वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 77
From जैनकोष
पज्जयरत्तउ जीवडउ मिच्छादिटि्ठ हवेइ ।
बंधइ बहुविह कम्मडा जें संसारु भमेइ ।।77।।
जो अपनी पर्याय में आसक्त है वह जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है । यह मिथ्यादृष्टि जीव अपने मिथ्यात्व के कारण नाना प्रकार के कर्मों को बांधता है और संसार में परिभ्रमण करता रहता है ।
इस मोही जीव को जो शरीर मिला, जो परिणाम मिला उसी में यह आसक्त रहता है । कहां तो इस जीव का कार्य था कि निज शुद्ध परमात्मतत्त्व में रुचि करे और कहां यह परपदार्थों में रुचि का अभिप्राय बनाए फिरता है । सो यह फुटबाल जैसी ठोकरें खाता फिरता है । जैसे फुटबाल जिस लड़के के पास पहुंचता है, मुझे कोई शरण रख ले, पर शरण कोई नहीं देता । सब लात से ढुलका देते हैं । जिस बालक के पास फुटबाल पहुंचता है वह उसमें कसकर लात लगाता है । फिर जिस बच्चे के पास पहुंचा कि भैया ! अपनी गोद में हमें रख लो, वह हाथ से भी नहीं छूता, पैरों से ही ठोकर लगाता है । यह फुटबाल जिस-जिसकी शरण में जाता है वहाँ से ही ठोकर मिलती है ।
यह मोही जीव जिन-जिन पदार्थ की शरण में जाता है, तुम मुझे सुख दो, तुम मुझे सुख दो; जिसकी शरण में यह मोही जाता है, वहाँ से ही यह फटकारा जाता है । फटकारता नहीं है कोई । यह मोही जीव अपने में नाना ख्वाहिशें लिए हुए है, इच्छाएँ लिए हुए है । सो जितनी इच्छा यह लिए हुए है उनकी पूर्ति तो हो नहीं सकती, क्योंकि किसी जीव का क्या अधिकार है पर वस्तु पर कि जैसा वह चाहे तैसा परवस्तु का परिणमन हो जाय । चाहते हैं और तरह से और उन पदार्थों का परिणमन होता है और प्रकार से । यह जीव परिणमता है कुछ विचार से तो यह समझ रहा है कि मुझे इसने सताया । इसने पीड़ा दी, इससे संकट मिले―ऐसा ही समझ रहे हैं और दुःखी हो रहे हैं । जिन-जिन पदार्थों की शरण में जाता है यह मोही जीव, उन-उन पदार्थों से ही कोरा जवाब इसे
मिलता है ।
भैया ! तुम्हारा और इन पर पदार्थों का साथ कैसे हो सकता है? तुम्हारा तो तुममें ही काम हो रहा है । तुम्हारे से बाहर लेशमात्र भी तुम्हारी परिणति नहीं होती । जितनी पीड़ा द्वेष में है उससे भ कई गुना पड़ा राग में है । पर राग में अंधा पुरुष अपनी पीड़ा को मानता नहीं है । जब फल मिलेगा अगले भव में तब इसकी अक्ल ठिकाने लगेगी । यह मिथ्यादृष्टि जीव अपने मिथ्यात्व के कारण संसार में रुलता है । मिथ्या, वितथ, व्यलीक, असत् ये सब एक ही अर्थ रखते हैं । मिथ्यात्व में वे सब ऐब आ जाते हैं जिनसे सम्यक्त्व के दोष बताए हैं । रागी देवों को देव माना, आरंभी, परिग्रही, विषयासक्ति, गंजेडी, भंग घोटने वाले, अफीमची, मस्त रहने वाले पुरुषों को साधु मानकर अपने को धर्मात्मा समझ लिया, यह सब मूढ़ता है । लोग कैसी प्रवृत्ति करते हैं ? उसकी नकल करना और उस नकल में धर्म मानना सो भी लौकिक मूढ़ता है ।
