वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 95
From जैनकोष
गर्हितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् ।
सामान्येन त्रेधा मतमिदमनृतं तुरीयं तु ꠰꠰95꠰꠰
चतुर्थ असत्य वचन―जो वचन निद्य हो, पाप से भरा हुआ हो दूसरे को अप्रिय लगे वह वचन भी असत्य माना गया है क्योंकि सत्य वचन बोलने का उद्देश्य यह है कि अपने आत्मा का और दूसरे आत्मा का उपकार हो । पर इन तीन प्रकार के वचनों में न तो खुद का उपकार है और न पराये का उपकार है, बल्कि अपकार है । इस कारण ये गर्हित सावद्य और अप्रिय वचन भी असत्य वचन जानना चाहिये । अब इनका स्वरूप अलगअलग बता रहे हैं ताकि विशेष भान हो कि ऐसे वचन हम लोगों को बोलना न चाहिये ।