वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 49
From जैनकोष
कम्मणिबद्धु वि होइ णवि जो फुडु कम्मु कयावि ।
कम्मु वि जो ण कयावि फुडु सो परमप्पउ भावि ।।49।।
जो कर्म निबद्ध होकर भी कभी कर्मरूप नहीं होते हैं उसे तुम परमात्मा जानो । कोई भी पदार्थ है, वह अपने ही स्वरूपास्तित्त्व से है इस कारण अनेक पदार्थो के बीच रहकर भी प्रत्येक पदार्थ किसी दूसरे रूप नहीं होता ऐसा ही इस ज्ञानमय पदार्थ का स्वरूप है अपना स्वरूप है, अपने में अपने स्वरूप का विकास आता है वही अपना हित है । इसलिए अपनी गाथा गाई जाती है । जो एक भी पदार्थ के सत्य स्वरूप को समझते हैं वे सभी पदार्थों के सत्य स्वरूप को समझते हैं । जो आत्मा के स्वरूप को समझते हैं वे शेष सभी पदार्थों के स्वरूप को समझते हैं ।
प्रत्येक पदार्थ 6 साधारण गुणों से तन्मय है । पदार्थ हैं वे अपने स्वरूप से हैं, पर के स्वरूप से नहीं हैं । प्रति समय परिणमते रहते हैं । अपने ही स्वरूप में परिणमते रहते हैं, अन्यरूप नहीं परिणमते । वे प्रदेशवान हैं तथा ज्ञान के विषय हैं । इतनी बात प्रत्येक पदार्थ में पायी जाती है । पदार्थ यदि साधारण गुणों तक ही रहे और असाधारण गुण की अपेक्षा न रखे तो पदार्थ सत नहीं रह सकेगा और केवल असाधारण गुणों तक ही रहे पदार्थ तो भी उसका अस्तित्व नहीं रह सकता । साधारण गुण असाधारण गुणों बिना नहीं रह सकता और असाधारण गुण साधारण गुणों के बिना नहीं रह सकता । इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप साधारण एवं असाधारण गुण मय होकर भी सब पदार्थ अपने असाधारण स्वरूप में अवस्थित हैं । हमारी आपकी आत्मा इस समय केवल नहीं है, यह अनेक आपदाओं में घिरा हुआ है, शरीर से बंधा है । राग द्वेष कषाय विषय भोग इन विकारों से मलिन है । कुछ पुण्यमय उदय हुआ, कुछ समता सामग्री मिल गई इसको देखकर कैसे फूला जाये? कैसे हर्षमग्न रहा जाये । यहाँ तो बड़ी विपदायें हैं । कोई रक्षक नहीं है, कोई शरण नहीं है ।
भैया सर्व पदार्थ अपने प्रयोजन के लिए ही परिणमते हैं । अचेतन पदार्थों के परिणमन का क्या प्रयोजन है? प्रयोजन यह है कि उनकी सत्ता बनी रहे । और चेतन पदार्थों के परिणमन का क्या प्रयोजन है कि उसकी सत्ता बनी रहे । साथ ही चूंकि यह चेतन है सो प्रत्येक जीव का प्रयोजन मूल में आनंद है सो जो काम जीव करना चाहता है वह आनंद के लिये ही करना चाहता है । पर आनंद का संबंध ज्ञान से है क्योंकि ज्ञान बिना आनंद नहीं इस कारण जीव में ज्ञान का भी प्रयोजन है । जैसे आनंद भाव की उत्सुकता जीव में है उसीप्रकार सही जानने की उत्सुकता भी जीव के पाई जाती है ।
