वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 122
From जैनकोष
निर्बाधं संसिद्धयेत्कार्यविशेषो हि कारणविशेषात् ।
औधस्य खंडयोरिह माधुर्यप्रीतिभेद इव ।।122।।
कारणविशेष से कार्य में विशेषता की संसिद्धि―यह बात निर्बाध तथ्य है कि कारण अगर विशेष हो तो वहाँ कार्य विशेष होता है, जैसे दो भोजन रखे हैं, मान लो एक सीधी सूखी रोटी रखी है और एक मीठा रखा है तो मीठा खाने में तीव्र रुचि होगी । इसी प्रकार जी हिंसक लोग हिंसा करते हैं तो उनको आसक्ति ज्यादा करनी पड़ती है तब हिंसा होती है तो जो कारण का भेद है उससे भी कार्य में भेद पड़ता है । इसी प्रकार परिग्रह की बात है । कोई बहुत बढ़िया कपड़े पहिने ऊंची कीमत के तो उनमें प्रीति अधिक रहती है ꠰ जैसे कोई कीमती जूते पहिने हैं तो मंदिर के नीचे उन जूतों को उतार देने पर उसका कुछ न कुछ ध्यान तो उन जूतों पर ही बना रहता है, और जो साधारण जूते पहिने है वह मंदिर में जहाँ चाहे बड़े आराम से रहता है, ऐसे हो कीमती वस्त्र पहिनने पर उससे अधिक प्रीति होने के कारण उसकी बड़ी संभाल करनी पड़ती है और कोई साधारण वस्त्र पहिने है तो जहाँ चाहे निश्चिंत होकर प्रेम से बैठ जाता है । तो ऐसे ही कोई मुनि बढ़िया चमकीला कमंडल रखे तो उसमें उस मुनि के कुछ न कुछ प्रीति का परिणाम आ जायेगा, वह उसे प्रीतिपूर्वक रखेगा और जिस मुनि ने यों ही साधारण सा कमंडल रखा है वह उसमें विशेष प्रीति नहीं रखता है तो जहाँ कारण विशेष हो वहाँ उस प्रकार का कार्य विशेष रहता है ।