वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 8
From जैनकोष
भाविं पणविवि पंचगुरु सिरि जाइंदु जिणाउ ।
भट्टपहापरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ ।।8।।
यहाँ पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया जा रहा है । जिस प्रकार उन्होंने परमानंद रस का स्वाद लिया है उसी प्रकार मुझे भी मिले, अत: नमस्कार करता हूँ । परमरसीभाव होना, उत्कृष्ट समता का भाव होना ही आनंद है । राग-द्वेष ही इसके बाधक हैं, वे इसे चैन नहीं लेने देते । इनके न रहने पर ही आनंद मिल सकता है । समता और आनंद ये दोनों अविनाभावी हैं, अर्थात् एक होने पर दूसरा स्वयं हो जावेगा । सांसारिक सुखों में आनंद नहीं किंतु क्लेश ही है ! वैसे यह जीव विषयभोगों में रहकर सुख व आनंद मानता है वह उसी प्रकार है जैसे कुत्ता सूखी हड्डी मिलने पर उसे उठाकर दूर ले जाता है और उसे चबाता है उसके चबाने से उसके मसूड़े फट जाते हैं और खून निकलने लगता है, वह समझता है यह खून हड्डी में से ही निकल रहा है और उसी में आनंद मानता है । सो भैया ! सब जीवों में ज्ञान व आनंद गुण है । जितना भी ज्ञान आनंदरूप परिणमन होता है वह ज्ञान आनंद गुण के कारण ही काम आनंदरूप परिणमन होता है । किंतु मोही जीव वैभव, धन, स्त्री आदि से ही आनंद मानता है । उसका विकल्प है कि जो सुख मिलता है वह आनंदगुण के परिणमन से ही मिलता है । ऐसा विश्वास मोही, अज्ञानी जीव नहीं करते अंत: दुःख भोगते हैं । किंतु पंचपरमेष्ठी बाह्य पदार्थों में शरण न मानकर उनमें बुद्धि लगाते हैं । निर्विकार निर्विकल्पक होकर परपदार्थों में उपेक्षाभाव रखते हैं । वे निर्विकल्पक समाधि, समता परिणाम वाले हैं जिसमें ऐसा आनंद मिलता है जो कि सत्य है । ऐसे शांतभाव रखकर वे उनका स्वाद ले चुके, अत: मैं भी उसी स्वाद की वांछा से पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करता हूँ, उनके संपर्क में रहता हूँ, निकट रहता हूँ, संबंध बनाये रखता हूँ । जितना उनका संपर्क मिले, आचरण मिलें उतना ही संपर्क बनाने का प्रयत्न करता हूँ । यही मेरा नमस्कार करने का प्रयोजन है ।
वास्तव में अपनी आत्मा के अंदर बसा हुआ ही यह ध्रुव चैतन्यस्वभाव उपादेय है । इससे अन्य सभी हेय हैं । अपने आपमें बंधा हुआ स्वरूपमय निजज्योति है वह ही एक साध्यरूप है और जिन्होंने ऐसा कर लिया वे ही पंचपरमेष्ठी हैं । जैसे कहते हैं कि हमारा परम उपकार अरहंत भगवान ने किया, उन्होंने ही हमें उपदेश दिया, उन्हीं की दिव्यध्वनि से ये सब शास्त्र रचे गये । हमारे परम उपकारी आचार्य उपाध्याय सर्व साधु हैं । किंतु यह साक्षात् संबोधन है । साक्षात् उपकार परमेष्ठी का ही है । वे कैसे हैं―जो निस्पृह हैं, जो सांसारिक भाव नहीं सोचते, जो अपने को आपमें पाकर अपना स्वाद लेते हैं यदि ऐसे परमेष्ठी मेरी दृष्टि में बने रहें तो मुझे भी स्वाद मिल जावेगा । क्योंकि जैसी संगति होगी, वैसी ही भावनाएं बनेंगी । जो महापुरुष हुए हैं क्या वे जन्म से ही महान् हुए हैं? महान् संपर्क से ही महान् हुए हैं । ये डाकू आदि क्या जन्म से ही अपना नाम डाकू रखवाकर आये? नहीं, इन्होंने अपना संपर्क ही ऐसा रखा जिसमें लूटने मारने के विचार बने सो वे डाकू हो गये । अच्छी संगति से अच्छे विचार बनते हैं । अच्छे से अच्छा बनता है और बुरे से बुरा । यही विचारो कि मैं तो यहाँ अपनी आत्मा का कल्याण करने आया हूँ, कर्मों की निर्जरा करने आया हूँ, जिसका ऐसा विचार हो गया उससे बढ़कर दुनियां में कुछ नहीं है । जिस समय सांसारिक भोगों से हटकर आत्मा में उपयोग लग रहा है वह घड़ी धन्य है । श्री अकलंक देव, कुंदकुंदाचार्य आदि गुरुओं के निकट रहने का मौ का जिन्हें मिला होगा वे अपने को कितना धन्य नहीं मानते होंगे । जिनके शब्दों को सुनकर यही भाव बनते हैं कि यदि तुम आज होते तो तुम्हारे चरणों में पड़े रहते चाहे फिर शरण में लेते या दुत्कार देते, किंतु आश्रय न छोड़ते और जिनको निकट संबंध मिल गया होगा वे तो कृतार्थ हो गये होंगे ।
