वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 54
From जैनकोष
कारणविरहिउ सुद्धजिउ इट्टइ खिरइ ण जेण ।
चरमशरीरप्रमाणु जिय जिणवर वोल्लहि तेण ।।54।।
यह जीव एक ज्ञानपुंज पदार्थ है और इसका आधारभूत आत्मा के प्रदेश हैं । ये आत्मप्रदेश अपने आप कितने विस्तार में फैल रहे हैं? इसका यहाँ निर्णय दिया गया है यह कि जब उनकी मुक्ति होती है याने उस शरीर को त्याग कर मुक्त होता है तब उस शरीर प्रमाण आत्मा के प्रदेश बने रहते हैं और उस स्थिति में मुक्त आत्मा शरीररहित, रागद्वेष रहित स्वतंत्र विराजे रहता है । चरमशरीरप्रमाण रहने का कारण यह है कि प्रदेश के घटने और बढ़ने का कारण तो कर्म का उदय है । अब कर्म तो सब नष्ट हो चुके हैं । सो उस आत्मप्रदेश के कर्म रहने का भी कारण नहीं और अधिक रहने का भी कारण नहीं है ।
जैसे लोग चांदी के मोटे गहने बनाते हैं सो उन्हें ढालने को सांचा बनाया जाता है । उस सांचे में चांदी के गहने ढाले जाते हैं । गहने ढालने के लिए भीतर का जो आकार है वह सांचे में रहते हुए तो उस आकार में है, किंतु गहना बन जाने पर जो सांचा तोड़ दिया या मोम गल गया तब किस आकार रहेगा? आकार वही रहता है जो आकार पहिले था । इस प्रकार इस शरीर के नष्ट होनेपर यह आत्मप्रदेश इतना ही रहता है जितना देह में था । जब जीव का निर्वाण होता है तो यह शरीर फिर न मिलेगा । कपूर की तरह उड़ जायेगा । जैसे यहाँ मर जाने पर शरीर पड़ा रहता है कहते हैं ना कि उसको जल्दी जलाओ, नहीं तो जीव पड़ जायेंगे । सड़ जायेगा, मुर्दा हो गया ना? ऐसा शरीर भगवान का नहीं है । यदि उनका भी शरीर पड़ा रहता, जैसे कि लोग कहते हैं मुर्दा हो गया, बेजान हो गया, तो निरादर होता । सभी मुक्त जीवों का शरीर कपूर की तरह उड़ जाता है । मोक्ष जाने वाले जीवों का शरीर परमौदारिक रहता है । शरीर तो सब उड़ जाता है, सिर्फ नख और केश रह जाते हैं । इसका कारण यह है कि नख और केशों में जीव नहीं है । इन नख और केशों में अब भी जीव नहीं है, तभी तो नाई से केश कटवा लेते हैं, पीड़ा नहीं होती । इनमें जीव नहीं है और सब जगह जीव का प्रदेश है । तभी तो बाल बनवाने में डरते हैं, संभव है कि कहीं बाल के मूल हिस्से में कुछ छुरा लग जाये तो पीड़ा होती है । इससे सिद्ध है कि इन बाल और नखों में जीव के प्रदेश जीवित रहते समय भी नहीं है, इस कारण भगवान के मुक्त हो जाने पर भी नख और केश पड़े रहते हैं । बाकी सेब शरीर के स्कंध कपूर की तरह उड़ जाते हैं ।
भैया, भगवान के दर्शन तो हो सकते है किंतु वह हमें बोलने चालने को नहीं मिलेगा कि कुछ पूछें या कुछ उनसे गप्प लगायें । भगवान का पिता भी सोचे कि यह अपना ही तो लड़का है बस उससे कुछ बोलने चालने लगें । सो भैया वीतराग की ऐसी अवस्था नहीं होती । वे प्रभु हैं, शरीर से बहुत ऊंचे विराजे रहते हैं । उनके पास कोई पुरुष नहीं पहुंच सकता । दर्शन जरूर होता है पर यह बात नहीं करता है । जो केवलज्ञानी है उनके रागद्वेष नहीं है । वे दर्शन का जवाब भी नहीं देते हैं । भव्य जीवों के भाग्य से व वचन योगवश स्वत: दिव्यध्वनि खिरती है, उसको सुनकर भव्य जीव अपनी-अपनी भाषा में अर्थ लगाते हैं और ज्ञान का विकास करते हैं । पर प्रभु से कोई बात पूछो तो वे जवाब नहीं देंगे । वहाँ राग है नहीं । किसी का प्रश्न होता है तो दिव्यध्वनि में खुद उत्तर मिल जाता है ।
वह अरहंत जब मुक्त हो जाता है तो चरम शरीरप्रमाण उनका विस्तार रहता है । संसार अवस्था में यह आत्मा घटता बढ़ता है क्योंकि वृद्धि और हानि होने का कारणभूत शरीर नामकर्म है सो नामकर्म तो लगा है । इस कारण संसार अवस्था में प्रदेश घटते हैं और बढ़ते हैं किंतु मुक्ति अवस्था में नामकर्म तो रहा नहीं तो किस प्रकार वह घटे और बढ़े सो चरम शरीर के प्रमाण ही आत्मप्रदेश ठहरते हैं ।
