वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 61
From जैनकोष
एहु ववहारें जीवडउ हेउ लहेविणु कम्मु ।
बहुविह भावें परिणवइ तेण जि धम्मु अधम्मु ।।61।।
अब यह बतलाते हैं कि जीव व्यवहारनय से पुण्यपापरूप होता है । यह जीव व्यवहार से कर्मों का निमित्त पाकर बहुत प्रकार के रागादिक भावोंरूप परिणमता है । इसी कारण यह पुण्यरूप बनता है और पापरूप बनता है ।
भैया ! वस्तु को देखने की दो पद्धतियां हैं । एक तो वस्तु के स्वभाव की दृष्टि से देखना और एक वस्तु के परिणमन की दृष्टि से देखना । स्वभाव से देखने की दृष्टि का नाम है निश्चयदृष्टि और परिणमन से देखने का नाम है व्यवहारदृष्टि । इन दोनों दृष्टियों के फल में जैन सिद्धांत समन्वय कर लेता है । ‘‘ब्रह्मवाद कहता है कि जीव एक है नित्य है, अपरिणामी है । यह बात निश्चयदृष्टि से है । क्षणिकवाद कहता है कि जीव क्षणिक है, नया-नया बनता है । यह बात है व्यवहारदृष्टि में ।’’ जीव के बहुत भीतर घुसकर उसके स्वभाव को देखें तो स्वभावमात्र नजर आता है, चैतन्यमात्र दृष्टिगत होता हैं । ऐसी स्थिति में व्यक्ति निगाह में नहीं रहता; अलग-अलग जीवों में कि एक यह जीव है, एक यह जीव है, क्योंकि स्वभाव देखा ।
जैसे दूध रखा है, एक आधा सेर । उस दूध में रहने वाली चिकनाई को जब देखते हैं दिमाग से या यंत्र से तो चिकनाई देखने के समय में यह दूध कितना है यह दृष्टि में नहीं रहता । केवल चिकनाई स्वरूप दृष्टि में रहता है । अग्नि जल रही है होली के दिनों में बेढंगे काठ जलते हैं लंबे गोल कैसे हैं, वहाँ अग्नि के केवल स्वरूप में उपयोग जाये तो आकार न दिखेगा । केवल गरमी दृष्टि में रहेगी और जब स्वभावदृष्टि छोड़कर अगल-बगल की सर्व बातें दिख जायें, वहाँ सब नजर आता है । इसी प्रकार जीव में जीव के मात्र स्वभाव को देखें तो वहाँ अलग जीव है, इतना है, अनादि अनंत हैं, असंख्यात प्रदेशी है, चार गतियों में है; यह नजर न आयगा । और व्यवहारनय से देखें तो सर्वप्रकार नजर आयगा ।
अभी जो पढ़ाई चल रही है वह सब व्यवहारनय की पढ़ाई है । गति मार्गणा 5 है तो वे 5 परिणमन हैं । वहां स्वभाव को नहीं छूआ गया । गुणस्थान, जीवसमास, सभी मार्गणा, उपयोग, ध्यान सबके सब परिणमन हैं । वहां निश्चयदृष्टि की बात नहीं है व्यवहार दृष्टि से जीव की अवस्था जानकर फिर निश्चयदृष्टि लगाओ कि इन सब वस्तुओं में रहने वाला जो एक है वह जीव है, यह निश्चयदृष्टि है । ‘‘केवल निश्चयदृष्टि रखने से मार्ग न मिलेगा’’ और व्यवहारदृष्टि से तो अनादि से भटकनायें चल रही है और वे इतनी सहज होती चली जा रही हैं कि त्रुटि भी नहीं मालूम देती । बिल्कुल भिन्न जीव है और मान लेता है कि यह मेरा है । जीव को खैर मान लिया कि मेरा है, क्योंकि सर्व जीवों की ओर से भी रागभरी बातें सुनने में आती है । मगर अजीव पदार्थों को (घड़ी, चौकी, मकान, दूकान, तिजोरी, सोना चांदी इन्हें) भी यह जीव कहता है कि मेरा है । यह जीव अकेला है । किसी ने कहा कि यह मेरा है, उसके लिए दुकेला हो गया अर्थात् यह मालिक बन गया । और भी चीजें उसके अधिकार हैं, पराधीन हो गया । यदि ये चेतन अचेतन बोलते होते तो ये भी इस मोही जीव की खबर ले लेते । अब तो यह केवल अपनी ओर से इन अचेतनों को जो चाहे बकता है, पर अचेतन में कुछ गम नहीं है । यह तो अन्याय से ही भिन्न पदार्थों को कहता कि ये मेरे हैं । कहने की बात नहीं कह रहे, श्रद्धान की बात है । विश्वास में उसके है कि ये बाह्य पदार्थ मेरे हैं; इससे बड़ा और क्या अंधेरा है ।