भैया ! अपने आपमें बसे हुए परमात्मतत्त्व की दृष्टि ही सब कुछ है अन्य कुछ नहीं । जीविकोपार्जन के लिए जो-जो विकल्प किये जा रहे हैं वे सब दुःखदायी हैं उससे लाभ कुछ नहीं । गृहस्थ तो स्वाद ले लेकर दुःखी हो रहे हैं किंतु यदि त्याग करने के बाद भी किसी स्त्री आदिक की इच्छा रखी तो कल्याण नहीं । क्योंकि गृहस्थी तो वैराग्य होने पर कल्याण के मार्ग पर लग सकता है किंतु यदि त्यागी अपने त्याग को ही छोड़ देगा तो अकल्याण ही है अन्य कुछ नहीं । यदि उपादेय है तो बस चैतन्यस्वभाव की दृष्टि है, अन्य कुछ नहीं । साधु परमेष्ठी पंचाचार के पालन में लगे हुए है और गृहस्थ के पंचसूना लगे हुए हैं । तीन शल्यों से रहित होने के कारण जिनका श्रद्धान निश्चित है वह दर्शनाचार कहलाता है । कोई भी उपद्रव क्यों न आवे तो भी वे अपने श्रद्धान से नहीं डिगते । श्रद्धान करके जो निश्चय हो गया है जो ध्यान में लग रहे हैं । आचार्य उपाध्याय, सर्वसाधु तो अपने स्वभाव के दर्शन करने में निकट रहने में, आनंद लूटने में, नहीं अघाते और यह मोही जीव ने भी यह कार्य किया । उससे हटकर वह किया, खाने में आनंद नहीं आया तो आराम किया उसमें आनंद नहीं मिला अन्य कार्य किया । तात्पर्य यह कि आनंद की खोज में यत्र तत्र भटकने में नहीं अघाता है । सांसारिक बाह्यपदार्थों में एक से दूसरे में दुःखी होता फिरता है किंतु उसे सच्चा आनंद प्राप्त नहीं होता । प्राप्त होगा भी कैसे? यदि सच्चा आनंद है तो वह है अपनी सहजस्वरूप, चैतन्यस्वरूप आत्मा में और वह तभी होगा जब मोह व अज्ञान छोड़ देगा ।
जंगल में जो साधु अकेले रहते हैं वह भी तो अपना हीं आत्मबल है । अपने सहजस्वरूप के चैतन्यस्वभाव के आनंद में रत रहते हैं । उन्हें पता ही नहीं अन्य बातों को जानते सब हैं किंतु उनकी ओर परिणमन नहीं होता । यह चैतन्य से उपयोग का हो तो बल है । तभी तो वे वहां बने रहते हैं । वे दर्शनाचार की मूर्ति हैं । स्वसंवेदन ज्ञान बनाना यही सम्यग्ज्ञान हुआ । उनमें आत्मस्वभाव का ज्ञान दृढ़तापूर्वक है । न विपरीतता है, न संदेह है और उस ज्ञान में ही आचरणरूप परिणमना ज्ञानाचार कहलाता है । वहाँ जो सुख मिला स्थिरता हुई, उसका अनुभव करना सम्यक्चारित्र है । एक के होने पर तीनों गुण हो जाते है । तीनों एक ही हैं और जीव का भला करने वाले है ।
एक बुढ़िया के तीन लड़के थे, उस गांव में ही एक बनिया भी रहता था । बनिये ने सोचा कि ब्राह्मण को जिमाना चाहिए । वह था लोभी प्रकृति का, अत: यही सदा सोचता रहे कि किसको निमंत्रण दूं जो कम खावे । बहुत सोच विचारकर बुढ़िया के पास आकर बोला कि बुढ़िया तेरा सबसे छोटा लड़का कहां है? आज उसका हमारे यहां निमंत्रण है । बुढ़िया बोली कि चाहे छोटे को ले जावो, चाहे मंझले को, चाहे बड़े को खुराक तीनों की बराबर तीन-तीन सेर की है । उसी प्रकार आनंद इन तीनों में है । तीनों से आत्मीभूत है वह आत्मा । अपने ज्ञाता दृष्टारूप में तपते रहना सबसे बड़ी तपस्या है । कषाय और क्लेश मन में न आवे इस प्रकार का आचरण करने में जो अंतर्मन को लगाने में जो बल लगता है वह तपस्या है । वस्तुस्वभाव का यथार्थज्ञान ही हमारा कल्याण करेगा । वही शरण है । इसको अच्छी प्रकार सोच लो । यदि वस्तु का सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर लिया तो समझो सब कुछ मिल गया । वह नहीं हुआ तो समझो कुछ नहीं किया, जीवन व्यर्थ है । उसका कोई मूल्य नहीं । जैसे एक न रहने पर आगे कितनी ही बिंदियाँ क्यों न बढ़ा दो उनका मूल्य कुछ नहीं है ।
भैया, मोह की ढिबरी को हटा दो मोक्ष हो जावेगा । निकटभव्य जो हैं वह ऐसा ही श्रद्धान करते हैं कि जो होना होगा होता रहेगा । सारभूत है तो वह है आत्मा का कल्याण ऐसा पक्का श्रद्धान् तुम भी बना लो परद्रव्य की इच्छा दूर करने पर ही तप मिलेगा । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह यदि इनके उपायों से भी कुछ कमा लिया तो वह काम क्या आवेगा? यहाँ तो वह प्राणी सुख पा ही नहीं सकता, आगे भी सुख प्राप्त न होगा, शांति नहीं मिलेगी ? बड़ों-बड़ों का जीवनचरित्र देख लो, रामचंद्रजी थे उन्हें वनवास हुआ क्या वे राज्य छोड़ वन जाने में दुःखी हुए, नहीं । फिर राज्य मिला तो क्या वे सुखी हुए, नहीं । यह सब सम्यक्त्व का ही तो प्रभाव था और जो सुख दुख की अनुभूति हुई वह रागद्वेष से । शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थिर होने का यत्न करना, इस प्रकार का परिणमन वीर्याचार कहलाता है । इस प्रकार पांच आचारों का पालन करने वाले साधु महाराजों को मेरा नमस्कार है ।
