपने आपमें एक चैतन्य स्वभावमात्र अनुभव करें । इस मुझको कहीं कोई और जानने वाले नहीं । यह मैं परमात्मतत्त्व सबके बीच रहता हुआ भी सबसे निराला हूँ । आत्मा अरहंत कैसे बनता है? अपने आपके बहुत पर्दों भीतर गुप्त जो चैतन्यशक्ति है उसको पहिचानें और उसका सहारा लें तो उसकी ऐसी किरण प्रकट होती है कि सारी समृद्धियां प्रकट हो जाती हैं । वर्तमान में इसकी किरणों का प्रकाश बहुत वस्तुओं में रंजित हो फैला हुआ है, विषयों में विस्तृत है । इस अटपटे विस्तार के कारण ज्ञानविकास रुका हुआ है । इस विस्तार को हटा दें और केंद्रभूत अपनी ज्ञानशक्ति में उपयोग लगा दें तो यहाँ से ऐसा विकास होगा कि जो अब जानता है उससे अनंतगुणा जान जायेगा । जैसे कि सूर्य की किरणों से यों ही कागज नहीं जलाया जा सकता परंतु एक प्रकार का जो कांच होता है जिसमें सूर्य की किरणें केंद्रित होकर कागज को भस्म कर देती है, फैली हुई ये किरणें यदि केंद्रित हो जायें तो उनसे वह आग जल उठती है । जैसे कई वैज्ञानिक इस आविष्कार में लगे हुए हैं कि सूर्य की किरणों से ही भोजन पकाया जाये । उसमें वे यही तो यत्न करेंगे कि सब किरणें एक जगह केंद्रित हो जायें । भैया ! यह तो खुद करके ही देख लो मेरी जो ये ज्ञान की किरणें विस्तृत हैं उनको केंद्रित कर दिया जाये तो लोकालोक में ज्ञान का प्रकाश विस्तृत हो जाता है । किसको क्लेश है? जिस किसी भी स्थिति में हों, जानन मात्र स्वरूप में डुबकी लगायें तो वे सब क्लेश शांत हो जायेंगे ।
वस्तुस्वरूप का यथार्थ उपदेश जैन शास्त्रों में बताया है । पाप का त्याग करो, यह सब धर्म बतलाते हैं । पापत्याग आदि विषयक उपदेश यहाँ कुछ खासियत को लिए हुए नहीं हैं कि यहाँ ही मिलें और जगह नहीं मिलें । हां-सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो इस उद्देश्य में भी खासियत है । जैसे सब कहते हैं कि हिंसा न करो, इसका मौलिक अर्थ जैन सिद्धांत में यह है कि अपने आपकी आत्मा में कोई विकल्प की तरंग न उठने दो । झूठ मत बोलो, इसका मार्मिक अर्थ है, ऐसी कोई बात मत बोलो जिससे कभी अपनी शांति को भंग करके आकुलता में आकर कुछ ऐसी बात हो जाये कि किसी को कष्ट हो, यह तुम्हारे लिए झूठ है । चोरी न करो, सब ऐसा कहते हैं । जैन शास्त्र में सूक्ष्म दृष्टि से गहरा अर्थ है कि मकान आदि पर वस्तुओं को अपना न मानो । चोरी में क्या किया जाता है? यही तो किया जाता है कि दूसरे की चीज लाकर अपने घर में रख ली जाती है और उसे अपनी मान ली जाती है । तुम्हारी आत्मा के अतिरिक्त अन्य तुम्हारा कुछ भी नहीं है । इस कारण अन्य सारे पदार्थ मेरे हैं यों किसी भी परवस्तु को अपने आत्मगृह में न करो । परनारी को देखकर अपने में विकारभाव मत लाओ । हमारी आत्मा की परिणति के अतिरिक्त जितनी भी अन्य परिणतियां हैं, वे पररमणी हैं । उन पररमणियों में मत रमो । परिग्रह परिमाण भी एक व्रत बताया जाता है, इसका लौकिक अर्थ है कि अपनी आवश्यकता से अधिक परिग्रह का संचय न करो । और इसका परमार्थ अर्थ यह है कि किसी भी पर पदार्थ पर मेरा अधिकार नहीं है, अत: मैं जो करना चाहता हूँ, कर दूंगा, इस प्रकार की कर्तृत्वबुद्धि और उसमें स्वामित्व की बुद्धि न करो ।
