वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 7
From जैनकोष
जे परमप्पु णियंति मुणि परमसमाहि धरेवि ।
परमाणंदह कारणिण तिण्णिवि तेवि णवेवि ।।7।।
अरहंत व सिद्ध को नमस्कार करके अब आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु को नमस्कार करता हूँ । ये अभेदरत्नत्रय और भेदरत्नत्रय के आराधक हैं । शुद्धात्मस्वरूप के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र चरण के अभेद परिणमन का नाम अभेदरत्नत्रय है तथा सप्ततत्त्वों का श्रद्धान्, ज्ञान और व्रत संयमों का आचरण भेदरत्नत्रय है । सभी साधुसंतों ने इस शुद्ध चिदानंदमय एकस्वभाव का आश्रय लिया है । यह शुद्धात्मतत्त्व द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित है रागद्वेषादि भावकर्म से रहित है मतिज्ञानादिक विभावगुणपर्यायों से रहित है? नरकादिक विभावद्रव्यपर्याय से रहित है । यही शुद्धात्मतत्त्व भूतार्थ है और इस परमार्थरूप समयसार शब्दवाच्य सर्वप्रकार उपादेय रूप शुद्धात्मतत्त्व से विपरीत जो कुछ भाग हैं वह सब हेय हैं । ये राष्ट्र परमेष्ठी निश्चय पंचआचारों के पालन में युक्त हैं । चल मलिन अगाढ़ दोषरहित निश्चयश्रद्धानरूप सम्यक्त्व में आचरण होने को दर्शनाचार कहते हैं । संशय विपर्यय अनध्यवसाय दोषरहित स्वसंवेदन ज्ञान में आचरण होने को ज्ञानाचार कहते हैं । शुभ, अशुभ, संकल्प-विकल्परहित नित्यानंदमय निजस्वरूप की स्थिरता में आचरण होने को चारित्राचार कहते हैं । परद्रव्यों की इच्छा के निरोधपूर्वक सहज आनंदरूप से प्रतापमय होने में आचरण होने को वीर्याचार कहते हैं और अपनी शक्ति न छुपाकर शुद्धात्मस्वरूप में आचरण होने को वीर्याचार कहते हैं । इन निश्चय पंच आचारों में साधु उद्यम रखते है और इन्हीं पांच बाह्याचारों में भी सावधान रहते हैं । नि:शंकितादि अष्टगुणों के आचरण को बाह्यदर्शनाचार, कालविनयादिक अष्टज्ञानांगों के आचरण को बाह्यज्ञानाचार, महाव्रतसमितिगुप्तिरूप चरित्र के आचार को बाह्यचरित्राचार, अनशनादिक द्वादश तपों को बाह्यतपाचार और इन बाह्याचारों में शक्ति न छुपाने को बाह्य वीर्याचार कहते हैं । यह निश्चयबाह्याचार सभी मुनियों को समान होता है ।
उनमें जो प्रधान है, आचार्य हैं वे शुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मतत्त्व के श्रद्धानज्ञान अनुष्ठानरूप रत्नत्रय का व इच्छानिरोधरूप तपश्चरण का शुद्धोपयोगभावना का, निर्विकल्पसमाधि का स्वयं आचरण करते है व साधुओं को कराते हैं । जो उपाध्याय परमेष्ठी हैं वे पांच अस्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व व नवपदार्थों में शुद्धजीवास्तिकाय, शुद्धजीवद्रव्य, शुद्धजीवतत्त्व व शुद्ध जीवपदार्थ नामक शुद्ध आत्मभाव को उपादेय कहते हैं और उससे अन्य को सबको हेय कहते हैं तथा शुद्धात्मभाव के श्रद्धानज्ञान आचरणरूप रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हैं । साधु परमेष्ठी आदेश उपदेश की मुख्यता में न रहकर रत्नत्रय आराधन व निर्विकल्प समाधि की साधना में तत्पर रहते हैं । ऐसे भेदरत्नत्रय व अभेदरत्नत्रय के आराधक तीन परमेष्ठियों को मैं नमस्कार करता हूँ । दुनियां के परपदार्थों को असार जानते रहो, ये मेरे लिए कुछ नहीं कर सकते । अपना ज्ञान व आचरण ही सब कुछ है । पूर्वजन्म की भाव निर्मलता से ही तो यह जन्म मिला है । कोई भी ज्ञान जबरदस्ती नहीं हो सकता । पढ़ना ही यदि शक्तिपूर्वक करना चाहो तो संभव नहीं । उसीप्रकार धन भी जबरदस्ती नहीं आता, निर्मल परिणाम करो इसी में सार है । जिन में सफलता नहीं उनमें परिणति करना हानि ही उठाना है । फायदा कुछ नहीं । सदा यही सोचो कि चाहे सब कुछ लुट जावे किंतु मेरी परिणति में खोटा परिणाम न आवे । यदि हित है तो वह परिणामों की निर्मलता में ही है । अपने स्वरूप को निर्मल करो तो लाभ है । अत: भेदरत्नत्रय और अभेदरत्नत्रय के आराधक आचार्य, उपाध्याय, साधु का गुण स्मरण कर उन्हें नमस्कार कर कहते हैं कि जो मुनि परमसमाधि को धारणकर परमात्मा को परमानंद के लिए देखते हैं, अपना परिणमन जो आनंद के लिए करते हैं, ऐसे तीनों परमेष्ठियों को मैं नमस्कार करता हूँ ।