मैं आचार्यों को नमस्कार करता हूँ । जो परमसमाधि को धारण कर रहे हैं । जो सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को प्राप्त कर चुके हैं, धारणकर रहे हैं । दर्शनाचार आठ प्रकार का है । निःशंकित आदि आठ अंगों का पालन करना ही दर्शनाचार है । पहिला अंग है नि:शंकित अंग, अर्थात् जिनेंद्रभगवां के कहे हुए वचनों में शं का नहीं करना । इसका यह मतलब नहीं कि कोई बात समझ में न आवे तो भी उसे न पूछना, नहीं तात्पर्य यह है कि जैसा तत्त्व बताया गया है उसमें ऐसा न सोचे कि यह झूठा है क्या ? इस लोक परलोक का भय न माने । इसका यह मतलब नहीं कि किसी का डर न मानकर स्वछंद हो जावे, मनमानी करे, दूसरों को त्रास देवें, नहीं । यह भय न माने कि मेरा मरण होगा आदि । क्योंकि आत्मा तो अमर है । अत: अपने को चेतनास्वरूप समझता हुआ अपनी आत्मा में अमर रहे ।
जिस प्रकार दर्शनाचार के आठ अंग हैं उसी प्रकार शरीर के भी (1) हाथ (2-4), (5) पीठ, दो पैर, (6) मस्तक, (7) वक्षस्थल, (8) नितंब ये आठ अंग हैं । जिस प्रकार इन आठ अंगों बिना शरीर नहीं उसी प्रकार आठ अंगों के बिना सम्यक्दर्शन नहीं कहलाता । वे आठ अंग इस प्रकार हैं―(1) निःशंकित (2) नि:कांक्षित (3) निर्विचिकित्सा (4) अमूढ़दृष्टि अंग (5) उपगूहन अंग (6) स्थितिकरण अंग (7) वात्सल्य अंग (8) प्रभावना अंग । इस प्रकार ये दर्शनाचार के आठ अंग हैं । सप्त भय न होता, जिनेंद्र भगवान् के वचनों में शंका न करना । चर्चा व समझने के लिये की गई शंका दूसरी बात है । किंतु जो सात तत्त्व तथा और और बातों का सूक्ष्म उपदेश दिया है उसमें ठीक है या नहीं इस प्रकार की शंका न करनी चाहिये । किसी के प्रति उद्दंडता का तात्पर्य भयरहित नहीं है । जो उद्दंडता से या गर्व से किसी के साथ पेश आवे उसे तो अपने स्वरूप का ही ज्ञान नहीं है । यहाँ तो चर्चा उन जीवों की है जिन्होंने अपने स्वरूप को पहिचान लिया है । उन्हें सांसारिक, आजीविका के प्रति, आदि आदि भय नहीं । क्योंकि वह जानता है कि आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वभावमात्र है उसमें किसी भी प्रकार का उपद्रव नहीं है और यह व्यावहारिक जीवन तो कर्मों के आधीन है । जो होना होगा वह होता रहेगा भय कैसा? इसी प्रकार वे ज्ञानी जीव परलोक का भी भय नहीं मानते । लोग समझते हैं कि मेरी दुर्गति न हो, अगला भव न बिगड़ जावे इस प्रकार का भय मानते है, किंतु धर्मात्मा इस प्रकार के विचार को मिथ्यात्व समझते हैं । उसे परलोक का, इस भव का भय ही नहीं हैं । मेरा जो चैतन्यस्वभाव है वही मेरा इहलोक, वही मेरा परलोक है । यदि वह मेरी दृष्टि में है, उपयोग में है, तब तो ठीक है । परलोक ही क्या कुछ भी उसमें उपद्रव नहीं कर सकता । वेदना से प्राणी तड़फड़ाते हैं किंतु यह वेदना मेरा स्वरूप नहीं, मेरे में वेदना नहीं, मेरा शरण मैं ही हूँ । भैय्या इंद्रियों को एकाग्र करके इंद्रियों को वश में करके तो अपने में दृष्टि करो बाहर कुछ नहीं । तेरे अंदर ही सब कुछ है । यदि प्राणी ऐसा सोचता है कि मैं सुरक्षित नहीं । मकान ठीक नहीं है । दरवाजे आदि भी टूटे पड़े हैं, कोई भी घुसकर मुझे त्रास दे सकता है । किंतु ऐसा सोचना दुःख का ही कारण है क्योंकि तेरी आत्मा में तो किसी भी उपद्रव का प्रवेश नहीं । यदि तेरा ध्यान, तेरी दृष्टि आत्मा पर है तो और तो क्या, मरण का भी भय न रहेगा क्योंकि मैं तो इस शरीर में भी पूर्ण हूँ, छोड़कर इस शरीर को जाऊंगा तो भी पूर्ण हूँ । अत: यदि मरणभय करें तो वह वृथा है, मिथ्यात्व है । भैय्या मेरे प्राण तो ज्ञान और दर्शन हैं । मैं तो ज्ञाता दृष्टा हूँ । ज्ञानी जानता है कि इस आत्मा में किसी भी उपद्रव का प्रवेश नहीं है । इस प्रकार निःशंकित अंग का पालन करना चाहिये ।
भैया ! जगत् के प्राणियों में छटनी न करो, मोह न करो कि यह मेरा है । बाह्यपदार्थों में उपेक्षाभाव रखे सो नि:कांक्षित अंग कहलाता है । ग्लानि न करना मुनियों का तन देखकर ग्लानि न करना सो निर्विचिकित्सा अंग कहलाता है । कुगुरु, कुदेव, कुधर्म को न मानना उन्हें नमस्कार न करना, उसका आचरण न करना खोटे गुरुओं को, जो असत्य शिक्षा बताते हैं उनको व खोटे देवताओं को व खोटे धर्म को न मानना अमूढ़दृष्टि अंग कहलाता है । अपने धर्म को बनाये रखना जो नियमादि लिये हैं उनका विधिपूर्वक पालन करना, यदि त्रुटि हो जावे तो प्रायश्चित्त करना च्युत होते हुये दूसरों को धर्म में लगाना स्थितिकरण अंग कहा गया है । साधर्मी भाइयों का सत्संग करना, ज्ञान की बात करना, उनसे निष्कपट प्रेम करना, सो वात्सल्य अंग है ।