हम आप सब द्रव्य हैं जो कि प्रभु हैं । जैसे बिरादरी में कोई धनिक हो गया, कोई गरीब है पर बिरादरी एक है, जाति एक है, पर किसी के संपत्ति बढ़ गई तो क्या हुआ? इसी प्रकार जीव द्रव्य तो हम आप जैसे संसारी जीव हैं वैसे ही जीवद्रव्य आनंदमय प्रभु भी है । उन्होंने कैवल्य दृष्टि पायी थी, अपने आपमें केवल सहज स्वरूप का अनुभव किया था, वहाँ निज स्वरूप का आलंबन किया था तो यह कर्म बंधन से मुक्त हो गया । होने दो उन्हें कर्ममुक्त पर द्रव्य पदार्थ तो वही है जो मैं हूँ । अंतर है केवल विकास का और अविकास का । हम अपनी परिणतियों में आत्मबुद्धि करें और अपने अस्तित्व के कारण जो अपना स्वरूप है उस रूप अपने को मानें तो इसकी केंद्रित शक्ति का ऐसा प्रताप है कि समस्त लोकालोक विषयक ज्ञान प्रकट हो जाता है । हम आप सब ज्ञान और आनंद से रचे हुए हैं, अन्यथा हम और आपका स्वरूप और क्या है? भीतर दृष्टि देकर देखो तो सही कि मेरा स्वरूप है क्या? जो हड्डी मांस मज्जा है वह तो मेरा स्वरूप नहीं है । मेरा स्वरूप क्या है? कुछ विध्यात्मक भी है क्या? अंतर्दृष्टि करो तो आपको जानन स्वरूप मिलेगा, वहाँ ज्ञानभाव और साथ ही आनंदभाव मिलेगा । ज्ञान और आनंद के सिवाय आत्मा का और क्या स्वरूप बताया जा सकता है । इसको लोग सच्चिदानंद कहते हैं । सत् का अर्थ है शक्तिमय और चित्त का अर्थ है आनंद । यह आत्मा ज्ञान दर्शन आनंद शक्ति स्वरूप है ।
कुछ भाई यह कहते हैं कि भगवान तो सच्चिदानंद है और ज्ञानी लोग सच्चिद् हैं, और अज्ञानी जीव मात्र सत् रूप हैं तो विकास की अपेक्षा यह बात है । मोही पुरुष को तो अपने ज्ञान का ही पता नहीं, इसलिए वह केवल सत् है, चित् नहीं ! ज्ञानीजनों को अपने चैतन्यस्वरूप का परिचय हो गया इसलिए वह चित् भी है और परमात्मा प्रभु की शुद्ध अवस्था होने के कारण परम आनंदमय अवस्था हुई इसलिए प्रभु को सच्चिदानंद कहें किंतु स्वरूपत: प्रत्येक जीव सच्चिदानंद हैं । तथा प्रत्येक जीव में ज्ञान दर्शन व आनंद का कुछ विकास रहता ही है । आनंद गुण के विकार परिणमन हैं सुख और दु:ख । जब बुद्धि संसारी जीव की राग द्वेष मोह के कारण पर पदार्थों में घुलने लगी तो आनंद का शुद्ध परिणमन नहीं होता, सुख दुःख रूप परिणमन होने लगते, पर वह दुःख भी आनंद गुण का सूचक है । उसको राग द्वेष ने घेर लिया सो चैतन्य का स्वरूप दब गया और राग बुद्धि इसमें प्रकट होने लगी । परंतु यह राग द्वेष भी चित् का समर्थन करता है । चित् न होता तो रागद्वेष कहाँ झलकते ।
रागद्वेष एक चैतन्यमय पदार्थ में ही हो सकता है । जिसमें रागद्वेष हैं वहाँ चैतन्य पाया जाता है । जैसे कि मंदिर के भीतर का स्थान है, यहाँ बैठने वालों को भीतर की बिजली नहीं दिख रही, पर आपको भीतर की प्रकाशित वस्तुयें दिख रही हैं सो प्रकाशित वस्तुओं को देखकर आप लोगों को भीतर की बिजली का ज्ञान रहता है । बिजली का प्रकाशित लट्टू नहीं होता तो यह टेबिल बर्तन