वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 78
From जैनकोष
कम्मइँ दिढघणचिक्किणइँ गरुवइँ बज्जसमाइँ ।
णाणवियक्खणु जीवडउ उप्पहि पाडहिं ताइं ।।78।।
ये ज्ञानावरणादिक कर्म इस ज्ञानी जीव को, इस ज्ञानघन आत्मा को खोटे मार्ग में डालते हैं । ये दृढ़ हैं, बलिष्ठ हैं और चिकने हैं, विनाश इनका किया जाना जरा कठिन है और ये भारी हैं, वज्र के समान अभेद्य हैं । यहाँ वर्णन किया गया कि कर्मों में इतनी शक्ति है । पर यह बात नहीं भूल जाना कि कर्मों में तो केवल कर्मों में ही कुछ बना ले ऐसी ही करतूत है, किंतु कर्मों के उदय को निमित्तमात्र पाकर यह आत्मा अपनी विभाव परिणति से भूल खाता है ।
भैया ! बच्चों के पढ़ने की किताब में एक कहानी आया करती है कि एक वन में एक सिंह बड़ा उपद्रव मचाया करता था । अनेक जीवों को मार कर खा लेता था तो सब पशुओं ने मिलकर सलाह की कि हम लोग एक-एक करके बारी-बारी से सिंह के पास चले जाया करेंगे । इस तरह से तो एक ही पशु रोज मरेगा, नहीं तो रोज-रोज बहुत पशु मरेंगे । सो रोज बारी-बारी से पशु उस सिंह के पास पहुंच जावें । सिंह से यही निवेदन किया गया । सिंह ने भी स्वीकार कर लिया । एक दिन एक लोमड़ी की बारी आई । लोमड़ी ने सोचा कि अब तो हमारे प्राण जा ही रहे हैं । अपना एक
हथकंडा तो दिखा दें । यदि चल गया तो ठीक है, नहीं तो मरते तो हैं ही । लोमड़ी ने सोचा कि देर करके सिंह के पास पहुंचें । सो देर करके पहुंची । उधर वह शेर बड़ा क्रोध किए बैठा था । आज किस अभागे की बारी है जो अब तक नहीं आया । जब लोमड़ी पहुंची तो सिंह बोला अरी लोमड़ी ! तू इतनी देर करके क्यों आई? लोमड़ी बोली हे वनराज ! मैं बड़ी आफत में थी सो मैं देर में आपके पास आ सकी हूँ । मुझे रास्ते में आप जैसा ही एक शेर मिला और शायद आप से भी बढ़ा-चढ़ा था । उस सिंह ने मुझे छेड़ लिया । तब मैं उस सिंह से यह प्रतिज्ञा करके आई हूँ कि मुझे छोड़ दो, मैं अपने स्वामी के पास पहुंचकर उनसे आज्ञा लेकर मैं आपके पास फिर आ जाऊँगी । तब मैं आपके पास आ सकी । शेर को बड़ा क्षोभ हुआ । वह कौनसा शेर है इस जगंल में? मेरे सामने भी रह जाये ? चलो देखूं, वह लोमड़ी तो चाहती ही थी । आगे-आगे लोमड़ी चले और पीछे शेर । एक कुएँ के पास उसे ले गई । बोली―महाराज ! वह सिंह यहाँ छिपा हुआ है इस कुएं के भीतर, सिंह ने कुएँ में देखा तो उसकी छाया पानी में पड़ी । उसे देखते ही क्रोध आ गया । एक दहाड़ दी । उस दहाड़ से कुएं से प्रतिध्वनि निकली । अब उसे विश्वास हो गया कि यह बदमाश यहाँ छिपा हुआ है । सो उस सिंह को मारने के लिए वह कुएं में कूद पड़ा । पर वहाँ था क्या? कुछ नहीं । लोमड़ी खुश होकर सब पशुओं को बुलाकर कहा कि देखो हम सब व्यर्थ ही मर रहे थे । हमने अपने हथकंडे से सब लोगों की रक्षा उस सिंह को मारकर की । तो देखो सिंह ने अपने प्राण क्यों गवां दिए? केवल भ्रम था और उस भ्रम का फल कितना कटु मिला कि प्राण चले गए । वह सिंह सड़-सड़ कर मरा । इसी प्रकार भ्रांत पुरुषों की दुर्गति होती है ।
