वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 105
From जैनकोष
नातिव्याप्तिश्च तयो: प्रमत्तयोगैककारणविरोधात् ।
अपि कर्मानुग्रहणे नीरागाणामविद्यमानत्वत् ।।105꠰।
प्रमत्तयोग से चोरी को हिंसा कहने में अतिव्याप्तिदोष का अभाव―वीतराग पुरुषों के एक प्रमाद योगरूप कारण नहीं रहना, इसलिए उनमें चोरी का दोष नहीं है । यहाँ एक प्रश्न और उठा कि बिना दी हुई चीज को स्वीकार कर लेना सो चोरी है या नहीं? तो वीतराग पुरुष श्रेणी में रहने वाले या मुनिजन या 11वें 12वें गुणस्थान वाले वीतराग उनके जो कर्म आते रहते हैं, शरीर वर्गणायें आती रहती हैं, अरहंत भगवंत के भी कर्म का आस्रव है वह शरीर में आता है और निकल जाता है, लेकिन जी आया है, जो ग्रहण में हुआ है वह भी तो होता है तो क्या वह चोरी है? उतर देते हैं कि इसे भी चोरी न कहो क्योंकि उन वीतराग पुरुषों के कषाय नहीं है । वह तो कोई निमित्तनैमित्तिक संबंध हे उससे ये योग परिणाम होते हैं और कर्म आते हैं, वे कर्म दूसरे के स्वीकार किए बिना होते, उन पर किसी का अधिकार नहीं है । मालिक की मंशा बिना उसकी इच्छा बिना चीज हर ले तो चोरी है । कोई यों भी कहने लगे कि डाकू लोग तो बिना दी हुई चीज नहीं लेते हैं । वे तो गृहस्थ से कहते कि यह ताला अपने हाथ से खोलो, धन अपने हाथ से दो । तो डाकू लोग तो धन दूसरे के हाथ से ही लेते हैं तो क्या वह चोरी नहीं है? अरे वह गृहस्थ अपने हाथों वह धन जरूर देता है पर अपनी मंशा से नहीं देता है, चूंकि प्राण हरे जाने का डर है इसलिए देना पड़ता है । वे डाकू लोग गृहस्थ को मारते पीटते भी हैं तो यह कितनी बड़ी भारी-हिंसा है? तो कषाय से चोरी करे तो उसका नाम चोरी है, पर वीतराग पुरुष बिना किसी के दिए हुए कर्मों को प्रहण कर रहे तो उसमें चोरी का दोष नहीं है ।