वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 5
From जैनकोष
ते पुण वंदउं सिद्ध-गण ज णिव्वाणि वसंति ।
लोयालोउ वि सयलु इहु अच्छहिं विराल णियंत ।।5।।
मैं उन सिद्धों को नमस्कार करता हूँ । जो सिद्धलोक के शिखर पर रहते हैं । यह व्यवहारनय की बात है । निश्चयनय की अपेक्षा सिद्ध आत्मा अपने आप में विराजमान है । जो आत्मा में बसते हुए भी लोकालोक के समस्त द्रव्यों को जानते हैं मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ । सिद्ध एक द्रव्य है और शिखर एक द्रव्य है । निश्चयनय की अपेक्षा आत्मा में जितने भी गुण हैं उनकी क्रिया आत्मा में ही होती है । आत्मा के ज्ञान गुण को क्रिया आत्मा ही में होगी । ज्ञान का अर्थ है जानना । ज्ञान का परिणमन पर पदार्थों में नहीं हो सकता आत्मा में ही परिणति होगी अन्य में नहीं । जैसे कि क्रोध करने का असर अपने पर ही होता। पर का जानना उपचार व्यवहार है स्व का जानना व ज्ञायकत्व निश्चयनय है । जैसे दर्पण के पीछे अनेक आदमी हैं उसमें उसका प्रतिबिंब पड़ता है । दर्पण में जो पर का प्रतिबिंब हुआ यह है व्यवहार दर्पण में जो निजी स्वच्छता है जिसके बल पर प्रतिबिंबपन पाया जाता है । वह बात निश्चय है । प्रतिबिंबरूप परिणमन व्यवहार है । दर्पण में अमुक आ गया, यह हुआ उपचार । उसी प्रकार आत्मा में जो ज्ञान शक्ति है वह निश्चयनय है ! ज्ञेयाकार व्यवहारनय हैं । मेरे ज्ञान में बंबई आ गयी आदि यह हुआ उपचार । मैं अपना ही परिणमन कर सकता हूँ । यहाँ नमस्काररूप परिणमन भी एक मेरा ज्ञानपरिणमन है जिसका संप्रदान मैं हूँ अत: मैं कर्मक्षय के लिए सिद्धज्ञेयाकार परिणमनरूप नमस्कार करता हूँ ।
हे जिनेंद्र भगवान ! मैंने शुभ अशुभ भाव जो भव-भव में किये उनके फलस्वरूप अनंत कर्मों का जाल बंध गया है वह मरने पर भी नहीं छूटता साथ ही जाता है । हम में जो परद्रव्य के प्रति रागद्वेष विभाव भरे हुए हैं विपदा के कारण हैं । मेरे मात्र यही अभिलाषा है कि रागद्वेष छूटे, मोहमाया मिटे क्योंकि ये दुःखों के देने वाले हैं । एकीभाव स्तोत्र में बताया है कि भव-भव में मेरे द्वारा जो कर्म जाल बनाया गया एकत्रित हुआ ये सब कर्म जाल भी भगवान की भक्ति करने से नष्ट हो जाते हैं किंतु भगवान पर श्रद्धा होय तब तो ऐसी भक्ति करे कि भगवान के गुणों में अपना भावरस एकमेक हो जाये ।
वैसे तो भैया ! भक्ति सभी करते हैं, जिसका जिसमें उपयोग लगे उसके लिए वही भक्ति है, जैसे पिता भक्ति, स्त्री भक्ति, पति भक्ति, भगवद् भक्ति । अब सोचो कि हमारा पुण्य भी ठीक है जो हम जैनकुल में पैदा हुए । आजीविका भी ठीक ही चल रही है, स्वास्थ्य भी ठीक है, ग्रंथों का अध्ययन भी ठीक है, उपदेश भी ठीक ग्रहण कर रहे हैं । जब चाहे ऋषिमुनियों का भी समागम हो ही जाता है । ऐसी स्थिति में कुछ सही तो निर्णय करो कि कौन-सा कार्य हमें सुख पहुंचा सकता है । परदृष्टि रखने से दुःख ही होगा । क्या परद्रव्य में मोह रखने से गुजारा हो जावेगा? भैय्या ! इन सबसे पूरा नहीं पड़ेगा । स्वात्मभक्ति से ही भला होगा । जो आज मोहवश हमें दश