5 पाप सर्वत्र हैं, व्यसनों का त्याग सर्वत्र है, किंतु आत्मदर्शन व परमात्मदर्शन के लिए वस्तुस्वरूप को निरखना है तो इस अनेकांत दर्शन के उद्यान में आइये । आत्मतत्त्व को देख लेने के बाद नैतिक आचार तो सहज हो जाता है अन्यथा साधारण नैतिकता भी महान श्रम करने पर भी कठिन हो रही है । आचार्य देव ने बताया कि यह जीव राग द्वेष की कीली पर बैठा हुआ सारे संसार में अनादिकाल से अबतक भ्रमण करता चला आ रहा है । जिसे देख पाता है उस पर अधिकार कर लेने की इच्छा करता है । सो जैसे कोल्हू का बैल वहीं का वहीं गोल-गोल घूम रहा, ऐसे ही यह जीव पंचेंद्रिय के विषयों में घूम रहा । कल यही किया परसों भी यही किया, आज भी यही किया, कल परसों भी यही करेगा, पर यह समझता है कि मैं नया-नया स्वाद ले रहा हूँ । मोह की पट्टी बंधी होने के कारण यह जीव मानता है कि मैं कुछ नया काम कर रहा हूँ ।
भैया, यह आत्मा सिवाय विकल्प के यहाँ और कुछ कर ही क्या रहा है? जो जोड़ा जा रहा है यह सब आत्मा में प्रवेश नहीं करेगा । उस सबको छोड़कर ही जाना पड़ेगा । जीव में क्लेश का कोई नाम नहीं है । मिथ्याभाव से जीव को क्लेश होता है । जैन शासन की शरण पाकर अपने परिणाम ऐसे तो बना लो कि सत्य ज्ञान रहे, कषाय कम हो, भोग की इच्छा न हो । इस वैभव को यह मानो कि मेरा नहीं है । यह तो जिस जिसके भोग के काम में आये चाहे चोरों के काम में आये चाहे बंधु के काम में आये पर यह समझो कि उनके पुण्य के कारण मैं उनकी नौकरी कर रहा हूँ । इतना श्रम जो किया जा रहा है यह किसी न किसी दूसरे पुण्यवान की नौकरी की जा रही है । इसमें अहंकार नहीं आना चाहिए कि मैं कुछ हूँ । यह अहंकार इस अहंकारी जीव को क्लेश पहुंचाता है और इस भाव के कारण उसे निज में बसे हुए भी प्रभु के दर्शन नहीं होते ।
एक गाँव में एक नकटा रहता था । लोग उसे नकटा-नकटा कहकर चिड़ाया करते थे । एक ने कहा अजी नकटे ! तो नकटा बोला तुम क्या जानो नकटा होने का स्वाद । जब से यह मेरी नाक नहीं है तब से प्रभु के साक्षात् दर्शन होते है । यह सुनकर उसने भी अपनी नाक कटा ली । नया नकटा ने आसमान में देखा किंतु प्रभु तो न दिखे । वह बोला प्रभु तो नहीं दिख रहा तब पुराना नकटा बोला कि देखो तुम तो नकटा हो ही गये, अब तो तुम सबसे यही कहो कि हमें प्रभु साक्षात् दिखा करते हैं । प्रभुदर्शन के लिए और जो-जो भी नाक कटायें उन्हें भी यही समझा दिया करो । अब तो गाँव के सब नकटा हो गये एक दिन सभा में गाँव का राजा देखता है कि सबके सब बड़े सुंदर लग रहे हैं और मैं ही कुरूप लग रहा हूँ । राजा ने पूछा कि आप लोग इतने सुंदर कैसे हो गये हैं? तो लोगों ने कहा कि हम लोगों की नाक कट जाने से हम को साक्षात् प्रभु के दर्शन होते हैं । अब राजा बोला कि मेरी भी नाक काट लो । तो जो मूल का नकटा था वह बोला कि मैं कुछ आप से अलग में कुछ बात करना चाहता हूँ । उसने अलग में यह बताया कि नाक मत कटाओ मैं नकटा था, ये लोग नकटा कहकर मुझे चिढ़ाते थे, उसका मैंने यह स्वांग किया है ।
