वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 109
From जैनकोष
यदपि क्रियते र्किंचिन्मदनोद्रेकादनंगरमणादि ।
तत्रापि भवति हिंसा रागाद्यत्पत्तितंत्रत्वाद ।।109।।
अनंगरमणादि रूप कुशील में भी हिंसा―यहां कोई कुतर्क करे कि कोई स्त्री सेवन तो करे नहीं और उपायों से अपने कामसेवन की प्रवृति करे तो उसे कुशील पाप नहीं लगता है क्या? उसके उत्तर में इस गाथा में बताया है कि कामवासना के आवेश में आकर जो कुछ अनंगरमण आदिक काम किये जाते हैं, उनमें भी रागादिक की तीव्रता तो है ही, इस कारण से हिंसा ही तो है । रागादिक भाव तीव्रता न हो तो काम पीड़ा होना असंभव है और जहाँ रागादिक अधिक है वहाँ ही हिंसा है । तो अनंग क्रीड़ा से हिंसा ही है क्योंकि इनमें रागादिक भावीक तीव्रता रहती है । कामसेवन का अभिप्राय ही चित्त में आये उससे ही महाहिंसा हो जाती है क्योंकि रागादिक भाव उसमें अति तीव्र होते हैं । इसका नाम मनोज कहा गया है । इस कामवासना से शरीर की कोई वेदना नहीं रहती । जैसे कि भूख प्यास वगैरह की वेदनाएं होती हैं उस तरह की यह कामवासना की वेदना नहीं हैं । मन में एक इस प्रकार का जहाँ राग भाव उठा कि ऐसी तीव्र वेदना हो जाती है, जिससे वह बेसुध हो जाता है । तो मन की तीव्र आसक्ति वहाँ काम कर रही है । इससे इस कुशील में महापाप है ।