वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 52
From जैनकोष
अप्पा कम्मविवज्जियउ केवलणाणे जेण ।
लोयालोउवि मुणह जिय सव्वगु बुच्चइ तेण ।।52।।
कर्म से रहित आत्मा चूंकि केवलज्ञान के द्वारा समस्त लोक और अलोक को जानता है इस कारण आत्मा सर्वव्यापी है । आत्मस्वरूप ज्ञान मात्र है और ज्ञान का कर्म जानन है जानन चूंकि अपने सत्त्व के कारण हुआ है इस कारण जानन की सीमा नहीं होती । मैं 10 मील की ही बात जानूँ और उससे आगे की बात न जानूँ ऐसा आत्मा का स्वभाव नहीं है, फिर भी आत्मा सबको नहीं जान पाता है । इसका कारण आत्मा का कर्म उपाधि से संबंध है । कर्मसहित होने के कारण कर्म उदयवश यह जीव अधिक जान नहीं पाता । जब वे कर्म दूर हो जायेंगे वह यही केवल ज्ञान के द्वारा समस्त लोक और अलोक को जान लेता है । इस कारण यह जीव सर्वव्यापक सिद्ध होता है ।
भैया, आत्मा कितना बराबर बताया? ज्ञान बराबर । और ज्ञान कितना बड़ा होता है? जितना कि समस्त ज्ञेय है याने लोक और अलोक के पदार्थ । चूंकि ज्ञान माना जानन और जानन किसका? लोक और अलोक का जानन अर्थात् समस्त पदार्थों का जानन, सो ज्ञान कितना बड़ा हुआ? जितना कि सारा लोक और अलोक है । लोक के मायने दुनिया और अलोक के मायने है लोक से भी बाहर की बात । लोक से बाहर क्या है? आकाश ही आकाश । तो ज्ञान हुआ लोक और अलोक के बराबर तो आत्मा भी लोकालोक के बराबर हुआ । लक्षण दृष्टि में जानन याने ज्ञान चूंकि सर्वव्यापक है इसलिए आत्मा सर्वव्यापक हुआ ।
ध्यान देकर सुनिये, बारीक बात यहाँ कही जा रही है । यह आत्मा केवलज्ञान से लोक और अलोक को जानता है, यह कथन व्यवहारनय से है । निश्चयनय से तो देह के बीच रहता हुआ भी यह आत्मा केवल निज आत्मा को जानता है । जैसे एक लंबा बाँस पड़ा है, और झटका देकर उस बाँस को हिलाया । तब आपसे पूछें कि बतला मैंने क्या किया? अच्छा इस बाँस को हिलाया, तो इसमें क्या किया? बाँस को हिलाया, यह व्यवहार नय का कथन है । इस प्रसंग में थोड़ी देर को इस शरीर को जीव मान लो । यह शरीर जो हाथ पैर हाड़ माँसमय है, इस शरीर ने यहाँ क्या किया? इस शरीर ने केवल अपना हाथ हिलाया, बाँस नहीं हिलाया, पर हिलते हुए हाथ का निमित्त पाकर बाँस भी अपने आप में हिल गया । इस हाथ की सामर्थ्य अपने आपमें हिलने डुलने की है । यह हाथ अपने से बाहर अपना कोई काम नहीं कर रहा है । जिस ढंग की इच्छा हुई वैसे ही हाथ हिला । आखिर हाथ हिला ही तो करता है । बाहरी पदार्थों में हाथ कुछ नहीं करता । निश्चय से देख लो, अर्थात् हाथ ने बाँस को हिलाया, यह है व्यवहारनय का कथन और हाथ ने अपने आपमें ही कुछ हरकत की यह हुआ निश्चयनय का कथन । यह एक मोटा दृष्टांत है ।