आदमी भला कह रहे हैं, कल न वे होंगे और न हम रहेंगे । रागद्वेष करने से कुछ नहीं होगा । यही सब सोचने की बात है । यदि हम इतना ज्ञान रखकर भी गिर गये तो बहुत नीचे गिरेंगे । सावधानी से चलने का, सहने का अवसर है । हे प्रभो जब तुम्हारी भक्ति उस जाल को भी नष्ट कर सकती है तब अन्य क्या कठिनाई है जो नष्ट नहीं हो जायेगी । उपयोग यदि सही हो जावे तो सर्वे आपदा दूर हों, आत्मा का स्वभाव भी तो यही है । जैसे किसी बच्चे को हिचकी आ रही होती है तो उसका उपयोग अन्य में लगाने के लिए कुछ ऐसी बात करते हैं ताकि उसका उपयोग हिचकी से दूर हो जावे ताकि हिचकियां बंद हो जावे । उसी प्रकार जगत के ये दंदफंद मोहमाया का जाल भी एक प्रकार की हिचकियां, हैं उनको दूर करने का उपाय है जिनेंद्र भगवान की भक्ति, अपनी आत्मा को पहिचानना।
भैया ! पहिले जैनधर्म का बहुत अधिक प्रचार था, जैसे रात्रि भोजन न करना, झूठी गवाही न देना, न्याय करना आदि आदि । बुजुर्गों ने जो इनका पालन किया था उसका ही यह परिणाम है, यह नतीजा उन्हीं की कमाई का है कि आज भी हम में संस्कार बने हुए हैं । लोग आज भी जैनसमाज को श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं । जैनों का आचरण फिर भी अधिक नहीं गिरा । भैय्या ! यह धन, वैभव तो पुण्य के बल से प्राप्त होता ही रहेगा फिर अपने भाव बिगाड़ने से क्या लाभ है? यदि कोई इस धारणा को बनाता है कि मैं कमाता हूँ तो सुन लो जरा, कमाना का भावार्थ है कम, आना अर्थात् भाव बिगाड़ने से कम ही आता है और अपने पूर्वजन्म के पुण्य से जितना है उतना आवेगा ही, फिर अपने भाव बिगाड़ने से क्या लाभ? सोचो ! ऊपर से हम शुद्ध भाव बनायें व ग्राहक यह निश्चय मानें कि इस दुकानदार के यहाँ सचाई है, न्याय है तब लेनदेन करता है, नहीं तो ग्राहक को यदि अविश्वास रहे तो वह कैसे आयगा, ग्राहक भी तभी आयेगा जब कि उसे उसकी ईमानदारी पर विश्वास है । फिर जब ऊपर अच्छा व्यवहार दिखाने से ग्राहक पर इतना प्रभाव पड़ता है तब अंतरंग में शुद्धभाव रखने से कितना नहीं पड़ेगा । अत: अंतरंग से ही शुद्ध भाव रखने चाहिये । भगवान से यही प्रार्थना करे कि हे प्रभु ! स्वप्न में भी मेरे खोटे भाव न आवे, यही तो असली कमाई है जो अगले जन्म में भी काम आवेगी । इन सब विचारों की पुष्टता भी सिद्धभक्ति के प्रसाद से होती है ।
मैं कर्मक्षय के अर्थ सब सिद्धों को नमस्कार करता हूँ । ये सर्व सिद्ध कैसे हैं कि ये व्यवहार से सर्वलोकालोक को प्रतिभासते हैं परंतु निश्चय से अपने आत्मस्वरूप में ही बसते हैं । आत्मा का स्वरूप है विशुद्ध ज्ञान दर्शन । उस विशुद्ध स्वभाव की वर्तनारूप उपयोग में ही वे सदा बसते हैं । अन्य लोक व अलोक परद्रव्य हैं । परद्रव्य के साथ स्वप्रभु की तन्मयता रही है । यह तो ज्ञायकभाव की स्वच्छता का चमत्कार है कि ज्ञान अपने आपको परज्ञेयविषयक जाननक्रिया करते हैं । जैसा व्यवहार है वैसा जानन बना इससे व्यवहार से यह कहा जाता है कि प्रभु लोक अलोक को जानते देखते हैं । निश्चय से प्रभु स्वसंवेदनस्वरूप अपने यत्न में ही रहते हैं । यदि बाह्य