यदि किसी कारणवश अपने धर्म का अपयश हो तो उसे न होने देना सो उपगूहन अंग कहलाता है और रत्नत्रय को उपासना से अपने धर्म का प्रचार करना, संस्था आदि विद्यालय आदि या मंदिर आदि बनवाकर या पुस्तक बांटकर किसी भी प्रकार धर्म का प्रचार करना सौ प्रभावना अंग कहलाता है ।
इसी प्रकार अपने शरीर के आठ अंगों पर भी यह वृत्त घटित है । जैसे―एक पैर का काम शंकारहित होकर आगे बढ़ना रहता है सो हुआ निःशंकित अंग और पिछले पैर को उठाते समय उस स्थान से कोई मोह
नहीं होता उपेक्षा के भाव से तुरंत उस स्थान को छोड़ देता है सो हुआ निःकांक्षित अंग । बांया हाथ हुआ निर्विचिकित्सा अंग इससे हम बिना ग्लानि किये शौच आदि साफ करने का कार्य करते रहते हैं बिना ग्लानि अनुभव किये । अमूढ़दृष्टि हुआ दाहिना हाथ, इससे संकेत करके यथार्थ बताया जाता है देव-शास्त्र गुरु ही सच्चे हैं आदि । नितंब हो गया उपगूहन अंग । स्थितिकरण अंग हुई पीठ । वात्सल्य अंग हुआ हृदय । मस्तक हुआ प्रभावना अंग । अत: हमारा शरीर भी 8 अंग की बात बता रहा है । वैसे आत्मा के निश्चय से 8 अंग दूसरी प्रकार के हैं शरीर के दूसरी प्रकार के हैं । अपने स्वरूप में शंका नहीं करना, अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य प्रभावना में इच्छा न रखना । उपद्रव आवे, शंका आवे फिर भी अपने स्वरूप की ही दृष्टि बनाये रखना, स्वभावमात्र ही मैं हूँ । अन्य प्रकार का मोह न आने देना, अपने चैतन्य का विकास होने देना, विभाव भावी को अपने अंदर प्रकट न होने देना, अपना स्वभाव स्थिर रखना, इस प्रकार के दर्शनाचार का पालन करने वाले को मैं नमस्कार करता हूँ ।
मेरा स्वभाव चैतन्यस्वरूप है । मैं शरीररहित हूँ, वंशरहित हूँ, घररहित हूँ, जो कुछ हूँ सौ चेतनास्वरूप हूँ । मेरा स्वभाव तो चेतनामय है । जितने भी जगत के प्राणी हैं वे सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं । उनकी इच्छा है तो केवल यही कि किसी प्रकार सुख प्राप्त हो? दुःख दूर हो । दु:ख को बढ़ाने वाली कषाय है जो दु:ख देती है । जहाँ कषाय है वहां सुख प्राप्त नहीं हो सकता । जब तक कषाय जीवन है तब तक शांति के परिणमन नहीं आ सकते । यह शांति तभी प्राप्त हो सकती है जब कषायों को दूर कर दो―छोड़ दो । जो आत्मा को कसे उसे कषाय कहते हैं । इससे दूर होने के लिये वस्तु का सत्य ज्ञान करना चाहिये ।
जितने जीव हैं सब, अपनी-अपनी सत्ता लिये हुए हैं । जैसा भगवान का स्वरूप है वैसा ही इन सब जीवों का भी स्वरूप है । यह जो संसारी जीवों की दशा हो रही है सब मोह के कारण है, परपदार्थ में दृष्टि है इसीलिये ये सब दशाएँ इस जीव की है अन्यथा आत्मा का कुछ अपराध नहीं है । यथार्थ बात को समझते रहो जीव का स्वभाव, लक्षण वही है जो भगवान का है । दूसरों को अपने स्वभावरूप मानने से अपने को दूसरे के स्वभावरूप मानने से ही अशांति मिलती है । और भगवान का स्वरूप सदृश अपने स्वरूप मात्र अथवा स्वरूप जानो, शांति प्राप्त होगी । आज भी बहुत से ऐसे प्राणी है जो सब दुनियां के प्रपंच रोजगार आदिक छोड़कर आत्मकल्याण के मार्ग में लग रहे हैं । और यदि नहीं लग रहे तो इसमें आत्मा का क्या अपराध है? बल्कि दूसरे मजहब वाले तो सब जीवों में प्रभु का दर्शन करते हैं । बात करते समय भी इसी का उच्चारण करते हैं कि―हां प्रभो, आप ठीक कह रहे हैं आदि । तात्पर्य यह कि वे व्यवहार में भी इसी का प्रयोग करते हैं किंतु हम जो स्याद्वाद के द्वारा वस्तु का स्वभाव जानने का दम भरते हैं,, सब जीवों में यदि भगवान को देखें, भगवान का दर्शन करें तो अपनी ही तो सुध दृढ़ होगी, फिर कषाय अपने आप नष्ट हो जावेंगी तथा आत्मा का दर्शन होगा, अपने आपका सहजस्वरूप मालूम हो जावेगा किंतु हम तो दूसरे-दूसरे रूप में देख रहे हैं । यदि दूसरों को देखना है तो उन्हें भगवान के स्वरूप वाला समझो और यह सब जो नाटक हो रहा है इसे उपाधि का ही नाटक समझों । इस प्रकार देखना व समझना निकट भव्य की निशानी है । इसी में हमें शांति प्राप्त होगी । रागद्वेष करने से क्या प्राप्त होगा ?
