वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 1
From जैनकोष
णमिऊण जिणवरिंदे णरसुरभवणिंदवंदिए सिद्धे ।
वोच्छामि भावपाहुडमसेसे संजदे सिरसा ।।1।।
(1) ग्रंथकार श्री कुंदकुंदाचार्य द्वारा जिनवरेंद्र को नमस्करण एवं भावपाहुड़रचना का संकल्प-―इस ग्रंथ के प्रणेता कुंदकुंदाचार्य भावपाहुड़ ग्रंथ के प्रारंभ में मंगलाचरण और अपना संकल्प बताते हैं । मनुष्य देव भवनवासी आदिक एकशत सभी इंद्रों के द्वारा वंदनीक जिनेंद्रदेव को नमस्कार करके मैं इस भावपाहुड़ ग्रंथ को कहूंगा । यह प्रथम नमस्कार जिनेंद्र देव को किया है, और कहते हैं कि सभी प्राणी, संज्ञी पंचेंद्रिय देवादिक जो जाननहार हैं उन सबके द्वारा वंदनीय सिद्ध भगवंत को नमस्कार करके भावपाहुड़ ग्रंथ कहेंगे । तीसरी वंदना में कहते हैं कि शेष बचे हुए संयमी जीव उनको सिर झुकाकर प्रणाम करके भावपाहुड़ ग्रंथ को कहेंगे । इस प्रकार संयतजन संबोधक इस भावपाहुड़ ग्रंथ के प्रारंभ में आचार्य ने अरहंत सिद्ध और संयत तीन की वंदना की है । अरहंत में अरहंत परमेष्ठी हैं, सिद्ध में सिद्ध परमेष्ठी हैं और संयत में आचार्य उपाध्याय और साधु, ये तीन परमेष्ठी आ गए । इस प्रकार पंच परमेष्ठियों को इसमें नमस्कार किया है ꠰ भाव की साधना करके प्रभु अरहंत बने हैं इसलिए भाव पाहुड़ में भावों की विशेषतायें बतायी जायेंगी । वे सब भाव पूर्ण हुए हैं, विकसित हुए हैं अरहंत प्रभु के, इसलिए अरहंत को नमस्कार किया है और सिद्ध प्रभु अरहंत के बाद और निर्मलता को प्राप्त हुए हैं ।
यहाँं भावों की निर्मलता का अंतर नहीं है, किंतु अघातिया कर्म और उनका निमित्त पाकर शरीरादिक का संबंध जो कुछ भी द्रव्यकर्म और नोकर्म से रह रहा था उससे भी रहित हो गए । यह आत्यंतिक विकास इस भावपाहुड़ का लक्ष्य है सो सिद्ध को नमस्कार किया है और भावपाहुड़ में बताये हुए प्रकरण का सीधा संयमी से है, आचार्य, उपाध्याय और साधुवों की ही सब बात इसमें बतायी जायेगी कि वे किस भाव की साधना करें, और अपने भाव विकसित करें, उनकी बहिरंग प्रक्रिया और अंतरंग प्रक्रिया सभी कुछ बतायी जायेगी तो भावपाहुड़ के वाच्य से संयमी जनों का संबंध अधिक है, सो संयमी जनों को नमस्कार किया है । इस प्रकार पंच परमेष्ठियों की वंदना करके भावपाहुड़ ग्रंथ को कहेंगे, ऐसा आचार्य कुंदकुंददेव अपना संकल्प कर रहे हैं ।