अरहंत भगवान की दिव्यध्वनि के बारे में श्रीसमंतभद्रस्वामी ने एक दृष्टांत में यह बताया है कि उनकी दिव्यध्वनि बिना इच्छा के स्वयं खिरा करती है । जैसे तबला बजाने वाले के हाथ के स्पर्श के बाद वह तबला किसी की बाट नहीं जोहता है फिर तो वह आवाज निकल ही जाती है । इसी प्रकार भव्य जीवों के पुण्य के योग से और प्रभु के वचनयोग होने पर फिर वह किसकी बाट जोहे, उनसे दिव्य ध्वनि निकल ही जाती है ।
कोई कहता है कि मुक्त हो जाने पर चूंकि आवरण नहीं रहता है इसलिए यह आत्मा तो फैलती चली जानी चाहिए । जैसे किसी घड़े में दीपक रखा है और घड़ा फूट जाये तो दीपक का प्रकाश फैल जाता है । इसी प्रकार आत्मा का विस्तार बढ़ जाना चाहिए । उत्तर देते हैं कि प्रदीप का जो यह विकास विस्तार है, वह स्वभाव जन्य है दूसरे पदार्थ से उत्पन्न किया हुआ नहीं है । पीछे किसी पात्र आदि के द्वारा उसका आवरण किया जाता है तो उस दीपक का आवरण मिट जाने पर प्रकाश का विस्तार हो जाना घटित ही है । दीपक में स्वयं ही ऐसा प्रभाव पड़ा है कि पूरा प्रकाश फैल जाये पर आवरण से ढका है, इस कारण आवरण का अभाव होने पर फेल जाता है । पर आत्मा तो स्वभाव से विस्तार वाला नहीं है । यह तो अनादि परंपरागत कर्म से आच्छादित है ।
यह आपका ही विस्तार जीवस्वभाव से नहीं है किंतु शरीर नामकर्म के उदय से इस आत्मप्रदेश में विस्तार और संकोच होता है, सो सूखी मिट्टी के बर्तन की तरह कारण का अभाव होने से आत्मप्रदेश का संकोच और विस्तार नहीं होता । जैसे मिट्टी सूख गई, अब वह बढ़ सकती है या घट सकती है? तो न वह बढ़ सकती है और न घट सकती है । इसी प्रकार ये आत्मप्रदेश भगवान के चरम शरीर के प्रमाण ही ठहरते हैं, उनके प्रदेश न बढ़ते हैं न घटते हैं । इस प्रकार इन चार प्रश्नों में से एक प्रश्न था कि क्या आत्मा देहप्रमाण है? स्वीकार कर लिया, हां, देह प्रमाण है ।
एक वैज्ञानिक ने तो यह कहा कि कोई भी चीज छोटी बड़ी नहीं है । यदि चीज दूर है तो वह छोटी दिखलाई देती है और कोई चीज नजदीक है तो वह बड़ी दिखलाई देती है । यह छोटा और बड़ा तो फासला की अपेक्षा से है । यह चंद्रमा कितना बड़ा है? एक हाथ का होगा? और नजदीक पहुंचो तो मालूम पड़े कि यह चंद्रमा कुछ कम दो हजार कोस का है । तो चंद्रमा कितना बड़ा है? इसका क्या उत्तर होगा कि इतने दूर है तो एक हाथ का है और पास में है तो कोसों का है । तो उस वैज्ञानिक ने वहाँ यह सिद्ध किया कि वर्णन अपेक्षावाद से होता है । अपेक्षावाद और स्याद्वाद दोनों का मतलब एक है । किंतु स्याद्वाद का प्रयोग वस्तुगत धर्मों में करने लगो । स्याद्वाद के बिना कोई भी कुछ नहीं कर सकता । यहां सारा परिचय है कि यह अमुक के पिता हैं, अमुक के पुत्र हैं । जितना भी हमें प्रतीत होता है यह सब स्याद्वाद के द्वारा ही प्रतीत होता है । किसी भी पदार्थ की सिद्धि अपेक्षा लगाये बिना नहीं होती ।
यहां नयों की अपेक्षा से प्रश्न कर्ता के प्रश्न का स्वीकारितारूप से समाधान किया जा रहा है । इस प्रकरण में हमें यह जानना चाहिए कि मुक्ति में जैसा सहजशुद्ध स्वभाव परमात्मा रहता है उसके ही सदृश मेरा यह शुद्ध आत्मा है, यह रोगादिक के रहते हुए भी रहता है और स्वभावदृष्टि से तो अब भी परमात्मस्वरूप परखा जाता है । वह निज शुद्ध परमात्मा परखा जा सकता है । गृहस्थ आत्मा भी परमात्मतत्त्व का अनुभव करता है । अज्ञानी तो गृहस्थी का क्लेश भी सहता जाता है और उसे छोड़ भी नहीं सकता । इस तरह यह सारा समागम है । इसको यह जीव भोग भी नहीं सकता और छोड़ भी नहीं सकता है । यदि कोई विरला महापुरुष अपनी शक्ति को बढ़ाकर साहस करके इन सबके विकल्पजालों को छोड़ सकता है तो वही परमात्मतत्त्व को प्राप्त करता है । ऐसा यह शुद्ध आत्मा ही उपादेय है यह इस दोहे का भावार्थ हुआ ।
अब चौथा प्रश्न यह था कि यह आत्मा क्या शून्य भी है? तो इस दोहे में उत्तर देते हैं कि हां यह आत्मा शून्य भी है ।