मोह करना हमें आसान लगता है क्योंकि घर मिला है ना खुद को । घर में रहने वाले जो दो-चार जीव हैं वे अधिकार में है ना? सो खूब मोह करो, खूब भ्रम करो; पर इसका फल क्या होगा सो अंदाज करलो । इसका? फल मिलती है इन चौरासी लाख योनियों में जन्म मरण करना । यह सब होता है अपनी गल्ती से । बंदर याने जो वन को दर देवे । वन में ये डाली-डाली को तोड़ देते हैं ना? जो वन को उजाड़ दे उसे कहते हैं बंदर । भैया, देखा है तुमने बंदर ? हाँ, जरूर देखा होगा । एक घड़े में अच्छे छोटे-छोटे लडुवा भरकर रख लो और फिर उसे छत पर रख दो तो बंदर आयेगा और उस घड़े में दोनों हाथ डालेगा । दोनों हाथों से लड्डू पकड़ लेगा । वह दोनों मुट्ठी न खोलेगा, यों ही बाहर को खींचेगा और उछल-उछल कर बाहर को भगेगा? उसे यह ध्यान है कि मुझे घड़े ने पकड़ लिया है, वह अपने दोनों हाथ नहीं निकल पाता है । किंतु भ्रम उसके यही लग गया कि मुझे घड़े ने पकड़ लिया है सो वह बाहर को भागता है । इसी प्रकार हम आपके कोरा भ्रम लगा है, सो व्यर्थ ही कष्ट पा रहे हैं ।
भैया ! क्या दुःख है? केवल भ्रम है । चिंता है कि मेरा घर कैसे चलेगा । आय कम हो रही है । अरे ! कम आय हो रही है तो हो जाने दो । पाप का उदय है तो दुःख होंगे ही । उनकी निवृत्ति के लिये भी धर्म की शरण आवश्यक है । धर्म की तो शरण लो; जो आपके अधिकार की बात है उस पर तो दृष्टि दो । चिंताओं से तो पूरा नहीं पड़ता है । और यदि पुण्य का उदय है तो चाहे जितना टोटा हो, उस टोटे की पूर्ति के लिए संपदा प्राप्त हो जायेगी । परवाह क्या है? धर्म की शरण मत छोड़ो । इस जगत् में सारभूत बात कुछ भी नहीं है, केवल एक धर्म के स्वरूप का परिचय करना और उस ओर झुकना; यही मात्र एक सारभूत बात है । देखो, ये कर्म इस ज्ञानघन ज्योतिस्वरूप को भी तिरोहित करने का कारण बन गये हैं । सो जैसे कुत्ते का बल मालिक के संग तक ही रहता है, मालिक की छू-छू की सैन न मिले तो कोई भी उसको डंडा दिखाकर भगा सकता है । कुत्ते में बल आता है तो मालिक के सैन का बल आता है । इसी प्रकार इन कर्मों में मेरे विनाश की ताकत आती है तो हमारे बिगड़ने की सैन पर । जैसे लोक में कोई खुद ही अपने भाव बिगाड़ ले, अपनी हँसी मजाक कराने जैसा ढंग बना ले तो लोगों को भी दिलचस्पी होती है । उसकी हँसी-मजाक जैसा ढंग वह न करे तो किसमें दम है कि कोई हंसी-मजाक कर सके ।
हम खुद रागद्वेष मोह भावों का आदर करते हैं तो ये कर्म दमादम बढ़ते ही चले जाते हैं । कर्त्तव्य क्या है? मोक्षमार्ग में चलना । सम्यक्त्व का जगाना मोह का मेटना कहलाता है । घर में रहना पड़ता है, रहिए, पर आपका विचार आपके पास है । जैसा चाहो वैसा अपना उपयोग बना सकते हो । किसी को शरण परमार्थ से न समझो । खुद अच्छे होते हैं तो दूसरे शरणभूत बन जाते हैं । खुद बुरे हो जायें तो दूसरे शरणभूत भी नहीं होते हैं । रावण और विभीषण में कितना प्रेम था? घटना याद होगी कि जब यह सुना कि दशरथ के पुत्र और जनक की पुत्री के कारण रावण की मृत्यु होगी तो विभीषण ने यह प्रोग्राम रचा की दशरथ और जनक के सिर ही उतार लें तो फिर पुत्र और पुत्री होंगे नहीं । फिर रावण खतरे में पड़ेगा ही नहीं । इतना प्रेम था रावण से, पर जब रावण खुद ठीक व्यवहार में न रहा, सीता को जंगल से हर लाया तो फिर उसके व्यवहार को कौन सह सकता है? विभीषण ने पहले समझाया, जब न माना तो सब राज्य पर, वैभव पर, सब पर तिलांजलि देकर रावण के विरुद्ध होकर राम से जा मिला । जब तक सद्व्यवहार है तब तक पूछने वाले भाई-बंधु हैं । जब खुद का व्यवहार अच्छा न रहेगा तो कोई पूछने वाला नहीं है । तब ऐहसान किसका मानें? ऐहसान अपने चारित्र का मानें या अपने सद्व्यवहार का माने ।