भैया ! जब यह समझ में गया कि यह रागद्वेष ही, मोहमाया ही भव-भव में भ्रमण कर रहा है, दुःख दे रहा है, त्रास दे रहा है, अपने सहजस्वरूप के दर्शन में बाधक है तब क्यों उसमें लगे रहना? जब तक ज्ञान नहीं, ठीक है अज्ञानता में रहा और दुःख को सुख मानकर फैलता रहा किंतु अब जबकि वास्तविकता समझ गया? वास्तव में स्वरूप क्या है यह समझ में आ जाने पर क्यों मोहमाया में लगा हुआ हैं क्यों इनसे चिपक रहा है, बस अब भी यही रट लगाये है कि यह मेरा पुत्र है, यह पत्नी है आदि आदि । परिणाम भी सोचता है, जानता है, समझता है फिर भी मोह की इतनी प्रबलता है कि छोड़े नहीं छुटता । अत: भैया इसे त्यागकर अपनी आत्मा के कल्याणमार्ग में प्रवृत्त हो । यह सब साथ जाने वाली भी तो चीजें नहीं है । क्या ले जाओगे इनमें से साथ, क्या जावेगा तेरे साथ, सो चेतो, विचार तो करो । ज्ञान ही तो हमारे लिये प्रभु की छाया है । यदि ज्ञान नहीं तो भगवान की हम पर छाया भी नहीं । सदा भटकना ही रहेगा । कोई शरण नहीं है । यदि ईश्वर को पा लिया तो सब कुछ प्राप्त कर लिया ।
भैया ! हम जो विषयभोगों में, ऐयाशी में, वैभव में, धन में मद में पोजीशन बनाने में डूबे हुए हैं यही तो हमें विपदा दे रहे हैं ये ही विपदा के कारण हैं । इनका मोह छोड़ दो, इनका त्याग कर दो, उपेक्षा भाव रखो तो ये तो पीछे-पीछे फिरेंगी । ये सब तो नष्ट होने वाले पदार्थ हैं, साथ न जाने वाले पदार्थ हैं तब क्यों इनके पीछे पड़ा हुआ है ? क्या रखा है, इन सब बातों में ? इनका त्याग करके तो देखो कितना सुख मिलेगा कहा नहीं जा सकता, उसका वर्णन नहीं किया जो सकता । एक बार इन सब मोहमाया को छोड़कर तो देख ! भैया तेरा स्वभाव तो ज्ञाता दृष्टा है, चैतन्यस्वरूप है, चिदानंद है फिर क्यों इन सब बाह्य पदार्थों के पीछे पड़ता है । कल्याण यदि होगा तो अपने सहजस्वरूप के दर्शन करने पर ही होगा । दूसरे जीवों के प्रति तथा अपने प्रति बस एक यही भावना बनावें कि स्वभाव तो चैतन्यस्वरूप है, किंतु यह सब जो हो रहा है सब उपाधि का नाटक है । इससे अन्य कुछ नहीं । ऐसा समझलें तो किसी भी विभाव में हठ न रहे । यदि हमारी यही हठ रहेगी कि इन सब सुखों से, विषयभोगों के झूठे आनंद से, पोजीशन से, वैभव से, धन से हम अलग नहीं रहना चाहते तो निश्चय ही संसार के भ्रमण में भटकते रहने का यत्न है, चौरासी लाख योनियों में भटकते रहने का प्रोग्राम है―
भैया ! सोचो तो ये मानव पर्याय न जाने कितना पुण्य किया था जो प्राप्त हुई । और अब इसको विषयवासना रागद्वेष में ही व्यतीत कर देने से कोई लाभ न होगा । अत: हे हितैषीजनों, यदि संसार के भ्रमण से छुटकारा चाहते हो तो अपने स्वरूप को पहिचानो, सब जीवों पर समता भाव रखो । यही सोचो कि दुनियां के सब जीव सुखी हों । कोई दुःख में न रहे । सब प्राणी मात्र पर क्षमाभाव रखो । आखिर ऐसा सोचने से अपना नुकसान ही क्या है और फिर ऐसा सोचने से विपदा नाम की, अशांति नाम की मन में कोई बात न आवेगी । यदि हमारे तन मन धन वचन से संसार के प्राणी सुखी हो सकते हैं तो यह तो हर्ष की बात है । फिर ये तन मन धन वचन तो विनाश को प्राप्त होने ही वाले हैं यदि इनसे किसी को सुख प्राप्त हो सके अर्थात् तन से परिश्रम करके किसी का उपकार हो सके, मन से अच्छी भावना आने से उपकार हो सके, धन का दान देने से उपकार हो सके, वचन से अच्छा बोलने पर किसी का उपकार हो सके तो अपना क्या नुकसान? हर्ष की ही बात है, इनमें अपना खर्च भी तो कुछ नहीं होता । यदि इसका उपयोग किसी भी परमात्मा (उत्कृष्ट आत्मा वाले) के काम आवे, तो करो । यह तो ज्यों-ज्यों उदारता बरतोगे इनमें त्यों-त्यों ही अपने आप अगले-अगले जन्मों में उत्तम-उत्तम प्राप्त होता रहेगा । और यदि इनका दुरुपयोग करोगे तो आगे इससे वंचित होना पड़ेगा । जैसे पशु, पक्षी, कीड़े पेड़ आदि । हमारे लिये तो एक से हैं उनमें कौन तो इष्ट और कौन बैरी सब बराबर हैं । अत: दुनियां के सब जीव प्रसन्न रहें, सुखी होवें मेरी यही अंतरंग से भावना रहनी चाहिये । भैया इन संसारी जीवों में छटनी मत करो कि ये मेरा है और ये तेरा है । आखिर एक न एक दिन तो इस अवस्था को पहुंचना ही होगा फिर क्यों न अभी से इसके लिए प्रयास किया जाय । फिर भलाई भी तो इसी में है । भैया यह सब धनादि वैभव तो स्वयं पीछे-पीछे फिरेगा, यदि अपने आत्मकल्याण में लगे तो फिर इनकी इच्छा ही न रहेगी ।
