वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 97
From जैनकोष
अप्पा झायहि णिम्मलउ कि बहुएँ अण्णेण ।
जो झायंतहँ परमपउ लब्भइ एक्कखणेण ।।97।।
तुम उस निर्मल आत्मा का ध्यान करो । बहुत बातें कहने से क्या लाभ है? व्यर्थ क्यों बकवाद करे । तुम तो एक उस आत्मा का ध्यान करो जिसका ध्यान करने से महापुरुष क्षणमात्र में परमपद प्राप्त कर लेते हैं । ‘‘लाख बात की बात यही निश्चय उर लावो । तोड़ सकल जग दंद फंद, निज आतम ध्यावो ।।’’ बहुत कहने से क्या फायदा? अपने आपमें ब से हुए उस शुद्ध परमात्मस्वरूप पर न्यौछावर हो जाओ । एक ही ज्ञानस्वभावी आत्मा का ध्यान करो और इस शुद्ध आत्मा से बहिर्भूत इन रागादि विकल्पजालों के प्रपंचों से क्या फायदा? गुप्त होकर, सबको भूलकर, निर्भार मानकर केवल अपने आप ही गुप्त हो जाओ । देख लो, अपने आपमें बसे हुए शुद्ध ज्ञानस्वभाव को, जिस परमात्मा का ध्यान करने से परमपद प्राप्त किया जाता है क्षणमात्र में, अंतर्मुहूर्त में ।
समस्त शुभ-अशुभ संकल्प-विकल्प से रहित निज शुद्धआत्मतत्त्व के ध्यान में रहकर अंतर्मुहूर्त में ही मोक्षपद प्राप्त कर लिया जाता है । इस कारण हे भाई ! इसका ही निरंतर ध्यान करना चाहिये । यहाँ एक प्रश्न होता है कि यदि अंतर्मुहूर्त मात्र परमात्मा के ध्यान करने से मोक्ष होता है तो इस समय हम लोग उसका ध्यान करेंगे तो मोक्ष होगा ना? नहीं होता है । क्यों नहीं होता है कि जैसा ध्यान पहले ऊँचे संहनन वालों के होता था शुक्ल ध्यान, वैसा ध्यान अब नहीं होता है । यहाँ तो पूजा कर रहे होंगे और इतने में आकर कोई खबर दे कि तुम कल दुकान का ताला उल्टा लगा आए, साँकर खाली रह गई । तो उस पूजा को छोड़कर ही तुरंत चल देंगे, यदि दुकान से तीव्र राग होगा तो । कहाँ है संहनन, कहीं है वह विचार, कहाँ है वह दृढ़ता? जैसा ध्यान पहले के जीवों को होता था वैसा अब नहीं है । शुक्लध्यान तो होता ही नहीं है आज के समय में, पर धर्मध्यान तो होता है । धर्मध्यान तो चोखा हो सकता है ना? उस धर्मध्यान में प्रवृत्ति लगे, जिससे निकटकाल में मोक्षपद प्राप्त हो सकता है । सो जिस कारण से परमात्मतत्त्व का ध्यान करने से अंतर्मुहूर्त में ही मोक्ष प्राप्त कर लिया जाता है इसी कारण से संसार की स्थिति के छेदने के लिये इस समय भी उस शुद्ध ज्ञानस्वरूप का ध्यान करना चाहिये ।
अब यह कहते हैं कि जिस पुरुष की वीतरागतामय शुद्ध परिणामों की भावना नहीं है अथवा रागरहित मन नहीं है और मन में शुद्ध आत्मा की भावना नहीं है तो उसका शास्त्र, पुराण, तपस्या क्या भला कर सकते हैं?