वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 110
From जैनकोष
ये निजकलत्रमात्रं परिहतुं शक्नुवंति न हि मोहात् ।
निःशेषशेषयोषिन्निषेवणं तैरपि न कार्यम् ।।110।।
ब्रह्मचर्याणुव्रत का निर्देश―आत्मकल्पना के अर्थी को चाहिये तो यह कि सर्वप्रकार के अब्रह्म का त्याग करे । स्त्री मात्र का परिहार करे । लेकिन जो पुरुष मोह के कारण सर्व स्त्रियों का परिहार न कर सके अर्थात् अपनी विवाहित स्त्री को छोड़ने में असमर्थ है तो उसे भी यह चाहिये कि अपनी स्त्री के अतिरिक्त शेष समस्त परस्त्रियों के सेवन का परिहार करे । ब्रह्मचर्य व्रत दो प्रकार से है―एक ब्रह्मचर्य अणुव्रत और एक ब्रह्मचर्य महाव्रत । ब्रह्मचर्य महाव्रत में तो समस्त स्त्रियों के संसर्ग का त्याग बताया है और ब्रह्मचर्य अणुव्रत में धर्मानुकूल विवाहित अपनी स्त्री को छोड़कर शेष समस्त स्त्रियों के प्रसंग का त्याग करना, सो ब्रह्मचर्य अणुव्रत है । तो जो पुरुष ब्रह्मचर्य अणुव्रत नहीं पाल सकता अर्थात् सर्वथा कुशील का परित्याग नहीं कर सकता वह सद᳭गृहस्थ रहे श्रावक रहे । अपनी स्त्री के सिवाय शेष समस्त स्त्रियों को मां बहिन की तरह दृष्टि रखे और उनके प्रति अपने भाव खोटे न करे । इस तरह ब्रह्मचर्य बत को मूल पद्धति के अनुसार बताया कि जो लोग ब्रह्मचर्य नहीं पालते वे अपनी हिंसा कर रहे हैं वीतराग सर्वज्ञदेव की अरह निर्दोष और, सर्वज्ञता की सामर्थ्य रखने वाले अपने कारण समयसार की हिंसा कर रहे हैं और आकुल व्याकुल होते हैं, इस कारण इसमें भी हिंसा का पाप है ।