आदि भी न प्रकाशित होते । इसी तरह किसी आत्मा का ज्ञान विशद नहीं हो रहा है किंतु रागद्वेष कषाय इनका भान हो रहा है तो राग द्वेष विभाव आत्मा के ज्ञान भाव का अनुमान कराता है । सभी जीव चिदात्मक हैं आनंदमय प्रत्येक जीव हैं पर जिनमें चित् का अधिक विकास होता है वह ज्ञानी पुरुष है और जिसमें आनंद का पूर्ण विकास होता है वह प्रभु है । हमारा भी स्वरूप सच्चिदानंदमय है ।
देखो इस प्रभु का स्वरूप यद्यपि यह कर्म से जकड़ा है फिर भी यह कारणपरमात्मा कर्मरूप नहीं हुआ । और जकड़ भी क्या गया? कर्म के उदय का निमित्त मिला और यह जीव अपने में कल्पना करके जकड़ गया । पूर्व समय की एक कथा है कि एक पुरुष राजा जनक के पास आया और बोला महाराज मुझे परिवार ने बहुत बुरी तरह से फाँस रखा है । कोई ऐसा उपाय बताओ कि हम परिवार के चंगुल से बच जायें । राजा जनक ने कुछ उत्तर नहीं दिया और एक पेड़ को अपनी जेट में भरकर बोलने लगे कि अरे मुझे इस पेड़ ने पकड़ लिया है, मैं बड़ी आफत में फंस गया हूँ, इस पेड़ ने मुझे जकड़ लिया है । यह पेड़ मुझे छोड़ दे तो तुम्हारा जवाब दूंगा । तब वह गृहस्थ बोला महाराज लोग तो आपको बड़ा विद्वान बताते थे, किंतु आप तो बड़े मूर्ख निकले । आप कहते हैं कि मुझे पेड़ ने जकड़ लिया है । अजी, आपने पेड़ को जकड़ा कि पेड़ ने आपको जकड़ा? तो राजा कहता है कि तू भी तो ऐसा ही मूर्ख है । कहता है कि मुझे भाई स्त्री पुत्रादि ने जकड़ लिया है । अरे कुटुंब ने तुझे जकड़ा है कि तूने कुटुंब को जकड़ा है?
भैया, हम आपको जकड़ने वाला कोई नहीं है । सब एक ही रोग के रोगी है । सबको वही एक रोग है । किसी को मोह का रोग है किसी को मोह का रोग नहीं है, तो रोग द्वेष का है । यह रोगी अपने आप कल्पना बनाकर पर के अधीन बन रहा है । यदि कोई मुझसे कहे कि तुम तो त्यागी हो गये तुम्हें क्या प्रयोजन है? औरों की बात और है । तुम तो मात्र आत्मा का ध्यान करो । क्या करें भैया, राग की प्रेरणा है सो कुछ परेशानी सामने आती है । उस राग को शुभोपयोग में पटकते हैं । आपके भाव दूसरे जाति के हैं, उसमें वेदना होती है । बंधन में सब पड़े हैं । आपकी वासना की जाति होगी कुटुंब, वैभव, धन, मित्र रिश्तेदारी के प्रसंग संबंध की और हमारी जाति है कि कुछ लोगों को पढ़ाये भी कुछ प्रवचन करें, साहित्य लिखें । आप हम जो कुछ मोहप्रसंग की बात करते हैं उससे कुछ मिलता नहीं ।
हम आप जो कुछ चाहते हैं उससे कुछ नहीं मिलता है । हां मिल सकता है अपने को कुछ, यदि अपना उपयोग निर्मल रहे, गंदी बातों में चित्त न जाये । अपने सत् उपयोग के लिए इन वचनों को पढ़कर लिखकर, सुनकर यदि कुछ उत्साह जगता है जैसे कि प्रवचन करते समय जो बोला जायेगा कुछ अंतर में विचार के ही तो बोला जायेगा । मैं अपने से कह रहा हूँ ऐसा मान सकूं तो उससे कुछ फायदा है रागद्वेष कषाय की प्रवृत्ति में ज्ञान सावधान नहीं रह पाता । सो इतने में ही हम आप बंध जाते हैं हम आप किसी से बंधे नहीं है, किंतु उपाधि का निमित्त पाकर अपने आपके परिणामों से बंध गये हैं । जीव को तो भाव का ही विकट बंधन है ।