कोई सन्यासी भिक्षा लेकर जा रहा था । रास्ते में एक जगह उसकी झोली में से पेड़ा गिर गया । वह पेड़ा खोटी जगह पर गिरा । बहुत दिनों से तो भिक्षा में पेड़ा मिला था सो वह उस पेड़े के मोह को न रोक सका । झट उसने उस पेड़े को उठा लिया और उसे पोंछकर झोली में डाल लिया । चूंकि अयोग्य काम किया है सो चारों तरफ देखता है कि किसी ने देख तो नहीं लिया । उसे मालूम हुआ कि किसी ने देख लिया तो उसने ऐब छिपाने को झोली में बहुत से फूल थे उन फूलों को मैला पर डाल दिया; जिससे लोग यह समझें कि यह अपना पेड़ा उठाने के लिए नहीं झुका था, यहाँ कोई देवता है सो उनके चरण छूने के लिये झुका था; तभी तो फूलों की वर्षा कर दी । कुछ लोगों ने देखा तो पास से ही फूल तोड़कर ले आए और उसी जगह डाल दिया, नमस्कार कर लिया । वहाँ माना गया देवता । क्या था? जिसको सूकर खाता है । अब औरों ने देखा तो वे भी बगीचे में गए, वे भी फूल तोड़कर लाए । उन फूलों को चढ़ाया उसी जगह और नमस्कार किया । अब देखो वहाँ फूलों का ढेर लग गया । किसी बुद्धिमान ने सोचा कि ये लोग फूल किसको चढ़ा रहें हैं? देखें तो सही । फूलों को हटाया, सब फूल हट गए तो निकला वहाँ क्या? ऐसे ही न जाने कितने देवता बन गए हैं? किस-किस प्रयोजन से बन गए हैं ? अरे ! देव तो एक वही है जो रागद्वेष रहित हो, नाम से क्या मतलब? कोई हो । जो रागद्वेष रहित हो, ज्ञान से परिपूर्ण हो वही हमारा देवता है ।
हम यदि ज्ञान की पूजा करें तो परमात्मा को पूज लिया समझ लीजिये । नाम से क्या है? जिसका नाम है वह भगवान् नहीं और जो भगवान् है उसका नाम नहीं । वीरप्रभु को जब तक महावीर की निगाह से देखते हो तो ऐसा लगता है कि यह किसी का लड़का है, ऐसा सुहावना है, इतना बड़ी है । घर छोड़कर चल दिया, यह ही देखोगे । पर यह तो भगवान् नहीं । भगवान् तो शुद्ध ज्ञायकस्वरूप अनंतगुणमय है । जो शुद्ध केवल ज्ञानमय है, उस प्रभु का तो कोई नाम ही नहीं है । ये वीर हैं, ये ऋषभदेव हैं, ये चंद्र प्रभु हैं । क्या उस ज्ञानमय प्रभु का कोई नाम है? जब तक नाम की दृष्टि है तब तुक भगवान् का मर्म पहिचाना नहीं जा सकता । और जहाँ भगवान के मर्म में पहुंच गए, फिर नाम से कोई संबंध नहीं रह गया ।
देव तो एक ही प्रकार का है, रागद्वेषरहित ज्ञान पिंड । सार इतना ही है कि ऐसे ज्ञानमय अपने आपकी उपासना करो और ऐसी जो आत्माएँ होती है उनकी उपासना करो । मोह से कुछ नहीं मिलेगा, पर प्रभुभक्ति से, गुरु उपासना से कुछ हाथ भी लगेगा । अभी अनंतकाल आगे पड़े हैं । इन 10-5 वर्षों को ही सब कुछ न समझलो । यहाँ यह बतलाया है कि जो निश्चय सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं के क्षणमात्र में ही इन दुष्ट कर्म का विनाश कर देते हैं । जिस ज्ञान से कर्म खिरते है वह ज्ञान ही हम-आपको उपादेय है ।