इसी प्रकार जो आत्मा देह में स्थित है, यहाँ बसने वाली इस आत्मा ने क्या किया? अपने आप में जो शक्ति है, गुण है उसका ही परिणमन किया । ये किसी दूसरे पदार्थ का कुछ कर ही नहीं सकते । आत्मा में एक ज्ञान गुण है, उसका प्रयोग आत्मा में ही होता है । तो ज्ञान ने ज्ञान का कुछ काम किया, अर्थात् ज्ञान से ज्ञानरूप परिणति हुई, अपने आपकी भूमिका को जाना, आत्मा को जाना, पर जैसे दर्पण को ही देखकर जिन पदार्थों के आकाररूप दर्पण परिणमता है उन पदार्थों का हम वर्णन कर सकते हैं, इसी प्रकार जिन-जिन पदार्थों के ज्ञानरूप से मैंने आत्मप्रयोग किया है वहाँ भी हम निश्चय से तो आत्मा को ही जानते हैं किंतु वर्णन हम सभी पदार्थों का कर सकते हैं ।
भगवान व्यवहार से लोक और अलोक को जानता है, पर निश्चय से केवल अपनी आत्मा को जानता है, और व्यवहारनय की अपेक्षा से लोकालोक को जानता है सो इस ज्ञान की अपेक्षा से यह आत्मा सर्वगत होता है । जैसे आपसे पूछें कि तुम्हारी आँख कितने में फैली है, बताओ अच्छा, इस सारे कमरे में फैल गई । आपकी दृष्टि कितनी बड़ी हो गई है जितना बड़ा यह कमरा है इतनी बड़ी आपकी दृष्टि है । यह व्यवहारनय का कथन है । निश्चय से तो आँख और दृष्टि कितनी बड़ी है तिल के दाने के बराबर, पर इस दृष्टि के द्वारा जो कुछ देखा जाता है उस सबमें मेरी आंख चली गई, मेरी दृष्टि चली गई सो यह कितना जानता है? इस सबको जानता है ।
इस प्रकार ज्ञान चूंकि समस्त लोक अलोक को जानने वाला है इस कारण कहा जावेगा कि यह
ज्ञान सर्वव्यापी है, किंतु प्रदेश की अपेक्षा से सर्वव्यापी नहीं है । ये सब सिद्धांत सापेक्ष नय के विवरण वाले प्रकरण हैं । इससे अपने को यह शिक्षा मिलती है कि हम भी लब्धि के अनुसार जानने का ही काम करते हैं । अच्छा और सोचो अपने में कि हम क्या किया करते हैं 24 घंटा? बतलाओ आप क्या किया करते हैं 24 घंटा? चूल्हा जलाते हो? रोटी बनाते हो? क्या करते हो? दुकान करते हो? बोझा ढोते हो? क्या किया करते हो? जानन का काम किया करते हो । महिलायें जब रोटी बनाती हैं तब वे परमार्थत: क्या करती हैं? जानन का काम किया करती हैं । जानन के साथ इच्छा लगी है सो योग होता रहता है । उस योग का निमित्त पाकर वायु चलती है, वायु का निमित्त पाकर हाथ चलते हैं । चलते हुए हाथ में रोटी फंसी है सो रोटी बिल रही है । ज्ञानमय आत्मतत्त्व रोटी नहीं बेलता । भले ही आप दुकान में चांदी की ठोकापीटी करते हो, पर वहाँ भी आप बाहर में कुछ नहीं करते । वहाँ भी आप केवल अपने ज्ञान का विकल्प बना रहें हैं ।
अच्छा एक विचार और कीजिए कि चीज को तो हम नहीं करते हैं किंतु यहाँ सब चीजें जैसी हैं वैसे जाननरूप परिणमते तो रहते हैं और इस प्रकार हम अपने आत्मा को ही जानते है । यहाँ यह शिक्षा लेना है कि जब पदार्थों के जानन तक का भी संबंध नहीं है तो भोगने का, मालिकाई का संबंध ही क्या है । आत्मा के शांत होने की गुत्थी को सुलझाना यह बहुत निकट की बात है और सुगम बात है, परंतु इस