पदार्थो को सीधा जानें, देखें या अनुभव तो बाह्य की सुख-दुःख वर्गारसादि परिणमनों का अनुभव भी प्रभु में आ धमकेगा । पर के राग-द्वेष पर्याय को निश्चय से जाना तो प्रभु रागी-द्वेषी बन बैठेगा । किसी के सुख-दुःख को निश्चय से जाना तो प्रभु सुखी-दुःखी हो जायगा । पुद्गल के पर्याय को निश्चय से जाना तो प्रभु जड़ हो जायगा । प्रभु तो मात्र अपने चिदानंद स्वभाव में ठहरते हैं । इसी विशेषता के कारण वे योगिजनों द्वारा ध्येय होते हैं । प्रभु निश्चय स्वस्वरूप में अवस्थित है यही उनकी महत्ता है । हम आप सबको स्वस्वरूप में अवस्थान होना उपादेय है ।
अपने आपमें चैतन्य स्वभाव को अनुभूति ही अमृत है । यदि नहीं तो बताओ वह और कौनसा अमृत है जिसको पाकर मृत्यु न हो । क्या पौद्गलिक-वस्तु खाने से जीव अमर हो जाता है । औषधि आदि से भी इतना हो सकता है कि कुछ अधिक जीवन का समय बढ़ जाये किंतु यह संभव नहीं कि मृत्यु ही न हो । देवताओं में भी कई माह में भूख लगने पर अमृत झरता है तथा भूख शांत हो जाती है किंतु मृत्यु तो उनकी भी होती ही है । न मरने वाला ऐसा जो निजी स्वरूप उसका ध्यान करना ही अमृतपान करना है ! कितने भवों से रागद्वेष प्राणी का चलता आया है किंतु जब यह भाव आ जाय कि मेरा कुछ नहीं मैं तो चैतन्यस्वरूप हूँ, वहीं सब सकल के समाप्त हो जाते हैं । यही अमृतपान है । योगीजन जब अपने में लीन हो जाते हैं तब कंठ से जो घूंट नीचे सहज उतरता है उस समय जो घूंट गुटका जाता है वह घूंट उस समय का बहुत बड़ा अमृत होता है । आत्मस्वभाव की दृष्टि करना ही अमृत है । ये दृष्टि वस्तुएं को स्वतंत्र 2 निहारने के पश्चात् ही मिलती है ।
एक राजा के यहाँ सुकुमाल पुत्र को वैराग्य हो गया । वह दीक्षा लेकर मुनि हो गया । उसके संबंधी ने जहाँ यह प्रबंध किया कि कोई कष्ट न होवे वहाँ दूसरे संबंधी ने जिसे अधिक स्नेह का, किंतु इच्छा के प्रतिकूल वैराग्य ले लिया, यह परिणाम किया कि जहाँ भी वह मिले उसकी खाल खिंचवा लें । सुकौशल की मां ने भी सिंह बनकर पुत्रघात किया था । भैया ! यह मोहजाल विपदा का कारण है जो प्राणी को मोह वश क्रोध में क्या से क्या कर देता है । लेकिन धन्य हैं वे प्राण । जो उपसर्ग की स्थिति में भी इस अमृत चैतन्य का ध्यान करके ऐसा प्रखर भेदविज्ञान का व्यवहार करते हैं कि क्लेश नहीं होता । उस जीव ने सब कुछ प्राप्त कर लिया जिसने अपने को सब जीवों से विभक्त कर लिया है । धन, कंचन, ऐश्वर्य, वैभव आदि सब प्राप्त हो सकता है किंतु सबसे कठिन व पूर्ण लाभमय एक ही यह आत्मदर्शन की बात है जो किसी के देने से, एहसान से नहीं मिलती, यह तो खुद के ही विकास से प्राप्त होती है । परपदार्थ को अपना मानना आदि सब विडंबना है । इन सबसे कोई लाभ नहीं । क्या तत्त्व है परपदार्थ में रागद्वेष की कल्पना करने से ।
