वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 82
From जैनकोष
तरुणउ बूढउ रूयडउ सूरउ पंडिउ दिव्वु ।
खवणउ वंदउ सेवडउ मूढउ मण्णइ सव्वु ।।82।।
यह मोही जीव अपने को जिस चाहे दशारूप मान बैठता है । यह मिथ्यादृष्टि जीव सोचता है कि मैं तरुण हूँ; जवान हूँ । जो जवान हो गये हैं उनसे पूछो कि यह जवानी कैसे मिट जाती है? एक कवि ने अलंकार खींचा कि जो बूढ़े और, बुढ़िया हो जाते हैं तो कमर झुक जाती है ना । तो कवि ने यह बताया कि वह सिर नीचा करके अपनो जवानी को ढूंढ़ता हुआ चलता है कि हमारी जवानी कहां गई? वह तो यों चलता है कि बुढ़ापा आ गया है, पर कवि क्या सोचता है कि वह अपनी जवानी को खोजते हुए चलता है । जब शरीर बूढ़ा हो जाता है और मरण के दिन आ जाने हैं तो बड़ा पछतावा होता है, दुःख होता है कि हाय हमने धर्म न किया । ऐसा भले-चंगे में अगर ख्याल हो जाय तो फिर क्या पूछना है? तब तो फिर जीवन भर सुख ही मिलता है । सुख में मग्न न हो और दुःख में दुःखी न हो तो फिर सुख ही मिलता है और बाह्य पुद्गलों का संयोग है ऐसा जानकर सुख में मग्न न हो और दुःख में घबराना नहीं । दुःख क्या है? अगर किसी पदार्थ में इष्ट अनिष्ट की बुद्धि हो गई तो फिर दुःख ही मिलते हैं । किसी पदार्थ को इष्ट मान लिया और वियोग हो जाय तो वह दुःख का अनुभव करता है । यह मोही जीव अपने को समझता है कि मैं तरुण हूँ । अपने को वृद्ध समझता है कि मैं वृद्ध हूँ । आत्मा तो तरुण-वृद्ध नहीं होता है । वह तो एक ज्ञानमात्र पदार्थ है, सत् है । वह कभी मिटता नहीं । उसको जैसा है तैसा ही मानो तो मोक्ष का मार्ग मिल मिलता है । और अपने की नानारूप मानने का, मन को ढोला करने का स्वभाव है ना?
किसी खोटी बात में चित्त जाने के लिए सदा तैयार ही बैठा है । पर महान् पुरुष वही है जो अपनी इंद्रियों को वश में करने का यत्न करे ।
जो विवेक की बात हो, यथार्थ बात हो, सही बात हो उस रूप ही उद्यम बनाओ । तरुण हूँ, वृद्ध हूँ, रूपवान् हूँ; यह सोच रहे हैं अज्ञानी; जिनको अपने स्वरूप का पता नहीं है । अपने उस स्वरूप में क्षण भर को भी यदि दृष्टि जाय तो भव-भव के बांधे हुए कर्म नष्ट हो जाते हैं । मैं ज्ञान स्वरूप हूँ इसका जिसे पता नहीं है वह अपने को नानारूप कल्पना करता है । मैं रूपवान् हूँ, मेरे आत्मा में रूप तो है ही नहीं । यह तो एक ज्ञानज्योतिमय है । इस स्वरूप की समझ बने तो फिर इस ज्ञानमात्र आत्मा के अनुभव में क्या विलंब? यह सोचता है कि मैं शूरवीर हूँ । आत्मा में एक वीर्यनामक शक्ति है जिसका घात करनेवाला अंतरायकर्म है । उस वीर्यांतराय का क्षयोपशम हो तो आत्मा में बल प्रकट होता है और जिसके क्षय हो जाता है उसके अनंत बल प्रकट होता है । यही वीर्यशक्ति जब विकृत होती है तो संसार के क्लेशरूप में भी प्रकट होती है । पर शूरता जो है वह संसार की शूरता से शूरता नहीं