यहां यह प्रकरण चल रहा है कि मिथ्यादृष्टि जीव किसे कहते हैं? उसका सीधा लक्षण है कि जो पर्याय में अनुरागी है, पर्यायों को हो अपना सर्वस्व द्रव्य समझता है उसको मिथ्यादृष्टि कहते हैं । अब जरा पर्यायों पर दृष्टि तो दें कि हमारी कौन-कौनसी पर्यायें हुआ करती हैं जिनमें हम मुग्ध हो जाते हैं, जिनके मोहवश हम संसार में रुलते फिरते हैं । जीवों पर सबसे बड़ा संकट है तो यह है कि नाना शरीर को धारण करता फिरता है । आज मनुष्य हैं, मनुष्य मिट जाये, पशु हो गए, पक्षी हो गए, कीड़े मकोड़े हो गए, पेड़ होकर फैल गए तो इसकी क्या दुर्दशा होती है सो आंखों से देख लो । ये सूकर फिरते हैं, क्या खाते हैं? कहां रहते हैं? जगह-जगह लोटते हैं । फिर भी पर्याय में ही आसक्त हैं । ऐसी निम्न दशा तो हम-आपकी अभी नहीं है । यदि सुयोग से आज मनुष्यभव मिला है तो जल्दी रत्न लूट लो, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र का । ये रत्न लुट जायेंगे याने इनको न पा सके से तो फिर कठिन पड़ेगा ।
भैया ! जिनमें मोह करते हो, ऐसे ये परिवार के लोग कोई साथी हैं क्या? अरे साथी हैं तो दुःखी करने के लिए, पीड़ित करने के लिए साथी हैं । उनसे शांति आराम नहीं होती है । यही अनुभव कर लो, प्रभु के गुणी का अनुराग कर लो, साधु सत्संग कर लो, कितने ही क्षण । फिर देखो कितना आनंद मिलता है? और घर में पहुंच कर बच्चों की किलकिलाहट में, चिंताओं में देखो और साधु सत्संग में रहकर देखो कितना फर्क है? जहां आनंद मिलता है वहाँ जाओ, जिनसे पीड़ा मिलती है उनसे मेल मत करो । हाँ, तो आत्मा की कैसी-कैसी पर्यायें होती हैं? यह आत्मा तो मात्र ज्ञानस्वरूप है, आकाशवत् अमूर्त है । जैसे यह सर्वत्र आकाश जो फैला हुआ है इसमें न रूप है, न रस है, न गंध है, न स्पर्श है, न आकार है, न पकड़ा जा सकता है, न छेदा जा सकता है और न भेदा जा सकता है । इसी प्रकार अमूर्त गुणों का यह आत्मा भी अमूर्त है ।
भैया ! अंतर में दृष्टि देकर तो देखो । इन चर्मचक्षुओं को बंद करके अंतर में कुछ निहारो । इस शरीर को भी भूलकर कुछ अपने में प्रविष्ट होकर बहुत अंतर मर्म की बात तो निहारो कि यह मैं आत्मा ज्ञानमात्र हूँ, अमूर्त हूँ । यह मैं न छेदा जा सकता, न भेदा जा सकता, न पकड़ा जा सकता । इसे किसी ने जकड़ा नहीं है । इसे कोई बंधन में ला नहीं सकता । हम खुद, अपनी कला को भूलकर भ्रम में आ जाते हैं, खुद ही फंस जाते हैं । नहीं तो जैसे स्वतंत्र विचरने वाले सर्पों का बंधन क्या, स्वतंत्र विचरने वाले जंगली हाथियों का बंधन क्या । किंतु वे भी जब इंद्रियों के विषयों का मोह हो जाता है तो शिकारी के चंगुल में फंस जाते हैं । तुम को कोई जकड़े नहीं, कोई सोचे कि मेरी गृहस्थी कच्ची है छोटे-छोटे बच्चे हैं, स्त्री है, कितना धन है, इतना यह धन कमाया है, अब किसे छोड़कर रहा जाय । इन सबने तो मुझे बांध रखा है । आप यह निश्चय समझो कि इस शरीर तक से भी आपका संबंध नहीं है । परिवार की बातें तो छोड़ दो, किंतु शरीर मैं हूँ, यह देह मैं हूँ, इस रूप मैं हूँ, इस तरह का विश्वास किया तो बंधन लग गया । और जब परिवार में आत्मीयता की कि ये मेरे बच्चे हैं, इस जाति की बुद्धि उठी तो बंध गया । ये पर्यायें क्या-क्या हैं जिन में हम अनुरागी होते हैं तो बंध जाते हैं । यहाँ कोई मनुष्य बने, कोई नारकी बने कोई तिर्यंच बने, कोई देव बने, इन पर्यायों में ही सब आसक्त है ।