भवदेव व भावदेव नाम के दो सगे भाई थे । बड़े भाई वैराग्य पाकर मुनियों के सत्संग में पहुंच गये । वहाँ उनका धीरे-धीरे बहुत सम्मान होने लगा। यहाँ तक कि वे संघ के गुरु हो गये । सब कोई इनका आदर करते थे । छोटे भाई की जिस दिन शादी हुई, उस दिन उन्हें पता लगा कि भवदेव आये हुए हैं अत: उस दिन ही प्रति गृह करके आहार कराया और उनको छोड़ने के लिए वहाँ तक गये जहाँ उनका आश्रम था । वहां जाकर उन्होंने देखा कि मेरे भाई का यहाँ कितना सम्मान है? कितना आदर है? अब यहाँ से जाने का मतलब बड़े भाई का अपमान है । कुछ और सोचा । इस प्रकार वहीं पर उन्हें भी वैराग्य हो गया और दीक्षा ले आश्रम में रहने लगे । उधर उनकी स्त्री ने अपने महल का नक्शा ही बदल दिया । अपने लिए छोटा-सा कमरा रहने के लिए व रसोई बनाने के लिए रखकर बाकी चैत्यालय बनवा दिया । इस प्रकार वह भी धर्मसाधन करने लगी । इधर 4-5 वर्ष पश्चात् भावदेवजी को विकल्प हुआ कि न मालूम वह कैसे रह रही होगी, जिसे शादी होते ही छोड़कर मैं यहाँ आ गया । अत: विकल्पों में फंसकर उसी घर की ओर समाचार जानने के लिए चल दिया तथा यह पूछता हुआ आया कि भैया भावदेव का मकान कौनसा है? वह जब वहाँ पहुंचा तो मकान का संपूर्ण ही नक्शा बदला हुआ पाया । वहीं पर उसकी स्त्री बैठी हुई थी । स्त्री उन्हें पहिचान गयी, क्योंकि उसने उन्हें देख लिया था किंतु भावदेवजी उसे नहीं देख पाये थे, अत: भावदेवजी उसे न पहिचान पाये और उसी से पूछने लगे कि हे देवि ! यहाँ पर भावदेव रहते थे ना? उत्तर मिला कि हां यहीं रहते थे । फिर प्रश्न किया कि उन्होंने शादी भी की थी । उत्तर मिला कि हां । मालूम नहीं उनकी पत्नी कैसी अवस्था में है? इस प्रश्न के पूछने पर वह बोली कि वह बहुत आनंद से है और वह मैं ही हूँ, मुझे तो सब प्रकार का आनंद है । इस प्रकार चरणों में नमस्कार कर अपना पूर्ण वृत्तांत सुना दिया कि मैं अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई बहुत सुख से हूँ, आप मेरी ओर से कोई चिंता न करें । यह सुन भावदेवजी अति प्रसन्न हुए प्रकट में बोले कि आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ, मेरा शल्य जो मुझे विकल्पों में फंसाये हुए था कि पता नहीं तुम कैसी होगी, समाप्त हो गया और इस प्रकार निःशल्य हो विहार कर गये ।
भैया ! जिस प्राणी को अपने स्वतंत्र स्वरूप का ज्ञान हो जाता है वह अपने में ही लीन रहा करता है । पाप परिणामों से जो बंध होता है वह भव-भव में दुःखी करता है और यदि अपनी आत्मा के स्वभाव का अमृतपान कर सके तो सब आनंद प्राप्त होगा । मैं द्रव्यक्षेत्रकाल भाव की अपेक्षा परिणमनशील स्वयं में हूँ, पर में नहीं । मैं अबंध हूँ, बंधा हुआ नहीं हूँ । जैसे गाय रस्सी से बंधी है यह लोकव्यवहार है, परंतु वास्तव में तो रस्सी रस्सी से बंधी हुई है, गाय का गला बीच में है, उसीप्रकार विचार करे कि मैं नियत हूँ ज्ञानवान हूँ बंधा हुआ नहीं हूँ । तब यह सब संबंध अपने आप छूट जावेंगे । श्रद्धा से नहीं चूकना चाहिए । खाना-पीना भी करते रहो, सब काम करते हुए भी अपनी श्रद्धा को मत छोड़ो । क्योंकि खानें के बिना आजीविका के बिना भी कार्य नहीं चलेगा, अत: ये सब करते हुए भी अपनी श्रद्धा बराबर बनाये रखो कि मैं मेरा हूँ, चैतन्यस्वरूप हूँ, ज्ञानमय हूँ । मैं अपने में हूँ, मुझसे बाहर मेरा कुछ नहीं और किसी का मेरे में कुछ नहीं । और यदि यह श्रद्धा नहीं, हुई तो भगवान की मूर्ति के नीचे भी क्यों न बैठो वहां भी सुरक्षित नहीं रहोगे ।