ओर दृष्टि ही न जाये तो शांति कैसे मिलेगी? तब धर्मसाधन बड़ा कठिन लगता है । जैसे किसी कार्ड पर वृक्ष बना हुआ है, वह वृक्ष इस ढंग से बनाया जाता है कि फूल पत्ती, डाली आदि सब रूपों में आपको वहाँ वृक्ष ही वृक्ष दिखता है पर बना इस तरह का है कि उसमें गधा भी दिखता है । गधा बना नहीं है उस बनावट में ऐसी जगह छोड़ दी गई है कि देखो तो गधा दिख जायेगा, शेर बनाया जाये तो शेर दिख जायेगा, और साधु बना दें तो साधु दिख जायेगा । किंतु किसी को कार्ड में वह गुप्त वस्तु दिखायें नहीं, तो वह यह कहेगा इसमें तो पेड़ ही नजर आ रहे हैं और कुछ नहीं नजर आता है । यदि उसे विधिपूर्वक बता दें कि यह तो शेर का मुंह है, एक बार उसे दिख जाये वह और फिर उसे दिखाया जाये तो उसे सिंह आदि का फोटो दिख जायेगा । कितना सुगम हो जाता है फिर उस कार्ड में सिंह और साधु का देखना? इसी तरह से आपकी समझ में आ गया होगा कि यह मैं क्या हूं? ज्ञानज्योतिर्मय, ज्ञान प्रकाशमात्र, यह जान तो लिया जाये फिर तो अपनी सारी गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं, कहीं कष्ट का
अनुभव नहीं होता ।
जिन्हें इस एकस्वरूप आत्मा का ध्यान नहीं होता है उनको तो सारी विडंबनाएं परेशानी करती हैं । लोग हमें क्या कहेंगे? इस गम में और संकोच में रात दिन परेशान हो रहे हैं । बताओ यहाँ कौन दुःखी है? एक भी यहाँ दुःखी नहीं है हम सही बात जानें, हमारी सही बात को दूसरा भी जान सकता है, दूसरे की सही बात को हम भी जान सकते हैं । मोह में दुःख की सही बात को खुद नहीं जान पाता है । हमें आपका घर नहीं मालूम और न पहिले आपका कोई औपचारिक हाल मालूम है और न कोई परिस्थिति मालूम है फिर भी चूंकि हम भी जीव हैं और ये सब भी जीव हैं इस नाते से हमें आपका परिचय है । जो चीज आपकी नहीं है उसका तो परिचय नहीं है और जो चीज आपकी है उसका साधारणरूप में हमें परिचय है । घर आपका नहीं है तो उसका हमें परिचय नहीं है । परिवार और मित्रजन आपके कुछ नहीं हैं, तो हम भी उन्हें क्या जानें? जो आप हैं, आपकी चीज है उसका हमें परिचय है ।
क्या दुःख है आपको? दुःख तो आप बना करके किया करते हैं । कल्पना उठाते हैं कि अभी हमारी इज्जत थोड़ी है, इतनी और होनी चाहिए बस, यही दुःख हो गया । और दुःख है क्या? अभी देखो माताओं को बहुयें मिलती हैं पढ़ी लिखी, कोई बी0 ए0, कोई एम0 ए0, कोई इंटर पास सो हमारी पुरानी मां जो उनसे कम पढ़ी हैं वे बहुओं से मन का गुनतारा लगाया करती हैं, तर्क वितर्क किया करती हैं । सास यह कहती है कि देखो छोकरी को अभी एक साल भी आये हुए नहीं हुआ बात ज्यादह बोलने लगी कैसी मटक कर चलती है, कैसी फैशन बनाती है वह । और, उस सास की बात नहीं मानती है तो सास गुस्सा करती है । और यहाँ बहुयें क्या सोचती हैं कि यह तो बेवकूफ है हम तो बी0 ए0 एम0 ए0, इंटर हैं तो उसकी दृष्टि में सास कुछ नहीं है । सो वे गर्व से फूली हुई हैं और उन्हें इतना सम्मान मिल नहीं पाता सो वे दोनों गुस्सा में भरी रहती हैं, इसी से लड़ाई चलती है । वस्तुत: पर्याय पर गर्व होने से दोनों ही मूर्ख हैं ।