इच्छा के न रहने को, इच्छा निरोध को तप कहते हैं । बाह्यपदार्थों में अपनी इच्छा को न जाने देना, बाह्यपदार्थों की कामना न करना, बाह्यपदार्थों से इच्छा रोकना सो तप है । इस तप को करने का उपाय यह है कि ज्ञानदर्शन वाले अपने निज आत्मतत्त्व का सही श्रद्धान करो और उसी में रमण करो, फिर बाह्यपदार्थों की इच्छा अपने आप न रहेगी । कोशिश यही करो, भीतर में ऐसी ही भावना विचारो―मैं ज्ञाता दृष्टा हूँ, चैतन्यस्वरूप हूँ, सहजस्वरूप वाला हूँ । मेरी सब जीवों पर ‘‘सुखी रहें’’ यह भावना रहे, सब पर क्षमाभाव रहे । ऐसी इच्छा करने से बाह्यपदार्थों में इच्छा नहीं रहती किंतु करे शुद्ध मन से, अंतरंग से । यदि अच्छी ज्ञान से रह लिये तो क्या खूब बढ़िया-बढ़िया भोजन कर लिया तो क्या? इसके उपाय करने से ऐसे साधन करने से लाभ के स्थान पर हानि ही है । उपाय ऐसा करो कि जिससे शरीर की स्थिति बनी रहे इसके लिए भोजन का तो प्रयास करो, इसका उद्देश्य यही हो कि शरीर की स्थिति बनी रहे, क्योंकि इसके रहते धर्मसाधन करना है, अत: भोजन के लिये तो विकल्प लेवे, किंतु और पदार्थों को, बाहर की वस्तुओं को आवश्यक न समझें । इससे अपनी आत्मा का ज्ञान बढ़ेगा, यथासमय निर्दोष भोजन के अतिरिक्त और कोई विकल्प मन में न लाओ, बस सदा आत्मा के ध्यान में रत रहो । तपस्या वही है जो बाह्यपदार्थों का मोह न रखे उसकी कामना न करे, स्वभाव का उपयोग करके बाह्यपदार्थों में मोह न करे ।
जब से त्यागी होते हैं, नियम लेते हैं तभी से बाह्यपदार्थों का त्याग हो जाता है । आत्मचिंतन करना अपने को पहिचानना तभी से ध्येय बन जाता है जब से त्यागी हुए । ज्ञानाचार दर्शनाचार, तपाचार, वीर्याचार, चरित्राचार इन पांचों का जो अभेदरत्नत्रयरूप में पालन सो ही समाधि कहलाती है । वास्तव में इसी को समाधि कहते हैं । किंतु भेदरूप में पालन करने से समाधि नहीं कहलाती । अभेदरूप पालन में वीतराग, निर्विकल्पक समाधि कहलाती है । जो स्वयं आचरण करते हैं व दूसरों को कराते हैं, ऐसे ये आचार्यपरमेष्ठी हैं । वास्तव में कृपा तो, उपकार तो इन आचार्यों का ही है क्योंकि माता पिता तो जन्म के ही साथी हैं माता पिता ने तो जन्म दिया इतने ही उपकारक, रक्षक हैं किंतु जो सन्मार्ग पर लगा देवे हम किस लिए आये इसके वास्तविक स्वरूप पर पहुंचा देवें वे ही तो वास्तविक हितकारी हैं । जो आत्मा को ज्ञान में लगाये हुए हैं, वे ही वास्तव में हितकारी उपकारक हैं । श्री कुंदकुंदाचार्य ने, समंतभट्टाचार्य, अकलंकजी ने जो उपदेश दिया उससे हमें शिक्षा मिली है उसी के द्वारा हम अपनी आत्मा के स्वरूप को जान पाये, मुक्ति का मार्ग प्राप्त किया । उनका कितना बड़ा उपकार है यह बताने की सामर्थ्य नहीं । उनके सामने केवल जन्म ही देने वाले माता-पिता की क्या कीमत? वे ही बड़े उपकारी जीव हैं, (आचार्यादि) । अत: मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ ।
उपाध्याय परमेष्ठी भी हमारे उपकारक हैं जिन्होंने शुद्ध अस्तिकाय का, शुद्ध द्रव्य का उपदेश दिया है व्याख्यान किया है, वह निजात्मा शुद्ध है । शुद्ध आत्मा के अतिरिक्त सब हेय हैं । ऐसा जिन्होंने दिखाया―वे ही बड़े उपकारक हैं हमारे । द्रव्य-क्षेत्र, काल भाव, इनमें द्रव्य-जीवपदार्थ, क्षेत्र-जीव अस्तिकाय, काल-जीव द्रव्य-भाव-जीवतत्त्व, इस प्रकार नाम बतायें हैं । द्रव्य नाम पिंड का है । मोक्षशास्त्र में बताया है कि ‘‘गुणपर्ययवद्द्रव्यं’’ । द्रव्य की दृष्टि से देखने पर पता लगता है कि यह जीव अस्तिकाय है । इतना लंबा इतना चौड़ा, इतना ऊँचा है, तथा असंख्यात प्रदेशों वाला है । कालदृष्टि से जीवद्रव्य अपार काल का दृष्टि से है जीवद्रव्य । काल ने पर्यायों को ग्रहण किया । भावदृष्टि से जीवतत्त्व ग्रहण किया गया । इससे स्वरूप का पता लगता है, यह स्वरूप को ग्रहण करता है । इनका जो शुद्ध वर्णन करते हैं, ऐसे ये उपाध्याय परमेष्ठी हैं । जो निश्चय मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हैं निश्चय अभेदरत्नत्रय और भेदरत्नत्रय व्यवहार का जो प्रतिपादन करते हैं ऐसे ये