वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 42
From जैनकोष
आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् ।
अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।।42।।
पंचपापों में हिंसारूपता―आत्मा के शुद्धोपयोगरूप परिणामों के घात होने के हेतु से यह सब कुछ हिंसा ही है याने हिंसा झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह यह कहने को तो 5 हैं मगर इन सबका काम क्या है? आत्मा में ना । इसलिये ये सब हिंसा है । हिंसा तो हिंसा ही है । झूठ, चौरी, कुशील और परिग्रह भी हिंसा हैं ꠰ फिर ये जो भेद किये गये हैं चार और झूठ चोरी कुशील परिग्रह ये शिष्यों को समझाने के लिए उदाहरणरूप कहे गए हैं । किसी का दिल दुखाना उसमें हिंसा है, किसी की निंदा करना उसमें हिंसा है, किसी की चीज चुराना, कुशील होना तथा परिग्रह होना इनमें हिंसा है । हिंसा है सो ही अधर्म है और अहिंसा है सो ही धर्म है । ये सब हिंसा क्यों कहलाते कि इन सभी पापों से आत्मा के शुद्ध परिणामों का घात होता है । आत्मा का शुद्ध परिणाम है ज्ञाताद्रष्टा रहना, विशुद्ध ज्ञानरूप रहना, सो नहीं रह पाता है इन 5 प्रकार के पापों के कारण । सो ये पांचों पाप हिंसा ही हैं । तो हिंसा वास्तव में जीव अपनी ही कर सकता है दूसरे की नहीं, क्योंकि प्रत्येक जीव जो कुछ परिणमन कर सकता अपना ही कर सकता । तो वास्तविक मायने में जहाँ किसी दूसरे का दिल दु:खाया वहाँ अपनी हिंसा की, इसी प्रकार झूठ बोलने में तथा चोरी आदि करने में अपने स्वभाव के विरुद्ध जो प्रवृत्ति हुई यह सब हिंसा है, ये तो पांचों पाप ही हिंसा हैं, केवल समझाने के लिए बताये हैं ꠰