भैया ! ‘‘कीजै शक्ति प्रमाण शक्ति बिना श्रद्धा धरे ।’’ नहीं कर सकते हो तो श्रद्धा को तो यथार्थ रखना चाहिये । संबंध नहीं छूट सकता, पर श्रद्धा तो यथार्थ रहे । जीव के स्वभाव की दृष्टि रखना है तो यह धर्म है, आत्मपरिणाम है, चिन्मात्र है, और व्यवहारदृष्टि करते हैं तो पर्याय नजर आती है । यह पुण्यरूप भी और पापरूप भी है, कर्मों से बंधा है । जैन सिद्धांत का आशय और उपदेश कितना विशाल है कि सर्व सिद्धांत, दृष्टियां, तत्त्व गर्भित हैं । ये जीव व्यवहार में परोक्षभूत कर्मों का निमित्त पाकर नाना प्रकार के विकल्प रूप से परिणमते रहते हैं, पुण्यरूप बनते हैं और पापरूप बनते हैं । भावों की पवित्रता तो देखो भैया ! एक बार एक साधु ने श्रावक से कहा कि तुम भगवान के समवशरण में जा रहे हो सो भगवान से हमारी भी बात पूछ आना कि इस साधु के कितने भव शेष है? तो वहाँ जाकर पूछा । उस समय वह साधु एक पलाश के पेड़ के नीचे बैठा था जिसमें 50-60 पत्ते होंगे । पूछा―महाराज ! अमुक साधु के कितने भव शेष रहे? तो बोले जिस पेड़ के नीचे वे बैठे हैं, उसमें जितने पत्ते हैं उतने भव शेष रहे । श्रावक उछलता है, कूदता है कि 40-50 भव किस गिनती में हैं? अब तो जल्दी ही मुक्त होंगे । आकर देखा तो बैठे थे इमली के पेड़ के नीचे । श्रावक माथा ठोकता है, दु:खी हो जाता है । महाराज पूछते हैं क्यों शोक करते हो? भगवान के समवशरण में गये थे वहाँ क्या बताया? वह बोला―महाराज ! वहाँ बताया कि जिस पेड़ के नीचे बैठे हैं उसमें जितने पत्ते हैं उतने भव शेष हैं । याने जिस पेड़ के नीचे बैठे हैं उस पेड़ के पत्तों की संख्या के बराबर भव और शेष रहे । तो साधु बोला क्या परवाह? गिनती तो हो गई । इस जीव के भवों की तो गिनती ही नहीं है अनंत काल घटकर इतने ही रहे, तो भी बड़ी गनीमत है ।
श्रावक साधु से कह रहा कि मैंने एक परिचित साधु के लिए भी पूछा था कि इनका कैसा परिणाम है? तो कहा कि उस समय तो ऐसा परिणाम है कि मरण करे तो स्वर्ग में ऊंचा देव हो और उससे एक मिनट पीछे ऐसा परिणाम था कि उस समय मरण करता तो सातवें नर्क में जाता । देखो भैया! ऐसी परिणामों की विचित्रता है । अपने-अपने परिणामों का अंदाज लगा लो? कितना अनुराग होता है सो यह जीव ऐसे ही नाना परिणामों को करता है । यद्यपि आत्मा निश्चय से वीतराग, चिदानंद एक ज्ञानस्वभावी है, फिर भी व्यवहार से चूँकि निर्विकल्प स्वसंवेदन नहीं है सो कर्मबंध हो जाता है । फिर उन कर्मविपाकों का निमित्त पाकर पुण्य और पापरूप होता है । भैया ! यह अपने घर के बहुत अंतर की बात है, समझ में न आए ऐसी कोई बात नहीं है । खुद की बात समझ न सकें यह नहीं हो सकता है, पर अंतर में उदारभाव होना चाहिए, एक विशाल परिणाम होना चाहिए । केवल परिवार के 10-5 जीवों में जो राग इकट्ठा कर लेते हैं उस राग को या तो बिखेर दिया जाये या सब जीवों के प्रति फैल जाये । अपने आपसे आत्मा का नाता जोड़कर मैं स्वतंत्र हूँ, न्यारा हूँ, अकेला हूँ, मेरा भवितव्य केवल मुझ पर निर्भर है, पर से रंच भी संबंध नहीं है ऐसा दृढ़ भाव हो जाये ।
किसी अन्य की चिंता करना व्यर्थ है । अन्य भी तो अपना कर्म लिए हुए हैं । फिक्र काहे की? कुछ अपनी करुणा करने में आओ । यद्यपि व्यवहार से यह जीव पुण्य-पापरूप होता है तो भी परमात्म-तत्व के अनुभव के कारण जो वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होता है, समस्त परद्रव्यों की इच्छा से रहित होता हुआ अनंत आनंद का भोक्ता होता है; ऐसे दर्शन ज्ञान, चरित्र और तपरूप आराधना की भावना के समय साक्षात् उपादेयभूत परमानंदमय जो एक ज्ञान स्वभाव है वही उपादेय है । वही शुद्ध जीवस्वरूप है । भैया ! चाहिए क्या? आनंद ना । अगर विशाल आनंद मिलता है एक श्रम के त्याग में तो उससे क्यों डरा जाये? बाह्य द्रव्यों के जुट जाने पर तो अनाकुलता हो नहीं सकती । जब अपना उपयोग अध्रुव और भिन्न पदार्थों का आश्रय कर रहा है तो उस उपयोग की ही खैर नहीं है । शांति कहां से मिले? मोक्ष सुख से अभिन्न यह शुद्ध जीव उपादेय है । अब यह बतलाते हैं कि वे 8 कर्म कौन से होते हैं: ―