उपाध्याय परमेष्ठी हैं । अभेदरत्नत्रय का मतलब है कि, शुद्ध स्वभाव में शुद्ध ज्ञान के द्वारा रमण करे वह अभेदरत्नत्रय कहलाता है । जीवादि सात तत्त्वों का श्रद्धान करना, वे सात तत्त्व मोक्षशास्त्र में इस प्रकार बताये हैं कि जीवाजीवाश्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वं । अर्थात् जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात तत्त्व कहे गये हैं । गुण व उसकी पर्यायों के साथ पदार्थ का ज्ञान करना, महाव्रत पालना, समिति पालना, इसका नाम व्यवहार मोक्षमार्ग है । दोनों का जो प्रतिपादन करते हैं उन्हें उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं । उन्हें उनके गुणों की प्राप्ति के लिये मैं नमस्कार करता हूँ।
सर्व उपदेश का तात्पर्य है―समता भाव धारण करो, ज्ञाता दृष्टा बनो, तभी तो आत्मदर्शन कर सकोगे । जितने भी क्लेश, संताप, दुःख, विपदा आदि भोग रहे हो यह सब रागद्वेष, संसार के जीवों में छटनी आदि बुरे परिणामों का ही फल है । भैया, यदि सब जीवों पर यही भाव रखो कि दुनिया के जितने भर जीव हैं सब सुखी होवे तो अपना क्या बिगड़ जावेगा ? जितना भी परोपकार करोगे, मन, वचन, काय, धन से दूसरों का हित करोगे उतने ही परिणाम निर्मल होंगे? और आत्मदर्शन में सुलभता प्राप्त होगी । यह जितना भी परिश्रम कर रहा है, और जिनके लिये कर रहा है, यह नहीं सोचता कि उनसे कोई लाभ नहीं होने वाला है । बल्कि ये लोग तो और तुझे पतन के मार्ग में ढकेल रहे हैं । अत: यदि तू अपना भला चाहता है तो आचार्यों द्वारा दिये गये उपदेश का आचरण करता हुआ अपनी आत्मा को भलाई के मार्ग पर लगा । सब विपदाएँ, रोग शोक अपने आप दूर भाग जावेंगी । अत: तू अपने को पहिचान और बस यही सोच कि मैं तो चैतन्यस्वरूप, ज्योतिस्वरूप, निज सहज स्वभाव वाला हूँ, और चैतन्य ही मेरा सब कुछ है । इस संसार में जो साधु पुरुष हैं वे धन्य हैं । जो साधे सो साधु, आत्मा की सिद्धि, करे सो साधु । रागद्वेष दूर करने से समता आती है । रागद्वेष दूर करने के लिये ज्ञान व आचरण सम्यक् बनावे । दर्शन की आराधना करे । मेरा तो यही कार्य है कि ज्ञाता दृष्टा रहूं । इसके अतिरिक्त कोई कार्य नहीं । ज्ञाता दृष्टा की स्थिति की आराधना, सो चरित्र की आराधना है । तप में शक्ति न छिपाना सो तपाराधना । आराधना तो सब कोई करता ही है, किंतु यह विचारना चाहिये कि कौनसी आराधना हमें शांति दे सकती है । दुनियां में ऐसे तो बहुत से हैं जो मोह बनाये हुए है किंतु ऐसे बिरले ही हैं जो ज्ञान और वैराग्य में प्रगति कर रहे हैं, जो समतापरिणाम बनाये हुए हैं, सबको समान दृष्टि के देखते हैं वे कल्याणमय हैं । ऋषि मुनियों का समागम प्राप्त कर अपने को सावधान कर लेना बहुत ही महत्व की बात हुआ करती है । लोगों के आराम, ऐश, वैभव, धन आदि देखकर तृष्णा होती है न । किंतु जो आत्मकल्याण के इच्छुक हैं वे इस पर कभी विचार नहीं करते । ये तो भ्रमणशील प्राणी का मोह है, तृष्णा है जो अपने से अधिक वैभव देखकर, अपने से अच्छे वस्त्र देखकर कल्पना करता है कि मुझे भी इसी प्रकार प्राप्त हों । किंतु ध्यानीजन इससे विपरीत ही विचार किया करते हैं ।
साधुजन निर्ग्रंथ रहते हैं । अपना जो सहजस्वभाव, चैतन्यस्वरूप है, शरीर से अलग उसे स्वभाव का ही साधुजन श्रद्धान करते हैं, ज्ञान करते हैं, आचरण करते हैं, कोई भी, कैसा भी कष्ट क्यों न आवे उसे भी समता परिणामों से ही सहन करते हैं । गृहस्थी के जंजाल में फंसकर किस प्रकार आत्मोद्धार हो सकता है, क्योंकि ज्ञान की बात तो कोई करता नहीं । स्त्री अपनी फरमाइश करती है, पुत्र अपनी । तात्पर्य यह कि सब कोई अपनी-अपनी आकांगक्षाएँ पूर्ण कराना चाहते हैं उसमें आत्मा की क्या और कैसे भलाई हो सकती है । अत: अपने परिवार को भी ज्ञान की बातें सिखाओ ज्ञानी बनाओ । विद्या में सब कोई निपुण हों अपने धर्म का ज्ञान हो ऐसा जितना हो सके प्रबंध करना चाहिये । विद्या गृहस्थ जीवन में बहुत ही आवश्यक है । बताया भी है कि ‘‘माता शत्रु: पिता बैरी येन बालो न पाठित:’’ । अर्थात् उसके मां बाप उस पुत्र के या पुत्री के मां, बाप बैरी है दुश्मन हैं जिन्होंने उन्हें अच्छी शिक्षा नहीं दिलाई, शांति का उपाय रहा बताया । अत: आवश्यक है अपने गृहस्थ जीवन को सुखी बनाने के लिये उनका आचरण सुधारना, उनमें धर्म के प्रति श्रद्धा जगाना, ज्ञानवान बनाना, ज्ञान चर्चा करना चाहिये । किंतु यह सब ज्ञान के द्वारा ही साध्य हो सकता है । जिसने अपने परिवार को ज्ञानी बनाया वह सुखी रह सकता है । अच्छी बात होगी, कि अपनी संतान व्यसनों में न पड़कर, कुमार्ग में ने लगकर सदाचारी बने, ज्ञानवान बने । स्वयं भी न्याय नीति से आजीवन को चलाये ताकि लोगों में, लोक में प्रिय बन सके ।