भैया पढ़ने लिखने की कला से कोई ज्ञानी नहीं कहलाता कि इतनी शिक्षा मात्र से ज्ञानी कहलाता हो, किंतु ज्ञानी वह कहलाता है कि जिसके ज्ञान के कारण ज्ञानी को धीरता पैदा होती है, कषाय मंद हो जाते हैं, दूसरे जीवों को प्रभुस्वरूप जानकर आदर रखता है, जिसके सन्मार्ग की बुद्धि जगी है, इतनी सावधानी जगी है तो उसे ज्ञानी कहते हैं, दूसरे को नहीं । सब जगह हो क्या रहा है? कोई किसी में कुछ प्रभाव नहीं डाल रहा, कोई किसी को कुछ प्रभाव नहीं डाल रहा, कोई किसी को कुछ नहीं कर रहा है, सब अपने-अपने उपादान के अनुकूल अपनी-अपनी चेष्टा करते हैं । किसी के कारण कोई दूसरा दु:खी नहीं होता है ।
अच्छा भैया, बताओ किसमें तुम्हें अपनी इज्जत देखनी है? नाम लेकर बताओ । जिन में तुम इज्जत देखना चाहते हो वे तुम्हारे सुख दुःख के क्या ठेकेदार हैं? कि भाई इन लोगों को मेरा ख्याल है । यदि यह ज्ञात हो जाये कि यह बड़ा आदमी है तो क्या वह उस समय तुम्हें सुख दे सकता है । वह खुद शरण नहीं, संसार में भ्रमण करने वाला है । थोड़े समय का जीवन है, आंख मींच जायेगी फिर कौन आता है? जैसे शुभ, अशुभ कर्म किये हैं । उसके अनुसार ही इस लोक में फल भोगना पड़ता है । अपनी बात करना एक प्रधान बात है । लोक में अन्यत्र कहीं तत्त्व नहीं है ।
देखो देश की दृष्टि में गांधीजी की क्या विशेषता थी? उनकी इस दुनिया में बहुत बड़ी इज्जत थी और उसका ही नफा था । यह सारा हिंदुस्तान उनका सम्मान करता था । इससे उन्हें कुछ लाभ नहीं था । लौकिक हिसाब से देखो कि इज्जत बड़ी अच्छी है तो यह बड़प्पन भी ज्ञान से ही तो संभव है । तो अब देख लो कि जब आपकी आत्मा केवल अपने आपके देह में है अपने ही गुण में है, सबसे निराला है और इसका स्वभाव ज्ञान और आनंदरूप का है । फिर हम और आपको तकलीफ क्या है? कोई तकलीफ नहीं है, मगर कष्ट बना रखा है बेहिसाब और कितने ही तो व्यर्थ के कष्ट बनाये हैं ।
यदि विवेक है तो जितनी आवश्यकता है उतनी आप आजीविका के काम में लग लें और बाकी अपने आत्म उद्धार में लगा लें और तीसरी बात की क्या पड़ी है कि अन्य लोगों को व्यर्थ खोटा मान लें या किसी की निंदा करें या व्यर्थ की गप्पें मारते रहें । बतलाओ, इन बातों में भी नफा है क्या? दो ही तो बातें हैं, आजीविका और आत्मोद्धार हम और आप कोई भी दुःखी नहीं हैं । केवल अपने आपमें अपने आपकी दृष्टि करें तो रंच भी दुःख नहीं है । और फिर व्यवहार दृष्टि में देखो तो अपने आप आपको दिखता जायेगा और दुःख प्रतीत होता जायेगा । धन और वैभव में जो पड़ा है उनको जब देखेगा तो दु:खी स्वयं हो जायेगा । हाय इतना मेरे नहीं हुआ । अब यह इतना कैसे हो जाये? चिंतायें बढ़ा ले तो बड़ा हो जायेगा क्या? नहीं ।