एक राजा साधु के पास बैठा था । बोला महाराज ! हम मर करके क्या बनेंगे? उसे तो गर्व था कि हम राजा हैं, मरकर कोई देव ही होंगे । और ये साधु महाराज वही बतायेंगे । उसने अवधिज्ञान से जानकर बताया कि अमुक वर्ष, अमुक माह में, अमुक दिन, अमुक जगह पर तू मरकर विष्टा का कीड़ा बनोगे । यह सुनकर बड़ा दु:खी हुआ । घर आया तो अपने बच्चों से कहा, देखो बेटा हम अमुक वर्ष में, अमुक माह में, अमुक दिन, इतने बजे अमुक स्थान में हम विष्टा के कीड़ा बनेंगे । सो हमें तुम आकर मार डालना । मैं ‘‘राजा’’ और विष्टा का कीड़ा बनकर रहना चाहूं; यह ठीक नहीं । बहुत अच्छी बात । आया वह समय । वह गुजर गया और मरकर उसी समय विष्टा का कीड़ा बन गया । अब वह राजपुत्र पहुंचा जहाँ वह कीड़ा था । उसे मारने लगा तो वह कीड़ा विष्टा में जल्दी घुस गया । राजपुत्र साथ के पास पहुंचा, बोला महाराज पिताजी ने तो यह कहा था कि मैं मरकर कीड़ा बनूँगा । सो मुझे मार डालना । पर जब मैं मारने गया तो वह कीड़ा विष्टा में ही घुस गया । साधुजी बोले हे राजपुत्र ! इस जीव की ऐसी ही गति है । जिस शरीर में यह पहुंचता है उस शरीर में ही यह मुग्ध हो जाता है ।
भैया ! सिवाय मोह के और दुःख ही क्या है? बतलाओ कितने बड़े सौभाग्य की बात है कि ऐसा शासन पाया है, ऐसा धर्म पाया है हम आपने कि जहाँ के शास्त्र, जहाँ के सत, जहाँ की प्रक्रिया पवित्र है, जहाँ के आराध्य देव को मूर्ति से सर्वत्र वीतरागता ही टपकती है और संसार के संकटों से सदा के लिए छुड़ा देने वाली देशना मिलती है । जरा तत्त्वज्ञान करते जाइए, ज्यों-ज्यों ज्ञान बढ़ेगा त्यों-त्यों इन गुरुदेवों के प्रति आप उछल-उछल कर गद्गद् होकर भक्ति के शब्द बोल उठेंगे । ‘‘यदि होता मैं कुंदकुंद महाराज के समय में, यदि होता मैं अमृतचंद्र सूरि व समंतभद्र महाराज के समय में तो मैं उनके चरणों में लेटकर अपने को धन्य मानता ।’’ अमृत ही अमृत भरा हुआ है इस तत्त्वज्ञान में । कितनी ऊँची विभूति हम-आपने पाई और इस विभूति का आदर न करें और विषयों के साधनों को ही अपना देवता मान लें; परिवार को, धन को, मित्रों को ही अपना देवता मान लें और इन देव शास्त्र गुरुओं को भूल जायें तो उसका फल क्या होगा? यही सब जो आंखों दिख रहा है । नाना प्रकार के जीव जंतु मिल रहे हैं, ऐसे शरीरों में जन्म लेने का फल ही मिलेगा ।