यह जीव जब अपने श्रद्धान व अपने ज्ञान से पतित हो जाता है तब निमित्तनैमित्तिक भावपूर्वक जो कर्म बनते हैं उनके उदय का निमित्त पाकर यह जीव रागद्वेषरूप बन जाता है । ऐसे ज्ञानमय जीव को जो एक साथ लोक अलोक का विकास करने वाले ज्ञानादिक अनंत गुणोंकर सहित है, उसको अभेद रत्नत्रयरूप निश्चय मोक्षमार्ग का विरोधी जो मिथ्यात्व कर्म है, वह उन्मार्ग में डाल देता है । मिथ्यात्व कहो या विपरीत हठ कहो या अविवेक कहो, अनर्थांतर है । अपना नहीं है और अपना मानने का एक हठ है ।
देखो भैया ! हठ का फल कहीं अच्छा नहीं होता है । एक बार एक बहू के मन में आया कि मुझसे सासूजी लड़ती व बहुत नखरा करती है । इसे ऐसा मजा चखावें कि यह जीवन भर याद करे । पति था उसके कब्जे में, सो जो चाहे सो करा ले । एक रोज वह बहाना करके बैठ गई । तुम्हें मालूम होगा कि बहाना करने लायक कौनसी बीमारी होती है? जिसको डाक्टर भी नहीं बता सकता है । ऐसा रोग है पेट का और सिर का दर्द । सो वह इन दोनों रोगों का बहाना करके पड़ गई । अब वह दर्द नहीं मिटता । पति पूछता है, कि यह दर्द कैसे मिटेगा? तो वह बोली कि अभी मुझे जरासी झपकी आई थी तो एक देवता ने बताया कि सूर्योदय से पहले जो तुमसे प्यार करता हो, उसकी मां सिर मुंडाकर, मुँह काला करके तेरे सामने आयेगी तो तू बचेगी, नहीं तो मर जायेगी । इसका अर्थ क्या है कि सास सिर मुंडाकर मुँह काला करके सामने आए । तो पति ने सोचा कि
मालूम पड़ता है कि इसकी चाल है । ससुराल को उसने झट चिट्ठी लिख दी कि तुम्हारी लड़की बहुत बीमार है, बचने की आशा नहीं है । एक देवता ने यह कहा है कि इसकी मां सिर मुंडाकर मुँह काला करके सूर्य निकलने के पहिले उसके सामने आये तो बचेगी, नहीं तो मर जायगी । सो मां की ममता, सिर मुंडाकर मुँह काला करके आ गई । तो जब सिर मुंडा हो और मुँह काला हो तो फिर पहिचाना तो नहीं जा सकता । सो वह स्त्री बड़ी खुश हुई । तो वह बोली ‘‘देखे बीरबानी की चाले, सिर मुंडे और मुँह काले’’ । याने बीरबानी माने औरतों की करामात देखी कि मैंने अपनी सास का सिर मुंडाया और मुँह काला करवाया । तो वह मर्द बोलता है ‘‘देखी मर्दों की फेरी, अम्मा तेरी कि मेरी ।’’ देख तो यह मेरी करामात कि यह अम्मा तेरी है कि मेरी है जब उसने गौर करके देखा तो बहुत ही शर्मा गई । तो हठ किस पर करोगे? बलवान से हट करोगे तो काम बनेगा नहीं और निर्बल से हठ करोगे तो अन्याय किसी का सिद्ध होता नहीं ।
यदि कोई अन्याय पर उतारू हो जाय तो केवल दो बार चार बार अन्याय कर सकेगा । मगर यहाँ भी लोकव्यवस्था है, किसी का अन्याय किसी पर अधिक बार चल नहीं सकता है । और फिर किसे छोटा मानते हो? जो बड़ा है, करनी उसकी छोटी है तो वह बड़ा छोटा है । अव्वल तो जीवन में ही छोटा बन जायगा, पर जीवन में न बन सका तो मरने के बाद तो एकदम न्याय हो जायगा―जो बनना हो बन जाओ, पर किसी को छोटा मत मानो । हम छोटा आज किसको कहें? जिसकी करनी अच्छी है वह तो बड़ा है । अव्वल तो इस जीवन में ही बड़ा बन जायगा और मौ का न मिला तो मरने के बाद एकदम सद्गति हो जायेगी । यहाँ क्या छोटे-बड़े का हिसाब लगाते हो? अपने आपको देखो । अपने आपका कैसे बड़प्पन हो, इसकी फिक्र करो । उसका एक ही उपाय है धर्मधारण करना । दूसरा इसका कोई उपाय नहीं है । परिणाम शांत रखो, वस्तु का सही-सही ज्ञान रखो, मोह को त्यागो । काम तो करने से ही बनेगा । यह गुप्त काम है, भीतर में कर लेने का काम है । ज्ञान के द्वारा सत्य विचारने की बात है ।
