वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 108
From जैनकोष
हिंस्यंते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् ।
बहवो जीवा योनौ हिंस्यंते मैथुने तद्वत् ।।108।।
कुशील में द्रव्यहिंसा होने का विवरण―जैसे तिलोंकी नली में तप्त लोहा डालने से तिल नष्ट हो जाते हैं इसी प्रकार मैथुन करने से योनि में भी बहुत से जो संमूर्छन जीव हैं वे सब मर जाते हैं । अब्रह्म में आत्मा की तो हिंसा है ही क्योंकि उसमें बहुत से जीवों का प्राणघात भी है इसलिये द्रव्यहिंसा भी उसमें बहुत है । अब्रह्म में आत्मा की सुध नहीं रहती, क्योंकि वह ऐसा बाह्य सन्मुखी कार्य है कि इतनी तीव्र आसक्ति उस कामसेवन में रहती है कि बाह्य चीजें ही उसके चित्त में बसी रहती हैं । दूसरे का शरीर, दूसरे का रूप, इस कारण से उसमें भावप्राण का बहुत ज्यादा भाग है और भी देखिये जैसे ब्रह्मचर्य का अर्थ है आत्मा में रमण करना तो हिंसा आदि के जो 5 पाप हैं उन 5 पापों के करने से ब्रह्मचर्य का घात है, आत्मा का रमण नहीं है । हिंसा करते समय भी आत्मा में नहीं रम रहा, झूठ बोलते समय चोरी करते समय, परिग्रह के समय, व्यभिचार के समय आत्मा में नहीं रम रहा तो सभी में ब्रह्मचर्य का घात है । लेकिन ब्रह्मचर्य के घात का नाम चौथा पाप जो । रखा गया है यह क्यों रखा गया? पांचों पापों में ब्रह्मचर्य का घात है । आत्मा में रमण न हो सके सो ही व्यभिचार है, पाँचों पापों में व्यभिचार है पर प्रसिद्धि कुशील की हैं । शेष चार की अपेक्षा कुशील में बड़ी बेसुधी रहनी है आत्मा की ओर से, इस कारण इसको अब्रह्मचर्य कहा गया है ।