जब तक साधु अवस्था तक नहीं पहुंचता हो तब तक घर में रहकर ही आत्मचिंतन करो, अपने को परिवार को ज्ञानी बनाओ । उन्हें समझाओ कि देखो भैया ! सुख यदि है तो वह अपनी आत्मा में है, अपने आपमें है, इसके लिए बहुत ही आवश्यक है कि भोजन सादा हो । वस्त्र साफ और सादा हो, विचार ऊँचे हों । यह नहीं कि आता कुछ नहीं और पोशाक ऐसी कि जिससे प्रकट हो कि बहुत बड़ा निपुण होगा । अत: भय्या उच्च विचार रखो । अपने परिवार की व्यवस्था बहुत ही विचारकर करो, सबसे बड़ी बात ज्ञान की है, समाधि ही सबसे ऊंची चीज है । रागद्वेषरहित समता परिणाम ही उत्कृष्ट परिणाम हैं। सब जीवों पर क्षमा भाव रहे और यदि कदाचित् अपन ने किसी का अनिष्ट विचारा और वह निमित्त से हो भी गया तो इसे आत्मा में क्या वृद्धि हो गयी? यह मैं तो पूरा एक, सहजस्वभावी चैतन्यस्वरूप हूँ । अत: कोई विकल्प ने करके ज्ञानाराधना करो । सिद्ध में श्रद्धा करो ।
जो मैं हूँ वह हैं भगवान्, मैं वह हूँ जो हैं भगवान् । अर्थात् मैं वही हूँ जो भगवान् और जो मैं हूँ वही भगवान् है । प्रत्येक जीव सिद्ध जैसे स्वभाव वाला है । अत: यदि कोई किसी जीव का अपमान करता है तो वह भगवान् का अपमान करता है । उसको वेदना हुई यह बात तो अलग है, उसका तो अलग ही दोष लगा किंतु वह जो अपमान हुआ वह अलग । अत: सब प्राणियों पर समताभाव रखो । यदि कोई अपने को प्रतिकूल बात भी कह देता है तो भी मन में क्लेश न कर उस पर करुणा ही रखो और यही सोचो कि यह भी तो चैतन्यस्वरूप है किंतु कर्मों के कारण, अज्ञान के कारण इसकी ऐसी दशा हो रही है । फिर यह तो मुफ्त में ही काम हो गया जो वह कुछ कहकर प्रसन्न हो गया । जीव का तो दया करना धर्म ही है जितना भी बन सके दूसरों की भलाई करो चाहे दान देकर चाहे मीठे वचन बोलकर । इससे अपने की भी सुख मिलता है और दूसरों को भी । ये पुत्र स्त्री आदि जो बाह्यपदार्थ हैं और जिन्हें तू अच्छा समझ रहा है केवल विपदा ही देने वाले हैं । कल्याण करने वाले नहीं । यदि इस प्राणी का कल्याण है तो वह संसारी प्राणी में छटनी करना नहीं । बल्कि कल्याण है अपने सच्चे स्वभाव को पहिचानना, अपने सहज स्वभाव को पहिचानना, उसमें श्रद्धान करना, आत्मचिंतन करना इसमें अलौकिक सुख मिलता है, आत्मा के दर्शन होते हैं, किंतु उसके लिए अपना ज्ञान व आचरण निर्मल रखना अनिवार्य है । मैं तो सहजस्वभाव मात्र हूँ । समता का उपाय है अपना स्वभाव पहिचानना कि मेरा सत्व सबसे भिन्न है मैं तो अपने आप में सहजस्वभाव मात्र हूँ, अपने आप में परिपूर्ण हूँ, ये सब जो दृश्य देखे जा रहे हैं पुण्यपाप के खेल हैं, उपाधिक के नाटक हैं । जब तक ज्ञान नहीं तभी तक परपदार्थों में दृष्टि लगी हुई है अत: यही दृष्टि रखो कि मेरा शरण मेरा स्वभाव है, भगवान हैं और यदि इन कर्मों के जंजालों में फंसे रहे तो चाहे भगवान् के पीछे भी छिप जावो वहां भी इन विपदाओं से न बच पावोगे ।
अब तक सात दोहों में पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया गया है । जो परमपद में स्थित हों, उत्कृष्ट हों, उन्हें परमेष्ठी कहते हैं ! परमेष्ठियों में साधुओं से ऊंचा पद अरहंत भगवान का हैं उनसे ऊँचा पद सिद्धों का है । तो अब तक की भूमिका में जो पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया गया है वह इसलिये कि हम उनके गुणों को प्राप्त कर सकें, उनके अनुरूप आचरण बना सकें । सो गुणों की प्राप्ति के लिये ही नमस्कार किया गया है । यदि यह उद्देश्य लेकर पूजा करें नमस्कार करें कि हमें अमुक वस्तु की प्राप्ति हो जावे, हमारा अमुक कार्य सिद्ध हो जावे या हमारे घर लड़का पैदा हो जावे तो वह मिथ्याचार है । अब प्रभाकर भट्ट गुरुमहाराज से अपना भाव निवेदन करते हैं―