एक शराबी था । वह शराब की दुकान पर गया । बोला हमें बढ़िया शराब दो । हां, हां, हमारी दुकान में बढ़िया ही शराब है । अजी यों नहीं, हमें बहुत बढ़िया शराब दो जिससे कि उसके पीते ही काम ही काम हो जाय । काम हो जाने का मतलब है गिर पड़ना । हमेशा के लिए तो नहीं, मगर बेहोश हो जाय । बोला हाँ, हाँ, हमारी दुकान पर बढ़िया ही शराब है । फिर बोला―नहीं, बहुत बढ़िया दो । उसने कहा देखो ना, ये तुम्हारे दादा, चाचा पचासों दुकान पर पड़े हैं, मुंह में कुत्ते मूत रहे हैं । इनको देखकर भी तुम्हें विश्वास नहीं होता कि हमारी दुकान में बहुत बढ़िया शराब है । सो मोह में मस्त हम संसारी जीवों का इन कीड़े, मकोड़ों गधे सुवरों, पक्षियों आदि को देखकर भी यह विश्वास नहीं होता कि इस संसार में मोह और मिथ्यात्व का मदिरा पीने का ही यह फल है ।
भैया ! कुछ बढ़िया साधन मिले हैं, आराम से रहने को जिंदगी मिली है तो उसमें सुख नहीं मान पाते, उससे आगे की तृष्णा बढ़ रही है सो जो वर्तमान में पास है उसका भी आनंद समाप्त है । तो बहुत बढ़िया पर्याय तो यह है कि जैसे हम आप मनुष्य हो गए हैं यह शरीर मिला ना? तो इस शरीर में ही यह अनुभव करें कि यह मैं हूँ, मैंने यह किया । में यों कर दूँगा तो उसे कुछ न समझो । बारबार इस देह को ही मैं मानकर लोगों से गर्व भरा अहंकार करते हैं, व्यवहार करते हैं, उनकी पहिली अटक तो यह है हम धन और परिवार के अटक की चर्चा नहीं कर रहे हैं । वह तो महामूढ़ता ही है कि उन घर के लोगों के पीछे तो हम आप चिंतित बने रहते हैं । इन्हें यों संपन्न बना दिया जाय, इन्हें कैसे सुखी कर दिया जाय? अरे ! उनके कर्म जुदे-जुदे हैं । उनके पापों का उदय होगा तो तुम क्या कर लोगे? तुम उनकी चिंता क्यों करते हो और उनके पुण्य का उदय होगा तो तुम क्या कर लोगे उनका? चिंता करो तो अपनी करो ।
देखो भैया ! अनंतकाल से संसारचक्र में रुलते चले आए । आज बड़ी कठिनाई से मनुष्यभव पाया । अपने दिल की बात दूसरों को बता सकते हैं । दूसरों के द्वारा कही हुई बाद हम समझ सकते हैं । ये पशुपक्षी, कीड़े-मकोड़े अपना कुछ दर्द भी नहीं बता सकते । कोई गाय बीमार है । बीमार तो है गले के रोग से और लोग तकुवा गर्म करके लगा देंगे पीठ पर, यह तो उसका इलाज है । तो देखो, इन
सबकी अपेक्षा इस मनुष्य में कितनी उत्कृष्टता है । फिर भी अटकों में अट के रहें, यह तो उचित नहीं है । पहली अटक तो है अपने शरीर में, पर्याय में कि यह मैं हूँ । और अंदर चलें तो दूसरी अटक हो जाती है रागद्वेष, विषयकषायों की । नवीन-नवीन भवों में भी जब से जो कोई उत्पन्न होता है, कषायों में ही वह लवलीन हो जाता है । किसी अन्य मायामय पर्याय के प्रति रोष आए तो यह हठकर लिया जाता कि मैं तो इसके परिवार को बरबाद करके ही रहूंगा । अव्वल बात तो यह है कि कोई किसी को बरबाद करने वाला नहीं है । दूसरी बात यह है कि उनकी बरबादी भी हो गई तो उससे तुम्हें कुछ लाभ नहीं है । तीसरी बात यह है कि यह जो संयोग हो गया है वह कितनी देर का मेलमिलाप है? जैसे कोई रास्तागीर पूरब