अपने कर्मों के क्षय के लिए मैं उन सिद्धसमूहों को नमस्कार करता हूँ । जो कर्मों का जाल है वही विपत्ति है । कहीं भी जीव यह प्राणी मरकर कर्मों का जाल साथ लगा ही है । सिद्धभक्ति का प्रयोजन ही कर्मों का क्षय है । यह सब जो वैभव आज प्राप्त है कमाने से या परिश्रम से नहीं प्राप्त हुआ, बल्कि आत्मा के निर्मल, परिणामों का ही फल है । वर्तमान में चाहे निर्मल परिणाम न हों किंतु यह वैभव निर्मल परिणामों का ही फल है । आज जो अन्य की अपेक्षा सब कुछ वैभवादि है वे पूर्वभव के पुण्यकर्म की ही कमाई है, आत्मा के निर्मल परिणामों का ही फल है और यदि सामर्थ्य होते हुए वर्तमान में भी निर्मलता लावे, उपकार करे, सबको क्षमा करे, सबको अपनी तरह ही माने, सब सुखी होवे इस प्रकार के भाव रखने, इस प्रकार के निर्मल परिणामों से आगे भी ये पुण्य कमाई चलती रहेगी । अन्यथा मलिन परिणामों से तो बंधा हुआ पुण्यकर्म भी नष्ट हो जावेगा । प्रतिभा करने के अतिरिक्त अपने को अन्य का कर्ता समझना ही विपत्ति है । मेरा स्वभाव प्रतिभास करने का ही है, अन्य कुछ नहीं । जिंदा होते हुए आंख बंद कर रहे याने इंद्रियों को संयत रखें तो आत्मविभूति के दर्शन होते हैं, मरने पर तो आंखें बंद हो ही जाती हैं । जिंदा होते हुए भी जो आखें बंदकर अपने स्वभाव को पहिचाने तो आत्मा के वैभव के दर्शन होते हैं और यदि इंद्रियजंय ज्ञानों में ही फंसे रहे तो समझो कि अंधेरा ही अंधेरा है । अत: मैं कर्मों के क्षय के निमित्त सिद्ध समूहों को नमस्कार करता हूँ ।
सिद्धभगवान सहज यत्नपूर्वक अपने में ही ठहरते हैं । करने वाले से देखने वाले का दर्जा ऊंचा होता है । जैसे बड़े कारखानों में करने वाले होते हैं मजदूर और देखने वाला होता है मालिक । भगवान का ऐसा विलक्षण स्वरूप है कि वे अपने सहजस्वभाव में विराज रहे हैं करने का काम उन पर नहीं है । यदि होता तो वे भी मजदूर होते । घर में ही देख लो, काम करने वाला मजदूर होता है और देखने वाला निरीक्षण करने वाला मालिक । वास्तव में देखो तो भगवान करता भी क्या है? निश्चयनय से अपने स्वभाव में स्थित है, व्यवहारनय से लोक अलोक को साक्षात् देख रहे हैं ! किंतु परपदार्थ में तन्मय नहीं हैं । वैसे परपदार्थ में तो हम भी तन्मय नहीं हैं किंतु उपयोग से अपनी कल्पना से जुटे हुए हैं । जो परपदार्थ में तन्मय होते तो पर के सुख से सुखी और पर के दुःख से दुःखी होते किंतु वास्तव में देखा जावे तो ऐसी कोई आता नहीं है; केवल जीव कल्पना से ही ऐसा मानता है । मोहभाव के कारण अन्य का दुःख देखकर अपना ही दुःख बढ़ाता है और सुख देखकर अपने सुख से सुखी होता है ।