पंचपरमेष्ठी का ध्यान करो तथा अपने सहजस्वरूप का ध्यान करो परम आनंद मिलता है । और संबंध तो हेय है, परमात्म संबंध उपादेय है । जैसे कोई ग्राहक कपड़ा लेने आया उसको सब थान खोल खोलकर दिखाये, उसके पीछे हैरान हुए, तीन घन्टे मगजपच्ची भी की किंतु उसने न लिया तो खेद होता है । इसी प्रकार 50-60 साल तक जिंदा रहे आखिर में सब कुछ छोड़कर चले गये । क्योंकि लेना देना तो कुछ था ही नहीं । अत: इस समागम से क्या लाभ हुआ, कुछ भी तो नहीं, यदि सहजस्वरूप का ध्यान कर लिया तो यह सबसे बड़ा लाभ है । बा की कुछ नहीं । व्यवहार में ही द्रव्यकर्म नोकर्म का संबंध है किंतु यह परमात्मतत्त्व दोनों से रहित है । रागादिक के संबंध से भी रहित है । मैं क्या हूं? इसका ज्ञान न होने पर ही सब विपदाएं आती हैं । यदि अंतरंग में सहजस्वभाव का पता पा लूं तो ये सब विपदायें क्षणभर में दूर हो जावेंगी । मतिज्ञानादि पदार्थों से भी रहित ऐसा आत्मतत्त्व ही उपादेय है । जैसे डरकर बालक अपनी मां के आंचल में चिपट जाता है तथा अपने को उस आंचल की छाया में रहकर अपने को भय से दूर मानता है । फिर कोई कुछ भी कहे देवे अपना उससे बनता बिगड़ता क्या है? मोह व मूढ़ता के अलावा दुःख ही क्या है? अत: स्वानुभूति रूपी माता की गोद में पहुंच जावो और ऐसे पहुंचों किं विकल्परूपी लोगों को भी दिखायी न दो । ऐसा किये बिना तो भला नहीं, चाहे अब कर लो चाहे बाद में, करना पड़ेगा ही । ऐसा किये बिना गुजारा नहीं होगा । इसके अलावा सब हेय हैं ।
एक लड़का था । नाम था उसका रुलिया । उम्र 25 वर्ष के आस-पास थी, फिर भी बहुत भोला था । एक दिन उसकी बुढ़िया मां बोली कि बाजार से जाकर साग-सब्जी लें आ । वह बोला―मैं रास्ता भूल गया तो क्या होगा? बुढ़िया बोली―बेटा नहीं, रास्ता नहीं भूलेगा । फिर उसके रूठने पर बुढ़िया ने एक धागा उसके हाथ में बांध दिया और बता दिया कि जिसके धागा बंधा वही रुलिया है । जब वह बाजार में गया तो वहां थी भीड़ ! अत: भीड़ के कारण वह धागा टूट गया । जब उसकी नजर अपने हाथ पर पड़ी तो रोना शुरू कर दिया । कि मैं रुल गया । घर आकर रोता हुआ अपनी मां से बोला कि, देखो मां मैंने पहिले ही कहा था ना कि मैं रुल जाऊंगा । अब बताओ मैं रुल गया मैं क्या करूं? मां बोली कि बेटा कोई बात नहीं सो जाओ, मिल जाओगे । जब वह सो गया तो झट उसकी मां ने फिर धागा बांध दिया । उठते ही वह कहने लगा कि मां मैं मिल गया, मिल गया । वह धागा सहजस्वरूप की दृष्टि है यदि उसको पहिचान लिया तो हम अपने में हैं अन्यथा रुलना पड़ेगा ।
भैया ! साधुजन जिस निर्विकल्प समाधि को कहते हैं, आचरते हैं, साधते हैं वह निर्विकल्प समाधि है, हम सबको उपादेय है । यह समाधि ही शुद्धआत्मतत्त्व का साधक है । यह शिक्षा हम इस गाथा के उपदेश से ग्रहण करें । यहाँ तक योगींद्रदेव ने योगसाधना के महान उपदेश के करने से पहिले पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया है । यह पंच परमेष्ठित्व आत्मा का ही परिणमन है । अपने आत्मा का भी ऐसा परिणमन होगा उस परिणमन को अपने ध्यान में लेकर अपने आपमें उस पद का निक्षेप करें और इन परमपदों के आनंद की रेखाओं का अनुभव करें ।