जरा अपने से गरीब की ओर दृष्टि दें कि कितने लोग दीन हीन दशा में हैं हजारों लोग, लाखों लोग तो भूखे पड़े हैं । यों गरीबों पर दृष्टि जाये तो आनंदबाधिनी तृष्णा शांत हो जावेगी । किसी भैंस के गोबर में से गेहूं के दाने निकल आते हैं, उन्हें भी कोई बीन लेता है । यह तो मैंने देखा एक दो औरतें गड्ढे में पानी भरकर इन्हें साफ कर रही थीं, दो तीन दिन मैं देखता रहा, फिर एक दिन पूछा कि इनका क्या करोगी मां? तो उन्होंने उत्तर दिया कि हम इन दानों को खाते हैं । यह बात सुनते क्लेश की कल्पना से ही आंखों में कुछ बूंद झलक उठा ।
गरीबों पर दृष्टि पसार करके देखें कि उन्हें भोजन भी नसीब नहीं है और भूखे मर रहे हैं, ऐसे भी कितने जन हैं और फिर भी भीख मांगकर उनकी पूर्ति हो जाती है । आखिर ये सब प्राणी कितने दुःखी हैं? उन्हें भी तो देखो । आपसे भी अधिक जिन गरीबों की बड़ी मुश्किल से उदर पूर्ति हो पाती है ऐसे लोगों को भी तो देखो । तृष्णा में आकर यह जीव अपने आपकी भी चीज में मौज नहीं ले सकता । किंतु भावी सुख में वैभव में दृष्टि देकर अप्राप्त चीजों के पाने में चित्त लगाता है और इसी कारण पास में मिले हुए समागम का आनंद नहीं ले सकता है ।
सो भैया, अपने से छोटों को देखो तो शांति मिलेगी, निराकुलता होगी अगर वैभव में बढ़े हुए को देखो तो वहाँ तृष्णा मिलेगी । हमें तो शांति चाहिए सो शांति जिस विधि से मिलती है उस विधि का प्रयोग करो । ज्ञान बिना शांति मिल नहीं सकती । अगर ज्ञान बिना शांति मिलती या निराकुलता मिलती तो न जाने अज्ञानी मूढ़ जन दुनिया में क्या अन्याय कर डालते । सो यही एक अपना सत्य निर्णय रखो कि मैं ज्ञानमय हूँ, आनंद से परिपूर्ण हूँ, मेरे में कुछ कमी नहीं है पुण्य पाप सबका सबके साथ है । उनके पाप का उदय हो तो हम क्या कर देंगे? और उनके पुण्य का उदय हो तो हम क्या करते हैं, उनके उदय के अनुसार सब होता है । इसलिए सर्व विकल्पों को छोड़कर अपने आत्मा का ध्यान करो तो स्वयं सुखी बन जाओगे ।
यहां कोई प्रश्न करता है कि यदि भगवान लोक और अलोक को व्यवहार से ही जानते हैं तो सर्वज्ञपना भी व्यवहार से रहेगा । निश्चय से तो पर द्रव्यों को जानता ही नहीं तो निश्चय से सर्वज्ञपना नहीं कहलायेगा? इसके उत्तर में कहते हैं कि जैसे यह जीव अपनी आत्मा को तन्मयता से जानता है उसी प्रकार पर द्रव्य को तन्मयता से नहीं जानता । हम जानते हुए भी अपने में ही तन्मय हैं या पर द्रव्य में तन्मय हैं ? जैसे हमनें चौकी को जाना तो क्या हम चौकीरूप बन गये? नहीं बने । तो चौकी को तो हमने निश्चय से नहीं जाना, निश्चय से तो जो हम करते हैं उसमें ही तन्मय होते है । इस कारण व्यवहार से परद्रव्य का जानना कहा जाता है, पर परिज्ञान के अभाव से नहीं, अर्थात् भगवान समस्त लोकालोक को जानता है, यह बात सत्य है, किंतु लोकालोक में तन्मय नहीं होता । तन्मयता से परिणमता तो अपने आपमें ही है । इस कारण निश्चय से प्रभु लोकालोक को नहीं जानता है, व्यवहार से जानता है, ऐसा बताया है ।