एक सेठ था उसके यहाँ जो सेठानी थी उस पर सेठ बहुत बिगड़ा था । सेठ उसे बहुत तंग करता था । आखिरकार वह मर गयी दूसरी सेठानी आयी वह भो मर गयी, तीसरी जो सेठानी आयी उसे पास पड़ौस वालियों ने समझाया कि सेठजी की आज्ञा न मानने पर गुजारा होना बहुत कठिन है । सेठजी बहुत हैरान करते हैं आदि-आदि । सेठानी चतुर थी । एक दिन सेठजी के सिर में दर्द हुआ । सेठजी ने तुरंत सेठानी के पास नौकर भिजवाया कि सेठानी को जल्दी बुलाकर लाओ । सेठानी ने कुछ अपनी ऐसी स्थिति बनायी कि झूठमूठ बहुत बीमार बन गयी और नौकर से कहा कि जाकर कहो कि सेठानी बहुत बीमार है मालूम नहीं क्यों कांप रही है । उनका पूरा शरीर कांप रहा है । सेठजी ने जब सुना तो तुरंत आये और आकर बोले कि क्या बात है? तुम्हें क्या हो गया? सेठानी बोली कि मुझे तुम्हारे सिर में दर्द सुन कर इतने जोर का दर्द हुआ कि उठना कठिन हो गया । हारकर सेठजी बोले कि मैं अब ठीक हूँ । आत्मा तो अपने में परिपूर्ण है, वह न किसी के दुःख से दु:खी होता, न सुख से सुखी ।
निश्चय से भगवान अपने में स्थित हैं और व्यवहार से लोक अलोक के पदार्थों को जानते हैं । किंतु फिर भी उनमें तन्मय नहीं होते । हम भी पर में तन्मय नहीं हैं केवल कल्पना से ही यह सब होता है । यह जो सहजस्वभाव है यदि इसका पता लग जावे तो इससे बड़ा वैभव दुनियां में क्या है? मेरा बाह्य पदार्थों में कुछ भी तो नाता नहीं है । उनके घटने से न मेरा कुछ घटता है, उनके बढ़ने से कुछ बढ़ता ही है । यदि मेरी समझ में मेरा सहजस्वभाव आ गया तो संपन्न हूँ अन्यथा तो नरकीट ही हूँ । किया क्या―पैदा हुए, जवान हुए, शादी की, मलिन परिणाम कर मर गये । एक का भाई मर गया, तो जब पड़ौसी बैठने आये तो पड़ौसियों ने पूछा कि तुम्हारे भाई तुम्हारे लिए क्या कर गये । तो वह बोला―‘‘क्या बतायें यार क्या कारोनुमा कर गये । बी. ए किया नौकर हुए पेन्शन मिली और मर गये । असली बात तो भैया ! परिणामों की है । आत्मा में जो प्रताप आया वह परिणामों की स्वच्छता से आता है जो अपने को परभव में भी शांति देता है । अत: यही विचार करना चाहिये कि मेरे स्वप्न में भी खोले परिणाम न हों । यदि स्वप्न में भी त्यागी के खोटा परिणाम आ जाता है तो उसका प्रायश्चित करना पड़ता है ।
हे नाथ ! स्वप्न में भी मेरा खोटा परिणाम न हो किसी के प्रति । यदि इस प्रकार भाव रखकर जीवन बीत जावे तो इससे बढ़कर खुशी क्या है? तभी तो ज्ञानी पुरुषों ने छह खंड का भी राज्य त्यागकर अपनी आत्मा का आराधन किया । अत: यही सिद्ध हुआ कि सिद्ध भगवान् ज्ञायकस्वभाव में ही ठहरते हैं तथा व्यवहार में लोक अलोक के सब पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं । मोह बड़ा तो ये बातें ठीक जंचती हैं किंतु ऐसा है नहीं । भीतर में जो मिथ्या संस्कार बन गये यही अंधकार है, अन्याय है, निश्चय से हम परपदार्थों में नहीं ठहर रहे हैं, किंतु अपने में ठहर रहे हैं । यदि परपदार्थ में तन्मय हो जावे तो परपदार्थ और मैं एक हो जाता । किंतु है ऐसा कुछ नहीं और यदि हम परपदार्थों को जानते हैं और तन्मय हो जाते हैं तो दूसरे का बुखार हमें चढ़ना चाहिये था । यदि ऐसा वास्तव में होता तो अच्छा था तब यह तो डर लगता कि मैं परपदार्थ में तन्मय होऊंगा तो उसका बुखार भी मुझे हो जावेगा । श्रद्धा का निर्मल होना स्वयं के ही काम आवेगा । वस्तु का यथार्थ स्वरूप प्रतीति में लाना यही श्रद्धा है ।