देखो तो भावों के परिणमन कितने विचित्र होते हैं । पवनंजय हनुमानजी के पिता थे । लोग बोलते हैं ना? पवनसुत, याने जो पवन से पैदा हुआ है । पवन शब्द की समता से और लोगों ने, हवा से, उत्पन्न हुआ अर्थ कर डाला । खैर ! वह पवनन्जयकुमार अंजना की तारीफ सुनकर जरा भी नहीं रह सका । तीन दिन बाद ही तो विवाह की तारीख थी । लेकिन तीन दिन भी प्रेमोत्सुकता के कारण न गुजार सका और बोला मित्र से कि अंजना को देखने के लिए चलेंगे । मित्र ने बहुत समझाया किंतु न माना । अब लज्जा के कारण प्रकट देखने तो नहीं जा सकते थे, छिपकर मित्र के साथ विमान में बैठ कर चल दिये । उस नगरी में राज-उपवन में अंजना थी । देखने के लिए छिपकर वहाँ पहुंचे । अंजना एक सुंदर कन्या थी । विवाह की चर्चाएँ की तो अंजना की सखियाँ कहने लगीं कि अब तो आप रानी बनेंगी । हाँ अमुक राजा आपके योग्य था पर पिता ने तुम्हारे पाणिग्रहण को और के साथ किया । ऐसी नाना प्रकार की बातें करें । पवनंजय को छोड़कर और राजाओं की बातें की तो पवनंजय को यह दिल में खटका कि इसमें मेरे प्रति कुछ प्रेम नहीं है और दूसरों का नाम सुनकर गुस्सा आ गया । सोचा कि यहीं दोनों का सिर फोड़ दू सखी का और रानी का । मित्र ने कहा कि क्या अनर्थ सोचते हो । तब पवनंजय रुका और सोचा कि शादी होने दो फिर मैं तिलांजलि देकर बदला चुकाऊँगा । शादी हुई तब पवनंजय 22 वर्ष तक अंजना के
पास नहीं गया । और यह अंजना पति को देखने की इतनी उत्सुक थी कि यह कुमार मुझे गालियां भी दे पर मेरे सम्मुख तो हो । देखो भैया, कहाँ तो पहिले इतना तीव्र राग था । कि तीन दिन का धैर्य न रख सके और अब कहाँ इतना तीव्र बैर कर लिया । यदि शादी न करूँ तो बैर कैसे निकालूंगा इस आशय से शादी की । आगे का परिणाम देखिये कि रावण का और किसी राजा का युद्ध होना था जिसमें बहुत से राजा गये, और पवनंजय के पिता को आमंत्रण आया, तब पवनंजय खुद गया । रावण बड़ा प्रतापी, सदाचारी और विद्वान पंडित था । केवल एक ही कुबुद्धि आई कि रावण के सब वैभव पर पानी फिर गया । पवनंजय ने एक तालाब के किनारे रात्रि को डेरा डाला, वहाँ पर चकवा चकवी बिछुड़कर दुःखी हो रहे थे । पवनंजय ने सोचा कि यह तो एक रात का पति का वियोग नहीं सह सकती, हाय मैंने 22 वर्ष तक अपनी रानी को इसी प्रकार से तिलांजलि दे रखी है । वह उसी समय चुपचाप महल में पहुंचा और बड़े नम्र शब्दों से वार्तालाप किया, रात भर रहा । बाद को वह जब जाने लगा तो अंजना ने कहा