वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 104
From जैनकोष
जं किंचिं कयं दोसं मणवयकाएहिं असुहभावेणं ।
तं गरहि गुरुसयासे गारव मायं च मोत्तूण ।।104।।
(392) अशुद्धभावविहित दोषों को मान माया तजकर गुरु से निवेदन करने का कर्तव्य―हे मुने ! अशुद्ध भाव से मन, वचन, काय के द्वारा कदाचित् कोई दोष किया गया हो तो घमंड और कपट छोड़कर गुरु के समक्ष अपने आपके दोष की गर्हा करें । अपने दोष अपने मुख से प्रकट करना बहुत बड़े साहस का काम है । इस जीव को यह डर बहुत रहता है कि कहीं कोई मुझको तुच्छ हीन आचार वाला न समझ ले । हीन आचरण करते हुए ही यह भाव रखते हैं कि मुझे कोई हीन आचरण करने वाला न समझ ले । उच्च आचरण करने वाले को यह विकल्प नहीं रहता, फिर जिन्होंने इस समस्त संसार को माया समझा है और इससे अपना रंच भी संबंध नहीं है, ऐसा जिनका पूर्ण निर्णय है वे अपनी रक्षा के लिए अपने दोषों को अपने मुख से कहने में रंच भी संकोच नहीं करते, क्योंकि वे जानते हैं कि दोष किये जायें, छिपाये जायें, उन्हें प्रकट न करे तो एक दोष करने की आदतसी बन जाती है और फिर मुझे तो चाहिए संसार-संकटों से मुक्ति, आत्मा के सहज सत्य स्वरूप का विकास । इतने बड़े वैभव के पाने के समक्ष दोष प्रकाशन यह कुछ महत्त्व नहीं रखता ऐसा लोकदृष्टि में कि जिसे छिपाया जाये । तो हे मुने ! तू साधु हैं, साधना करने वाला है, दोष कदाचित् लगते रहते हैं, पर किसी प्रकार का दोष लगा हो तो उस दोष को अपने गुरु के समक्ष अभिमान और कपट छोड़कर प्रकट करें । दोष छिपाने के दो कारण होते हैं । मुख्य कारण है अभिमान । जिसके अभिमान है वह इस माया पर अपने दोष मुख से प्रकट नहीं कर सकता । दूसरा कोई ऐसा समझकर कि दोष तो कुछ बताना ही चाहिए तब वे दोष दूर होंगे अन्यथा उनके जबरदस्त पाप लगा रहेगा । दोष बढ़ते रहेंगे तो इस लोभ से भी कुछ दोष कहना भी चाहिए, किंतु अंतरंग की कषाय नहीं छूटी, वह हीन आचरण वाला अपने को हीन सिद्ध नहीं करना चाहता, इसलिए वह कुछ कपट से बोलता है । कुछ दोष छिपा लेता है और कुछ दूसरे ढंग से कहता है । वचनों की कला नाना तरह की होती है । किंतु हे मुनि तू किसी प्रकार का कपट न करके और रंच भी अभिमान न रखकर तू यथार्थ जैसा का तैसा दोष प्रकट कर दे ।
(393) बालकवत् सरलता से आलोचना करने का प्रभाव―सरलता से तथ्य कह देना यह गुण बच्चों में पाया जाता है, उनसे कोई दोष हो गया हो तो पंच बैठे हों वहाँ भी अपने दोष कहने में उन्हें कुछ संकोच नहीं होता । उन्हें कुछ पता ही नहीं है कि ऐसा कठिन दोष होता है जो छुपाने लायक है । यह बात बच्चों के हृदय में नहीं होती है ꠰ बच्चे तो बिल्कुल सीधे सरल होते हैं । एक ऐसी घटना है कि एक बाबू साहब किसी सेठ के कर्जदार थे । एक दिन बाबू साहब ने अपने घर की खिड़की से देखा कि वह सेठ तकादा करने के लिए आ रहा है, वह