भैया इसका मतलब यह निकालो कि अहंभाव नहीं होना चाहिए । इस अहंकार को तो लोग लोकव्यवहार में नाक कहा करते हैं । नाक कटे याने अहंकार कटे तो प्रभुता के दर्शन होते हैं इसलिए साहस करो और विकल्प त्याग कर जीवन सफल करो । यह श्रेष्ठ मनुष्य जीवन पाया हैं । सोचो तो सही, यदि मैं कीड़ा मकोड़ा होता तो क्या ऐसा सत्यआनंद का उपयोग कर सकता था । अब अपने जीवन में अलौकिक क्रांति लाओ, कषायों को हटाओ, मोह को हटाओ, और सब जीवों में प्रभुता के दर्शन करो, प्रभु के प्यारे बनो, घर के प्यारे बनो । अगर प्रभु के प्यारे बनोगे तो अपने व सबके काम आवोगे ।
ये ज्ञानावरणादिक कर्म हमेशा अपने सुख दुःख कार्यों को करते रहते है तो भी शुद्धनिश्चयनय से देखा जाये तो इन कर्मों के द्वारा जिस आत्मा का कोई भी स्वरूप न तो उत्पन्न किया जाता, और न विनष्ट किया जाता, ऐसे इसको कारणपरमात्मा जानो । कर्म जीव को सुख दुःख देते हैं, यह व्यवहारनय का वचन है । एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कुछ करता है, यद्यपि यह बात असत्य है; पर उसका लौकिक अर्थ यह लगाना चाहिए कि इस पदार्थ का निमित्त पाकर यह पदार्थ स्वयं की परिणति से परिणम जाता है । आग पानी को गर्म करती है याने आग का निमित्त पाकर पानी अपने में गर्म हो जाता है यह बात सत्य है । इस सत्य को भी कहना व्यवहार वचन है । एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ के साथ संबंध लगाना व्यवहारनय है । वे कर्म खुद शुद्ध आत्मा के स्वरूप के प्रतिबंधक हैं, रोकने वाले हैं । कर्म अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार व्यवहार वाले को सुख दुःखादिक करते हैं, यह व्यवहारनय की बात है, किंतु शुद्ध निश्चयनय से तो आत्मा का स्वरूप जो ज्ञानादिक है वह अथवा यह परमात्मा न उत्पन्न किया गया और न नष्ट किया गया । ऐसा अनादि अनंत अहेतुक ज्ञानस्वभाव कारणपरमात्मा है । हे प्रभाकर भट्ट, उस परमात्मा को तुम वीतराग निर्विकल्प समाधि में ठहरकर चिंतन करो, अनुभव करो ।
भैया, निश्चयनय और व्यवहारनय इन दोनों के स्वरूप को यथार्थ जानो । इन दोनों नयों की परिस्थिति का अध्ययन करना सम्यग्ज्ञान के विकास का मुख्य साधन है । खूब ध्यान से सुनो और उसे जानकर दो चार बार उसका चिंतन करो । कई जगह हमने ऐसे स्वाध्याय प्रेमी देखे कि वे प्रवचन सुनने के बाद एकबार जितना उनसे बन सकता है, अपनी भाषा में उस प्रवचन को दुहराया करते हैं । पर शायद यहाँ ऐसा कोई नहीं करता होगा । खैर, निश्चयनय और व्यवहारनय इन दोनों का स्वरूप क्या है? जो दृष्टि केवल एक ही पदार्थ को देखती है, जो कुछ जानना और समझना उस एक ही पदार्थ में होता है, ऐसी दृष्टि को निश्चयनय कहते हैं । जैसे यह छाया पड़ रही है ना? हम यदि इन कागजों को, ये छायारूप परिणम रहे इतना ही देखें तो वह निश्चयनय की दृष्टि है, और जब यह देखें कि हाथ का निमित्त पाकर इन कागजों में यह छायारूप परिणमन हो रहा है तो उसे कहेंगे व्यवहारनय ।
एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ के साथ परमार्थत: कुछ भी संबंध नहीं है फिर भी ऐसा निमित्तनैमित्तिकयोग हो रहा है भैया, कि हाथरूप निमित्त की ऐसी सन्निधि पाकर यह पुस्तक छायारूप परिणम गई है । यदि इस मर्म को बताये तो व्यवहारनय का आश्रय लेकर बताया जाता है, किंतु एक पदार्थ को एक ही में जाना जाये तो वह निश्चयनय की बात है । दोनों नयों के मूल लक्षणों को निगाह में रखकर आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन जो करते हैं उनकी समझ में यह सब आ जाता है, वे सत्पथ कभी विचलित नहीं हो सकते । यहाँ कहते हैं कि कर्म जीव को सुख देता है, कष्ट देता है वहाँ यह अर्थ लगाना कि कर्मों के उदय को निमित्तमात्र पाकर जीव अपने परिणमन से सुखदु:ख पर्यायों को उत्पन्न करते हैं । इस अर्थ में भी चूंकि कर्म और जीव दोनों के संबंध में दृष्टि की गई है इसलिए व्यवहार की बात है क्योंकि निश्चयनय में तो किसी भी पदार्थ को उस ही एक पदार्थ में जाना जाता है ।
ये कर्म जीव को सुख दुःख देते हैं, यह व्यवहारनय से सत्य है, तो भी निश्चयनय से देखें तो इस आत्मा का जो चैतन्य स्वभाव है वह कैसे ज्ञात होगा । आत्मा में यह ज्ञान असीम बढ़ता ही चला जाये, रुके नहीं तो इसका क्या स्वरूप हो, यह जानते ही स्व ज्ञात हो जाता । ज्ञान कैसे रुक जाता है? ज्ञान तो ज्ञान के कारण नहीं रुकता, अपने आपकी ओर से अपने सत् के कारण नहीं रुकता है, किंतु उपाधि के संबंध से रुकता है । उसका कार्य जानना है और वह जानन पदार्थ के पास जा जाकर नहीं होता । यह अपने ही प्रदेश में रहता है और अर्थ सब कुछ जान लिया जाता है, ऐसा इसका ज्ञान स्वभाव है । उस स्वभाव को परमात्मा कहते हैं ।
सब लोग कहते हैं कि घट-घट में भगवान बसा है । कोई एक भगवान अलग से सारे विश्व में अपने पैर फैलाकर बसा है और फिर उसका ही अंश किसी के हिस्से में, देह में, परमात्मा के पैर का अंगूठा आया हो और किसी की देह में परमात्मा की अंगुली आई हो ऐसा नहीं है परमात्मा को स्वभावदृष्टि से देखा जाये, हाथ पैर के रूप से नहीं तो इस ज्ञानस्वभाव में परमात्मा के मर्म का पता पड़ता है । जिस विधि से जो कार्य होता है उस विधि से उस कार्य के करने में हम आप जुट जायें तो उसमें सफलता मिलती है । यदि अपने में मात्र जाननस्वरूप हूँ ऐसी अनुभूति है और जानन जो अर्थ रखता है, जानन का जो स्वरूप है उस पर दृष्टि है और तावन्मात्र अपनी श्रद्धा है तो कैसे नहीं परमात्मस्वरूप का दर्शन होगा? केवल बात करने से, केवल विपरीत यत्न से कार्य की सिद्धि नहीं होती । काम को करने से ही काम पूरा पड़ता है ।