भैया ! अपने को यदि अकिंचन देखेंगे, मैं कुछ नहीं हूँ, मैं अन्य कुछ नहीं हूँ, अकिंचन हूँ, मेरे में मेरा ही स्वरूप है, मेरे से किसी पर का संबंध नहीं है―ऐसा शुद्ध केवल ज्ञानमात्र अपने को देखोगे तो अनंत पवित्र परिणाम होगा । और बहकाने वाली जो जगत की सामग्री है उसकी प्रीति बनेगी तो अनंतमहिमानिधान यह प्रभु गलत ही रहेगा । यह रागद्वेषभावरूपी आग जगत के जीवों को इंधन की तरह जला रही है, फिर भी इन सब जीवों का यही राग का उपाय चल रहा है । शुद्ध आत्मा का अनुभव जब होता है तब राग की कठिनता भी नहीं रहती है । थोड़े-थोड़े से काम नहीं चलता कि चलो, थोड़ा मोह में भी लगें और थोड़ा भगवान् से भी प्रेम बना रहे । तो थोड़े-थोड़े आत्मा के अनुभव से काम न चलेगा । चाहे आप 10 मिनट को ही ऐसा साहस करें कि मैं अकिंचन हूँ । इस ही उपयोग से आत्मानुभव का अवसर रहेगा । राग किसी का है भी तो वह आत्मानुभव का बाधक है । चाहे वह स्त्री का राग हो, चाहे पुत्र का राग हो, चाहे सेवा या परोपकार का राग हो; वे सब आत्मानुभव में बाधा डालने में एक समान हैं । भविष्य में फर्क हो यह अलग बात है ।
एक ब्राह्मण बुढ़िया थी । उसके तीन लड़के थे । सो ब्राह्मण का सत्कार होता है ना? कभी कोई पर्व आदि आये तो उसमें लोग भोजन कराते हैं । तो एक पड़ौस का ही लोभी बनिया था । उसकी स्त्री रोज तकाजा करती थी कि किसी ब्राह्मण को भोजन कराओ । किसी ब्राह्मण को वह भोजन कराना चाहती थी । सो वह बनिया ऐसा व्यक्ति ढूंढ़ने निकला जो ब्राह्मण कम खाता हो, जिससे कम खर्च में ही निपट जाएँ । सो वह बढ़िया मां के पास पहुंचा । बोला, तुम्हारे सबसे छोटे बच्चे का कल हमारे यहाँ न्योता है । बुढ़िया कहती है कि अच्छी बात है, पर चाहे बड़े का न्योता कर जाओ चाहे मंझले का और चाहे सबसे छोटे का न्योता कर जाओ; वे तीनों ही तिसेरिया (तीन सेर खाने वाले) हैं । सो भैया ! ऐसी ही राग की बात है । राग तो सभी आत्मानुभव के बाधक हैं ।
किसी पर राग करते हो, राग के काल में तो आत्मानुभव होता ही नहीं है । आत्मानुभव में बाधा डालने वाला राग है । हां; कोई शुभराग है तो उसमें एक अवसर है कि उससे निपटकर हम शुद्धोपयोग की वृत्ति में आ सकते हैं । अशुभोपयोग के बाद कोई शुद्धोपयोग में नहीं आया । जितने भी जीव शुद्धोपयोग में आए, सब शुभोपयोग के बाद में ही आए । पर शुभोपयोग का संबंध तो आत्मानुभव से नहीं रहा । तो ऐसी हिम्मत बनाओ कि किसी क्षण हम सबको भूल सकें, परम विश्राम से बैठ सकें तो अपने आपसे आनंद का प्रवाह उमड़ पड़ेगा । लौकिक बातें ज्यादा पढ़ने-लिखने की, सीखने की आवश्यकता नहीं है । कल्याण के लिए तो संयम की और अंतःसंयम को आवश्यकता है । इंद्रिय और मन का संयम कर सके तो वह आत्मानुभव के मार्ग में बढ़ सकता है । अपने ज्ञानघन आनंदस्वरूप आत्मा की आज यह क्या दशा हो रही है? इसका कारण है स्नेह, परवस्तुओं का राग । श्रद्धा से यह समझलो कि इन परवस्तुओं से मेरा अहित है । बस, इतनी मिथ्यात्वमय परिणति से यह सारी दुर्गति हो रही है ।