है, आत्मा की भरता से शूरता है । आत्मा में तो भेदविज्ञान का बल हो तो शूरवीरता है । यह जीव अपने को पंडित मानता है कि मैं पंडित हूँ । केवलज्ञान से पहले जो ज्ञान है वह सब अल्पज्ञान है । कितना जान लोगे? असंख्यात जान लोगे, पर अनंत तो न जानोगे । असंख्यात से अनंत कितने गुणा बड़ा है? अनंतगुणा बड़ा है । तो सभी जीवों को समझो कि अल्पज्ञ हैं । बुद्धि पर, अक्ल पर, विद्या पर क्या गर्व करना? पंडित शब्द का अर्थ है । ‘पंडा संजाता अस्य इति पंडित: ।’ पंडित बोलते हैं विवेकी पुरुष को । जो पुरुष विवेकी हो उसे पंडित बोलते हैं । मैं पंडित हूँ, यह मिथ्या अभिप्राय है । मैं दिव्य हूँ, सबमें श्रेष्ठ हूँ । अरे ! ये सब जीव समान हैं । सही दृष्टि कैसे होगी? सब जीवशक्ति में तो श्रेष्ठ हैं ही और व्यक्ति में भी आपको क्या पता? अपनी बात अपने को बड़ी लगा करती है और मोह का और राग का है उदय; इस कारण अपनी कला पर गौरव हुआ करता है । पर क्या कला है? कौनसी श्रेष्ठता है? यह व्यर्थ का आशय है जो यह जीव समझता है कि मैं सबमें श्रेष्ठ हूँ । यह मानता है कि मैं क्षपणक हूँ । क्षपणक कहते हैं दिगंबर साधु को । मैं दिगंबर साधु हूं―ऐसा समझता हो तो मिथ्यात्व है । क्यों मिथ्यात्व है कि ऐसी श्रद्धा करने वाले की श्रद्धा बाहर-बाहर घूमती रहती है । मैं साधु हूँ, ये लोग श्रावक हैं, इनका काम पूजन का है और कहीं अष्टद्रव्यों की पूजा हो रही है तो और तनकर बैठ जावे क्योंकि शरीर में आत्मबुद्धि है कि मैं साधु हूँ, ज्ञान का बड़ा ऊंचा प्रताप है । साधु होकर भी यह भावना रहे कि साधु तो एक पर्याय है, नाटक है । इस परिणति में आए हैं, पर मैं तो जैसे सब जीव हैं वैसा ही एक सत् यह उनकी दृष्टि आनी चाहिए । मैं दिगंबर हूँ, ऐसा आशय भी मोह का आशय है । मैं तो एक जाननशक्ति वाला तत्त्व हूँ; ऐसा अंतर में प्रवेश कर जाय उपयोग तो उसका मोह मिथ्यात्व सब कट जाता है । कोई माने कि मैं बंदक हूँ । बंदक शब्द को प्रसिद्धि बौद्ध आचार्यों में है । मैं बौद्ध साधु हूँ, मैं जैन साधु हूँ । देखिए, सब परिणति का लगाव किया जा रहा है और परिणति का लगाव करने वाला जितना भी ज्ञान है वह सब मिथ्याज्ञान है ।
अभी आप घर में रह रहे हैं । वहाँ बहुतसी संपदा संबंधी या अन्य प्रकार की उलझने पड़ी रहती हैं । तिस पर भो जब अपने को अपने एकत्व का ख्याल आए कि मैं तो केवल चैतन्यस्वरूपमात्र हूँ तो देखिए उसी समय सर्व संकट टल जाते हैं । कोई संकट टालने दूसरा नहीं आता है । खुद से ही संकट छाए और खुद ही संकटों को दूर करोगे ।
यह मिथ्यादृष्टि जीव धर्म की धुन में भी नाना रूपों में अपने को मानता है । मैं श्वेतांबर हूँ, या दिगंबर हूँ, या बौद्ध हूँ, या संन्यासी हूँ―ऐसी नाना कल्पनायें कर डालता है यह । परमार्थत: न मैं श्वेतांबर हूँ, न मैं दिगंबर हूँ, न मैं बौद्ध हूँ, न मैं संन्यासी हूँ, न मैं पुरुष हूँ, न मैं स्त्री हूँ । मैं तो केवल शुद्धज्ञान शक्तिमय आत्मा हूँ । आत्मस्वरूप से अविदित मोही प्राणी ही अपने को नानारूप मानता है ।
