वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 40
From जैनकोष
हिंसातोऽनृतवचनास्तेयादव्रह्मत: परिग्रहत: ।
कार्यैकदेशविरतेश्चारित्रं जायेते द्विविधम् ।।40।।
चारित्र को निष्पत्ति का विधान―चारित्र कैसे उत्पन्न होता है, किसका नाम चारित्र है? हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह―इन 5 पापों से विरत होने का नाम चारित्र है । जिसमें पापरहित चैतन्यस्वभाव मात्र आत्मतत्त्व की श्रद्धा जगी है वह तो अपने इस स्वरूप में ही लीन होने का यत्न करेगा तो 5 पापों से जब विरक्ति होती है तो शुद्धोपयोग में रुचि होती है और वह चारित्र है, और वह चारित्र दो तरह का है―एक साधुओं का चारित्र और एक गृहस्थों का चारित्र । देखिये धर्म मार्ग वर्तमान में दो हैं―साधुमार्ग और गृहस्थमार्ग । न्याय से गृहस्थधर्म का कोई पालन करे तो समझो कि वह बहुत-बहुत अपना कर्तव्य निभा रहा है । गृहस्थ धर्म भी कोई साधारण धर्म नहीं है, इसमें भी दम है पर न्याय नीति का व्यवहार रहे तब । तो अन्यायरूप प्रवृत्ति न होने से गृहस्थधर्म भी चारित्र है । अर्थात् यह चारित्र दो प्रकार का हो गया । 5 पापों का सर्वथा त्याग करना यह तो है सकल चारित्र और 5 पापों को एक देशविरत होना वह एक देश है फिर भी बहु देश है क्योंकि संकल्पी हिंसा का जहाँ त्याग हो चुका है तो परिणामों में क्रूरता न बसने के कारण वह चारित्र ही है । भले ही अणुव्रत रूप प्रवृत्ति है तो भी उसमें 5 पापों से विरक्तता है । क्रोध, मान, माया, लोभ में मंदता है । तो गृहस्थधर्म भी एक चरित्र है, पर उसे निभाया जाये दृढ़ श्रद्धानपूर्वक । चारित्र दो प्रकार का है एक तो पापों का स्थूल से त्याग करना । और दूसरा सर्वथा पापों से विरक्त होना याने सूक्ष्म भी पाप न कर सके, यों तो चारित्र दो प्रकार का कहा गया । हिंसा आदिक के पूर्ण त्याग को सकल चारित्र कहते हैं और इन 5 पापों के एक देश त्याग को विकल चारित्र कहते हैं । कुछ अपने आत्मा को जाने, उसका उपयोग बनाएं और उस ही रूप हम अपने को निरखते रहें यही मोक्ष मार्ग है और इससे ही हमारे संसार के संकट दूर होते हैं ।