कुछ तंग करेगा सो उसने अपने बच्चे से कह दिया कि बेटा, तुम बाहर चबूतरे पर खड़े हो जावो । देखो वह सेठ आ रहा है । वह अगर हमको पूछे तो कह देना कि बाबू जी घर में नहीं हैं । ठीक है । जब वह सेठ द्वार पर आया और उस बच्चे से पूछा कि क्या बाबू जी घर पर है तो वह बच्चा बोला―नहीं, बाबू जी घर पर नहीं है । कहां गए? तो वह बच्चा बोला―अच्छा ठहरो, यह भी बाबू जी से पूछकर बतायेंगे । तो बच्चे कुछ छुपाना नहीं जानते । बड़े सरल हृदय होते हैं । तो हे मुने उन बच्चों की तरह सरल हृदय रखकर तू अपने दोषों को ज्यों का त्यों निकाल दे, अपने गुरुवों के प्रति आदर की बुद्धि कर ।
(394) गुरुप्रदत्त प्रायश्चित्त को निःशंक पालने का प्रभाव―गुरुजन तुझे जो प्रायश्चित्त बताये उसे आदर से, उमंग से कर और यह दृढ़ श्रद्धान रख कि गुरु के बताये हुए मार्ग पर चलने से फिर कभी दोष नहीं आया करते । सो यहाँ मुनि जनों को अपने किए हुए दोषों की आलोचना करने का उपदेश किया है । दोष हुआ करते हैं अशुभ भाव से । अशुभभाव मायने रागद्वेष मोह आदि विकार । काम, क्रोध, मान, माया, लोभ अदिक किसी भी विकार से प्रेरित होकर इस जीव से दोष हुआ करते हैं, और उन दोषों के होने में मन, वचन, काय इन तीन योगों का संबंध रहता है ।
(395) मन वचन काय कृत समस्त दोषों की आलोचनादि से शुद्धि―कुछ दोष ऐसे होते हैं जो मन से किए जा रहे हों, कुछ दोष वचन बोलकर किए जाते हैं । कुछ दोष शरीर से ही किए जाते हैं । इन दोषों में बड़ा अंतर है, तारतम्य है फिर भी यह कौन निर्णय कर सकेगा किसी दोष के प्रति कि मन से किए गए दोष छोटे हैं या बड़े? या शरीर से किए गए दोष छोटे हैं या बड़े हैं? अनेक उत्तर आयेंगे और उसका कारण है कि जीव के अभिप्राय नाना तरह के हुआ करते हैं । मन से कोई पाप की बात विचारो और उसको न वचन से बोला, न उस दोष को शरीर से किया, वह दोष छोटा माना जा सकता है शरीर से दोष करे उसकी अपेक्षा । तो शरीर से दोष बन जाये यह बड़ा दोष है और मनमें विचार मात्र आया वह कम दोष हैं, ऐसा क्यों? कि मन में विचार आया तो वह थोड़ा आया । अगर अधिक आता तो वह काय से चेष्टा जरूर कर डालता । तो जब काय से दोष किया है तो वह इस बात का अनुमान करता है कि बहुत बड़ा दोष बना है । अच्छा, एक घटना और लीजिए एक मनुष्य से काय से दोष बन जाता है, पर उसका मन नहीं है जरा भी दोष करने का, ऐसी भी स्थितियां होती हैं । किसी के ऐसा कठिन आग्रह होता है कि वह काय से दोष बन जाता है मगर मन उससे विरक्त रहता है । तो अब यह निर्णय दीजिए कि काय से किया हुआ दोष बड़ा है या मन से किया हुआ दोष बड़ा है? वहाँ कायकृत दोष बड़ा नहीं रह पाता । मन से विचारा तो दोष बड़ा है । तो यों अनेक ढंगों से 108 तरह के पाप कहे गए वे दोष बनते हैं, उन दोषों की विशुद्धि के लिए हे मुने ! तू गुरु के समीप दोषों की यथार्थ आलोचना कर ।