यह मैं एक आत्मवस्तु चंचल भी हूँ, निश्चल भी हूँ । यह मैं एक आत्मवस्तु बनने बिगड़ने वाला हूँ, और रंच भी परिवर्तन नहीं हो सकता ऐसा भी हूँ । यह मैं आत्मवस्तु अपने विषय कषाय विकार द्वारा चर अचर जगत को उत्पन्न करने वाला हूँ, और नित्य अविकारी होने के कारण जैसा का तैसा अनादि अनंत हूँ । जिस दृष्टि से नित्य अविकारी अपरिणामी ध्रुव देखा जा सकता है उस दृष्टि में आत्मा को देखो तो परमात्मस्वरूप का यह मर्म विदित होता है और जिस निगाह में यह चंचल है, जन्मता है उस दृष्टि से देखें तो यह सब दुनिया नजर आती है । जगत के जीवों को दुनिया नजर आये ऐसा ज्ञान तो बहुत किया पर अपने आपके एकत्वस्वरूप पर दृष्टि हो ऐसी निगाह नहीं कर पाये । अपने आपमें घुसकर शांत होकर, यह आत्मा परमात्मा कल्याण पाता है और अपने आपसे उठकर बाहर में उछल कर यह जीव क्लेश पाता है ।
जैसे जमुना नदी में बहुत से कछुआ रहते हैं । कोई कछुवा पानी से ऊपर अपनी गर्दन निकालकर तैरता-तैरता चला जा रहा है तो उसको पकड़ने के लिए पक्षी मंडराया करते हैं व उस कछुवे की चोंच को पकड़ने के लिए कोशिश किया करते हैं । कछुवा बेचारा इस उपसर्ग से परेशान हो सकता है, मगर किसी कछुवे को कभी परेशान होते देखा? नहीं, क्योंकि उसके पास कला है, ऐसी विपदा आये तो चार अंगुल ही तो पानी में नीचे घुस जाना है । अपनी चोंच को पानी में घुसाना है फिर वे मंडराने वाले पक्षी क्या करेंगे? इसी तरह यह आत्मा अपने ज्ञान सरोवर से बाहर अपने उपयोग की चोंच निकाले फिरता है और उस स्थिति में कुटुंब की, इच्छा की, धन की, अनेक चिंताएं इसको परेशान करती हैं पर ज्ञानी को ये व्याधियां क्या परेशान करेंगी? उस ज्ञानी के पास एक कला है । धीरे से अपने आप में अपने ज्ञान बल से, अपने आपके उपयोग में निज ज्ञान सरोवर में अपने को लेना है, फिर क्या विपदायें परेशान कर सकती हैं ।
यहाँ यह जीव खुद बाहरी पदार्थों के विकल्प करता है और दुःखी होता है । यह परमात्मा प्रभु जब बिगड़ता है तब इस असुंदर दृष्टि को रचता है, और जब यह ज्ञानी होता है, अपने एकत्व को जानता है तो अपने में शिव सृष्टि को करता है । अपने आप पर जिम्मेदारी स्वयं की है । देखिये जो लोग ऐसा भी मानते हैं कि मेरे सुख दु:ख पतन और उद्धार को करने वाली अन्य शक्ति है, ईश्वर है; पुण्य कर्म करूं तो मुझे वह सुख देगा यदि पाप के कार्य करूं तो वह मुझे दुख देगा, पर पाप ही पाप करें और उससे सुख मांगें तो यह नहीं होगा जब मूलत: जिम्मेदारी खुद की है तो हम किस रास्ते से चलें कि शांति रह सके, और किस रास्ते से चलें कि दु:खी रहेंगे, यही निर्णय करना परम विवेक है ।