भैया ! क्यों नहीं परिणाम उमड़ता है मोहो जनों का अपने पड़ौसी पर, अन्य जीवों पर? देह से, राग से, तो राग का परिणाम उमड़ता है । धर्मात्माजनों पर क्यों नहीं इतना अनुराग होता है? इसका कारण क्या है? मोह की तीव्रता । मोह हटना हो तो ये तन, मन, धन, व वचन सब कुछ उन प्राणियों पर भी न्यौछावर कर दो, जिनसे मोह कुछ नहीं है । मोहग्रस्त प्राणियों के प्रति यदि राग है कि यह मेरा है तो इस मोह के कारण और अन्य जीवों पर व धर्मात्मा पुरुषों पर अनुराग न हो सकने का फल क्या होगा? सो बहुत से फल तो किसी बूढ़े से और उस बूढ़े के लड़के से सुन सकते हो । कोई कहता है कि 20 हजार मैंने लड़के को पढ़ाने में खर्च किए, तमाम रुपये इसकी शादी में जेवरों में खर्च किए अब यह बहू और लड़का दोनों ही फिरन्ट रहते हैं ।
एक आज सुबह की घटना है । एक बात ऐसी चली कि कोई बुढ़िया मां के प्रसंग में किसी भाई ने कहा कि ज्यों-ज्यों उमर बढ़ती है त्यों-त्यों कषाय बढ़ती है । तो मैंने कहा―भाई ! यह बात नहीं है । कषाय सबके बराबर है । पर जो बूढ़ा हो जाता है वह जवानों के दिल से उतर जाता है, क्योंकि उन जवानों के काम का नहीं रहता, वह बूढ़ा या वृद्ध । सो बूढ़ा तो दिल से उतर जाता है और उन जवानों की जवानी के कारण ज्यादा आ जाते हैं विषय-साधनों के भाव । अत: बूढ़े में ऐब नजर आती हैं । वह बूढ़ा पुरुष, जो उस जवान के दिल से उतर गया है; यदि उस बूढ़े पुरुष के पास 25-50 हजार रुपयों की पोटली रखी हो तो फिर उस बूढ़े में ऐब नजर न आयेंगे । क्योंकि उस बूढ़े से उस जवान को काम निकालना है ना? जब कोई बूढ़ा-बुढ़िया अपने काम का नहीं रहता है, उससे उस जवान का कुछ स्वार्थ सिद्ध नहीं होता है तो उस बूढ़े पुरुष या बुढ़िया का आदर नहीं किया जाता । बिरले ही पुरुष ऐसे होते हैं जो अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा करते हैं । पर प्राय: जो लोग कहते हैं ऐसा कि बुढ़ापे में और तृष्णा या कषाय बढ़ जाती है, तो क्या जो बूढ़े नहीं हैं उनकी तृष्णा कम है? सब बराबर है । कोई अंतर की बात नहीं है, पर जो दिल से उतर गये हैं उनके ऐब प्राय: नजर आते हैं । इसी कारण ऐसा लगता है, पर मोह और कषाय की वृत्ति तो सब जगह एक है ।
भैया ! सब अनार्थों का मूल दृष्टि का फेर है । यह मिथ्यात्व प्रवृत्ति कर्म; जो हमने अपने आपको उल्टे आचरण से बांध डाला है; उसके उदय से यह ज्ञान ढका हुआ है, आनंद विकसित नहीं होता । सो भाई ! जिस आत्मज्ञान के अभाव में, जिस अभेदरत्नत्रय की दृष्टि के अभाव में ये सब संकट आ गए, उसे ज्ञानस्वरूप की खबर लो, उसको याद करो, उसका स्मरण रखो कि यही मोक्ष का मार्ग है और यह ही उपादेय है । धर्म का शरण मत छोड़ो । ऐसे दुर्लभ जीवन को पाकर धर्म के लिए बड़ा उत्साह रखो । इस धन-वैभव को ही सब कुछ न समझो, इसको छोड़कर जाना ही होगा । सो भाई ! कैसा उत्तम समागम मिला है । मूर्ति की ऐसी वीतराग मुद्रा का और शास्त्रों का सत्संग समय-समय पर मिलता ही रहता है सो सदुपयोग कर लो, इस मनुष्य भव का और अपने जीवन को सफल कर लो । अब यह बतला रहे हैं कि यह जीव मिथ्यात्व परिणति से तत्त्व को विपरीत जानता है।