वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 165
From जैनकोष
ऐहिकफलानपेक्षा क्षांतिर्निष्कपटतानसूयत्वम् ।
अविषादित्वमुदित्वे निरहंकारित्वमिति हि दातृगुणा: ।।165꠰꠰
दातार के सप्त गुण―इसमें दातार के 7 गुण बताये गए हैं-―पहिला है इस लोक के फल की वांछा न करना । जैसे दान देकर यह भाव हो कि हमारे संपदा बढ़े, खूब घर का काम चले या अन्य कुछ प्रयोजन सोचना तो ऐसा प्रयोजन सोचने में दोष है । वह गुणवान दान नहीं है, उस दान का प्रभाव नहीं लगता । दूसरा है क्षमा । क्षमाशील होना चाहिए दातार, क्योंकि विशिष्ट क्षमाशील श्रावक ही सविधि साधुपरमेष्ठी को आहारदान कर सकता है । क्षमाशील पुरुष द्वारा विधिपूर्वक दान देने की संभावना हो सकती है । जिसके जरासी बात में क्रोध सा आ जाये तो वह दान क्या दे सकता है? दूसरा गुण दातार में क्षमा का होना है । कोई बात अपने प्रतिकूल समझ लें साधुवों को आहार देते समय या कुछ अपने को थोड़ा बहुत अरुचिकर जंचे मन बिगाड़ ले तो वह दान नहीं दे सकता । तीसरा गुण होना चाहिए निष्कपटता । सरलता से आहार दे । आहार दान देते समय क्या कपट हो सकते हैं । कोई होते होंगे ꠰ मन में प्रसन्नता न हो दान देने वाले को और ऊपर से मुखमुद्रा खुशी की बनाये, हम बड़े खुश होकर आहार दान दे रहे हैं तो ऐसे कुछ कपट होते होंगे । अथवा आहार की चीजों के देते समय कोई कपट भाव होता होगा । यह भी कपट संभव है । यह तो कपट बहुत ही बुरा है कि आहार की वस्तु शुद्ध न हो, योग्य न हो और शुद्ध कह कर दे दे यह तो बहुत कपट की बात है । तो तीसरा गुण होना चाहिए दाता में निष्कपट का ꠰ चौथा गुण है ईर्ष्यारहितपना । अमुक पड़ौसी ने इतने बार आहार दिया मैं इससे अधिक दूं, इससे पहिले दूं ये सब ईर्ष्याभाव है । यह ईर्ष्याभाव भी आहारदाता श्रावक में न होना चाहिए ꠰ ईर्ष्या से दिए हुए दान में दान का परिणाम नहीं बनता । 5वां गुण है अखिन्न भाव । खेदखिन्न न हो । उतना ही दान करना उतनी ही चीजें रखना, उतना ही बनाना जितने में खेद उत्पन्न न हो । अब आ गए हैं, कौन करने वाला है, अपन सबको ही तो करना है ऐसा कोई खेद भाव न आये तो उसका दान दान है । वैसा करे कोई तो करें, मगर उसमें दान की महत्ता नहीं हो सकती । छठा गुण होना चाहिए हर्षभाव का । दान देते हुए में हर्ष हो । अब देखिये चीजें की चीज दे रहे, कष्ट भी सह रहे और हर्ष न हो तो चीज से भी लूटें और परिणाम पापमय ही रहे । उसके दोनों काम बिगड़ गए ꠰ तो दान में हर्षभाव होना चाहिए ꠰ जिस साधु को आहार दान दे रहे हैं उसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक᳭चारित्र गुणों का विचार करके, उनकी वैराग्य भावना का ध्यान करके कि यह संसार से विरक्त है और एक अपने आत्मध्यान की साधना में ही लगे रहते हैं ये सब बातें जब श्रावक को रुचती हैं साधु से तो वह बहुत हर्षित हो जाता है । 7वां गुण होना चाहिए निरभिमानता ꠰ घमंड न होना चाहिए । दान देते समय श्रावक को घमंड हो सकता है अन्य श्रावकों पर दृष्टि देकर घमंड दूसरे पर दृष्टि डालकर ही हुआ करता है । तो अन्य श्रावक जनों को दिखाने के लिए अपना बड़प्पन बताना, अपनी मान्यता साबित करना ये सब अभिमान हो सकते हैं । तो अभिमान भी न होना चाहिये । कदाचित् साधुवों को भी निगाह में रखकर कर सकता है गृहस्थी, हम साधुवों की ऐसी सेवा करते हैं और हम इन्हें पालते हैं, हम इन्हें लिये जा रहे हैं, हम इनका प्रबंध कर रहे हैं । तो उन साधुवों के प्रति निगाह रखकर एक अहंकार रूप परिणाम कर सकते हैं, पर यह अभिमान अच्छा नहीं है । निरभिमान होकर दान करना चाहिए । ये 7 गुण दातार के हैं जिनके कारण दान में विशेषता होती है ।