वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 73
From जैनकोष
कम्महँ केरा भावडा अप्णु अचेयणु दव्वु ।
जीवसहावहँ भिण्णु जिय णियमिं बुज्ज्ञहि सव्वु ।।73।।
कर्मों के संबंधी जितने भी भाव हैं और अन्य जितने भी अचेतन द्रव्य हैं; हे आत्मन् ! तुम उन सबको अपने जीवस्वभाव से भिन्न ही जानो । यह आत्मतत्त्व विशुद्धज्ञानदर्शनस्वरूपी है । और ये परभाव, परद्रव्य ज्ञानदर्शन से अत्यंत जुदा हैं । सो हे जीव ! इस अपने आपके आत्मतत्त्व को समस्त परद्रव्यों से और परभावों से भिन्न जानो । सुख का मार्ग तो बिल्कुल सीधा है, पर चलते नहीं बनता तो इसमें दोष किसका है? खुद चलते नहीं बनता और दोष दिया जाता है अन्य लोगों पर । खुद शांत होते बनता नहीं; दोष दिया जाता है कि इसने मुझे क्रोध कराया है । खुद ज्ञानरूप से परिणम नहीं सकते, अपराध लगाया जा रहा हैकि स्त्री ने, बच्चों ने मुझे फांस लिया । ‘‘नाच न आवे आंगन टेढ़ा ।’’ कोई संगीत की सभा जुड़ी हुई थी । नाचने वाला भी घुंघुरु पहिने खूब तैयार खड़ा हुआ है । कोई अवसर ऐसा आये कि पता नहीं क्या हो जाये कि कला का रूप बनाया ही न बने । नाचते ठीक न बने तो कहता है कि मालूम पड़ता है कि यह चौक टेढ़ा है । नाचते खुद नहीं बनता और बताता है चौक का दोष । इसी तरह खुद तो अपराधी है, मोही है राग करता है व्यर्थ में मोहियों पर (संसार के असार जीवों पर); जिनसे कुछ संबंध भी नहीं और दोष देता है कि अमुक का कुछ लेनदेन है या अमुक मुझे छोड़ते नहीं है । घर के लोग इजाजत देते नहीं हैं । क्या तुम्हारी आत्मा इन सब मोही जीवों के हाथ बिक चुका है? जो श्रद्धा में ऐसी परतंत्रता अनुभवी जा रही है कि हम कुछ नहीं हैं । ये लोग इजाजत दें, छोड़ दें तो हम अपने शुद्ध आत्मा की भावना में लगें । समस्त परद्रव्यों को और परभावों को अपने से भिन्न ही समझो । इस दोहे में यह बताया जा रहा है कि जब यह मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग को हटाता है, निर्मल परिणाम बनाता है, उस काल में यह सुरक्षित है । अनुभव में आये कि जो शुद्ध आत्मतत्त्व है वही उपादेय है । इस प्रकार परभाव और परद्रव्यों से भिन्न आत्मतत्त्व की भावना करने की प्रेरणा देने वाला यह दोहा कहा गया है ।
अब यह निश्चय किया जा रहा है कि हे ज्ञानी पुरुष ! ज्ञानमय परमात्मा से भिन्न समस्त परद्रव्यों को छोड़कर एक शुद्धआत्मा की ही भावना भाओ ।