प्रत्येक पदार्थ अपने चतुष्टय में ही है । किसी का किसी में कुछ नहीं । व्यर्थ में, मेरा कहकर पिट रहे हैं । एक लड़का था, उसका नाम था रामू । उसने एक दुकान से एक रसगुल्ला खरीदा । सामने धोबी कपड़े धो रहा था, उसका लड़का खड़ा हुआ था, इसने वह रसगुल्ला धोबी के बालक को खिला दिया । धोबी के बालक को वह मीठा लगा तथा वह अपने पिताजी से उसकी ओर याचना करता हुआ रोने लगा । धोबी ने उससे पूछा कि भैया ! यह वहाँ मिलता है, (क्योंकि उसने, पहिली बार देखा था, अत: उसके विषय में ज्ञान न था) । रामू बोला उस बगीचे में चले जाओ वहाँ मिलते हैं । धोबी बोला कि भैया ! मैं इस बगीचे से रसगुल्ला दिलवाऊं अत: तुम मेरा गधा, कपड़े लोटा आदि सब सामान देखते रहना तथा जाते हुए पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? वह बोला मेरा नाम कल परसों है । धोबी के जाते ही उसने बढ़िया कपड़े पहिने, लोटा लिया और आवश्यक सामान ले आगे चल दिया । जब उस धोबी को वहाँ रसगुल्ले न मिले तो वह वापिस आया और उस चालाक लड़के को व अपने कपड़े व सामान को न देख चिल्लाने लगा कि मेरे कपड़े कल परसों ले गया, जनता इकट्ठी हुई और उसी को मूर्ख बताया । वह लड़का आगे चला तो उसे एक घुड़सवार मिला । उसे लगी हुई थी प्यास । वह बोला कि भैया जरा मेरा घोड़ा पकड़ना मैं तुम्हारे लोटे से पानी पी आऊं और जाते-जाते बोला कि तुम्हारा नाम क्या है? वह लड़का बोला―मेरा नाम ‘कर्ज’ देने में है । जब वह पानी पीने चला गया तो इसने घोड़े पर चढ़ एड़ लगायी, और घोड़ा भगाकर ले गया । आगे गांव में जाकर शाम होने पर एक धुनिया के घर जाकर मां से बोला कि मुझे एक रात के लिए जगह दे दो । धुनेनी ने ठहरा लिया । वह पास की बनिये की दुकान से सामान लाकर खाने लगा और कीमत चुकाने के लिए बोल दिया कि प्रभात में चुका दूंगा । नाम पूछने पर बताया कि मेरा नाम ‘‘मैं था’’ है । बुढ़िया के नाम पूछने पर बताया था कि मेरा नाम ‘‘तू ही तो था’’ है । उसने खाना खाया, बनाया और जूठन रूई पर फेंक दी, बिना बनिये के पैसे दिये चला गया । कुछ समय बाद धुनिया उस घर का मालिक, जिसमें वह लड़का ठहरा था, आया और रुई की यह हालत देखकर बोला कि यहाँ कौन आया था । धुनेनी बोली―‘तू ही तो था’ । धुनिया बहुत नाराज हुआ और उसकी पिटाई करने लगा । बनिये ने जब यह दशा देखी तो उसे दया आयी, उस लड़के ने अपना नाम ‘मैं’ था बताया था, अत: वह जाकर बोला कि भाई जो ठहरा था वह ‘‘मैं था’’ धुनिया ने उसकी पिटाई शुरू कर दी ।
जगत् के जो पदार्थ हैं इनके ये ही स्वामी हैं मैं कुछ नहीं, ऐसा विचार करना चाहिए । किंतु ऐसा न करके हम विकल्प करते हैं, कि मैं हूँ ये मेरा है आदि । परिणमन तो हो रहा है निमित्तनैमित्तिक पाकर किंतु इस जीव को लगा यही है कि मैं था, मेरा है और ये ही विपत्ति का कारण है । अत: ऐसा विचारे कि मैं जानता तो हूँ किंतु उनमें तन्मय नहीं हूँ । मैं भी सिद्धों की तरह निश्चय से अपने में ही अवस्थित हूँ । सिद्धों को नमस्कार करके अब श्री जिनेंद्र अरहंतों को नमस्कार करते हैं ।