यदि प्रभु जैसे निश्चय से अपने में तन्मय है इसी प्रकार तन्मय होकर पर द्रव्य को जाने तो दूसरे के सुख दुःख रागद्वेष के ज्ञात होने पर वह सुखी दुःखी या रागी द्वेषी हो जायेगा । जैसे भगवान ने तुम्हारे सुख दुःख को जाना तो इस सुख दुःख को व्यवहार से जाना, निश्चय से नहीं जाना अर्थात् इस सुख दुःख को पर्याय में तन्मय होकर नहीं जाना । यदि आपके सुख दुःख को निश्चय से जाने तो वह भी सुखी हो जायेगा दुःखी हो जायेगा । यह एक बड़ा दूषण आता है, इससे यही सिद्ध होता है कि भगवान लोकालोक को जानता तो है, इसमें रंच भी संदेह नहीं है, पर यह समझलो कि लोक और अलोक को जानने की पद्धति कैसी है? क्या लोकालोक में तन्मय होकर जानता है या तन्मय न होकर ऐसे ही जान जाता है?
जैसे दर्पण के सामने जो भी चीजें हैं उन सबकी छाया दर्पण में आ जाती हैं । पर दर्पण में जो छाया आयी है सो क्या वह दर्पण उन सबमें तन्मय हो गया? वह दर्पण उन सबमें तन्मय नहीं हुआ किंतु अपने परिणमन रूप छाया जो हुई उस छाया में तन्मय हुआ । दर्पण जानने वाला नहीं है इसलिए यह व्यवहार नहीं हुआ कि दर्पण ने उन सबको जाना, पर तन्मयता के लिए यह दृष्टांत दिया गया । इसी तरह लोक और अलोक का ज्ञान होनेपर भी भगवान लोक और अलोक में तन्मय नहीं हुए । तन्मय होना तो निश्चयनय की बात है । इस उपदेश से हमको क्या अभिप्राय लेना है कि जिस ज्ञान से यह आत्मा व्यापक कहलाता है वह ही उपादेयभूत, अभिन्न होने के कारण उपादेय है । अपने आप जैसा मैं हूँ, जैसा मैं हो सकता हूँ तैसा ही मैं मेरे लिए उपादेय तत्त्व हूँ । और अन्य के किसी संबंध से किसी संग में आकर जो परिणति बनती है वह उपादेय नहीं है ।
इस प्रकरण में जो चार प्रश्न किये गये थे कि क्या आत्मा सर्व व्यापक है? क्या जड़ है? क्या आत्मा देहप्रमाण है? क्या शून्य है? इनमें से पहिले प्रश्न का प्रश्न के समर्थन के रूप में समाधान किया । अब यह बतला रहे हैं कि आत्मा जड़ भी नहीं है वह किस प्रकार? कोई भी आत्मा ज्ञान प्राप्ति करके आत्मा में रत हो जाये तो उसके इंद्रियज्ञान नहीं रहता । इंद्रियज्ञान की जो चहल पहल है उसको ही लोग एक चैतन्य मानते हैं । सो प्राणियों के लोगों की दृष्टि में चैतन्य है । किंतु परमात्मा निजस्वरूप में लीन हो गया है; उसके इंद्रियज्ञान नहीं है यहाँ सीधे भगवान को देखा, वहाँ उनके इंद्रियज्ञान नहीं है । और लोग इंद्रियज्ञान में ही एक चैतन्य का अनुमान करते हैं । सो यों यह आत्मा जड़ भी होता है, ऐसे अभिप्राय को धारण करके श्रीयोगींदु देव अब इस सूत्र को कहते हैं:―