दिशा से आ रहा है और यह पूरब को जा रहा है तो यह दोनों रास्ते में मिल जाते हैं । राम-राम कर लिया । सिर्फ इतनी देर का मिलन है या ज्यादा से ज्यादा कषाय से कषाय मिले तो चिलम भर कर पी ली, यह थोड़ी देर का मिलन है, बाद में सब विघट जायेंगे । पर यहाँ का जो 40-50 वर्ष का मिलन है, लोगों से, परिवार से, यह मिलन इतने भी बांटे में नहीं पड़ा उस अनंतकाल के सामने । हमने भव बिता-बिताकर अनंतकाल व्यतीत कर दिए । उन कालों के आगे मेरे 50 वर्ष का कुछ मूल्य है क्या? सब निकल जायेंगे । इतना तो समय यों ही निकल गया, अब रहा सहा शेष समय भी निकल जायगा । इस दूसरी अटक को भी मत रखो ।
जब कषाय उत्पन्न हों तब ऐसा विवेक बनाने का यत्न रखो कि मैं तो कषायरहित मात्र ज्ञानस्वरूप हूँ और ये कषाय मेरे विनाश के लिए उत्पन्न होते हैं । पर का निमित्त पाकर ये कषाय उत्पन्न होते हैं । ये मेरे स्वभाव से अत्यंत विपरीत हैं । ये मैं नहीं हूँ । बन सके तो इतना ख्याल कषायों के समय में बना लो । बस आप घर बैठे ही अमीर हैं । वही मोक्षमार्गी है धर्मात्मा है, कर्मों की निर्जरा करता है । तो इन विषय कषायों की अटक भी खत्म करना चाहिए । इसके बाद तीसरी और भीतर की वृत्ति क्या है कि जिसमें हम अटक जाते हैं वे परिणतियां हैं विचार तर्क वितर्क । जैसे कोई बात आपके सामने रखे । देखो, यह बात ऐसो है और दूसरा कोई कहे, नहीं जी ! ऐसा नहीं है । तो इसकी अड़ हो जाती है कि ऐसा ही है । अरे ! काहे पर अड़ रहे हो? कौनसी चीज सामने है? ये विचार-वितर्क आत्मा के भीतर नहीं है । ये तेरे नहीं है । तेरा तो अरहंत-सिद्ध प्रभु के समान केवल शुद्ध ज्ञानस्वरूप है । उस बड़ी निधि की भूल करें तो छोटी-छोटी चीजों से अटक रहती है ।
जैसे कोई सेठ असमय में गुजर जाय और उसकी लाखों की विभूति छूट जाय तो सरकार उसकी विभूति को कोर्ट आफ बा᳴र्ड कर लेती है और उसके बालकों के पालन पोषण के लिए 500 रुपया माहवार भेजती रहती है । उसका बच्चा 10-12 वर्ष का हो गया । 500 रुपया सरकार भेजती है, सरकार तो बड़ी दयालु है मुझे घर बैठे 500 रुपये प्रतिमाह सरकार देती है―ऐसा सोचकर वह बच्चा खुश हो रहा है और जब 20 वर्ष का हो गया और सच्चा हाल मालूम हो गया कि सरकार ने मेरी 4 लाख की जायदाद कोर्ट आफ बा᳴र्ड कर ली है, लगभग डेढ़ हजार रुपया महीना अपना बना लेती है और 500 रुपये महीना हमें दे देती है । तो वह दरख्वास्त दे देता है सरकार को कि अब मैं बालिग हो गया हूँ । हमारी जायदाद दे दी जाय, हमें 500 रुपया माहवार नहीं चाहिए । वह 500 रुपया माहवार की मना कर देता है और जायदाद को प्राप्त कर लेता है । इसी तरह हम लोग अनंतकाल से नाबालिक बने आ रहे हैं । ज्ञान जब नहीं है तब आत्मानुभव नहीं है । जब हम अपने में अपनी शरण नहीं पा सकते हैं तो नाबालिग की तरह अनाथ हैं । कौन नाथ है इस नाबालिग का? अनंत आनंद की निधि को इन कर्मों ने कोर्ट ऑफ बोर्ड कर