कि आप सास ससुर को बता करके जाइये । आशय यह था कि यदि उसके अब गर्भ रह गया हो तो बाद में कोई दोष न समझे । पवनंजय को शर्म यह लगी कि युद्ध के लिये तो कह कर गये थे अब स्त्री के राग में बीच से लौट आया, सो उसने कहा तुम मेरी अंगूठी ले लो, यही निशानी है । अंगूठी देकर वह चला गया युद्ध में । वहाँ युद्ध में पवनंजय को 6 माह का समय लग गया । यहाँ गर्भ जानकर सास ने इस अंजनासुंदरी को घर से निकाल दिया और उसके पिता ने भी स्थान नहीं दिया । वह हताश होकर जंगल में भटकने लगी तो वहाँ एक साधु पुरुष के दर्शन हुए तब अंजनासुंदरी की व्याकुलता दूर हो गई । वहाँ साधु ने बताया कि तेरे एक महा प्रतापी पुत्र पैदा होगा । एक गुफा में हनुमान का जन्म हुआ । जन्म के समय में ही गुफा में प्रकाश छा गया । एक दो दिन हुए, दस पांच दिन हुए अंजना का मामा विमान मार्ग से गुजर रहा था । विमान रुका । मामा नीचे उतरे । उस विमान में अंजना और हनुमान भी बैठे । बड़े जोर से विमान जा रहा था । बीच में हनुमानजी खेलते गिर गये । नीचे जाकर देखा कि पहाड़ के टुकड़े-टुकड़े थे और हनुमानजी प्रसन्न थे । तब यह जानकर कि यह मोक्षगामी होगा सो हनुमानजी की तीन प्रदक्षिणा दी और फिर हनुमानजी को बैठाया । अब पवनंजय आया और अंजना को न देखा, तब उसने यह विचार किया कि जब तक अंजना नहीं मिलेगी तब तक मैं अन्न नहीं लूँगा ।
देखो भैया ! भावों का कितना विचित्र खेल है । कोई कह सकता है कि यह मेरा परममित्र है । यह सब दिल की प्रसन्नता का रिश्ता है । ये सब इस परमात्मा में जो सिनेमा हो रहे है सब कर्म उपाधि के सामने होने का परिणाम है, नहीं तो यह आत्मस्वरूप अपने आप अनंत ज्ञानानंदमय है, इसको किसी प्रकार से क्लेश नहीं है । हम और आप सब गृहस्थ हैं जो समागम मिले उनका सदुपयोग करो । तन, मन, धन, वचन लगाकर अपनी व समाज का सुधार क्यों न करो? धर्म की प्राप्ति जिनके है उनको तो शांति मिलती है, ज्ञान भी स्वच्छ है, मोक्ष के निकटवर्ती हैं, किंतु जिन जनों के धर्म में ज्ञान में प्रीति नहीं हैं वे पूरे अंधेरे में ही हैं । उन्हें आगे पीछे का कुछ पता नहीं है भैया, अपने को निरखो कि मेरा केवल मैं ही हूँ । यह कर्मों का बंध क्यों हो गया । अपना जो सहज शुद्ध आत्मस्वरूप है उस ओर दृष्टि नहीं हुई सो पुण्य और पाप रूप से यह कर्म बंध गया ।
भैया अभी भी जीव पुद्गल पुद्गलों की भाँति बंध नहीं है । केवल निमित्त नैमित्तिक रूप बड़ा बंधन है । आप स्त्री से बंधे हैं तो क्या आपके हाथ पैर स्त्री से बंधे हैं? ऐसा तो बंधन है नहीं । बंधन तो इतना लगा रखा है कि एक माह को भी नहीं अलग हो सकता । कैसे जायें? हित की बात भी कहो कि एक वर्ष में एक महीना घर छोड्कर रहो तो भी नहीं रह सकते हैं । चाहे स्त्री लड़ती हो रोज, तब भी