जैसे किसी मनुष्य के सामने दो चीजें रख दी जायें एक जगह तो खली का ढेर तिल की खली होती है ना? एक 5 सेर का टुकड़ा खली का रख दिया और एक ओर रख दिया, हीरा, मणि और उससे कहा जाये कि भैया, जो तुम मांगो सो मिल जायेगा । इतने पर भी यदि वह पुरुष खली का टुकड़ा ही मांगे तो उसको आप कितना मूर्ख कहेंगे । इसी तरह संसार के सारे संकट एक ओर व एक ओर शांति निधान यह परमात्मतत्त्व रख दिया जाये, तो आचार्य महाराज कहते हैं केवल परिणाम करने से तुम्हें ये दोनों चीजें मिल जाएगी । चाहे संसार को चाह लो और चाहे अनादि अनंत अहेतुक असाधारण ज्ञानमय आत्मा को चाह लो । जो चाहो सो चीज मिल जायेगी । इतने पर भी यहाँ यदि लौकिक सुख कोई मांगे याने अपना-अपना परिणाम ऐसा ही बनाये कि जिसमें यह संसारमय कुफल मिले तो आप उसे कितना मूर्ख कहेंगे? मूढ़ कहो या मोही कहो एक ही बात है । दोनों में धातु एक ही है मुंह धातु ।
यह आत्मा जब अपने सहज स्वरूप की भावना रखता है तो उसे शांति का मार्ग मिलता है और यह मैं मनुष्य हूँ, धनी हूँ, मैं ऐसी इज्जत वाला हूँ, मैं इतनी पोजीशन का हूँ इत्यादि कल्पना करें तो इससे दुःखी होना प्राकृतिक बात है । भाव से जो हम चाहते हैं वह तो मिल ही जायेगा, इतना अपने में ऐश्वर्य है किंतु हम और आप ऐश्वर्य का उपयोग कैसा कर रहे हैं? इसका लाभ हानि का सही हिसाब बनाये रहो । हमारी चर्या धार्मिक, कार्यों के लिए कैसी है? इसको भक्त पूजन पढ़ने के बाद पढ़ जाया करते हैं । जब तक मेरी मुक्ति न हो अर्थात् शरीर कर्म बंधन और संयोग के संकटों से मैं अलग न हो जाऊं तब तक मेरे भव-भव में ये 7 बातें होती रहें । उनमें पहिली बात तो यह है कि शास्त्र का अपना अम्यास बना रहे ।
ज्ञानार्जन के तीन चार उपाय हैं । एक तो यह है कि एक वर्ष में कम से कम एक माह लगातार घर को छोड़कर किसी ऐसे सत्संग में बसे जहाँ ज्ञान की बात और आचरण की बात सीखी जा सकती है । एक महीना तो घर नहीं छोड़ा जा सकता । अरे भैया, जब सदा के लिए घर छोड़ देते हैं तब तो यह बात बन जाती है । अपने घर को छोड़ देने वाले लोग अब भी हैं जिनका यह नियम रहता है कि हम एक वर्ष में एक माह घर छोड़कर सत्संग में रहेंगे, और यह करना एक कर्त्तव्य है । कोई चाहे कि हम मौज-मौज में ही रहें और आत्मकल्याण की बात न करें तो यह बात तो हित की नहीं है । लौकिक दृष्टि में भी वर्ष में एक माह घर छोड़ने से बहुत शांति मिलेगी । सामने घर रहते हैं तो मोह क्षोभ बढ़ता है, सामने घर नहीं है तो मोह और क्षोभ उस मात्रा में नहीं करते हैं । और फिर जितना काम बिगड़ना होता है वह अपने घर में रहते हुए भी बिगड़ जाता है । आप अपनी बात खुद समझ रहे होंगे कि यदि यह सोच लिया जाये कि एक माह को जाना है अन्यत्र, तो कितने ही कामों को पहिले निपटा लेता है यह और कितने ही कामों की उपेक्षा कर देता है और अपने समय को निकाल लेता है । प्रगति के उपाय की बात गृहस्थारस्था में भी हो सकती है।