लिया है । उसकी एवज में थोड़ी दुकान, मकान, घर के 5-7 आदमी ये दे दिए हैं । इनमें ही हम आप रमे रहें और पुण्य के गुण गाते रहे । देखो ! कैसे पुण्य आ रहे हैं सब ठाठ बाट हैं, वैभव है और कभी किसी भाई को सच्चा ज्ञान जग जाय आत्मानुभूति के साथ इस मुझमें तो प्रभु जैसा आनंद भरा है स्वाधीन आनंद है तो विषयों का पुण्य ठाठों का बहिष्कार करके अपनी निधि का आग्रह करता है ज्ञानी ।
यह आनंद क्या विषयों का है? प्रथम तो ये सब पराधीन हैं । कर्मों के अधीन है, लोगों के अधीन हैं और फिर ये नष्ट हो जाने वाले हैं और जब तक हैं तब तक भी सदा सुखमय स्थिति बन सके सो नहीं हो सकता है । कोई आदमी ढूंढ़ कर लाओ, ऐसा जो दिन भर सुख से रह सकता हो । दो घंटे लगातार सुख से रह सकता हो, ऐसा आदमी ढूंढो, कोई मिले । चले जाओ किसी मुहल्ले में, बाजार में आफिस में कोई ऐसा मिले तो हमें भी दर्शन करा दो । हमें भी दर्शन करने की चाह है जो एक घंटा तक लगातार सुखी रह सकता हो । न हम हैं, न आप हैं । कोई न मिलेगा, कारण क्या है कि साता और असाता इनके क्षण-क्षण में बदलते रहते हैं । किसी के लड़के की शादी हो, सब बड़े खुश हो रहे हैं, बारात चल दी, काम हो रहा है पर उन दस-पांच दिनों के प्रसंग में बाप कितना परेशान है, कितना दुःखी है? लेकिन मोह के कारण अपने उस दुःख को दुःख नहीं गिनता है । मगर समय पर खा नहीं सकता । कोई पंच बिगड़ गया तो हाथ जोड़े खड़े, मनावें; फिर कोई रिश्तेदार बिगड़ गया उसे मनाने के लिये हाथ जोड़े बाप खड़े हैं । रिश्तेदार लोग ऐसे मौकों की बाट ही जोहा करते हैं कि कब कोई काम काज हो, इन्हें देखेंगे । तो बाप को कितना क्लेश है? कोई मनुष्य ऐसा न मिलेगा जो एक घंटा भी लगातार सुखी रह सकता हो । तो यह लोक सुख, दुःख से ही भरा हुआ है । इसके बाद भी यह पाप का कारण है । आगे और दुःख देने का कारण बन गया ऐसा यह सुख है । इसमें आनंद न मानो ।
पुण्य का फल भी कुछ चीज नहीं है―ऐसा ज्ञान जब जग जायगा तो यह मनुष्य कहेगा कि ले जाओ पुण्यकर्म, अपना पैसे-पैसे का हिसाब, अपनी जायदाद ले जाओ । हमें कुछ न चाहिये । हमें तो केवल अपने अनंत आनंद की निधि चाहिये । वह अन्य चीजों की उपेक्षा कर देता है और अपने स्वरूप के अनुभव में लगता है और वह अपने अनंत आनंद को लेकर ही रहता है । किसकी अटक कर रहे हो? ये विचार, ये वितर्क, ये अटक तेरे स्वभाव नहीं है । ऐसे इन अटकों से परे हो जाओ । रागद्वेष की अटक से परे हो जाओ और अपने ज्ञानस्वरूप विश्राम लेकर बैठ जाओ तो परम आनंद उमड़ पड़ेगा । यह जीव इस पर्याय में रत होता हुआ नाना प्रकार के कर्मों से बंधता है और संसार में भ्रमण करता है । दो ही तो बातें है । इस शुद्ध ज्ञानमात्र अपनी सत्ता के कारण जैसा मेरा स्वरूप है तावन्मात्र अपने को अनुभव करोगे तो संकटों से मुक्त हो जाओगे और उसके विपरीत रागद्वेषरूप, नारकादिक पर्यायरूप अपने को अनुभव करोगे तो संसार में जकड़े हुए हो ही ।
