वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 63
From जैनकोष
रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् ।
मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायेतेऽवश्यम् ꠰꠰63।।
मद्यपान में हिंसा की अवश्यंभाविता―मदिरा जीवों के घात से पैदा होती है और मदिरा में और जीव भी उत्पन्न होते रहते हैं इस कारण जो मदिरा का सेवन करते हैं उनको अवश्य उन जीवों की हिंसा का दोष आता है । मदिरा में निरंतर जीव पैदा होते रहते हैं क्योंकि मदिरा चीजों को सड़ाकर बनायी जाती है और उसमें जीव निरंतर होते हैं तो उसका पान करने में जीवों की भी हिंसा हो जाती है । तो जो अहिंसावृत्ति चाहते हैं उन्हें मदिरा न पीना चाहिये । हिंसा और अहिंसा का इतना मर्म है कि प्रकट जागरूक रहे और अपना आत्मा अपनी दृष्टि में रहे तो उनकी अहिंसा है और अपने आत्मा की सुध न रहे, बाहर के किसी काम को करने का संकल्प भी करे तो उसमें हिंसा है । परपदार्थों में रागद्वेष मोह हो तो हिंसा है और अपने आपके शुद्धस्वरूप की दृष्टि होना सो अहिंसा है । हिंसा और अहिंसा का स्पष्ट अर्थ यह है । जो मदिरापान करते हैं उनके चित्त की शुद्धि कहां से हो और जिनके चित्त में शुद्धि नहीं वे अहिंसाधर्म नहीं पाल सकते । अत: अहिंसाव्रत के पालने वालों को मदिरा का पान अवश्य छोड़ देना चाहिए ।