नहीं छोड़ा जा सकता । देखो हाथ से हाथ पैर नहीं बंधे पर अपनी कल्पना से बंध गये विकट । हम स्वयं विकल्प करके पर पदार्थों से बंध जाते हैं । तो यही बंधन है कर्मों से व्यवहार से । शुद्ध निश्चयनय से देखो तो यह आत्माकार्य रूप नहीं हुआ अर्थात् यह आत्मा ज्ञानादिक अनंत गुणों के स्वरूप को छोड़कर कार्यरूप में नहीं परिणम जाता है । कर्म में बंधन है तिस पर भी अपने स्वरूप से परिणमता है । ऐसे इस कारण परमात्मा को जानो ।
कैसा है यह परमात्मा? कर्मनिबद्ध होकर जिसकी आत्मा कर्मरूप नहीं होती और न यह कर्म भी इस आत्मरूप होता । ज्ञानावरणादिक के भेद से 8 प्रकार का कर्म यह परमात्मा नहीं बनता । यह कर्म भी अपने स्वरूप को त्यागकर परमात्मस्वरूप से नहीं परिणामता । देह और आत्मा का भी बंध है पर आत्मा अपने रूप से परिणमता है और देह अपने रूप से परिणमता है । हे प्रभाकर भट्ट ! अपने एकत्वस्वरूप की भावना करो तो अपने में अपने प्रभु के दर्शन हो सकते हैं ।
यह आत्मा न तो कर्मरूप होता है और न कर्म आत्मरूप होता है । ऐसे भिन्न अपने स्वरूप में रहनेवाले अपने चैतन्य परमात्मस्वरूप की भावना करो । अपने शरीर का राग छोड़कर शुद्ध आत्मा की परिणति की भावना रूप अंतरात्मा में ठहरकर इस ज्ञान दर्शन स्वरूपी परमात्मा की भावना करो । आत्मा 3 तरह का है, बहिरात्मा, परमात्मा और अंतरात्मा । परमात्मा होना है और बहिरात्मा छोड़ना है इन दोनों कर्मों का उपाय है अंतरात्मा होना । अंतरात्मा के उपाय से बहिरात्मा छूट जाता है और परमात्मा का विश्वास होने लगता है । इस प्रकार तीन प्रकार की आत्मा को बताने वाला जो यह प्रथम महाधिकार है उसमें यह बताया गया है कि जैसे निर्मल ज्ञान व्यक्ति रूप शुद्ध परमात्मा मुक्ति में विराजमान है, वही शुद्ध निश्चयनय से शक्ति रूप में परमात्मा देह में ठहर रहा है ।
अब इसके बाद इस दोहा में यह बात बतायेंगे कि यह आत्मा अपनी देह के बराबर है । आत्मा के स्वरूप पर दृष्टि दो तो लंबा चौड़ा मोटा आदि ध्यान में नहीं रहता और उसके प्रदेश में दृष्टि दें तो प्रत्येक आत्मा अपने पाये हुए देह के बराबर है । जैसे दीपक का प्रकाश जितने बड़े घर में है उतने ही घर में फैल जाता है । यह एक दृष्टांत है । यदि उसे एक घड़े में रख दिया जाये तो वह घड़े में प्रकाश करेगा इस प्रकार यह आत्मा जितने देह में आता है उतने देह प्रमाण में फैल जाता है । और एक ही भव में देख लो कि बच्चे का शरीर कितना छोटा है ? वही शरीर बढ़ जाता है तो यह आत्मा उतने शरीर में फैल जाता है और एक देह से दूसरे देह में जाये तो उस देह प्रमाण हो जाता है । जैसे चींटी आदि का देह छोड़कर हाथी के देह में जाये तो यह आत्मा हाथी के देह के बराबर फैल जाता है । इस प्रमाण के संबंध में अब यह दोहा कह रहे है:―