वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 81
From जैनकोष
हउँ वरु वंभणु वइसु हउँ हउँ खत्तिउ हउँ सेसु ।
पुरिसु णउसब इत्थि हउँ मण्णइ मूढु विसेसु ।।81।।
मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ, वैश्य हूँ, क्षत्रिय हूँ या शेष और कोई हूँ, पुरुष हूँ, नपुंसक हूँ, स्त्री हूं; इत्यादि नानारूप से अपने को भिन्न-भिन्न मानता है । इस आत्मा को तो देखो इसमें कहीं क्या ब्राह्मणपना लगा है कि वैश्यपना लगा है? इस आत्मतत्त्व को तो देखो कि वहां पुरुष लिंग है, कि स्त्री लिंग है? वह तो एक भावात्मक चेतन पदार्थ है । वहाँ न पुरुष का लिंग है, न स्त्री का लिंग है । यह तो केवल एक चैतन्यमात्र सत् है । है यह एकस्वरूपी । सारे पदार्थ अपने में एक स्वरूपी होते हैं । मैं भी एक पदार्थ हूँ और अपने में एकस्वरूप या चैतन्य ज्योतिर्मय हूँ । मैं अन्यरूप नहीं हूँ । अपना जो आचरण बना है, केवल आचरण व्यवहार के कारण जिसका कुछ रूप दुनियां में बसा हुआ है उसमें यह कल्पना होती है कि मैं ब्राह्मण हूँ, मैं वैश्य हूँ, मैं शुद्र हूं, मैं क्षत्रिय हूँ । वह सब भी इस जीव की विभाव कला का परिणमन है । आत्मा न किसी वर्णरूप है और न किसी लिंगरूप है । जब तक यह विश्वास रहेगा कि मैं पुरुष हूँ, मैं स्त्री हूँ, तब तक आत्मा का अनुभव नहीं जग सकता।
इस आत्मा का न तो स्त्रीरूप है, और न पुरुषरूप ही है । अपने आपको कहते हैं ना ‘‘मैं’’ । हिंदी में क्या कहते हैं ‘‘मैं’’ और इंगलिश में क्या कहते हैं ‘आई’ । और संस्कृत में क्या कहते हैं ‘अहम्’ । इन शब्दों का भी कोई लिंग नहीं है । स्त्री भी ‘मैं’ शब्द अपने को बोलती है तथा पुरुष भी ‘मैं’ शब्द अपने को बोलता है । स्त्री भी ‘आई’ बोलती है, पुरुष भी ‘आई’ बोलता है, स्त्री भी ‘अहम्’ बोलती है, पुरुष भी ‘अहम्’ बोलता है । इंगलिश में तो क्रिया में भी चिह्न नहीं बदलते हैं और संस्कृत में भी क्रिया में चिन्ह नहीं बदलते हैं । हिंदी में स्त्री बोलती है―मैं जाती हूँ, और पुरुष बोलता है―मैं जाता हूँ, पर कर्ता में कोई अंतर नहीं । इंगलिश में भी पुरुष बोलता है ‘‘आई गो’’, और स्त्री भी बोलती है ‘आई गो’ । संस्कृत में भी ‘‘अहम् गच्छामि’’ है । चाहे स्त्री बोले, चाहे पुरुष । अपने आपके स्वरूप का बोधक जो शब्द है उस शब्द का भी लिंग नहीं है । तब इसका भी कोई लिंग कैसे हो? और देखो इंगलिश में, संस्कृत में अन्य पुरुष के लिए रूप बदल जाते हैं । ‘‘ही’’ और ‘‘शी’’ हो जाते हैं । स्त्री के उपयोग में ‘शी’ शब्द बोलेंगे और पुरुष के उपयोग में ‘‘ही’’ शब्द बोलेंगे । और संस्कृत में भी बदल जाते हैं । पुरुष के उपयोग में ‘स:’ शब्द बोलेंगे और स्त्री के उपयोग में ‘‘सा’’ शब्द बोलेंगे । तो अन्य लोगों के लिए तो शब्द बदल जायेंगे किंतु अन्य पुरुष पर, अन्य व्यक्ति पर अपना कुछ शुद्धतत्त्व नहीं रहा, किंतु अपने आपके बारे में अपने को कहा जाय तो वहाँ सर्व भाषाओं में एक शब्द बोलेंगे । किसी भी शब्द को बोल लो ।
इस मुझ आत्मा में कोई चिन्ह नहीं है । न पुरुष हूं, न स्त्री हूँ, न मैं नपुंसक हूँ, ये सब असमानजातीय पर्यायें हैं । न यह सब, जीव का चमत्कार है और न केवल पुद्गल का चमत्कार है । जीव और पुद्गल दो पदार्थों का मेल हो जाने से यह सब परिणमन बन गया है । ऐसा यह जीव एक शुद्ध चैतन्य होकर भी अपनी कल्पना से नानारूप बन-बन कर इस जगत में रुलता फिरता है । अब कर्त्तव्य तो यह है कि उन सब विचित्र दशाओं से अपना चित्त हटाकर शुद्ध ज्ञानमात्र अपने को अनुभव में लाओ कि यह मैं आत्मा शुद्ध प्रतिभासमात्र हूँ । इसमें किसी अन्य का रच भी कुछ संबंध नहीं है ।
