वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 55
From जैनकोष
अट्ठवि कम्मई बहुविहई णत्र णव दोसवि जेण ।
सुद्धह एक्कुवि अत्थि णवि सुण्णुवि वुच्चइ तेण ।।55।।
शुद्ध आत्मा के न तो बहुविध कर्म हैं और अठारह प्रकार के दोषों में से एक भी दोष नहीं है । शून्य कहो या सूना कहो, एक ही बात है । प्रभु अठारह प्रकार के दोषों से सूना है । कोई एक नया कमरा है उसमें कोई भी चीज नहीं रखी है तो वह कमरा कैसा है? सूना है । तो वह भगवान कैसा है? सूना है । भगवान कैसे सूने हैं? उनके कोई कर्म नहीं है, रागादिक दोष नहीं है । और हम आपके क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म आदि भरे पड़े हुए हैं क्योंकि नवीन कर्मों को बांधते है, और विकार भी पैदा करते हैं । सो परमात्मा शून्य हैं । दृष्टि और नय से यह सिद्ध किया जा रहा है कि हमारी आत्मा भी शून्य है ।
अंतरात्मा के अस्तित्व के कारण जैसा कुछ रह सकता है उसे देखो―यह आत्मा सूना है जैसे यह कमरा सूना है और अब यह हाल भरा पूरा है कि सूना है? भरापूरा है । और हम जिस कमरे से आये हैं वह कमरा भरापूरा है या सूना है? सूना है । इस प्रकार यह आत्मा सूना है । न कर्म है, न रागादिक दोष है, न शरीर है, न दुःख है, न सुख है सो इस दृष्टि से सूना है । किंतु अनंत ज्ञानादिक गुण भरे हैं । उसके अपेक्षा तो भरापूरा है । सभी जीव भरे भी हैं और सूने भी हैं । संसारी जीव दोष से भूरे हैं और गुणों से भरे हैं । मुनि मानतुंग महाराज ने एक काव्य में कहा है―