यह मिथ्यादृष्टि जीव सर्व बांधे हुए कर्मों के निमित्त से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भवरूप 5 प्रकार के परिवर्तनों को करता है । जो परद्रव्यों में रत है वह मिथ्यादृष्टि है और मिथ्यात्व की जो परिणति है वह कर्मों से बंध जाती है । जो पर्यायों में रत है उसे तो परसमय जानो और जो आत्मस्वभाव में स्थित है उसे स्वसमय मानों सम्यग्दृष्टि मानो ।
इस दोहे से हमको यह शिक्षा मिलती है कि स्वसंवेदनरूप वीतराग सम्यक्त्व तो उपादेय है और परद्रव्यों में जो बुद्धि लगने की परिणति बनी है वह परिणति हेय है । जगत् में जो भी दृश्यमान है वे सब हेय हैं, सब असार हैं । सार तो केवल इंद्रियों को संयत करके परद्रव्यों को भूल करके अपने आप में स्वयं सहज जो तत्त्वदृष्टि होती है शुद्ध ज्ञानमात्र, बस, उस प्रभु का आलंबन ही सारभूत है।
एक बार एक बारात में सभा जुड़ी थी । तो पुराने जमाने में रिवाज था कि विवाह में गाने के लिये कोई वेश्या बुलाते थे । सो उस बारात में वेश्या बुलाई गई थी । उस समय जो गान-तान हो रहा था उसमें तबला भी अच्छा बज रहा था । मंजीरा भी अच्छा बज रहा था और वेश्या भी हाथ पसार-पसार कर नाच रही थी । एक कवि ने एक दोहे में लिखा है कि वहाँ क्या हो रहा है? मिरदंग कहे धिक है धिक है । मिरदंग की आवाज कैसी होती है? ‘‘धिक है, धिक है’’ की आवाज होती है । तो मिरदंग कहता है कि धिक है, धिक है, मायने धिक्कार है, धिक्कार है । तो मंजीरे कहें किनको, किनको । याने किसको धिक्कार है? तो वेश्या हाथ पसार कहे इनको-इनको; इनको-इनको । चारों दिशाओं में जो बराती लोग बैठे हुए हैं उनको वेश्या कह रही है इनको धिक्कार है । फिर से इस दोहा को सुनिये―‘‘मिरदंग कहे धिक-धिक है, मंजीरे कहें किनको-किनको । तब वेश्या हाथ पसार कहे इनको, इनको, इनको, इनको ।’’ जो दृश्यमान है, वह सब क्षणभंगुर है, असार है, विनाशीक है, उससे प्रीति न करो और कदाचित् पापों का फल आ जाय तो उस समय भी न घबड़ाओ । मैं तो पाप व पुण्य दोनों से ही न्यारा शुद्धज्ञान मात्र हूँ । भगवान् के उपदेशों में सारभूत रत्न इतना ही है कि अपने आपके सहजस्वरूप पर दृष्टि देना है ।
इस आत्मा की अचिंत्य शक्ति है । जगत् में जो कुछ भी चमत्कार है वह सब आत्मा के ज्ञान का चमत्कार है । यह आत्मा स्वभावत: ज्ञानस्वरूप है । कितना बड़ा ज्ञान है? जितना समस्त विश्व है, क्योंकि यह ज्ञान समस्त विश्व को जानने की शक्ति रखता है और ऐसे विश्व अगणित भी हों तो भी उनको जानने की ज्ञान में शक्ति है । ऐसे अतुल ज्ञान वाला होकर भी हम और आप संसार में कैसे रुलते रहते हैं? इसका मुख्य कारण है अपनी भूल और यह अपनी भूल मेरे स्वरूप से उत्पन्न नहीं होती है, किंतु इसका निमित्त कारण है मिथ्यात्व कर्म । आज उस मिथ्यात्व कर्म की शक्ति को बतलाते हैं जो मिथ्या परिणामों से खुद ही उपार्जित की है ।