एक पुरुष स्त्री थे । खटिया पर पड़े हुए गप्पें हो रही थीं । स्त्री बोली―अपने एक बच्चा हो तो वह कहां लेटे? तो खटिया की एक ओर जरा सरक गया, बोला―यहां लेटेगा । यदि दूसरा हो गया तो? सो और थोड़ा सरक गया । तीसरा हो गया तो? इस बार ऐसा सरका कि वह नीचे गिर गया । कभी ऐसा होता है कि थोड़ा ऊपर से गिरो तो भी चोट लग सकती है, हड्डी टूट जाती है । तो वह ऐसा गिरा कि उसके पैर की हड्डी टूट गई । बोला―अरे । हमें बच्चा नहीं चाहिए । जिसकी कल्पना ही केवल की तो पैर की हड्डी टूट गई और हो जाने में न जाने क्या हालत हो? जिसके लड़के हो गए हैं वे लड़के यदि अपना भार संभाले हैं तब तो वहाँ कुछ व्यग्रता नहीं होती है और जो लड़के अपना भार नहीं संभाल सकते तथा कोई योग्यता विशेष भी नहीं है तो ऐसे पुत्रों से तो जीवन ऊब जाता होगा । फिर उनसे भी होशियार, उनसे भी अच्छे धर्मप्रेमी लड़के हैं, उन सबको मान लो कि ये मेरे लड़के हैं । सबको मान लो कि ये मेरे हैं तो आपकी सेवा करने वाले सैकड़ों हो जावेंगे और यह मान रखा है कि घर में ही जो बच्चे हैं वे ही मेरे हैं सो कुछ ऐसा भी होता है कि जो ज्यादा साथ-साथ रहते हैं? उनमें फिर स्नेह को बुद्धि नहीं रहती है । बिरले ही ऐसे होंगे जो सदा साथ रहते हैं और प्रेम बना रहता हो । जो बिछुड़े हुए रहते है, कभी-कभी मिलते हैं उनमें देखो, कितनी प्रीति बढ़ती है । अभी हम चार दिन को ठहरें तो लोगों से कितनी प्रीति बड़े और चौमासे भर या चार माह को रह जायें तो विशेष अनुरागी होंगे । कोई तो वे ही एक समान अंत तक अनुराग रखेंगे । भैया? एक बात कही है ।
ज्यादा जो सहवास होता है उसमें ज्यादा स्नेह नहीं बढ़ता । सो यह मूढ़ आत्मा अपने को नाना पर्यायोंरूप अनुभव करता है । यहाँ यह तात्पर्य है कि यद्यपि व्यवहारनय से इसकी विभाव पर्याय है । फिर भी परमार्थत: वही एक सर्वत्र है । बालक से जवान हुए तो शरीर अलग हो गया और आत्मा अलग हो गया; ऐसी बात नहीं है एक ही जगह है । जवान से बूढ़े हो गये तो भी वहाँ वह एक हैं । पहले जवान थे तो वही थे अब बूढ़े हो गए तो वही हैं । मरने के बाद जो और भव आया सो वहाँ भी वही है । ऐसा निश्चयनय से वीतराग सहज आनंद एकस्वभावरूप परमात्मा से भिन्न कर्मों के उदय से उत्पन्न तरुण, वृद्ध आदि विभाव पर्यायें जो हेय हैं उन्हें अपने आत्मा में लगाते रहना कि यह मैं हूँ, यही भव में भटकने का यत्न है । ऐसा कौन मानता है? मोही आत्मा, जो पर्यायबुद्धि वाले हैं, जिनको दृष्टि अपने आपके सहजस्वरूप की ओर नहीं है, सो ख्याति के, पूजा के, लाभ के तथा अन्य भी अनेक प्रकार के विभावपरिणामों के अधीन बन जाते हैं वे परमात्मा की भावना से च्युत हो जाते हैं ।