ज्ञानार्जन का दूसरा साधन है 11 महीना में प्रतिदिन एक घंटा स्वाध्याय अवश्य किया करना । विधिपूर्वक क्रमश: एक अन्य का स्वाध्याय करो, विशेष बात या प्रश्न नोट करो, स्वाध्याय करके 5-10 मिनट में पढ़े हुए को दुहरावो । तीसरी बात अपने ही नगर में कोई अधिक पढ़ा लिखा हो उससे एक विद्यार्थी की भाँति अध्ययन करो, और चौथी बात कुछ समय कल्याणार्थ गोष्ठी में धर्मचर्चा करो । शायद कोई भाई तो यह कहते होंगे कि हमें तो, चार की चार ही बातें कठिन हैं सो बात नहीं है, ज्ञान के निकट पहुंचने लगो, कठिन कुछ नहीं । यत्न करिये, रुचि बनाइए । जब तक ज्ञान में अपना प्रवेश नहीं करते हैं तब तक ऐसा लगता है कि हम जितना जानते हैं, काफी जानते हैं अधिक जानते हैं । अब जानने को और विशेष क्या है? पर इस जैन शासन में कितनी विशालता है कि इसमें जितना ही अधिक प्रवेश कर जायें उसको उतनी ही गहराई और मर्म का अनुभव होता जाता है । और यह समझ जाता है कि अभी तो हमने इस आगम में से समुद्र के बिंदु के बराबर भी ज्ञान नहीं पाया ।
जैसे ऊँट को दूर से ऐसा लगता है कि अभी हम इस पहाड़ को पार कर जायेंगे । यह ऊँचा ही कितना है? पर पहाड़ के मूल में जब पहुंचता है तब उसे अंदाजा होता है कि यह तो बहुत ऊंचा है । अपने को ही देखो दूर से पहाड़ कैसा लगता है? मानो यह अभी पार किया जायेगा पर जब नजदीक पहुंचते हैं तो पहाड़ अगम्य हो जाता है । जैनों के बीच में और क्या कहा जाये सभी प्रकार के बंधु जिस गोष्ठी में हों वहाँ जैन साहित्य की बात समक्ष रखी जाये, सो जब बड़े-बड़े विद्वान हों तब वहाँ तत्वज्ञान की कला जानी जा सकती है । वह समझ सकता है यह बात । कुछ यहाँ ही बैठे नहीं कह रहे, सर्व सिद्धांतों का जिन्होंने परिचय पाया है दर्शन शास्त्र की पद्धति से वे पुरुष समझ सकते हैं । परमात्मतत्त्व की बात जिसके संबंध में जानने का सभी ने यत्न किया और जानन क्रिया पर परेशानी भी पाई यदि स्याद्वाद के आश्रय से नय चक्रों की सहायता से जानते तो विशद परिज्ञान कर लेते ।
नयों का विवेचन जैन सिद्धांत में ही मिलेगा जिसके बिना वस्तुस्वरूप का पूरा ज्ञान नहीं हो सकता । फिर समाधि और कल्याण के लिए उसे यह उत्साह जागेगा कि सब नयों की बात छोड़कर केवल अनुभवरूप रह जाये । इस आत्मा के संबंध में यहाँ एक पद्धति यह भी बताई गई है कि यह नई अवस्था में आता है और पुरानी अवस्था को छोड़ता है फिर भी अचल सा अचल है । इस उत्पाद व्यय ध्रौव्य में भी निश्चल स्वरूप को परख लेना यह नय की कलाओं का काम है । जैसे नय के द्वारा हम अपने आपको अटल, निश्चल, निष्काम शुद्ध ज्ञानमात्र स्वभाव को निरखते हैं, उस दृष्टि को कहते हैं परमशुद्ध निश्चयनय और इस दृष्टि में रहकर अपने को ज्ञातादृष्टा मात्र पाकर हम अनंत आनंद पाते हैं और कर्मों का विनाश करते हैं । हे प्रभाकर भट्ट ! तुम उसको परमात्मा जानो, जो कर्म के द्वारा न तो नष्ट किया जाता है और न उत्पन्न किया जाता है, अर्थात् चिदानंद एकस्वरूप अपने आपकी भावना का भाव करो और अपने को निर्विकल्प बनाओ ।
निज कारणपरमात्मतत्त्व के संबंध में भिन्न-भिन्न पद्धति से वर्णन चला आ रहा है । अब यहाँ यह बतलाते हैं कि जो कर्म से निबद्ध होकर भी कर्मरूप नहीं होता है और कर्म भी जिस परमात्मतत्त्वरूप नहीं होते हैं उसको तुम परमात्मा जानो ।