जिसने अपने आपकी सत्ता का परिचय नहीं किया कि वास्तव में मैं क्या हूं? तो उपयोग तो कहीं न कहीं टिकना चाहिए । यदि उसे अपने आपका पता नहीं है तो किसी दूसरी जगह टिकेगा । अपने आपका पता हो तो यह अपने आपमें टिक जाये । सो इस मिथ्यादृष्टि जीव को अपने आपके स्वरूप का पता न होने से यह अपने को नानारूप मानता है । मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ, वैश्य हूँ, क्षत्रिय हूँ और शेष शूद्रादिक हूँ । जीव को देखो अंतर में तो यह एक ज्ञानानंदमय पदार्थ है । उसमें आचरणों का विकास तो जरूर विभिन्न है । कोई ऊँचे ख्याल वाला है, कोई हल्के ख्याल वाला है । ऐसे ख्याल की विचित्रता तो उनमें जरूर है, और उसी कारण से उनके पद का आनंद है, यह जरूरी बात है मगर जैसे लोकव्यवहार में वर्ण और जाति मानी जाति है ऐसा कुछ लेशमात्र भी आत्मा में नहीं लगा हुआ है । हाँ, आचरण का फर्क तो अवश्य है । यदि किसी मनुष्य से कुछ सहवास हो जाय, परिचय हो जाय तो उससे वह आचरण का पता तो लगा लेगा और आचरणों के कारण अनुमान कर लो कि ये अमुक प्रकार के हैं । पर किसी की मुद्रा को देखकर यह नहीं मालूम पड़ सकता कि यह अमुक जाति का है ।
आत्मा शरीर से न्यारा है । यहाँ निश्चयनय की बात चल रही है कि आत्मा वास्तव में केवल ज्ञानस्वरूप है । इसमें अंतर भेद होना चाहिए । भेद भी हो तो कल्याण के वास्ते भेद होते हुए भी नजर भेद पर नहीं होना चाहिए । जैसे यह आत्मा किसी वर्ण का, किसी जाति का स्वरसत: नहीं है इसी प्रकार यह आत्मा न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है । बस, शुद्ध दृष्टि ही तो समता है । अगर यह ख्याल किया जा रहा है कि मैं अबला हूँ, स्त्री हूँ, पराधीन हूं; मैं अबला हूँ, क्या कर सकती हूं? यह ख्याल बना लेने से ही तो सारे संकट छा गए हैं । इस दृष्टि को हटाओ और अपने चैतन्यस्वरूप को अपनी दृष्टि में लो तो सारे संकट समाप्त हो जाते हैं । संकट क्या हैं? संकट कहीं बाहरी पदार्थों से आते हैं क्या ? कल्पना करके ही तो संकट बना लिए जाते हैं । यहाँ यह तात्पर्य लेना कि निश्चय से परमात्मा से भिन्न जितने कर्मजनित भेद हैं, वे सर्व प्रकार से हेय भूत हैं । किंतु यह मूढ़ आत्मा उन भेदों को; उपादेयभूत जो शुद्ध आत्मतत्त्व है उसमें लगाये फिरता है । उनका संबंध बनाता हैं कि मैं अमुक हूँ, मैं अमुक हूँ ।
अनुभव का मर्म बड़ा गहरा है । इसकी प्राप्ति बिना इस लोक का वैभव किस काम आयेगा? इससे आत्मा का पूरा न पड़ेगा । जगत वही है, अनंत काल है । 343 घन राजू प्रमाण लोक है । जहाँ चाहो मरो, जीओ, जैसा चाहे शरीर पाओ, एकदम सब खुलासा है । इस मायाजाल से आत्मा का पूरा न पड़ेगा । आत्मा का पूरा तो इस आत्मसमाधि से ही पड़ेगा । जो प्रभु अरहंत और सिद्ध को जिस उपाय से प्राप्त हुआ है वही दृष्टि देना चाहिए । अंतर में मोह न होना चाहिए । चाहे स्त्री हो, चाहे पुत्र हो और चाहे बड़ी व्यवस्थित संपदा हो, कुछ भी हो; मोह नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह आपका नहीं है । जो अपना नहीं है उसे जबरदस्ती अपना बनाया तो उसका फल क्लेश ही है । सुख नहीं हो सकता है । सुख का मार्ग कितना सुगम है कि आप अपने में बैठे-बैठे अपने आपकी दृष्टि बनाएँ तो सुखी हो जायेंगे । कोई पर की अपेक्षा ही नहीं है कि हाय अमुक साधन नहीं है तो कैसे धर्म करुँ? धर्म करने के लिए कथंचित् बाह्यसाधन चाहियें, परिणामों की निर्मलता चाहिए । अपने, परिणाम आप निर्मल बनावें तो निश्चित है कि सुख मिलेगा । नहीं तो ऐसा यह अज्ञानभाव में परिणत और शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना से रहित मोही आत्मा संसार में जन्म-मरण कर रहा ।